किसान आन्दोलन और राजनीति

Farmers' protest
Farmers' protest

भावनात्मक राजनीति में किसान शब्द का बहुत उपयोग हुआ है, जैसे देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की राजनीति की सफल शुरुआत 1920 में उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में उनके द्वारा आयोजित किसान मार्च से मानी जाती है। हो सकता है कि विद्वानों को इस पर आपत्ति हो लेकिन फिर भी यह किसान मार्च नेहरू के राजनैतिक कैरियर के लिये मील का पत्थर ही साबित हुआ

किसान आन्दोलन और किसान राजनीति भारत में कभी भी स्थायी भाव या दीर्घ राजनीति का विषय नहीं बना है, या जानबूझकर बनाया नहीं गया है। लेकिन भावनात्मक राजनीति में किसान शब्द का बहुत उपयोग हुआ है, जैसे देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की राजनीति की सफल शुरुआत 1920 में उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में उनके द्वारा आयोजित किसान मार्च से मानी जाती है। हो सकता है कि विद्वानों को इस पर आपत्ति हो, लेकिन फिर भी यह किसान मार्च नेहरू के राजनैतिक कैरियर के लिये मील का पत्थर ही साबित हुआ। इसके बावजूद नेहरू हमेशा औद्योगिक, वैज्ञानिक और वैश्विक राजनीति के लिये काम करते ही नजर आये। उनके समर्थक और विरोधी भी उनकी औद्योगिकीकरण की नीति के ही आसपास घूमते रहते हैं।

नेहरू के बाद आये शास्त्री जी से लोगों को उम्मीदें तो थीं, लेकिन सिवाय ‘जय जवान, जय किसान’ नारे यानी भावनात्मक अपीलों के वे भी कुछ और खास कर नहीं पाये या करने का उनके पास शायद समय नहीं था। तो इसी तरह से देश के हर प्रधानमंत्री से घूमते हुए हम वर्तमान प्रधानमंत्री तक आ जाते हैं, लेकिन सिवाय भावनात्मक मुद्दों के कुछ मिलता नहीं दिखता है। किसानों की आय दोगुनी होने या बढ़ाने की वायदे तो हो रहे हैं, लेकिन जिस अस्थिरता के साथ लागतों का उतार-चढ़ाव होता है, उससे आय की वृद्धि कैसे कितनी होगी इसका स्पष्ट खाका कभी बनता नहीं दिखता है।

वैसे, किसान की पहचान को अगर हम देखें तो पाएँगे इसमें सवर्ण से लेते हुए पिछड़ों की विशाल संख्या के साथ ही दलित मानी जाने वाली जातियों की भी अच्छी उपस्थिति है, साथ ही मुस्लिम, सिख यानी दूसरे समुदायों का प्रतिनिधित्व भी अच्छा है यानी किसान एक तरह से अपने आप में जाति, धर्म और भाषा जैसे भेद को पीछे छोड़ते हुए एक सम्पूर्ण पहचान रखने का माद्दा रखता है। लेकिन फिर भी आज तक किसान पहचान की राजनीति कभी दूसरे पायदान तक भी पहुँचती नहीं दिखी है।

खेती में नई बात

ये तो हो गई पुरानी बातें। अब नई बात करते हैं। अभी इसी गाँधी जयन्ती के दिन किसानों की एक यात्रा दिल्ली पहुँचने को थी। ये किसान दिल्ली किसी शहर के नाते नहीं, बल्कि देश की राजधानी होने के नाते पहुँच रहे थे, जिससे सत्ता पर दबाव बनाएँ और कृषि की विसंगतियों को दूर कराया जाये। इनमें तमाम बाजारों और कम्पनियों पर बकाया पैसे मिलने का दबाव, फसल की कीमत लागत के हिसाब से तय की जाये और कृषि लागतों में कमी करने के साथ ही बेहतर संसाधन मुहैया कराए जाने की माँग थी यानी किसानों की माँगें वही रही हैं, जो हमेशा चली आ रही हैं। लेकिन इन पर हो कुछ नहीं रहा है। मसलन, उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों का बकाया बसपा, सपा और अब भाजपा की सरकार में भी वैसे का वैसा है।

