‘केवल एक ही धरती’ तात्पर्य यह कि इस अखिल विश्व में मात्र पृथ्वी ही अकेला ग्रह है जिस पर जैव-मण्डल है अर्थात् जिन्दगी की धड़कनें सुनाई पड़ती हैं अन्यत्र कहीं भी, किसी भी ग्रह पर जीवन की किसी सम्भावना की भी तलाश नहीं हो पाई है, अतः यदि मानवीय कृत्यों से यहाँ का पर्यावरण विषाक्त हो गया तो समस्त जैव प्रजातियाँ काल कवलित हो जाएँगी अतः अपनी स्वयं की संरक्षा के लिए धरती की संरक्षा वांछनीय ही नहीं अपरिहार्य है।वर्ष 1984 में फ्रांस के फोन्तेनब्ला नगर में संयुक्त राष्ट्र की मदद से प्रकृति संरक्षण का अन्तरराष्ट्रीय संघ स्थापित हुआ था जो अब विश्व संरक्षण का संगठन बन चुका है। इसके नाम में अब प्राकृतिक संसाधन भी जोड़ दिया गया है और पर्यावरण सम्बन्धी नीति, कानून और प्रशासन आदि जोड़कर इसके कार्यक्षेत्र का विस्तार कर दिया गया है।
असली कार्य संयुक्त राष्ट्र संघ, विश्व स्वास्थ्य संगठन, खाद्य और कृषि संगठन, प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण का अन्तरराष्ट्रीय संघ और वैज्ञानिक संघों की अन्तरराष्ट्रीय परिषद आदि के सहयोग से 1968 में पेरिस में आयोजित ‘जीव-मण्डल सम्मेलन’ से आरम्भ हुआ।
उक्त कॉन्फ्रेंस में वैश्विक पर्यावरण के बारे में जो चेतना मुखर हुई, उसे संयुक्त राष्ट्र की 1972 में स्टॉकहोम में आयोजित ‘मानव पर्यावरण सम्मेलन’ से और बल मिला और चूँकि इसमें राजनीतिज्ञों की बहुलता थी, इसलिए पर्यावरणीय समस्याओं को वैश्विक स्तर पर राजनीतिक सम्बल प्राप्त हुआ और यह अनुभव किया गया कि पर्यावरण संरक्षण हेतु अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्रयास आरम्भ किए जाने चाहिए।
स्टॉकहोम की भूमि से एक सन्देश गूंजा— ‘केवल एक ही धरती’ तात्पर्य यह कि इस अखिल विश्व में मात्र पृथ्वी ही अकेला ग्रह है जिस पर जैव-मण्डल है अर्थात् जिन्दगी की धड़कनें सुनाई पड़ती हैं अन्यत्र कहीं भी, किसी भी ग्रह पर जीवन की किसी सम्भावना की भी तलाश नहीं हो पाई है, अतः यदि मानवीय कृत्यों से यहाँ का पर्यावरण विषाक्त हो गया तो समस्त जैव प्रजातियाँ काल कवलित हो जाएँगी अतः अपनी स्वयं की संरक्षा के लिए धरती की संरक्षा वांछनीय ही नहीं अपरिहार्य है। स्टॉकहोम में 110 से अधिक राष्ट्रों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया और उक्त अवसर पर राष्ट्रीय सरकारों और अन्तरराष्ट्रीय संगठनों के लिए 109 सूत्री सिफारिशें मंजूर की गईं। संरक्षण की विश्वनीति बनाई गई। इस सम्मेलन के निष्कर्षों को वैज्ञानिक तथा राजनीतिक दोनों रूपों में स्वीकृति मिली।
धरती के बिगड़ रहे पर्यावरण को लेकर वैश्विक चेतना जागृत करने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र ने 1972 में जो ‘मानव पर्यावरण सम्मेलन’ आहूत किया था, उसकी अगली कड़ी थी— रियो-भू-शिखर-1992 जिसे ‘पृथ्वी सम्मेलन’ भी कहते हैं।
ब्राजील की पुरानी राजधानी रियो डि जेनेरो में 12 दिनों तक चले ‘संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण और विकास सम्मेलन’ का काफी आपत्तियों, अनापत्तियों और सहमतियों के बाद 14 जून, 1992 को समापन हुआ। इस महासम्मेलन में 178 देशों ने भाग लिया और सम्मेलन को शताधिक राष्ट्राध्यक्षों ने सम्बोधित किया।
स्टॉकहोम उद्घोष ‘केवल एक ही धरती’ को रियो में सम्पूरित किया गया- ‘हमारा सामूहिक भविष्य’ तात्पर्य यह कि यदि धरती केवल एक है तो हमारा एक ही सामूहिक भविष्य भी है।
