कहीं सूखा कहीं सैलाब, वाह रे आब

देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं जो साफ पेयजल से महरूम हैं कहीं सूखे की वजह से भुखमरी की नौबत है तो कहीं सैलाब से कोहराम मचा है। पानी की कमी नहीं है लेकिन खराब जल प्रबंधन की वजह से मुश्किलें लगातार बढ़ रही हैं। सरकार हवाई योजनाएं बनाकर चुप बैठी है। निरंतर बढ़ते जलसंकट की पड़ताल कर रहे हैं शेखर।

जल-दोहन इसी तरह से जारी रहा तो आने वाले समय में भारत को अनाज और पानी के संकट को झेलने के लिए अभी से तैयार हो जाना चाहिए। जाहिर है कि जब जल संकट बढ़ेगा तो खेती पर इसका गहरा प्रभाव पड़ेगा। अनाजों के उत्पादन में कमी आएगी। इस वजह से अनाज संकट पैदा होगा और भूख का एक नया चेहरा उभरकर सामने आएगा। एक बड़ा तबका जो आज भरपेट भोजन कर पाता है उसके लिए पेट भर खाना मिलना मुश्किल हो जाएगा। भुखमरी की जो समस्या पैदा होगी उससे फिर निपटना आसान नहीं होगा।

क्या धरती पर पानी के बिना जिंदगानी संभव है? अगर नहीं, तो पानी की इतनी बड़ी बर्बादी क्यों हो रही है। भारत में जलसंकट लगातार दस्तक दे रहा है और सरकार की तंद्रा टूट नहीं रही है। भारत में बारिश का अस्सी फीसद पानी बर्बाद हो जाता है। आलम यह है कि कुछ इलाके तो सैलाब से घिरे रहते हैं और कुछ सूखे से। जनजीवन की हानि दोनों ही स्थितियों में होती है। ऐसे में यह सवाल लगातार उठ रहा है कि देश के जल प्रबंधन को लेकर क्या और कैसे किया जाए। फिर देश के कई हिस्सों में सूखे ने किसानों की चिंता बढ़ा दी है। और कई इलाके बाढ़ से तबाह हैं। कई इलाके ऐसे हैं जहां कम बारिश हुई है। इस वजह से वहां खेती बुरी तरह प्रभावित हुई है। 1991 से शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण के बाद भी कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए काफी अहम है। इसलिए कम बारिश और सूखे की स्थिति से आर्थिक मामलों के जानकार भी चिंतित हैं। उन लोगों को भी इस बात का जवाब नहीं सूझ रहा कि आखिर ऐसे में कृषि क्षेत्र के लिए चार फीसद विकास दर कैसे हासिल की जाएगी।

इसके बावजूद सरकारी स्तर पर यह बयान लगातार आ रहा है कि खेती की हालत ठीक है और किसानों की भी। कहने की जरूरत नहीं कि अगर बारिश कम होती है और इस वजह से अनाज के उत्पादन में कमी आती है तो न सिर्फ किसान तबाह होंगे बल्कि इसका खामियाजा पूरे देश को बढ़ती महंगाई के तौर पर भुगतना पड़ेगा। बेलगाम महंगाई के लिए भी कई लोग कृषि क्षेत्र की अनदेखी को जिम्मेदार ठहराते हैं। पर आज खेती को सबसे ज्यादा परेशान करना वाला मसला है सिंचाई। इस समस्या की जड़ में है खराब जल प्रबंधन। भारत के लिए जल प्रबंधन और खासतौर पर इसलिए भी जरूरी है कि यहां सबसे ज्यादा पानी सिंचाई के काम में ही खर्च होता है। अब सिंचाई पर खर्च होने वाले पानी में तो कटौती की नहीं जा सकती क्योंकि यह सीधे तौर पर खाद्यान्न सुरक्षा, अर्थव्यवस्था और गरीबी उन्मूलन से जुड़ा हुआ है। जल प्रबंधन के बारे में नीतियों का निर्धारण करने वाले लंबे-चौड़े बयान जरूर दे रहे हैं लेकिन बुनियादी सवालों की चर्चा करने से हर कोई कतरा रहा है। आखिर क्यों नहीं सोचा जा रहा है कि यह समस्या क्यों पैदा हुई? इस बात पर क्यों नहीं विचार किया जा रहा है कि इस तरह की समस्या का समाना करने के लिए सही रणनीति क्या होने चाहिए? और इसके लिए क्या तैयारी होनी चाहिए? जल प्रबंधन के मसले पर कहीं से कोई आवाज नहीं आ रही है।

