कहर नदियों का

कहर नदियों का नहीं है
यह पसीना है
व्यथित हिमवान का
रो रहा है आज मानव
आसन्न संकट देख कर
क्यों नहीं थे अश्रु दृग में
जब धरा के प्राण
गिरी-वन कट रहे थे
विजयी होने की
असीमित लालसा से
तन नदी के सूखते थे

मनुज जाति ने ही तो
निज दुष्कर्म द्वारा
भाग्य आगत का गढ़ा है
अमर होने की
अदम्य लिप्सा संजो कर
धरा से प्राण वायु को हरा है
सिकुड़े हिमनद
जल स्रोत सूखे
धान की बाली भी सूखी
खेत में श्रम बीजते
कृषक की आस टूटी
क्षत हुआ
विश्वास प्रकृति का

निर्दयी मनुज ही
धरा की मांग
सूनी कर रहा है
आज यदि हम नहीं जागे
रूठती ऋतुएँ रहेंगी
मेघ हरजाई बनेंगे
छटपटाता तृषित जीवन
नीड़ में अकुलायेगा
उजालों का सफर यह
घनघोर तम में
विलुप्त हो जाएगा
स्याह रेखाएं शेष होंगी
सभ्यता का उमगती उमंगों का
नाम ही रह जाएगा !!

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Post By: Shivendra
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