कहीं बन न जाए राजनीतिक आपदा

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अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने 22 मई 2013 को लैंडसेट-8 उपग्रह के जरिए केदारनाथ क्षेत्र के चित्र लिए। इसमें दिखाई दे रहा था कि केदारनाथ के ऊपर चूराबारी और कंपेनियन ग्लेशियर की कच्ची बर्फ जमने से पहले ही पिघलने लगी है। दूसरा तथ्य है कि अपने मौसम ने 14 जून को ही उत्तराखंड में भारी बारिश की भविष्यवाणी ही नहीं की बल्कि यह सलाह भी दी कि चारधाम यात्रा रोक दी जानी चाहिए। मौसम विभाग की यह चेतावनी राज्य सरकार और एनडीएमए दोनों के पास थी। इसके बावजूद लोगों को केदारनाथ, बदरीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री जाने दिया गया। लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने उत्तराखंड की विजय बहुगुणा सरकार को बर्खास्त करने की मांग की है। उनके इस बयान को आपदा के समय राजनीति करने के रूप में भी देखा जा सकता है। पर राजनीतिक लोग राजनीति करने से कम बाज आते हैं। उत्तराखंड में आई आपदा पर राजनीति तो नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के दौरे से ही शुरू हो गई थी। सुषमा स्वराज ने उस आग में घी डालने का काम किया है। कांग्रेस का पलटवार स्वाभाविक है। यह चुनाव का मौसम है इस समय लाशों की गिनती में राजनेताओं को वोट नजर आते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि समय के मुताबिक किरदार बदलते रहते हैं।

सुषमा स्वराज के बयान से एक बात तो साफ है कि उन्होंने समस्या के सभी पहलुओं का ध्यान से अध्ययन नहीं किया है। उत्तराखंड की मौजूदा आपदा के दो पहलू हैं। एक पहलू है जो इस पहाड़ी राज्य के जल, जमीन, जंगल और पहाड़ के साथ हुआ अत्याचार है। इसका दोष, किसी एक पार्टी के सिर नहीं मढ़ा जा सकता। खासतौर से उत्तराखंड के अलग राज्य बनने के बाद से। पिछले बारह सालों में यही दो पार्टियां इस नए राज्य में सत्ता में रही हैं। इसलिए इस मसले पर दोनों के दामन दागदार हैं। जैसी स्थिति पूरे देश में है उसी तरह उत्तराखंड में भी भूमाफिया की सत्ता राजनीतिक सत्ता बदलने से प्रभावित नहीं होती। भूमाफिया के साथ एक विकास माफिया भी है। जो किसी कीमत पर विकास चाहता है। वह सोने के अंडे के लालच में मुर्गी को हलाल करने की जल्दी में है। ऐसे लोभी हर दौर में पाए जाते हैं। फर्क इतना हुआ की अब के दौर में कोई सरकार इनसे लड़ने की तो छोड़िए बल्कि इनके साथ चलने के लिए आतुर रहती है।

आतुरता अब राजनेताओं की ओर से ज्यादा रहती है। जब एक उद्योग घराना तय करने लगे कि राज्य का मुख्यमंत्री कौन होगा तो हालात का अंदाजा लगाया जा सकता है। इस तरह के भ्रष्टाचार के मुद्दे राजनीतिक दलों में आम सहमति सी बन गई है। मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि विकास के लिए बांध हमारी जरूरत है। उनका यह दावा सही हो सकता है। पर सवाल है कि कितने बांध? उत्तराखंड में जितने बांध बन रहे हैं क्या प्रदेश के पर्यावरण में उतने बांधों का भार उठाने की क्षमता है। इसका फैसला वे करते हैं या करवाते हैं जिनके आर्थिक हित इन परियोजनाओं से जुड़े हैं। प्रकृति स्वभावतः बहुत सहिष्णु होती है। जब लालच को जरूरत के रूप में पेश किया जाता है तो एक सीमा के बाद प्रकृति बदला लेती है। उत्तराखंड में प्रकृति ने इंसान के लालच का बदला लिया है।

उत्तराखंड की आपदा का दूसरा पक्ष जानमाल के नुकसान और उसे बचाने की सरकार की जिम्मेदारी और इस दिशा में उसके प्रयास से जुड़ा है। सवाल है कि क्या उत्तराखंड की विजय बहुगुणा की सरकार लोगों की जान बचा सकती थी। राजनीतिक दलों और नेताओं, खासतौर से कांग्रेस विरोधियों के आरोपों को एक बार अलग रख दें और इस मसले पर गौर करें। देश में दो ऐसी संस्थाएं हैं जिनकी भूमिकाएं बहुत अहम रही हैं। एक है मौसम विभाग और दूसरा नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी (एनडीएमए) यानी राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण पहाड़ी इलाकों के लिए अंग्रेजों के जमाने से एक व्यवस्था बनी हुई है कि मौसम के पूर्वानुमान संबंधी जानकारी जिलाधिकारी और राज्य शासन को भेजी जाती है ताकि समय रहते एहतियाती कदम उठाए जा सकें।