1972 में हमने धरती की संरक्षा के लिए जो संकल्प, जो वायदे किए उन पर हमने कितना अमल किया उसकी ही पुनरीक्षा के लिए रियो-भू-शिखर बैठक आहूत की गई थी कि आखिर धरती के तापमान में कितनी वृद्धि हुई, रेगिस्तान दिल्ली की तरफ कितनी रफ्तार से बढ़ रहा है, कौन-कौन-सी प्रजातियाँ इस अरसे में विलुप्त हुईं और कौन-कौन-सी विलुप्ति के कगार पर हैं? ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार क्या है, धरती के तापमान में कितनी वृद्धि हुई, माहौल कितना दमघोंटू हो गया है और इसके समाधान के निमित्त हमने इन दस वर्षों में क्या किया, मगर परिणाम वही ढाक के तीन पात। सम्मेलन किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सका, कोई सन्धि पारित नहीं हुई, अन्त में जो घोषणा-पत्र जारी हुआ, वह भी सुझावों और वायदों का पुलिन्दा मात्र ही था और सबल राष्ट्रों की दुरभिसन्धि का ही परिणाम था।
ठोस लब्धियों के नजरिये से देखा जाए तो यह संगोष्ठी अमीर और गरीब देशों के बीच अन्तर्द्वन्द्वों की एक ऐसी त्रासदी सिद्ध हुई जिसके कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आए।
1972 में हमने धरती की संरक्षा के लिए जो संकल्प, जो वायदे किए उन पर हमने कितना अमल किया उसकी ही पुनरीक्षा के लिए रियो-भू-शिखर बैठक आहूत की गई थी कि आखिर धरती के तापमान में कितनी वृद्धि हुई, रेगिस्तान दिल्ली की तरफ कितनी रफ्तार से बढ़ रहा है, कौन-कौन-सी प्रजातियाँ इस अरसे में विलुप्त हुईं और कौन-कौन-सी विलुप्ति के कगार पर हैं?भारत समेत सभी विकासशील देशों के नजरिये से यह संगोष्ठी उतनी प्रभावशाली नहीं रही जितनी कि आशा की गई थी, आखिर दो वर्षों के अनवरत ‘डेस्क वर्क’ के बाद संगोष्ठी अंजाम तक पहुँची थी। सभी देशों ने अपनी आपत्तियों, जरूरतों, समस्याओं के कागजी पुलिन्दे संयुक्त राष्ट्र को भेज दिए थे। उनके अवगाहन के बाद आयोजकों ने बहस के कुछ खास मुद्दों को छाँटा था और उम्मीद की गई थी कि उसके ठोस परिणाम सामने आएँगे अर्थात् विश्व समुदाय के देशों में आम सहमति बन जाएगी। आम सहमतियाँ तो दूर, कुछेक मुद्दों पर अमेरिका ने अपनी तीव्र असहमति जताई, शेष विश्व के देशों से वह अलग-थलग भी पड़ गया था। शेष विश्व के देशों की भर्त्सना के बावजूद वह अपने निर्णय से टस से मस न हुआ। अन्ततः जैव-विविधता सन्धि का मामला खटाई में पड़ गया। यद्यपि संयुक्त राष्ट्र के जैव-विविधता सम्बन्धी घोषणा-पत्र पर उत्तर-दक्षिण के शताधिक राष्ट्रों ने अपनी स्वीकृतियाँ दे दी थीं लेकिन उक्त सन्धि पर अमेरिका के हस्ताक्षर न करने से यह घोषणा-पत्र महत्वहीन हो गया। जैव-विविधता समझौते पर अमेरिका ने वीटो कर पृथ्वी सम्मेलन को भी महत्वहीन कर दिया।
औद्योगिक राष्ट्र पर्यावरण और विकास के मुद्दों की हमेशा अनदेखी करते रहे हैं। एक ही उदाहरण काफी होगा। एक आम हिन्दुस्तानी की तुलना में एक अमेरिकी नागरिक लगभग 13-15 गुना ऊर्जा का उपभोग करते हैं और वे अपनी जीवनशैली को छोड़ना नहीं चाहते जबकि विकासशील और उभरती अर्थव्यवस्थाओं को यह सुविधा प्राप्त नहीं है और यही संकट का मूल कारण है। यह भी सच है कि दूसरे देशों का शोषण करके सुदीर्घ अवधि तक खपत पर आधारित जीवनशैली को अपनाया नहीं जा सकता है।
ऐसे में दुनिया सतत उत्पादन और सतत खपत के साथ सबके लिए विकास सुनिश्चित करते हुए कैसे आगे कदम बढ़ा सकती है जब वह एक ओर वित्तीय मन्दी के कगार पर है और दूसरी ओर पर्यावरणीय समस्याएँ आसन्न संकट बनकर खड़ी हुई हैं।
पृथ्वी सम्मेलन/रियो-भू-शिखर सम्मेलन में जिन सन्धियों का प्रावधान किया गया था, उनमें जलवायु परिवर्तन सन्धि भी विचाराधीन थी। इस सन्धि में ताप बढ़ाने वाली गैसों के बढ़ते उत्सर्जन से जलवायु परिवर्तन और समुद्री जल-स्तर में बढ़ते खतरों को रेखांकित किया गया और यह भी स्पष्ट किया गया कि ऐसी गैसों की सर्वाधिक मात्रा विकसित राष्ट्र ही उत्सर्जित करते हैं।
आग्रह किया गया कि विकसित देश हरित गृह गैसों के उत्सर्जनों को सन् 2000 तक कम करके 1990 के स्तर से नीचे लाने की चेष्टा करें लेकिन समृद्ध राष्ट्रों की आपत्ति के कारण कोई कानूनी बन्धन अस्तित्व में नहीं आ सका।
