किस भारत का निर्माण

आजाद भारत में भी धन के विदेश जाने का क्रम और महंगी का रोग बना रहा है। भारत में एक ओर संपत्ति और दूसरी ओर गरीबी की कथा अब भी दोहराई जा रही है।

भारत निर्माण’ की योजना चलाने वालों द्वारा हर वक्त कहा जा रहा है कि देश की आर्थिक विकास दर ठीक-ठाक है। केंद्र सरकार की नजर में विकास की गति तेज है। राज्य सरकारें भी अपने-अपने राज्य में ऐसा ही दावा कर रही हैं। बोलते हैं उत्पादन बढ़ा है, संपत्ति बढ़ी है। कृषि, उद्योग, व्यापार, परिवहन, शिक्षा, संचार, ज्ञान-विज्ञान- सभी क्षेत्रों में तरक्की हुई है। राष्ट्र की प्रतिष्ठा और पूछ दुनिया में बढ़ी है। वे कहते हैं, सरहद से सरहद तक सड़कें बना रहे हैं, शहर बसा रहे हैं, भंडार अन्न से भरे हैं, बाजार माल से पटे हैं। खरीददार भी खूब हैं। अरबपतियों की कौन कहे, खरबपतियों की संख्या दुनिया में नाम कमा रही है।

भारत के डॉक्टर, इंजीनियर, तकनीशियन, वैज्ञानिक, प्रोफेसर, व्यापारी दुनिया में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे हैं। वे सभी ये सूचनाएं बिल्कुल सही-सही दे रहे हैं। दरअसल, उनका कहना यह है कि इक्कीसवीं सदी में ‘भारत निर्माण’ को जल्दी-जल्दी पूरा करने के लिए वर्तमान आर्थिक नीतियों को बेरोक-टोक चलने दिया जाए और इसके मार्ग में कहीं रुकावटें हैं तो उन्हें शीघ्र खत्म किया जाए। पर इस तमाम तरक्की के समांतर तेजी से पसरती विषमता और कंगाली के क्या कारण हैं, इस पर वे हर वक्त नहीं बोलते, कभी कुछ बोलते भी हैं तो सही नहीं बोलते।

भारत की आबादी में व्याप्त कंगाली बताती है कि आर्थिक विकास की प्रक्रिया पटरी पर नहीं है। भारत में एक ओर धन-संपत्ति और और दूसरी ओर गरीबी की कथा शताब्दियों से पुरानी है। कभी इस देश को सोने की चिड़िया कहा गया। तत्कालीन सम्राटों और सेठों की संपत्ति, राजकीय शक्ति और दरबारी शान-शौकत, सोने-चांदी-माल से लदे व्यापारी कारवां, ऊर्वर भूमि, सदानीरा नदियां, फलों से लदे बाग, हाथियों से भरे जंगल, उन्नत भाल हिमालय, तीनों बाजू सागर, ज्ञानियों के आश्रम और उनके पांडित्य और कारीगरों की कला देख कर अगर किसी ने भारत को सोने की चिड़िया कहा था तो ठीक ही कहा था।

लेकिन भारत के उस ‘स्वर्ण युग’ को देखने वालों ने तब यहां दीन-दशा में खटने और जीने-मरने वालों का समाज भी देखा था। एक ही साथ ये दोनों स्थितियां हमारे इतिहास द्वारा प्रमाणित हैं। इसीलिए स्वतंत्रता आंदोलन का सपना नए भारत के निर्माण का था। अगर विकास की नीतियां इस दिशा के विपरीत हैं तो निश्चय ही सत्ता पर हावी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक शक्तियां आजाद भारत के संविधान द्वारा प्रदत्त लोकतंत्र को धोखा दे रही हैं।

विकास की वर्तमान चमक-दमक के बरक्स आम जन पर निगाह डालें तो हालत निराशाजनक ही कही जाएगी। आबादी की दृष्टि से गरीबी की तस्वीर गुलाम भारत से भिन्न नहीं है। 1933 में औषधि विभाग के निदेशक सर जॉन मैगो ने लोगों के स्वास्थ्य के बारे में एक रिपोर्ट दी थी, जिसमें बताया था कि ‘‘हिंदुस्तान में उनतालीस फीसद लोग अच्छी खुराक पाते हैं, इकतालीस फीसद लोग मामूली खुराक पाते हैं और बीस फीसद लोग ठीक खुराक पाते ही नहीं...समूचे हिंदुस्तान में बीमारियों के बीज बोए जा रहे हैं और निश्चित और तीव्र वेग से रोग फैल रहे हैं।’’