बाढ़ से त्रस्त लोगबाढ़ से त्रस्त लोगएक आवाज आई भी है तो वह अपने देश से नहीं बल्कि सात समंदर पार अमेरिका से। जी हां, समस्याएं भारत की होती हैं लेकिन उस पर शोध करने और उसके अध्ययन करने का काम भी अपने मुल्क में ठीक से नहीं होता बल्कि इस काम को भी ‘नासा’ जैसे किसी संस्था को अंजाम देना पड़ता है। ‘नासा’ की एक रिपोर्ट पानी को लेकर देश भर में बरती जा रही लापरवाही के प्रति आंखें खोलने वाली है। जल प्रबंधन की दिशा में इस रिपोर्ट से सबक लेकर आगे बढ़ा जा सकता है और कई हिस्सों में व्याप्त जल संकट को दूर किया जा सकता है।

‘नासा’ की इस रिपोर्ट में भारत में सूखे की स्थिति पैदा होने के लिए जिम्मेदार कारणों में से एक अहम कारण अंधाधुंध जल दोहन को बताया गया है। रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत के कई राज्य क्षमता से ज्यादा जल दोहन कर रहे हैं। क्षमता से तात्पर्य यह है कि उनसे जितने सालाना जल दोहन की अपेक्षा रखी जाती है, वे उससे कहीं ज्यादा जल दोहन कर रहे हैं। यह अध्ययन 2002 से 2008 के बीच की स्थितियों के आधार पर किया है। रिपोर्ट के मुताबिक पंजाब, हरियाणा और राजस्थान हर साल औसतन 17.7 अरब क्यूबिक मीटर पानी जमीन के अंदर से निकल रहे हैं।

जबकि केंद्र की तरफ से लगाए गए अनुमान के मुताबिक इन्हें हर साल 13.2 अरब क्यूबिक मीटर पानी ही जमीन के अंदर से निकालना था। इस तरह से देखा जाए तो ये तीन राज्य मिलकर क्षमता से 30 फीसद ज्यादा पानी का दोहन कर रहे हैं। जाहिर है कि बिना कुछ सोचे-विचारे जब इस पैमाने पर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया जाएगा तो प्रकृति भी बदला लेगी और वही हो रहा है। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि का महज 58 फीसद भूजल हर साल रिचार्ज हो पाता है। अंधाधुंध जल दोहन की वजह से पूरे उत्तर पश्चिमी भारत के भूजल स्तर में हर साल 4 सेंटीमीटर यानी 1.6 इंच की कमी आ रही है। देश के उत्तर पश्चिम क्षेत्र में 2002 से 2008 के दौरान तकरीबन 109 क्यूबिक किलोमीटर पानी की कमी हुई है। यह मात्रा कितनी अधिक है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यह अमेरिका के सबसे बड़े जलाशय लेक-मीड की क्षमता के दुगने से भी कहीं ज्यादा है।

अंधाधुंध जल-दोहन और इससे भूजल स्तर में आ रही गिरावट के बड़े भयानक परिणाम होंगे, यह बात भी रिपोर्ट कह रही है। जल-दोहन इसी तरह से जारी रहा तो आने वाले समय में भारत को अनाज और पानी के संकट को झेलने के लिए अभी से तैयार हो जाना चाहिए। जाहिर है कि जब जल संकट बढ़ेगा तो खेती पर इसका गहरा प्रभाव पड़ेगा। अनाजों के उत्पादन में कमी आएगी। इस वजह से अनाज संकट पैदा होगा और भूख का एक नया चेहरा उभरकर सामने आएगा। एक बड़ा तबका जो आज भरपेट भोजन कर पाता है उसके लिए पेट भर खाना मिलना मुश्किल हो जाएगा। भुखमरी की जो समस्या पैदा होगी उससे फिर निपटना आसान नहीं होगा।

इसके अलावा पीने के पानी का टोटा तो होगा ही। अभी ही देश के कई हिस्से ऐसे हैं जहां के लोगों को पीने के लिए साफ पानी नहीं मिल पा रहा है। कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां गर्मी के दिनों में हैंडपंप से पानी आना बंद हो जाता है। वहां के लोगों को हर साल बोरिंग को कुछ फुट बढ़वाना होता है। यह समस्या भूजल स्तर के गिरते जाने की वजह से ही पैदा हुई है। जब पीने के पानी का संकट पैदा होगा तो बोतलबंद पानी का कारोबार काफी तेजी से बढ़ेगा। कहने का मतलब यह कि जिसके पास पैसा होगा, वह अपनी प्यास बुझा सकेगा और जिसके पास पैसा नहीं होगा उसे अपनी प्यास बुझाने के लिए भी संघर्ष करना पड़ेगा। स्थिति की भयावहता की कल्पना ही सिहरन पैदा करती है।