क्योटो, जापान में 1-11 दिसम्बर, 1997 तक पुनः एक पर्यावरण सम्मेलन आहूत किया गया जिसमें धरती के बढ़ रहे ताप को लेकर पुनः चिन्ता प्रकट की गई। इस सम्मेलन में 149 देशों ने भाग लिया और धरती का ताप बढ़ाने वाली 6 हरित गृह गैसों के उत्सर्जन में 1990 के स्तर पर मात्र 5.2 प्रतिशत की कटौती पर आम सहमति बनी। यह सन्धि विकसित और औद्योगिक राष्ट्रों के लिए बन्धनकारी है जबकि विकासशील देशों के लिए कोई कानूनी बन्धन नहीं है। टापूनुमा देशों की माँग थी कि सन् 2005 तक प्रमुख हरित गृह गैस सीओटू की मात्रा में कम से कम 30 प्रतिशत तक की कमी की जाए लेकिन इसके स्थान पर सन् 2008 तक मात्र 5.2 प्रतिशत की कटौती सर्वमान्य हुई।
जब क्योटो ताप सन्धि की रूपरेखा निर्मित हुई थी, तब अमेरिकी सहमति इसके साथ थी लेकिन शीघ्र ही अमेरिका ने इससे हटने की अपनी मंशा प्रकट कर दी। क्योटो ताप सन्धि के प्रति अमेरिका की मुख्य आपत्ति इस बात में है कि चीन और भारत जैसे देशों को इसके लिए अपने गैसीय उत्सर्जनों में कोई कमी नहीं करनी है जबकि औद्योगिक राष्ट्रों को हरित गृह गैसों का उत्सर्जन 2012 तक 1990 से पहले के स्तर पर लाना है। इस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि हरित गृह गैसों का सर्वाधिक उत्पादक राष्ट्र वर्तमान में चीन के बाद अमेरिका ही है (2005 के आँकड़ों के अनुसार) तथा समग्र विश्व के कुल गैसीय उत्सर्जनों के 16 प्रतिशत भाग के लिए अकेले वही जिम्मेदार है लेकिन अपने गैसीय उत्सर्जनों में कटौती के लिए वह कोई प्रतिबद्धता स्वीकार करने को तैयार नहीं है।
जब अमेरिका ने क्योटो ताप सन्धि से हटने की घोषणा की थी, तब रूस ने भी ऐसी मंशा बनाई थी लेकिन इस वैश्विक समस्या के प्रति गम्भीरता से विचार करने के उपरान्त उसने जोहान्सबर्ग में आयोजित सतत विकास सम्मेलन, 2002 में सन्धि में बने रहने की घोषणा करके ताप सन्धि को बल प्रदान किया और अक्टूबर, 2004 में रूसी निम्न सदन ने इसका समर्थन कर दिया। ड्यूमा ने 334-73 मतों से ताप सन्धि को पारित कर दिया जिसमें औद्योगिक राष्ट्रों से कहा गया है कि वे आगामी 8 वर्षों के दौरान प्रमुख हरित गृह गैसों के उत्सर्जन में 5.2 प्रतिशत की कटौती करके उसे 1990 से नीचे के स्तर पर ले आएँ। 16 फरवरी, 2005 से क्योटो ताप सन्धि उन 141 देशों में लागू हो गई जिन्होंने इसका समर्थन किया था।
जोहान्सबर्ग में वर्ष 2002 में आयोजित सतत विकास सम्मेलन में धरती की रक्षा के संकल्पों को लेकर कोई ठोस पहल तो नहीं हो सकी, अलबत्ता इसमें रूस, कनाडा और चीन ने क्योटो ताप सन्धि में बने रहने और उसके अनुमोदन की अपनी मंशा जताई। ऑस्ट्रेलिया ने भी ऐसा ही मन बनाया और बाली सम्मेलन, 2007 में सन्धि में सम्मिलित होने की घोषणा कर दी। रूसी पहल से सन्धि के असमर्थक देशों में अनुपालन भी आरम्भ हो गया।
चूँकि क्योटो ताप सन्धि की समाप्ति की सीमा वर्ष 2012 है, अतः भावी रणनीति बनाने के लिए 3-15 दिसम्बर, 2007 तक नूसा दुआ, बाली (इंडोनेशिया) में एक बैठक आहूत की गई लेकिन पुनः अमेरिकी दुराग्रह के कारण कोई आम सहमति न बन सकी। समझौते के मूल मसौदे में यूरोपीय संघ ने समृद्ध राष्ट्रों के लिए वर्ष 2020 तक हरित गृह गैसों के उत्सर्जन में 25-40 प्रतिशत तक की कटौती करके 1990 के नीचे के स्तर से लाने की स्पष्ट सीमाएँ निर्धारित करने पर जोर दिया था लेकिन अमेरिका ने ऐसी कोई प्रतिबद्धता स्वीकार करने से पुनः मना कर दिया।
बाली सम्मेलन की अगली कड़ी कोपेनहेगेन, 2009 में किसी आम निष्कर्ष पर पहुँचना था लेकिन यह बैठक भी किसी अंजाम तक नहीं पहुँची। सम्मेलन के अन्त में जो समझौता हुआ भी, उसमें कहा गया कि धरती का औसत ताप पूर्व औद्योगिक युग (सन् 1850 से पूर्व) की तुलना में 20 सें. से अधिक नहीं बढ़ने दिया जाएगा लेकिन इसके लिए कोई स्पष्ट समय-सीमा या कानूनी बन्दिश तय नहीं की गई।