सन 1943 में स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ ऐकरायड ने अन्न संबंधी समिति की रिपोर्ट में कहा था कि ‘हिंदुस्तान में हर वक्त एक तिहाई लोग उचित खुराक पाते ही नहीं।’ तब भारत अंग्रेजों का गुलाम था। आज के समय की तस्वीर अर्जुन सेनगुप्त आयोग की रिपोर्ट प्रस्तुत करती है।

आजादी के तुरंत बाद से ही जमीन जोतने वालों की जमीन से बेदखली बढ़ती गई। स्वरोजगार के गैर-कृषि और कारीगरी के पेशे बंद होते गए। जमीन और अन्य पेशों से बेदखली के कारण मजदूर के रूप में कृषि पर निर्भरता ग्रामीण भारत की पहचान बनती गई।

बहुचर्चित अर्जुन सेनगुप्त आयोग ने अपनी रिपोर्ट 2007 में सरकार को सौंपी। यह रिपोर्ट बताती है कि देश की आबादी के बाईस फीसद लोग प्रतिव्यक्ति रोजाना बारह रुपए से कम के उपभोक्ता-खर्च पर गुजारा करते हैं और अन्य उन्नीस फीसद लोग पंद्रह रुपए छह पैसे पर। ये दोनों यानी कुल आबादी के इकतालीस प्रतिशत लोग पंद्रह रुपए से कम पर गुजारा करते हैं। अब यह कोई भी मानने को तैयार होगा कि आबादी के ये इकतालीस प्रतिशत लोग ‘उचित खुराक पाते ही नहीं’।

रिपोर्ट के अनुसार, कुल आबादी में एक अन्य छत्तीस प्रतिशत लोगों की आबादी है जिसका दैनिक प्रतिव्यक्ति उपभोक्ता-खर्च बीस रुपए तीन पैसे है। यह आबादी ‘मामूली खुराक’ पाने वालों की हो सकती है। जाहिर है, आबादी के शेष तेईस प्रतिशत को ही अच्छी खुराक मिल रही होगी। लिहाजा, आहार की उपलब्धता के मामले में 2007 की तस्वीर 1933-43 की तस्वीर से मेल खाती है या उससे भी बदतर है।

अर्जुन सेनगुप्त आयोग का गठन केंद्र सरकार ने ही किया था। सरकार कहे तो उसका स्वास्थ्य विभाग ही बता देगा कि कम खुराकी और बीमारियों के फैलने के बीच क्या रिश्ता है। अर्जुन सेनगुप्त आयोग ने यह भी कहा है कि मौजूदा ‘विकास की प्रक्रिया ने देश की तीन चौथाई आबादी को किनारे कर दिया है।’

आजादी के तुरंत बाद से ही जमीन जोतने वालों की जमीन से बेदखली बढ़ती गई। स्वरोजगार के गैर-कृषि और कारीगरी के पेशे बंद होते गए। जमीन और अन्य पेशों से बेदखली के कारण मजदूर के रूप में कृषि पर निर्भरता ग्रामीण भारत की पहचान बनती गई। 1957 में भारतीय रिजर्व बैंक के एक बुलेटिन में कहा गया था कि पिछले दस वर्षों के अंदर (1947-1957) जमीन से जितनी बेदखलियां हुई हैं, उतनी आजादी से पहले के सौ वर्षों में नहीं हुई थीं। भूमिहीन ग्रामीण आज आबादी के इकतालीस प्रतिशत हैं।

किसानों के संपत्तिहरण की प्रक्रिया तीव्र है। कीमतों के खेल ने कृषि को चौपट कर दिया है। हरित क्रांति से कृषि पैदावार में हुई वृद्धि ने अनाज के व्यापारियों को मालामाल किया है। सरकारें बस कृषि पैदावार की वृद्धि दर देखती रहीं और कृषि-आय की घटती दर को अनदेखी करती रहीं। स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट (2007) बताती है कि ‘इकतालीस प्रतिशत किसान वैकल्पिक रोजगार मिलने पर कृषि छोड़ देना चाहते हैं।’ खेती के घाटे का धंधा बनते जाने का ही नतीजा यह हुआ कि किसानों में आत्महत्या की प्रवृत्ति तेजी से पनपी। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक 1994 से पिछले साल तक यानी सोलह सालों में ढाई लाख से ज्यादा किसानों ने खुदकुशी की है।

गरीबी और बीमारियों के फैलाव ने स्थिति यहां तक ला दी है कि निम्नतम स्तर पर जीवनयापन के लिए देश की एक विशाल आबादी की निर्भरता सरकारी ‘कल्याणकारी’ योजनाओं पर बढ़ती जा रही है। आम आदमी ‘स्वर्ण युग’ के भारत में वर्ण-व्यवस्था की शर्तों पर जीता था, गुलाम भारत में जमींदारों की शर्तों पर, और आज के भारत में कल्याणकारी योजनाओं की शर्तों पर। खैरात पर जीने की मजबूरी पर राजनीतिक समर्थन या वोट की शर्तें हैं। भारतीय संविधान की प्रस्तावना के ‘समाजवादी गणतांत्रिक भारत’ का सपना कहां किनारे लगा है, यह कौन बताए!