एनडीएमए बनने के बाद से इस तरह की जानकारी इस संस्था को भी भेजी जाती है। इसका अध्यक्ष और कोई नहीं देश का प्रधानमंत्री होता है। अब दो तथ्यों पर गौर कीजिए। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने 22 मई 2013 को लैंडसेट-8 उपग्रह के जरिए केदारनाथ क्षेत्र के चित्र लिए। इसमें दिखाई दे रहा था कि केदारनाथ के ऊपर चूराबारी और कंपेनियन ग्लेशियर की कच्ची बर्फ जमने से पहले ही पिघलने लगी है। दूसरा तथ्य है कि अपने मौसम ने 14 जून को ही उत्तराखंड में भारी बारिश की भविष्यवाणी ही नहीं की बल्कि यह सलाह भी दी कि चारधाम यात्रा रोक दी जानी चाहिए। मौसम विभाग की यह चेतावनी राज्य सरकार और एनडीएमए दोनों के पास थी। इसके बावजूद लोगों को केदारनाथ, बदरीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री जाने दिया गया।

मुख्यमंत्री की यह बात सही है कि प्राकृतिक आपदाएं उत्तराखंड के लिए नई नहीं हैं और इन पर किसी सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। पर लोगों के जानमाल की रक्षा करना निर्वाचित सरकार का पहला दायित्व है। क्या राज्य सरकार अपने इस दायित्व को पूरा करने में कामयाब रही है? इस सवाल से मुख्यमंत्री बच नहीं सकते। मौसम विभाग ने 17 जून को फिर से बहुत भारी बारिश के चेतावनी दी। अब सवाल है कि जून महीने में इतनी भारी बारिश की चेतावनी के बाद राज्य प्रशासन ने कौन से एहतियाती कदम उठाए। एनडीएमए ने क्या किया। क्योंकि सवाल केवल भारी बारिश का ही नहीं था।

जून में अमूमन उत्तराखंड में ऐसी बारिश नहीं होती। प्रशासन और आपदा प्रबंधन से जुड़े लोगों को पता है कि समय से पहले भारी बारिश का सीधा मतलब है कि ग्लेशियर से बर्फ ज्यादा मात्रा में पिघलेगी। इन सूचनाओं के बावजूद सरकार का कामकाज सामान्य ढंग से चलता रहा। यदि चारधाम की यात्रा ही रोक दी गई होती तो बड़ी संख्या में लोगों को मरने और संकट में फंसने से रोका जा सकता था। मामला यहीं तक नहीं रुका। बचाव और राहत के मोर्चे पर सरकार का काम कैसा रहा इसके लिए उनके विरोधियों की बात मत सुनिए। उत्तराखंड में इस आपदा से करीब एक लाख से ज्यादा लोगों को बचाकर सुरक्षित जगहों पर सेना के जवान लाए। इनमें जितने लोगों से मीडिया ने बात की किसी ने राज्य सरकार की प्रशंसा में एक शब्द नहीं कहा। ज्यादातर ने राज्य सरकार की आलोचना ही की। अभी तो फंसे हुए तीर्थयात्रियों और पर्यटकों को बचाने का काम हुआ है।

स्थानीय निवासियों की हालत की तो कोई खैर खबर लेने वाला ही नहीं है। राहत सामग्री देश भर से पहुंच रही है पर उसे जरूरतमंदों तक पहुंचाने की कोई व्यवस्था सरकार की नजर नहीं आती। इसलिए अपने विरोधियों पर राजनीति करने का आरोप लगाने के बजाय सरकार को चाहिए कि इस आपदा के मारे लोगों की मदद करने पर ध्यान दे। क्योंकि अभी तो राजनीतिक दल इस मसले पर राजनीति कर रहे हैं। जब पीड़ित जनता राजनीतिक सवाल उठाने लगेगी तो सरकार और कांग्रेस पार्टी दोनों के लिए मुश्किल होगी। उत्तराखंड से जाने वाला हर व्यक्ति और अपनों को खोने वाले कांग्रेस के विरोधियों का हथियार बन सकते हैं। गवर्नेंस के मुद्दे पर कांग्रेस पहले से ही देश और दुनिया की आलोचना झेल रही है। इसलिए उत्तराखंड की यह प्राकृतिक आपदा कांग्रेस के लिए राजनीतिक आपदा बन सकती है। सुषमा स्वराज और उनकी पार्टी की नजर इसी पर है। क्योंकि यह एक धर्मनिरपेक्ष मुद्दा है।

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