कमोबेश ऐसा ही हाल कानकुन सम्मेलन का भी हुआ। 194 देशों के प्रतिनिधियों की लम्बी कवायद बेनतीजा रही। कानकुन, मेक्सिको में 29 नवम्बर से 10 दिसम्बर, 2010 तक आयोजित बैठक ‘कॉप-16’ थी अर्थात् यह 16वें दौर की वार्ता थी।
दिसम्बर, 2009 में कोपेनहेगेन में आयोजित ‘कॉप-15’ के इस अग्रगामी चरण में ऐसे निष्कर्ष पर पहुँचना था जिससे अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर एक बन्धनकारी सन्धि अस्तित्व में आ सके जो 2012 में समाप्त हो रही क्योटो ताप सन्धि को स्थानाच्युत कर सके जिससे धरती की संरक्षा के पुख्ता इन्तजाम किए जा सकें। मगर दुर्भाग्य अमेरिका और जापान के भारी दबावों और विरोध के चलते अन्त तक गतिरोध बरकरार रहा। इस महासम्मेलन की सबसे बड़ी विफलता यह थी कि क्योटो प्रोटोकॉल के अन्तर्गत उत्सर्जन में कटौती सम्बन्धी दायित्वों को 2012 से आगे बढ़ाने पर कोई सहमति ही नहीं बन पाई। क्योटो प्रोटोकॉल ही एक मात्र सन्धि है जो विकसित देशों पर उत्सर्जन में कटौती की कानूनी बन्दिशें रखती है। तमाम गतिरोधों के कारण कानकुन की बहस बेनतीजा रही और क्योटो ताप सन्धि के बाध्यकारी लक्ष्यों को आगे नहीं बढ़ाया जा सका जो त्रासद है।
बहरहाल, 17वें चक्र की वार्ता (कॉप-17) 28 नवम्बर से 11 दिसम्बर, 2011 तक डरबन, द. अफ्रीका में आहूत करने की घोषणा की गई, इस उम्मीद के साथ कि कोई बन्धनकारी सन्धि वजूद में आ सके। बैठक आहूत भी हुई लेकिन भारत और यूरोपीय संघ के बीच गतिरोध बरकरार रहा, अन्ततोगत्वा सहमति बन ही गई। बैठक तयशुदा सीमा (10 दिसम्बर) से 36 घण्टे अधिक चली और आखिरी दिन यानी 11 दिसम्बर को जो निष्कर्ष आया, उस पर सभी देशों ने अपनी सहमति प्रकट की। इस महासम्मेलन को डरबन प्लेटफॉर्म की संज्ञा दी गई।
1. विकसित देशों ने क्योटो प्रोटोकॉल के अन्तर्गत वर्ष 2013 से अपने गैसीय उत्सर्जनों में कटौती करने पर रजामन्दी जाहिर कर दी है।
2. नयी सन्धि के अन्तर्गत सभी देश एक कानूनी व्यवस्था में रहने को प्रतिबद्ध होंगे।
3. समझौते पर वार्ता वर्ष 2012 से आरम्भ होकर 2015 में समाप्त हो जाएगी।
4. इसके बाद एक नया अनुबन्ध वर्ष 2020 में समग्र विश्व में प्रभावी हो जाएगा।
5. क्योटो ताप सन्धि का आरम्भ से ही विरोध करने वाले और इससे बाहर बने रहने वाले राष्ट्र अमेरिका ने भी डरबन सम्मेलन का समर्थन किया है।
6. समझौते में यह सुनिश्चित हुआ है कि 37 विकसित राष्ट्र स्वैच्छिक कटौती के अन्तर्गत शनैःशनैः वर्ष 2012 के अन्त तक हरित गृह गैसों का उत्सर्जन 1990 के स्तर पर 6 प्रतिशत तक कम कर देंगे।
डरबन सम्मेलन में भारत का पक्ष रखते हुए पर्यावरण और वन मन्त्री जयन्ती नटराजन ने कहा कि ‘भारत वर्ष 2020 के बाद ही क्योटो सन्धि जैसी नयी सन्धि का अंग बनने पर विचार करेगा लेकिन इसके पूर्व विकसित देश अपना उत्सर्जन कम करें और विकासशील देश इसके लिए वित्तीय सहायता और प्रौद्योगिकी उपलब्ध कराने की मौलिक प्रतिबद्धता का पालन करें। इस मामले में विकासशील और छोटे देशों की समानता, व्यापार में बाधक और बौद्धिक सम्पदा से जुड़ी चिन्ताओं का भी समाधान किया जाय।’ यद्यपि भारत के इस दृष्टिकोण का यूरोपीय संघ ने शुरू में विरोध किया लेकिन अन्त में उसने ये बातें मान लीं और उभय देशों के बीच का गतिरोध समाप्त हुआ और सम्मेलन सार्थक हुआ।