अगर खराब मॉनसून की वजह से इस साल बारिश में हुई कमी को छोड़ दें तो भारत में कुल वार्षिक बारिश औसतन 1,170 मिमी होती है। अगर जल की इस विशाल मात्रा का आधा इस्तेमाल भी लिया जाए तो स्थिति में व्यापक बदलाव आना तय है। बारिश के पानी का संग्रह करके उसे उपयोग में लाना एक अच्छा विकल्प है। लेकिन भारत में बारिश के पानी का अस्सी फीसद हिस्सा समुद्र में पहुंच जाता है।

दरअसल, इस पूरी समस्या की जड़ में जल का सही प्रबंधन नहीं होना है। जब तक जल प्रबंधन की सही नीति नहीं बनाई जाएगी और उस पर उतनी ही तत्परता से अमल नहीं किया जाएगा तब तक इस समस्या का समाधान तो होने से रहा। देश हर दिन इस संकट से घिरता जा रहा है। लेकिन सत्ताधिशों की चुप्पी कई सवाल खड़े करती है। जल को लेकर एक खास तरह की उदासीनता का भाव सिर्फ सरकारी स्तर पर ही नहीं है बल्कि समाज में भी खास तरह की उदासीनता दिखती है। यही वजह है कि पानी की समस्या दिनोंदिन गहराती जा रही है। आज हर तरफ आर्थिक प्रगति का दंभ भरा जा रहा है लेकिन दूसरी तरफ आम लोगों के समक्ष बुनियादी सुविधाओं का अभाव गहराता जा रहा है। ऐसा होना, इस व्यवस्था के खोखलेपन का अहसास कराता है।

भारत में दुनिया का हर छठा आदमी रहता है। यानी कहा जाए तो दुनिया के कुल आबादी के तकरीबन सत्रह फीसद लोग भारत में रहते हैं। जबकि दुनिया का महज साढ़े चार फीसद पानी ही भारत में उपलब्ध हैं। ऐसे में जल समस्या से दो-चार होना कोई अनापेक्षित बात नहीं है। एक बात तो तय है कि प्राकृतिक संसाधनों में इजाफा तो नहीं किया जा सकता है। लेकिन इसका संरक्षण अवश्य किया जा सकता है।

इसके लिए सबसे पहले जल वितरण की व्यवस्था को दुरुस्त करने की दरकार है। भारत में लोग किसी एक माध्यम से पेयजल प्राप्त करने पर निर्भर नहीं हैं। इस देश में 35.7 फीसद लोग हैंडपंप से, 36.7 फीसद नल से, 18.2 फीसद तालाब, पोखर या झील से, 5.6 फीसद कुओं से, 1.2 फीसद लोग पारंपरिक साधनों से और 2.6 फीसद लोग अन्य माध्यमों से पीने का पानी प्राप्त करते हैं। इस लिहाज से अगर देखा जाए तो जल संकट को दूर करने के लिए समग्र कार्ययोजना की जरूरत है।

भारत में जल संरक्षण के प्रति आज भी आम लोगों के मन में उपेक्षा का भाव बना हुआ है। साथ ही इस कार्य के लिए आवश्यक तकनीक की भी कमी है। जो तकनीक उपलब्ध हैं उनसे सामान्य लोग अनजान हैं। बारिश के पानी का संग्रह करके उसे उपयोग में लाना एक अच्छा विकल्प है लेकिन भारत में बारिश के पानी का अस्सी फीसद हिस्सा समुद्र में पहुंच जाता है।

सूखे से त्रस्त लोगसूखे से त्रस्त लोगअगर खराब मॉनसून की वजह से इस साल बारिश में हुई कमी को छोड़ दें तो भारत में कुल वार्षिक बारिश औसतन 1,170 मिमी होती है। अगर जल की इस विशाल मात्रा का आधा इस्तेमाल भी लिया जाए तो स्थिति में व्यापक बदलाव आना तय है। शहरी क्षेत्रों में तो पानी की कालाबाजारी जोरों पर हैं। जगह-जगह पर जल माफिया सक्रिय हो गए हैं। हाल ही में यह मामला उजागर हुआ है कि दिल्ली में समानांतर जल बोर्ड भी चलाया जा रहा है। हैरानी की बात तो यह है कि इसके बावजूद पानी के काले धंधे पर अंकुश नहीं लगाया जा सका है। अहम सवाल यह है कि कैसे सामान्य तबके के लोगों तक स्वच्छ पानी पहुँचाया जाए? शहरी क्षेत्रों के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों में भी यह एक बड़ी चुनौती है।

