कहां से आती हैं ये त्रासदियां

प्राकृतिक संसाधनों की खपत का बेकाबू दैत्य पूरी पृथ्वी के लिए घातक सिद्ध हो रहा है। विश्व भर में आवाज उठने लगी है कि विकास के नाम पर अनियंत्रित दोहन पर रोक लगनी ही चाहिए। खतरे की इस इबारत को देखने और समझने का सिलसिला अभी शुरू हुआ हो, ऐसा भी नहीं है। 1704 में न्यूटन ने यह जता दिया था कि पृथ्वी 2060 तक नष्ट हो जाएगी। न्यूटन के इस विचार का आधार क्या था? प्रकृति का नैसर्गिक सौंदर्य आदिकाल से मनुष्य को लुभाता रहा है। सौंदर्य के अलावा हमारे जीवन का स्पंदन भी इस प्रकृति के कारण ही संभव है, पर क्या हम इससे जितना लेते हैं उसका कोई अंश वापस देने की भी कोशिश करते हैं? शायद भूलकर भी नहीं, बल्कि सच तो यह है कि हम अपनी जरूरतों की सीमा-रेखा का भरपूर उल्लंघन कर रहे हैं। जब भी कोई प्राकृतिक आपदा आती है तो यह बहस जरूर शुरू हो जाती है कि यह आपदा वाकई प्रकृति के कारण आई अथवा इसे प्रकृति से की जा रही छेड़छाड़ का नतीजा माना जाए। उत्तराखंड की इस बेहद विनाशकारी त्रासदी पर भी बहसों का बाजार गर्म है, लेकिन इसी के बरअक्स गांधी के एक ऐसे विचार की याद आ रही है, जिस पर कभी भी इतना ध्यान नहीं दिया गया, जितना अपेक्षित था।

गांधी अपनी निजी आवश्यकताओं के बारे में अक्सर कहा करते थे कि ‘बस इतना काफी है’। यह कथन उनके व्यवहार में भी दिखलाई देता था। रहन-सहन की सादगी उनके मूल्यों का हिस्सा थी। इसमें कोई दिखावा नहीं था। सच में देखें तो गांधी के इस एक वाक्य में कितना कुछ छिपा था। अपनी जरूरत से अधिक कुछ भी न लेने का आग्रह। यह आग्रह न केवल उपलब्ध संसाधनों के समान वितरण की तरफ भी जाता दिखाई देता है, बल्कि ‘मदर नेचर’ के प्रति भी एक आदर की स्थितियां तैयार करने में मदद करता है। विकास की अनियंत्रित भूख को शांत करने वाला मंत्र भी यह वाक्य बन सकता है।

अब तो पश्चिम के वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं कि प्राकृतिक संसाधनों की बेकाबू खपत पूरी पृथ्वी और वायुमंडल के लिए घातक सिद्ध हो रही हैं। तेजी से समाप्त होते जा रहे संसाधनों का असर भी उतनी ही तेजी से दिखाई दे रहा है। विश्व भर में आवाज उठने लगी है कि विकास के नाम पर प्रकृति के अनियंत्रित दोहन पर रोक लगनी ही चाहिए। आखिर जिस खाई में गिरने की तरफ हम बढ़ रहे हैं, उस तरफ बढ़ते कदमों को रोकने के लिए कभी तो यह कहना ही पड़ेगा कि ‘बस इतना ही काफी है’।

खतरे की इस इबारत को देखने और समझने का सिलसिला अभी शुरू हुआ हो, ऐसा भी नहीं है। थोड़ा पीछे मुड़कर देखें तो 1704 में न्यूटन ने यह जता दिया था कि जो हालात चल रहे हैं, उसके अनुसार पृथ्वी 2060 तक नष्ट हो जाएगी। यह पत्र येरुशलम में ‘न्यूटंस सीक्रेट’ नामक प्रदर्शनी में प्रस्तुत किया गया था। सवाल उठता है कि न्यूटन के इस विचार का आधार क्या था? ‘बुक ऑफ डेनियल्स’ के अंश या भूवैज्ञानिक संकेतों का गहन अध्ययन। ग्लोबल वार्मिंग के अनेक संकेत अब स्पष्ट रूप से सामने आ रहे हैं। अत्यधिक दोहन के कारण प्रकृति का संतुलन लगातार गड़बड़ा रहा है। मसलन मौसम चक्र में आ रहे बदलाव, जैव विविधता के खतरे, समुद्र से लेकर नदियों तक मिजाज में आ रहे परिवर्तनों के सामने अब आंखें मूंदकर नहीं बैठा जा सकता। न्यूटन की चेतावनी के अलावा इक्कीसवीं सदी के प्रख्यात खगोल वैज्ञानिक डॉ. स्टीफन हॉकिंग की चेतावनी का इशारा भी यही संकेत दे रहा है कि अपनी बर्बादी की दास्तान हम स्वयं लिख रहे हैं। उन्होंने कहा कि ‘अगर मनुष्य को अपने अस्तित्व की रक्षा करनी है तो उसे अब दूसरे ग्रहों पर बसेरा करने के विकल्प तलाशनें होंगे।’