विकसित देशों ने क्योटो प्रोटोकॉल के अन्तर्गत वर्ष 2013 से अपने गैसीय उत्सर्जनों में कटौती करने पर रजामन्दी जाहिर कर दी है। क्योटो ताप सन्धि का आरम्भ से ही विरोध करने वाले और इससे बाहर बने रहने वाले राष्ट्र अमेरिका ने भी डरबन सम्मेलन का समर्थन किया है। समझौते में यह सुनिश्चित हुआ है कि 37 विकसित राष्ट्र स्वैच्छिक कटौती के अन्तर्गत शनैःशनैः वर्ष 2012 के अन्त तक हरित गृह गैसों का उत्सर्जन 1990 के स्तर पर 6 प्रतिशत तक कम कर देंगे।सम्मेलन में पहली बार बेसिक समूह के सभी देश - ब्राजील, द. अफ्रीका, भारत और चीन एक साथ खड़े नजर आए। यहाँ तक कि भारत के पक्ष का उसके प्रमुख प्रतिद्वंद्वी राष्ट्र चीन ने भी समर्थन किया और सम्मेलन अंजाम तक पहुँचा। निष्कर्षतः क्योटो के बाद डरबन सम्मेलन दूसरा महासम्मेलन था जिसमें सभी राष्ट्रों में मतैक्य निर्मित हुआ। सभी राष्ट्रों ने इस बात पर अपनी सहमति प्रकट की कि वे वर्ष 2020 से अपने-अपने यहाँ गैसीय उत्सर्जनों में कटौती के प्रति प्रतिबद्ध हैं ताकि अपनी धरती की हरीतिमा बचाई जा सके। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस पर अमल किया जाएगा और 1997 से आरम्भ हुई कवायद को अमली जामा पहनाया जा सकेगा।
18वें दौर की वार्ता दोहा, कतर में 26 नवम्बर से 8 दिसम्बर, 2012 तक हुई जिसमें 200 से भी अधिक देशों के राजनयिकों ने भाग लिया। दोहा में यह सुनिश्चित किया जाना था कि वर्ष 2012 के बाद क्या होगा? डरबन में आम सहमति बन चुकी थी कि 2012 में क्योटो प्रोटोकॉल का पहला चरण समाप्त होने के बाद दूसरा दौर 1 जनवरी, 2013 से आरम्भ होकर 2020 तक चलेगा लेकिन दोहा सम्मेलन भी किसी सुनिश्चित परिणाम तक नहीं पहुँच सका और न ही हम तय कर सके कि 2012 से 2020 के बीच क्योटो प्रोटोकॉल के दूसरे चरण में वैश्विक गरमाहट से हम कैसे निजात पा सकेंगे और उसकी बाबत हमने क्या तैयारियाँ की हैं?
आज से 20 साल पहले 1992 में यूएनएफसीसीसी का गठन हुआ था और तभी से जलवायु परिवर्तन के मुद्दों पर विमर्श जारी है मगर अभी तक इन खतरों से निपटने के लिए कोई भी जमीनी धरातल नहीं तैयार कर सके हैं, उसके क्रियान्वयन की बात तो दूर रही। दोहा सम्मेलन के निष्कर्ष कुछ इस तरह रहें :
1. धरती का ताप बढ़ाने वाली गैसों के उत्सर्जनों में कटौती के मुद्दे को क्योटो प्रोटोकॉल के दूसरे चरण में ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया।
2. ‘पृथ्वी सम्मेलन’ (1992) से लेकर अब तक जो भी विमर्श हुए हैं वे पर्यावरणीय मुद्दों की अनदेखी करते रहे हैं। ये फोरम अमीर बनाम गरीब देशों के बीच लड़ाई के लिए जाने जाते रहे हैं। गरीब राष्ट्र अपनी माँगों को लेकर चीखते रहे हैं और अमीर राष्ट्र उनकी अनदेखी और मनमानी करते आए हैं।
3. विकसित राष्ट्र हमेशा से ही यह मंशा रखते आए हैं कि क्योटो प्रोटोकॉल सभी राष्ट्रों के लिए समान रूप से लागू हो जो विकासशील राष्ट्रों को बर्दाश्त नहीं है। क्योटो ताप सन्धि ही एकमात्र ऐसी सन्धि है जो विकसित और औद्योगिक राष्ट्रों को अपने कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने के लिए बाध्य करती है।
4. ‘दोहा क्लाइमेट गेटवे’ में क्योटो ताप सन्धि की अवधि बढ़ाने पर आम सहमति बन ही गई। उम्मीद की जानी चाहिए कि 2020 तक विकसित राष्ट्रों में इसके तहत हरित गृह गैसों के उत्सर्जन को नियन्त्रित किया जा सकेगा।
5. क्योटो ताप सन्धि को अगले 8 वर्षों तक जारी रखने पर आम सहमति बनी है। यह समझौता मात्र उन विकसित देशों पर लागू होगा जो समग्र विश्व के हरित गृह गैसों के 15 प्रतिशत उत्सर्जन के लिए ही जिम्मेदार हैं।
भारत, चीन और अमेरिका को इसके दायरे से बाहर रखा गया है। यूरोपीय संघ, ऑस्ट्रेलिया, स्विट्जरलैण्ड और 8 अन्य औद्योगिक राष्ट्रों ने 2020 तक उत्सर्जन कटौती के बाध्यकारी समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं।
1. इस सम्मेलन में सबसे बड़ा गतिरोध पुनः अमेरिका ने उत्पन्न किया। उसने इस सम्मेलन के तहत किसी भी नये समझौते से अपने को जोड़ने से इंकार कर दिया। अमेरिका का वही अड़ियल रवैया। रूस ने भी इस प्रस्ताव को एक सिरे से खारिज कर दिया।
