इतनी सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों की भीड़भाड़ के बावजूद तन्त्र का वह कैसा कागजी पराक्रम है, जो जमीन पर राहत के फूल खिलाने के बजाय, मुसीबतों के काँटे उगाने लगता है। किसान आखिर ऐसी आत्महन्ता मानसिकता में क्यों पहुँच गया कि रैली में भी और चुपचाप अकेले घर में, बाग में, सिवान में फन्दे पर झूल जाने जैसा कदम उठा ले रहा है। दरअसल, यह न केवल किसानों की परीक्षा का दौर है, बल्कि उनके साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर सत्ता व सियासत के खड़े होने का भी समय है...दिल्ली में गजेन्द्र की आत्महत्या केवल एक किसान की नहीं, बल्कि संवेदनाओं की मौत है। सियासत के चौतरफा धरम धक्के में देश का किसान क्या खुद को अकेला पा रहा है? आखिर रैली में आई हजारों की भीड़ के बीच एक अकेले किसान ने खुद को पेड़ पर लटका लिया और दुनिया तमाशा देखती रह गई। यह उस किसान के तन्हा हो जाने की दास्तान है, जो देश के लोगों का पेट भर रहा है।
दरअसल, देश में जिस तरह के हालात पैदा हो गए हैं, उसमें बेचारा किसान अकेला ही हो गया है। सियासत के रंगमंच पर सब किसानों के लिए लड़ने की मुद्रा में हैं, सबके अपने-अपने तर्क और तेवर हैं, ललकार और फटकार है, मन की बात भी है, फिर भी किसानों की तन्हाई दूर होती नहीं दिख रही है। वह अपनी विपदा और दुख में खुद को अकेला महसूस कर रहा है। परिवार पालने की चिन्ता का बवण्डर उसके दिमाग में उथल-पुथल मचाए हुए है। किसान टूटा हुआ है, लेकिन राजनीति चल रही है। सभी दल किसानों के लिए लड़ रहे हैं, वे भी जो सत्ता में हैं और वे भी जो सत्ता से बाहर हैं। बस सब लड़े ही जा रहे हैं, लेकिन जिसके लिए लड़ रहे हैं, वह इस लड़ाई से कोई इत्तेफाक रखता भी है या नहीं, इसकी चिन्ता किसको है?
किसान पर केवल आपदा की मार ही नहीं पड़ी है, बल्कि उसके गले में सियासत और लाल फीताशाही की रस्सी भी कसी हुई है। किसानों के लिए तमाम योजनाएँ-परियोजनाएँ संचालित हो रही हैं, कई तरह के कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, इसके बावजूद देश का किसान ऐसे बियावान में खड़ा है, जहाँ उसके दुखों के अन्त होने का न कोई ओर है और न ही कोई छोर। घाटे की खेती, खाद-बीज की महंगाई और कालाबाजारी, मण्डी से लेकर बाजार तक कदम-कदम पर ठोकर ही ठोकर।
इतनी सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों की भीड़भाड़ के बावजूद तन्त्र का वह कैसा कागजी पराक्रम है, जो जमीन पर राहत के फूल खिलाने के बजाय, मुसीबतों के काँटे उगाने लगता है। किसान आखिर ऐसी आत्महन्ता मानसिकता में क्यों पहुँच गया कि रैली में भी और चुपचाप अकेले घर में, बाग में, सिवान में फन्दे पर झूल जाने जैसा कदम उठा ले रहा है। दरअसल, यह न केवल किसानों की परीक्षा का दौर है, बल्कि उनके साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर सत्ता व सियासत के खड़े होने का भी समय है। किसान को यह विश्वास दिलाए जाने का वक्त है कि वह अकेला नहीं है, बल्कि सत्ता-सियासत के साथ-साथ पूरा देश उसके पास खड़ा है। यह मौका संवेदनशील होकर सोचने का है।
