नेहरू जी ने बापू से कहा कि, “आप लोटे से हाथ-मुंह क्यों धो रहे हैं? यहां गंगा-यमुना बहती हैं। बापू ने कहा- कोई अकेले मेरे लिए थोड़े ही बहती है? आज का संकट केवल ‘मेरे लिए’ का संकट है। जिस दिन हम समझ लेंगे कि क्षिति-जल-पावक-गगन-समीरा का वरदान मेरे लिए नहीं, बल्कि सबके लिए है, उसी दिन प्रकृति हमारी मित्र बन जाएगी।”
पिछले एक महीने में उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में कई जगहों पर बादल फटने से कई गांव तबाह हुए हैं। केरल में कुछ जगहों पर तेजाबी वर्षा हुई है। संयुक्त राष्ट्र के क्लाइमेट चेंज पैनल ने कहा है कि वर्ष 2035 तक हिमालय के ग्लेशियर सूख जाएंगे और गंगा-यमुना जैसी नदियों के प्रवाह से भारत वंचित हो जाएगा। उत्तर बिहार में इन दिनों बाढ़ से जहां सैकड़ों गांव जलमग्न हुए हैं, वहीं बुंदेलखंड में सूखे के कारण कई किसानों ने आत्महत्या की है। प्रकृति का प्रकोप यहीं समाप्त नहीं होता। इसके ब्योरे हैं कि हिमालय में हिमपात कम हो रहा है। एवरेस्ट की हिलेरी स्टेप की चट्टानें कम बर्फबारी के कारण नंगी दिखाई देती है। हमारे आसपास भी बहुत सारे बदलाव हुए हैं। घर के आंगन में चहचहाने वाली गौरैया लुप्त होने के कगार पर है। प्रकृति का सफाईकर्मी गिद्ध अब दिखाई नहीं देता। गिद्धों का गायब होना पारसियों के लिए बड़ा संकट है, क्योंकि उनमें शवों को पक्षियों के खाने के लिए खुला छोड़ देने की परंपरा है। पारसियों के अनुरोध पर मुंबई नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी गिद्धों को बचाने का काम कर रही है, लेकिन उसकी कोशिशें परवान नहीं चढ़ रही, क्योंकि हम अपने पशुओं को बीमारी से बचाने के लिए कभी-कभी डाइक्लोफेनिक नामक दवा देते हैं।
यह दवा पशुओं के रक्त-मांस में इतनी घुल-मिल जाती है कि इन मृत पशुओं का मांस खाते ही गिद्ध या तो मर जाते हैं या उनकी प्रजनन क्षमता समाप्त हो जाती है। एक-डेढ़ दशक पहले तक भी शाम होने पर गीदड़ों की आवाज सुनाई देती थी। शाम होते ही कीट-पतंगों का संगीत गूंजने लगता था। बारिश होते ही रामघोड़ी की सेनाएं चल पड़ती थी। तालाबों के किनारे पीले-पीले मेंढक पूरी बारिश टर्राते रहते थे। केचुओं की फौज हमारे घर-आंगन तक पहुंच जाती थी। अब ये सब अतीत की बातें हो गई हैं। हिम तेंदुआ भी अब दिखाई नहीं पड़ता। बुंदेलखंड में पाया जानेवाला शार्दूल अब केवल चंदेल राजाओं द्वारा बनवाए गए मंदिरों और किलों में मिलता है। हमारे वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में 16 प्रतिशत की वृद्धि हो चुकी है, क्योंकि हम पांच टन सीसा और 10 टन पारा प्रति वर्ष वायुमंडल में उड़ेलते हैं। दिल्ली के लोगों के फेफड़ों का रंग काला होता जा रहा है। वायु प्रदूषण के कारण देश में प्रति वर्ष 40,000 मौतें हो रही हैं। मोक्षदायिनी गंगा अपने जल से अब त्वचा कैंसर, ब्लड कैंसर और जिगर का कैंसर दे रही है।
बेतवा का पानी कहीं-कहीं इतना जहरीला है कि उसे पीकर मवेशी बेहोश हो जाते हैं। नैनीताल की नैना झील में पिछले दिनों मछलियां मरकर सतह पर आ गईं। हरी सब्जियां अब खाने लायक नहीं रह गई हैं। रासायनिक उर्वरकों के अत्यधिक इस्तेमाल से हमारी जमीन बांझ बन गई है और उत्पादन 30 प्रतिशत कम हो गया है। यह उस देश के पर्यावरण की तस्वीर है, जिसे अरण्य की संस्कृति का देश कहा जाता है और जहां प्रातःकाल सूर्य देवो भवः, वृक्ष देवो भवः का मंत्र जाप होता था। यह उस देश का सच है, जहां वायु को प्राणवायु कहकर पूजा गया, परंतु अब शुद्ध हवा के लिए ऑक्सीजन चैंबर खुल रहे हैं।मार्क्स ने एंगेल्स को एक पत्र में लिखा था कि यदि सभ्यता अविवेकपूर्ण ढंग से विकास करती है, तो अपने पीछे रेगिस्तान छोड़ जाती है। हमारे देश में यही हो रहा है। हम प्रकृति के मित्र न होकर केवल उपभोक्ता रह गए हैं। फलतः प्रकृति बदला भी ले रही है और चेतावनी भी दे रही है। जैसलमेर में केवल 16 सेंटीमीटर वर्षा होती है। कहीं-कहीं तो बारिश महज तीन सेंटीमीटर ही होती है। लेकिन वहां फसलें भी हैं और पशु भी और हरियाली भी है। इसकी वजह यह है कि वहां के लोगों के विचार सूखे नहीं है, अतः अकाल नहीं है।
एक बार गांधी जी आनंद भवन में ठहरे थे और दातून करते समय लोटे से हाथ-मुंह धो रहे थे। नेहरू जी ने कहा कि बापू, आप लोटे से हाथ-मुंह क्यों धो रहे हैं? यहां गंगा-यमुना बहती हैं। बापू ने कहा- कोई अकेले मेरे लिए थोड़े ही बहती है? आज का संकट केवल ‘मेरे लिए’ का संकट है। जिस दिन हम समझ लेंगे कि क्षिति-जल-पावक-गगन-समीरा का वरदान मेरे लिए नहीं, बल्कि सबके लिए है, उसी दिन प्रकृति हमारी मित्र बन जाएगी।
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