2. यह शुभ संकेत है कि ‘जी-77’ के देशों, चीन और ‘बेसिक’ समूह के देशों ने दोहा सम्मेलन के कथित परिणामों का स्वागत किया है।
3. मुहिम चलाई गई कि 2015 में क्योटो प्रोटोकॉल के दूसरे समझौते पर मतैक्य बने जो समान रूप से समग्र विश्व में लागू हो।
सम्मेलन की समाप्ति एक निहायत ही तल्ख माहौल में हुई। प्रदूषण दूर किए जाने के लिए किए जाने वाले उपायों को लेकर विकसित/औद्योगिक राष्ट्रों ने विकासशील राष्ट्रों को जो धन मुहैया किए जाने का वायदा किया था, उसी के मद्देनजर यह भी एक ‘फ्लॉप शो’ रहा क्योंकि उस पर कोई भी ठोस कदम आज तक नहीं उठाया गया।
कानकुन सम्मेलन में ‘हरित जलवायु कोष’ स्थापित करने की पहल हुई थी जिसकी चर्चा पिछले डरबन सम्मेलन में छाई रही। क्योटो ताप सन्धि के समय से ही एक खरब डॉलर प्रति वर्ष मुहैया कराए जाने की बातें तो हो रही हैं लेकिन अभी तक इसने अमली जामा नहीं पहना। यद्यपि आज यह राशि भी तुच्छ प्रतीत हो रही है। विकासशील देशों की यह भी माँग रही है कि हरित कोष क्योटो समझौते से अलग हटकर हो।
दोहा में कुछेक विकसित राष्ट्रों ने विकसित/विकासशील राष्ट्रों के बीच की खाई को यह कहकर और गहरा कर दिया कि एक अरब डॉलर की वार्षिक सहायता मात्र अनुदान नहीं होगी, इसमें कुछ धन ऋण के रूप में होगा और कुछ ‘सीडीएम’ के अन्तर्गत और इसी मुद्दे पर सम्मेलन में दो फांक हो गया। अन्त आते-आते सम्मेलन में तल्ख़ माहौल बन गया और वह भी बेनतीजा रहा।
‘सीडीएम’ के अन्तर्गत विकासशील राष्ट्र बेहतर तकनीकों से प्रदूषण को कम करने के प्रयास करते हैं और वह जो भी कर पाते हैं, विकसित राष्ट्र उसके बदले उन्हें धन तो देते हैं लेकिन विकासशील राष्ट्रों द्वारा प्रदूषण घटाने के उपक्रमों को स्वयं अपने प्रयासों में दिखा देते हैं। सवाल यह है कि ऐसे में गरीब राष्ट्र क्या करें?
(लेखक सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार विजेता होने के साथ प्रसिद्ध लोक विज्ञान लेखक हैं)
ई-मेल: sdprasad24oct@yahoo.com
असली कार्य संयुक्त राष्ट्र संघ, विश्व स्वास्थ्य संगठन, खाद्य और कृषि संगठन, प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण का अन्तरराष्ट्रीय संघ और वैज्ञानिक संघों की अन्तरराष्ट्रीय परिषद आदि के सहयोग से 1968 में पेरिस में आयोजित ‘जीव-मण्डल सम्मेलन’ से आरम्भ हुआ।
वैश्विक संरक्षण चेतना : स्टॉकहोम सम्मेलन
उक्त कॉन्फ्रेंस में वैश्विक पर्यावरण के बारे में जो चेतना मुखर हुई, उसे संयुक्त राष्ट्र की 1972 में स्टॉकहोम में आयोजित ‘मानव पर्यावरण सम्मेलन’ से और बल मिला और चूँकि इसमें राजनीतिज्ञों की बहुलता थी, इसलिए पर्यावरणीय समस्याओं को वैश्विक स्तर पर राजनीतिक सम्बल प्राप्त हुआ और यह अनुभव किया गया कि पर्यावरण संरक्षण हेतु अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्रयास आरम्भ किए जाने चाहिए।
स्टॉकहोम की भूमि से एक सन्देश गूंजा— ‘केवल एक ही धरती’ तात्पर्य यह कि इस अखिल विश्व में मात्र पृथ्वी ही अकेला ग्रह है जिस पर जैव-मण्डल है अर्थात् जिन्दगी की धड़कनें सुनाई पड़ती हैं अन्यत्र कहीं भी, किसी भी ग्रह पर जीवन की किसी सम्भावना की भी तलाश नहीं हो पाई है, अतः यदि मानवीय कृत्यों से यहाँ का पर्यावरण विषाक्त हो गया तो समस्त जैव प्रजातियाँ काल कवलित हो जाएँगी अतः अपनी स्वयं की संरक्षा के लिए धरती की संरक्षा वांछनीय ही नहीं अपरिहार्य है। स्टॉकहोम में 110 से अधिक राष्ट्रों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया और उक्त अवसर पर राष्ट्रीय सरकारों और अन्तरराष्ट्रीय संगठनों के लिए 109 सूत्री सिफारिशें मंजूर की गईं। संरक्षण की विश्वनीति बनाई गई। इस सम्मेलन के निष्कर्षों को वैज्ञानिक तथा राजनीतिक दोनों रूपों में स्वीकृति मिली।
स्टॉकहोम से आगे : रियो-भू-शिखर