तो जब किसानों की समस्याओं के लिये किसी भी राजनैतिक दल से कोई समर्थन वास्तविक रूप यानी नीतिगत रूप से नहीं दिखता है, तब ऐसे में किसानों या यों कहें कृषि से जुड़ी विशाल आबादी के अन्दर एक छटपटाहट तो होती है। दूसरी बात आज सूचना क्रान्ति और पूँजी के प्रवाह ने जानकारी और आवागमन को इतना आसान कर दिया है कि किसान आसानी के साथ एक दूसरे संवाद स्थापित कर ले रहे हैं। और किसान नाम की पहचान पर इकट्ठा खड़े हो रहे हैं। यह तो अच्छा शगुन है क्योंकि तमाम वाद की राजनीति से किसान वाद की राजनीति अधिक भली होगी। लेकिन कुछ लोगों का यह भी आरोप है कि यह किसान आन्दोलन या जैसे अभी दिल्ली में जो यात्रा निकाली गई वह जाति विशेष या खासतौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में राजनीति के पुराने सूरमाओं के उकसाने पर हुई। भारतीय किसान यूनियन के टिकैत परिवार की अगली पीढ़ी की स्थापना चौधरी, महेंद्र टिकैत के स्थान पर करने की कोशिश भर है। लेकिन ऐसा कुछ दिखता तो नहीं है। मसलन, अभी कुछ महीने पहले दिल्ली में तमिलनाडु से आये किसानों ने प्रदर्शन किये उसके बाद कर्नाटक और तेलंगाना के किसानों का विरोध प्रदर्शन राष्ट्र के पटल पर आया था।

हाँ, यह हो सकता है कि पश्चिमी यूपी और हरियाणा दिल्ली से अपनी सीमा साझा करते हैं, तो इनके हमेशा दिल्ली पहुँचने के कारण या बाजार में आसानी से पहुँच के कारण थोड़े रईस दिखते किसानों को देखकर यह आरोप लगा दिये गए हैं। जाहिर है कि मेरठ, गाजियाबाद का किसान जितना जल्दी दिल्ली पहुँचेगा उतनी जल्दी तमिलनाडु या फिर छत्तीसगढ़ वाला नहीं पहुँचेगा। फिर भी अगर किसानों को कोई राजनैतिक ट्रेनिंग दे रहा है और इस राजनीति पर इकट्ठा कर रहा तो इसे खराब कैसे माना जा सकता है, बढ़िया ही है।

किसान और राजनैतिक एकता

वैसे भी अगर किसान की पहचान पर यह राजनैतिक एकता सम्भव हुई तो किसान राजनीति वर्तमान पूरी राजनैतिक व्यवस्था से अलग बनेगी क्योंकि किसान विशुद्ध आर्थिक और सामाजिक चिन्तन है। इसे ऐसे देखिए कि भारत की विशाल आबादी के पास काम नहीं है और भारत में सबसे अधिक प्रसार वाला कोई उद्यम अगर है, तो कृषि ही है। कृषि यानी किसानी को लाभप्रद बनाते ही तीन सबसे बड़ी समस्याएँ सुलझ जाएँगी। पहली, गाँव में ही लोगों को काम मिलने लगेगा; दूसरी, काम मिलने के साथ अपने इलाके को छोड़कर जाना यानी विस्थापन या पलायन बन्द होगा क्योंकि पलायन का सबसे बड़ा कारण काम की तलाश ही होता है और इसी के साथ तीसरी समस्या यानी शहरों पर दबाव कम हो जाएगा। तो किसान और कृषि को लाभ में लाते ही देश की विषम समस्या का समाधान मिलना शुरू हो जाएगा। किसान की पुनर्स्थापना के साथ आयात-निर्यात के सन्तुलन पर जोर दिया जा सकता है।

आखिर, हम अफ्रीका से दाल और फिजी से चीनी क्यों मँगा रहे हैं? दर पर नियंत्रण पाने के लिये कृषि लागतों को घटाने की जरूरत है न कि विदेश से आयात करने की। हम एक लोकतांत्रिक देश हैं, वालमार्ट नहीं हैं। हमने कृषि को हमेशा महान बनाकर रख दिया है बनिस्पत इसके प्रति व्यावहारिक होने के। एक तरफ कर्जमाफी की जाती है जबकि बैंक से फसल ऋण न तो किसान हमेशा से लेता रहा है, और न ही यह उसकी मुख्य समस्या है। उसकी समस्या में सस्ती बिजली, सस्ती मजदूरी हो सकती है, जिसे सुलझाने के बजाय सरकार मनरेगा जैसी योजनाओं से गाँवों के श्रम तंत्र को नष्ट किये दे रही है। कई लोगों को समझने में दिक्कत तो होगी, लेकिन एक तो ग्रामीण इलाकों से शहरों में उच्च सुविधा और अधिक मजदूरी के लालच के चलते दशकों से हुए पलायन ने खेती-किसानी के काम को दोयम बना दिया है। और हाल तो यह है कि एक राज्य का मजदूर ठेके पर दूसरे राज्य में जाकर खेती का ही काम करता है, लेकिन अपने इलाके में नहीं करेगा। श्रम की इस अव्यवस्था ने कई ठेकेदार परजीवी भी पैदा कर दिये हैं।

तो कुल मिलाकर किसान पहचान पर अगर राजनीति चल निकले तो अगला एक दशक में सिर्फ इसी विषय पर बात होगी और चूँकि यह राजनीति बिना किसी भेदकारी पहचान के होने जा रही है, तो इसका स्वागत होना चाहिए। किसान राजनीति हमेशा देश के मूल ढाँचे को सुधारेगी।

लेखक, टिप्पणीकार हैं।
 

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