सत्तापक्ष और सत्ता की दावेदारी वाले विपक्ष, दोनों ही में वर्तमान आर्थिक नीतियों की पैरोकारी करने वाले ‘थिंक टैंक’ नेताओं की एक ही रट है कि वैकल्पिक आर्थिक नीतियों की बात मत करो। वैकल्पिक कल्याणकारी योजनाओं और बहुत हुआ तो इनके लिए कानून की बात करो। जिस उन्नति की बात की जा रही है, उस मामले में भी देश के कई भाग पीछे हैं। इन पिछड़े भागों में सड़कें, स्वास्थ्य, शिक्षा, सिंचाई की सुविधाएं नगण्य हैं। ये गरीबी से सर्वाधिक पिटे हुए क्षेत्र हैं। ऐसे अधिकतर क्षेत्र आदिवासी बहुल हैं।

जंगल और खदानों के हैं, कारखानों के हैं। ये क्षेत्र दौलत उगलते हैं, लेकिन वह गरीबों के हाथ नहीं लगती। अब बताया जा रहा है कि यहां विकास-कार्य में बाधा माओवादियों से है। यह कौन पूछे कि माओवादियों की जमीन बनने के पूर्व इन क्षेत्रों का विकास क्यों नहीं हुआ था। ये ऐसे इलाके हैं जहां आदिवासी बूढ़ों-बच्चों की मौतें भूख और बीमारी से होती हैं। पुलिस और माओवादी दोनों की बंदूकों से भी होती हैं। यहां शर्तें हैं कि पुलिस की तरफ रहो या माओवादियों की ओर। प्राचीन भारत के एक कालखंड में मैदानी भाग जीतने वाली सामाजिक शक्तियों ने आदिम जातियों को जंगलों और पहाड़ों में खदेड़ दिया था। आज औद्योगिक और शहरी विकास संबंधी ‘सार्वजनिक उद्देश्य’ के नाम पर उन्हें अपना घरबार-स्थान बदलने को कहा जा रहा है। स्वतंत्र भारत की आर्थिक नीतियों की बदौलत उत्पन्न हुए दौलतमंद घराने भी यही मांग कर रहे हैं। यह मांग उन कंपनियों की भी है जो विदेशों से भारत निर्माण के लिए बुलाई जा रही हैं। यह सब भी भारत निर्माण हो सकता है, लेकिन उस ‘नए भारत का निर्माण’ कतई नहीं, जिसका सपना आजादी के आंदोलन के दौरान देखा गया था।

बीपीएल भारत’ का निर्माण अवश्य हो रहा है। आबादी को बीपीएल (गरीबी रेखा से नीचे) और एपीएल (गरीबी रेखा से ऊपर) मान कर गरीबी उन्मूलन की योजनाएं 1973-74 से शुरू हुर्इं। हर पांच-दस वर्ष के अंतराल पर भारत के योजना आयोग द्वारा बताया जाता रहा है कि बीपीएल आबादी फीसद में घट रही है। पिछली बार बताया गया था कि देश भर के हिसाब से यह आबादी प्रारंभ के 56 फीसद से घट कर 26 फीसद पर आ चुकी है। इस बार सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप कर दिया, योजना आयोग को तलब किया और कहा कि गरीबी रेखा की नई आय सीमा तय करो। अब विशेषज्ञ बताने लगे हैं कि बीपीएल आबादी 41 से 56 प्रतिशत के बीच है।

आर्थिक विकास की नीतियों को बदले बिना भारतीय संविधान की परिकल्पना के भारत का निर्माण नहीं किया जा सकता। राष्ट्र का दुख उसकी जनता ही बोलती है। मैथिलीशरण गुप्त ने कहा था: ‘कोई पास न रहने पर भी जन मन मौन नहीं रहता/ आप आप से कहता है वह, आप आप से है सुनता।’

देश के धन की लूट पूर्ववत जारी है, जिसे आज भ्रष्टाचार से जोड़ कर देखा जा रहा है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कहा था: ‘अंग्रेज राज सुख साज सजै सब भारी/ पै धन विदेश चल जात इहै अति ख्वारी/ ताहू पै महंगी काल रोग विस्तारी।’

आजाद भारत में भी धन के विदेश जाने का क्रम और महंगी का रोग बना रहा है। भारत में एक ओर संपत्ति और दूसरी ओर गरीबी की कथा अब भी दोहराई जा रही है।

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