धरती के बिगड़ रहे पर्यावरण को लेकर वैश्विक चेतना जागृत करने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र ने 1972 में जो ‘मानव पर्यावरण सम्मेलन’ आहूत किया था, उसकी अगली कड़ी थी— रियो-भू-शिखर-1992 जिसे ‘पृथ्वी सम्मेलन’ भी कहते हैं।
ब्राजील की पुरानी राजधानी रियो डि जेनेरो में 12 दिनों तक चले ‘संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण और विकास सम्मेलन’ का काफी आपत्तियों, अनापत्तियों और सहमतियों के बाद 14 जून, 1992 को समापन हुआ। इस महासम्मेलन में 178 देशों ने भाग लिया और सम्मेलन को शताधिक राष्ट्राध्यक्षों ने सम्बोधित किया।
स्टॉकहोम उद्घोष ‘केवल एक ही धरती’ को रियो में सम्पूरित किया गया- ‘हमारा सामूहिक भविष्य’ तात्पर्य यह कि यदि धरती केवल एक है तो हमारा एक ही सामूहिक भविष्य भी है।
1972 में हमने धरती की संरक्षा के लिए जो संकल्प, जो वायदे किए उन पर हमने कितना अमल किया उसकी ही पुनरीक्षा के लिए रियो-भू-शिखर बैठक आहूत की गई थी कि आखिर धरती के तापमान में कितनी वृद्धि हुई, रेगिस्तान दिल्ली की तरफ कितनी रफ्तार से बढ़ रहा है, कौन-कौन-सी प्रजातियाँ इस अरसे में विलुप्त हुईं और कौन-कौन-सी विलुप्ति के कगार पर हैं? ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार क्या है, धरती के तापमान में कितनी वृद्धि हुई, माहौल कितना दमघोंटू हो गया है और इसके समाधान के निमित्त हमने इन दस वर्षों में क्या किया, मगर परिणाम वही ढाक के तीन पात। सम्मेलन किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सका, कोई सन्धि पारित नहीं हुई, अन्त में जो घोषणा-पत्र जारी हुआ, वह भी सुझावों और वायदों का पुलिन्दा मात्र ही था और सबल राष्ट्रों की दुरभिसन्धि का ही परिणाम था।
ठोस लब्धियों के नजरिये से देखा जाए तो यह संगोष्ठी अमीर और गरीब देशों के बीच अन्तर्द्वन्द्वों की एक ऐसी त्रासदी सिद्ध हुई जिसके कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आए।
1972 में हमने धरती की संरक्षा के लिए जो संकल्प, जो वायदे किए उन पर हमने कितना अमल किया उसकी ही पुनरीक्षा के लिए रियो-भू-शिखर बैठक आहूत की गई थी कि आखिर धरती के तापमान में कितनी वृद्धि हुई, रेगिस्तान दिल्ली की तरफ कितनी रफ्तार से बढ़ रहा है, कौन-कौन-सी प्रजातियाँ इस अरसे में विलुप्त हुईं और कौन-कौन-सी विलुप्ति के कगार पर हैं?भारत समेत सभी विकासशील देशों के नजरिये से यह संगोष्ठी उतनी प्रभावशाली नहीं रही जितनी कि आशा की गई थी, आखिर दो वर्षों के अनवरत ‘डेस्क वर्क’ के बाद संगोष्ठी अंजाम तक पहुँची थी। सभी देशों ने अपनी आपत्तियों, जरूरतों, समस्याओं के कागजी पुलिन्दे संयुक्त राष्ट्र को भेज दिए थे। उनके अवगाहन के बाद आयोजकों ने बहस के कुछ खास मुद्दों को छाँटा था और उम्मीद की गई थी कि उसके ठोस परिणाम सामने आएँगे अर्थात् विश्व समुदाय के देशों में आम सहमति बन जाएगी। आम सहमतियाँ तो दूर, कुछेक मुद्दों पर अमेरिका ने अपनी तीव्र असहमति जताई, शेष विश्व के देशों से वह अलग-थलग भी पड़ गया था। शेष विश्व के देशों की भर्त्सना के बावजूद वह अपने निर्णय से टस से मस न हुआ। अन्ततः जैव-विविधता सन्धि का मामला खटाई में पड़ गया। यद्यपि संयुक्त राष्ट्र के जैव-विविधता सम्बन्धी घोषणा-पत्र पर उत्तर-दक्षिण के शताधिक राष्ट्रों ने अपनी स्वीकृतियाँ दे दी थीं लेकिन उक्त सन्धि पर अमेरिका के हस्ताक्षर न करने से यह घोषणा-पत्र महत्वहीन हो गया। जैव-विविधता समझौते पर अमेरिका ने वीटो कर पृथ्वी सम्मेलन को भी महत्वहीन कर दिया।
