विश्व नदी दिवस, 27 सितम्बर 2015 पर विशेष
इस साल भी सूखा है। अब सूखा अनहोनी घटना नहीं रही, स्थायी हो गई है। भारतीय मौसम विभाग की भविष्यवाणी सही निकल गई है। खुद कृषि मंत्रालय ने स्वीकार कर लिया है कि सामान्य से पन्द्रह- सोलह फीसद कम बारिश हुई है। इससे खरीफ की फसल प्रभावित होगी। सबसे ज्यादा असर चावल, दलहन और मोटे अनाजों की पैदावार पर पड़ेगा। सबसे खराब हालत महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक और तेलंगाना में है। मध्य प्रदेश में सोयाबीन और मूँग की फसल को काफी नुकसान हो चुका है।
पिछले कुछ सालों से किसानों को हर साल सूखे से जूझना पड़ता है और अब लगभग यह हर साल बना रहने वाला है। वर्ष 2009 में सबसे बुरी स्थिति रही है। पहले से ही खेती-किसानी बहुत संकट के दौर से गुजर रही है। कुछ सालों से किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला रुक नहीं रहा है।
जलवायु बदलाव मौसम में गड़बड़ी का प्रमुख कारण माना जा रहा है। जिस भादो के महीने में पानी की झड़ी लगी रहती थी, अब बूँद भर पानी को किसान तरस रहे हैं। पानी का संकट बढ़ता जा रहा है और इसका सबसे ज्यादा असर खेती पर दिखाई दे रहा है।
सूखा यानी पानी की कमी। हमारे यहाँ ही नहीं बल्कि दुनिया में नदियों के किनारे ही बसाहट हुई, बस्तियाँ आबाद हुईं, सभ्यताएँ पनपीं। कला, संस्कृति का विकास हुआ और जीवन उत्तरोत्तर उन्नत हुआ। आज बड़ी नदियों को बाँध दिया गया है।
औदयोगीकरण और शहरीकरण को बढ़ावा दिया गया। पर बड़े बाँधों से किसानों का फायदा नहीं हुआ, क्योंकि जो नदियाँ उनके खेतों से जाती हैं, उनके खेत प्यासे-के-प्यासे रह गए।
शहरीकरण का विस्तार होते जा रहा है। पर शहरों में पानी का स्रोत नहीं है। बाहर के नदी नालों का पानी लाकर शहरों को पानी पिलाया जा रहा है। फिर शहरी आधुनिक जीवनशैली में पानी की खपत ज्यादा होती है। एक बार शौच जाने पर फ्लश का बटन दबाते ही 20 लीटर पानी चला जाता है। पढ़ा-लिखा तबका बागवानी-बगीचा का शौकीन होता है। घर में ही जंगल उगाना चाहता है। इसमें पानी की खपत ज्यादा होता है। दूसरी तरफ शहर के गरीब तबके को पानी के लिये लड़ते-झगड़ते देखा जा सकता है। अब तो मारपीट और हत्याएँ होने लगी हैं।
सवाल उठता है कि आखिर पानी गया कहाँ? धरती पी गई या आसमान निगल गया? नहीं। लगातार जंगल कटते जा रहे हैं, ये जंगल पानी को स्पंज की तरह सोखकर रखते थे। वो नहीं रहे तो पानी कम हो गया। मध्य प्रदेश में मालवा के इन्दौर से लेकर जबलपुर तक बहुत अच्छा जंगल हुआ करता था, अब सफाचट हो गया है।
यह तो हुई भूपृष्ठ की बात। भूजल का पानी हमने अन्धाधुन्ध तरीके से नलकूपों , मोटरपम्पों के जरिए उलीचकर खाली कर दिया। हरित क्रान्ति के प्यासे बीजों की फसलों ने हमारा काफी पानी पी लिया। पर अब हमारे नीति निर्धारकों ने इससे कोई सबक नहीं लिया। उलटे गन्ना जैसी नकदी फसलें जो ज्यादा पानी माँगती है, उन्हें लगाने के लिये प्रोत्साहित किया जा रहा है।