आज यह समझने की जरूरत है कि जल संकट एक ऐसी समस्या है जो पूरी दुनिया में गहराती जा रही है। एस ऐसे वक्त में जब भारत दुनिया में खुद को एक बड़ी आर्थिक ताकत के तौर पर स्थापित की कोशिश में है तो इसके लिए यह जरूरी है कि बड़ी आर्थिक ताकतों ने इस संकट से निपटने में जिस तरह की तत्परता दिखाई उस तरह की तत्परता भारत भी दिखाए। दुनिया के कई देशों में आज जल प्रबंधन पर खास जोर दिया जा रहा है। इसके लिए कई योजनाएं बनाई जा रही है और इससे भी आगे बढ़कर इन योजनाओं पर अमल किया जा रहा है।

कहने को तो भारत में भी जल प्रबंधन की खातिर कई योजनाएं बन रही हैं लेकिन क्रियान्वयन के मामले में अब तक सरकारी मशीनरी ढीलाढाला रवैया अपनाए हुए हैं। भारत के लिए तो सबसे अच्छी बात यह है कि देश के कई हिस्सों में छोटे-छोटे स्तर पर लोग खुद ही जल प्रबंधन की दिशा में कोशिश कर रहे हैं। राजस्थान के कई हिस्सों में ऐसे सफल प्रयोग किए गए हैं। आज जरूरत इस बात की है कि इन सफल प्रयोगों से प्रेरणा लेते हुए ऐसे प्रयोग व्यापक स्तर पर किए जाएं ताकि जलसंकट के समाधान की दिशा में मजबूती से कदम आगे बढ़ सके।

घट रही है उपलब्धता


देश के बीस करोड़ लोगों को पीने का स्वच्छ पानी नहीं मिल पाना चिंताजनक है। आजादी के वक्त भारत में पांच हजार क्यूबिक मीटर पानी प्रतिव्यक्ति प्रतिवर्ष उपलब्ध था। यह अब घटकर 1800 क्यूबिक मीटर प्रतिव्यक्ति प्रतिवर्ष हो चुका है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि अगर पानी की खपत और बर्बादी इसी तरह से जारी रही तो 2025 तक यह घटकर हजार क्यूबिक मीटर प्रतिव्यक्ति प्रतिवर्ष ही रह जाएगा। उस समय तक पानी की उपलब्धता में आने वाली इस कमी की वजह से कृषि उत्पादन में तीस फीसद की कमी आने की संभावना है। इन परिस्थितियों में देश की आर्थिक और सामाजिक स्थिति का क्या होगा, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।

दरअसल, भारत में गहराते जल संकट के लिए काफी हद तक पानी की बर्बादी जिम्मेवार है। यहां जल आपूर्ति की व्यवस्था में काफी खामियां हैं। नलों के जरिए घरों तक पहुँचने वाले पानी का एक बडा़ हिस्सा रिसकर बर्बाद हो जाता है। हर शहर में फूटे हुए जलापूर्ति करने वाले पाइप आसानी से देखे जा सकते हैं। इस बदहाल व्यवस्था के लिए सरकार के साथ-साथ सामान्य लोग भी कम जिम्मेदार नही हैं। एक तरफ तो सरकार पेयजल के नाम पर हर साल हजारों करोड़ रुपए का बजट बनाती है और दूसरी तरफ जमीनी स्तर पर हालात में कोई बदलाव नहीं दिखता है। सामाजिक तौर पर भी जल संरक्षण को लेकर जागरूकता का अभाव दिखता है। यह सामाजिक ताने-बाने का ही असर है कि लोग कहीं भी जल की बर्बादी को देखकर उसे सामान्य घटना मानते हुए नजरअंदाज कर देते हैं।

अगर आज हर कोई यह चाहता है कि जल संकट की समस्या से निजात मिले और सही तरीके से जल प्रबंधन का काम आगे बढ़ सके तो इस रवैए को छोड़ना होगा। सिर्फ सरकारी स्तर पर की जाने वाली कोशिशों से ही इस दिशा में सुधार नहीं होगा बल्कि हर किसी को अपने स्तर पर कोई न कोई पहल करनी होगी। सरकार बार-बार विज्ञापन देती है और कहती है कि जल संरक्षण किया जाए लेकिन ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो इसके बावजूद पानी की बर्बादी करते हैं। अगर इस प्रवृत्ति को नहीं बदला गया तो प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता में दिनोंदिन और कमी आएगी और संकट गहराता जाएगा।

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