...लेकिन हम इतनी गंभीर चेतावनियों की भी उपेक्षा करते आ रहे हैं। सच तो यह है कि प्रकृति से छेड़छाड़ की एक होड़-सी लगी है। कार्बन उत्सर्जन के रिकॉर्ड बन रहे हैं। कोई किसी से पीछे हीं रहना चाहता। कारण बिल्कुल स्पष्ट हैं, हमारे विकास का मॉडल सीधे बाजार से जुड़ा हुआ है और बाजार के नियम-कायदों में संवेदना का कोई स्थान नहीं होता। बाजार की ताकतें अपने वटवृक्ष की जटाओं को पूरी पृथ्वी पर फैला देने की कोशिशों में लगी हैं। इसीलिए पृथ्वी के संतुलन को बिगाड़ने की योजनाओं पर ही काम हो रहा है। क्या कभी इस बात पर भी गौर किया गया है समुद्र-तट पर उगने वाले वृक्ष मैंग्रोव और कोरल रीफ क्यों और किसलिए समाप्त कर दिए गए? जबकि मैंग्रोव की खूबी यही है कि इन्हें तेज से तेज हवाएं और उफनती लहरों की ताकत भी नहीं तोड़ पाती हैं। कोरल रीफ की सघनता के आगे सुनामी भी फीकी पड़ जाती है। समुद्र तटों से इन वृक्षों का समाप्त हो जाना एक रक्षा कवच के टूट जाने जैसा है। इसके परिणाम हम भुगत रहे हैं, लेकिन नहीं समझ पा रहे हैं कि पृथ्वी हमारी धरोहर है, हमारी विरासत है, इसे भावी पीढ़ी के लिए सुरक्षित रखना हमारी जिम्मेदारी ही नहीं दायित्व भी है।

यह बात कब समझ में आएगी कि पृथ्वी पर छोटे से छोटे जीव-जंतु का भी महत्व है, हमारे साथ-साथ यह कितने लाख प्रजातियों के जीव-जंतुओं व पेड़-पौधों की भी मां है। हममें से कितने लोगों की जानकारी में यह तथ्य है कि हमें प्राप्त होने वाले खाद्य पदार्थों के उत्पादन का सत्तर प्रतिशत मघुमक्खियों व तितलियों और तीस प्रतिशत चिड़ियों व चमगादड़ों के परागमन के कारण संभव होता है। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है कि पृथ्वी पर उपलब्ध हर चीज का कोई न कोई उपयोग अवश्य है, लेकिन क्या यह चौंकाने वाले तथ्य नहीं है कि पिछले पचास वर्षों में पृथ्वी के पारिस्थितिक तंत्र का दो-तिहाई हिस्सा नष्ट हो चुका है। पृथ्वी पर मौजूद 75 हजार वन्य जीव प्रजातियों में से 50 हजार कीट-पतंगों, पक्षियों व जानवरों की प्रजातियों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। अंतरराष्ट्रीय बर्फ आयोग की टीम का आकलन आंखें खोलने के लिए पर्याप्त है कि अगले चालीस-पचास वर्षों में अधिकतर हिमनद एकदम सूख जाएंगे। यह सही है कि धरती कई बार मिटी और बनी, लेकिन क्या यह दुखद नहीं है कि इस बार इसके विनाश की भूमिका इसी धरती के सबसे समझदार प्रजाति इंसान के हाथों लिखी जा रही है। दुर्भाग्य यह भी है कि ‘बस इतना काफी है’ का मंत्र होते भी हमारी समझदारी दिखाई नहीं देती।

प्रकृति सिखा रही है सबक


मौसम में हो रहा बदलाव, पहाड़ों के स्खलन और तूफानों की बढ़ती जटिलताएं आभास कराने लगी है कि प्रकृति से छेड़छाड़ का उत्तर मिल रहा है। मौसम चक्र बदलने से सबसे अधिक असर खेती पर पड़ेगा। अनाज संकट तो होगा ही, फसलों की बीमारियों का सीधा असर महामारियों के रूप में देखने को मिल सकता है।

अमेरिका और जापान में तूफानी का कहर, भारत के असम में सूखा, राजस्थान में बाढ़ और अभी उत्तराखंड का बादल फटने से हुआ तांडव उसी दंड का उदाहरण है।

प्रकृति का कहर :कुछ बड़ी प्राकृतिक आपदाएं

आपदा

प्रभावित लोग

कब

गुजरात भूकंप

6 लाख

जनवरी 2001

सुनामी (हिंद महासागर)

14 देशों में 2 लाख से अधिक

दिसम्बर 2004

यू.एस. का कैटरीना तूफान

1.833 मृत, हजारों प्रभावित

अगस्त 2005

चीन की बाढ़

3,189 से अधिक मृत, हजारों प्रभावित

मई 2010

जापान में भूकंप

28 हजार मृत, 5 लाख हताहत

मार्च 2011

ब्रह्मपुत्र में बाढ़ और भूस्खलन

70 मृत 2 लाख से अधिक प्रभावित (23 जिलों में)

जुलाई 2012

उत्तराखंड त्रासदी (बादल फटने से बाढ़ व भूस्खलन

अब तक 850 मृत, 2 लाख से अधिक प्रभावित

जून-जुलाई 2013

 



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