हमारे यहाँ ही नहीं बल्कि दुनिया में नदियों के किनारे ही बसाहट हुई, बस्तियाँ आबाद हुईं, सभ्यताएँ पनपीं। कला, संस्कृति का विकास हुआ और जीवन उत्तरोत्तर उन्नत हुआ। आज बड़ी नदियों को बाँध दिया गया है। औदयोगीकरण और शहरीकरण को बढ़ावा दिया गया। पर बड़े बाँधों से किसानों का फायदा नहीं हुआ, क्योंकि जो नदियाँ उनके खेतों से जाती हैं, उनके खेत प्यासे-के-प्यासे रह गए। सूखे का पहला लक्षण पलायन होता है। इसके बाद उन इलाकों में भोजन की कमी हो जाती है। मध्य प्रदेश के पहाड़ी और ग्रामीण इलाके के लोग दूर-दूर के शहरों व मैदानी क्षेत्रों में चले जा रहे हैं। गाँवों से शहरों की ओर जनधारा बह रही है। और अन्ततः इसकी परिणति भुखमरी में होती है। भुखमरी के लिये अब कई इलाके मशहूर हो रहे हैं।
अगला सवाल है कि हम सूखे से कैसे बचें? हमें एक तो पानी की बूँद-बूँद बचानी होगी। तालाब, डबरी और स्टापडेम ऐसी व्यवस्था करनी होगी, जिससे पानी की एक बूँद भी बेकार न जाये। साथ ही छतों के पानी को पाइप के माध्यम से निकालकर धरती का पेट भरा जाये। खेतों में मेड़बंदी करना। बाग-बगीचों में बाल्टी से पानी देना।
हमारे यहाँ पानी के परम्परागत ढाँचों, स्रोतों को समाज की सम्पत्ति माना जाता था। जैसा सामलाती जीवन था वैसा ही समाज की जो उपयोगी चीजों पर लोगों की चिन्ता थी। वे उसका रखरखाव करते थे। उनकी सुरक्षा करते थे। देश में ऐसी परम्परागत पानी की पद्धतियाँ हैं, जिनसे लोगों के परम्परागत ज्ञान की समझ का अंदाजा लगाया जा सकता है। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में ऐसी पानीदार परम्पराएँ हैं।
अगर आपके पास कम पानी या बिल्कुल पानी नहीं है तो आपको खेतों में ऐसे बीज लगाने होंगे जिनमें प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने आपको जिन्दा रखने में कूबत हो। यह विश्व प्रसिद्ध कृषि विशेषज्ञ डॉ. आरएच रिछारिया ने अपने प्रयोगों द्वारा सिद्ध किया है। उन्होंने देशी धान की हजारों किस्मों का संग्रह किया। जिसमें सभी तरह की परिस्थितियों में होने वाले बीज शामिल थे। इन बीजों में कम पानी में, ज्यादा पानी में, और दलदल में होने वाले बीज शामिल हैं। सुगन्धित और ज्यादा उत्पादन वाले धान के बीज भी हैं।
इसके अलावा, पानी के परम्परागत स्रोतों को फिर से खड़ा करना होगा। नदियों के किनारे वृक्षारोपण, छोटे स्टापडेम और पहाड़ियों पर हरियाली वापसी के काम करने होंगे। देशी बीजों वाली कम पानी व असिंचित मिलवा (मिश्रित) फसलों की ओर बढ़ना होगा। मिट्टी- पानी और पर्यावरण का संरक्षण करना होगा तभी हम सूखे का मुकाबला तथा हम अपने परम्परागत जल स्रोत और नदियों का संरक्षण कर सकते हैं।
लेखक, स्वतंत्र पत्रकार हैं
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Post By: RuralWater