सारे दल अपने-अपने सियासी दांव छोड़कर सच्चे मन और खुले दिल से किसानों का साथ दें। किसानों के कन्धे पर हाथ रखकर सम्बल दें कि सरकार और तमाम विपक्षी पार्टियाँ उनके साथ खड़ी हैं। नीति और नीयत एक हो और उससे भी ज्यादा किसानों के भरोसा करने लायक हो। किसान इस कदर टूटा हुआ है कि देश के दिल दिल्ली में ही भरी भीड़ के बीच उसने अपनी धड़कन को बन्द करने का फैसला ले लिया। दिल्ली के मुख्यमन्त्री अरविन्द केजरीवाल की रैली के दौरान हुई इस अभूतपूर्व घटना ने न केवल सियासी सच्चाई को सबके सामने उजागर किया है, बल्कि इसके पीछे छिपे उस अन्धियारे को भी सबके सामने ला दिया है, जिसमें सबके चेहरे मिट जाते हैं या एक जैसे दिखाई पड़ते हैं।
दरअसल, देश में जिस तरह के हालात पैदा हो गए हैं, उसमें बेचारा किसान अकेला ही हो गया है। सियासत के रंगमंच पर सब किसानों के लिए लड़ने की मुद्रा में हैं, सबके अपने-अपने तर्क और तेवर हैं, ललकार और फटकार है, मन की बात भी है, फिर भी किसानों की तन्हाई दूर होती नहीं दिख रही है। वह अपनी विपदा और दुख में खुद को अकेला महसूस कर रहा है। परिवार पालने की चिन्ता का बवण्डर उसके दिमाग में उथल-पुथल मचाए हुए है। किसान टूटा हुआ है, लेकिन राजनीति चल रही है। सभी दल किसानों के लिए लड़ रहे हैं, वे भी जो सत्ता में हैं और वे भी जो सत्ता से बाहर हैं। बस सब लड़े ही जा रहे हैं, लेकिन जिसके लिए लड़ रहे हैं, वह इस लड़ाई से कोई इत्तेफाक रखता भी है या नहीं, इसकी चिन्ता किसको है?
किसान पर केवल आपदा की मार ही नहीं पड़ी है, बल्कि उसके गले में सियासत और लाल फीताशाही की रस्सी भी कसी हुई है। किसानों के लिए तमाम योजनाएँ-परियोजनाएँ संचालित हो रही हैं, कई तरह के कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, इसके बावजूद देश का किसान ऐसे बियावान में खड़ा है, जहाँ उसके दुखों के अन्त होने का न कोई ओर है और न ही कोई छोर। घाटे की खेती, खाद-बीज की महंगाई और कालाबाजारी, मण्डी से लेकर बाजार तक कदम-कदम पर ठोकर ही ठोकर।
इतनी सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों की भीड़भाड़ के बावजूद तन्त्र का वह कैसा कागजी पराक्रम है, जो जमीन पर राहत के फूल खिलाने के बजाय, मुसीबतों के काँटे उगाने लगता है। किसान आखिर ऐसी आत्महन्ता मानसिकता में क्यों पहुँच गया कि रैली में भी और चुपचाप अकेले घर में, बाग में, सिवान में फन्दे पर झूल जाने जैसा कदम उठा ले रहा है। दरअसल, यह न केवल किसानों की परीक्षा का दौर है, बल्कि उनके साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर सत्ता व सियासत के खड़े होने का भी समय है। किसान को यह विश्वास दिलाए जाने का वक्त है कि वह अकेला नहीं है, बल्कि सत्ता-सियासत के साथ-साथ पूरा देश उसके पास खड़ा है। यह मौका संवेदनशील होकर सोचने का है।
सारे दल अपने-अपने सियासी दांव छोड़कर सच्चे मन और खुले दिल से किसानों का साथ दें। किसानों के कन्धे पर हाथ रखकर सम्बल दें कि सरकार और तमाम विपक्षी पार्टियाँ उनके साथ खड़ी हैं। नीति और नीयत एक हो और उससे भी ज्यादा किसानों के भरोसा करने लायक हो। किसान इस कदर टूटा हुआ है कि देश के दिल दिल्ली में ही भरी भीड़ के बीच उसने अपनी धड़कन को बन्द करने का फैसला ले लिया। दिल्ली के मुख्यमन्त्री अरविन्द केजरीवाल की रैली के दौरान हुई इस अभूतपूर्व घटना ने न केवल सियासी सच्चाई को सबके सामने उजागर किया है, बल्कि इसके पीछे छिपे उस अन्धियारे को भी सबके सामने ला दिया है, जिसमें सबके चेहरे मिट जाते हैं या एक जैसे दिखाई पड़ते हैं।
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Post By: birendrakrgupta