औद्योगिक राष्ट्र पर्यावरण और विकास के मुद्दों की हमेशा अनदेखी करते रहे हैं। एक ही उदाहरण काफी होगा। एक आम हिन्दुस्तानी की तुलना में एक अमेरिकी नागरिक लगभग 13-15 गुना ऊर्जा का उपभोग करते हैं और वे अपनी जीवनशैली को छोड़ना नहीं चाहते जबकि विकासशील और उभरती अर्थव्यवस्थाओं को यह सुविधा प्राप्त नहीं है और यही संकट का मूल कारण है। यह भी सच है कि दूसरे देशों का शोषण करके सुदीर्घ अवधि तक खपत पर आधारित जीवनशैली को अपनाया नहीं जा सकता है।
ऐसे में दुनिया सतत उत्पादन और सतत खपत के साथ सबके लिए विकास सुनिश्चित करते हुए कैसे आगे कदम बढ़ा सकती है जब वह एक ओर वित्तीय मन्दी के कगार पर है और दूसरी ओर पर्यावरणीय समस्याएँ आसन्न संकट बनकर खड़ी हुई हैं।
पृथ्वी सम्मेलन/रियो-भू-शिखर सम्मेलन में जिन सन्धियों का प्रावधान किया गया था, उनमें जलवायु परिवर्तन सन्धि भी विचाराधीन थी। इस सन्धि में ताप बढ़ाने वाली गैसों के बढ़ते उत्सर्जन से जलवायु परिवर्तन और समुद्री जल-स्तर में बढ़ते खतरों को रेखांकित किया गया और यह भी स्पष्ट किया गया कि ऐसी गैसों की सर्वाधिक मात्रा विकसित राष्ट्र ही उत्सर्जित करते हैं।
आग्रह किया गया कि विकसित देश हरित गृह गैसों के उत्सर्जनों को सन् 2000 तक कम करके 1990 के स्तर से नीचे लाने की चेष्टा करें लेकिन समृद्ध राष्ट्रों की आपत्ति के कारण कोई कानूनी बन्धन अस्तित्व में नहीं आ सका।
क्योटो सम्मेलन
क्योटो, जापान में 1-11 दिसम्बर, 1997 तक पुनः एक पर्यावरण सम्मेलन आहूत किया गया जिसमें धरती के बढ़ रहे ताप को लेकर पुनः चिन्ता प्रकट की गई। इस सम्मेलन में 149 देशों ने भाग लिया और धरती का ताप बढ़ाने वाली 6 हरित गृह गैसों के उत्सर्जन में 1990 के स्तर पर मात्र 5.2 प्रतिशत की कटौती पर आम सहमति बनी। यह सन्धि विकसित और औद्योगिक राष्ट्रों के लिए बन्धनकारी है जबकि विकासशील देशों के लिए कोई कानूनी बन्धन नहीं है। टापूनुमा देशों की माँग थी कि सन् 2005 तक प्रमुख हरित गृह गैस सीओटू की मात्रा में कम से कम 30 प्रतिशत तक की कमी की जाए लेकिन इसके स्थान पर सन् 2008 तक मात्र 5.2 प्रतिशत की कटौती सर्वमान्य हुई।
जब क्योटो ताप सन्धि की रूपरेखा निर्मित हुई थी, तब अमेरिकी सहमति इसके साथ थी लेकिन शीघ्र ही अमेरिका ने इससे हटने की अपनी मंशा प्रकट कर दी। क्योटो ताप सन्धि के प्रति अमेरिका की मुख्य आपत्ति इस बात में है कि चीन और भारत जैसे देशों को इसके लिए अपने गैसीय उत्सर्जनों में कोई कमी नहीं करनी है जबकि औद्योगिक राष्ट्रों को हरित गृह गैसों का उत्सर्जन 2012 तक 1990 से पहले के स्तर पर लाना है। इस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि हरित गृह गैसों का सर्वाधिक उत्पादक राष्ट्र वर्तमान में चीन के बाद अमेरिका ही है (2005 के आँकड़ों के अनुसार) तथा समग्र विश्व के कुल गैसीय उत्सर्जनों के 16 प्रतिशत भाग के लिए अकेले वही जिम्मेदार है लेकिन अपने गैसीय उत्सर्जनों में कटौती के लिए वह कोई प्रतिबद्धता स्वीकार करने को तैयार नहीं है।
जोहान्सबर्ग, 2002
जब अमेरिका ने क्योटो ताप सन्धि से हटने की घोषणा की थी, तब रूस ने भी ऐसी मंशा बनाई थी लेकिन इस वैश्विक समस्या के प्रति गम्भीरता से विचार करने के उपरान्त उसने जोहान्सबर्ग में आयोजित सतत विकास सम्मेलन, 2002 में सन्धि में बने रहने की घोषणा करके ताप सन्धि को बल प्रदान किया और अक्टूबर, 2004 में रूसी निम्न सदन ने इसका समर्थन कर दिया। ड्यूमा ने 334-73 मतों से ताप सन्धि को पारित कर दिया जिसमें औद्योगिक राष्ट्रों से कहा गया है कि वे आगामी 8 वर्षों के दौरान प्रमुख हरित गृह गैसों के उत्सर्जन में 5.2 प्रतिशत की कटौती करके उसे 1990 से नीचे के स्तर पर ले आएँ। 16 फरवरी, 2005 से क्योटो ताप सन्धि उन 141 देशों में लागू हो गई जिन्होंने इसका समर्थन किया था।
जोहान्सबर्ग में वर्ष 2002 में आयोजित सतत विकास सम्मेलन में धरती की रक्षा के संकल्पों को लेकर कोई ठोस पहल तो नहीं हो सकी, अलबत्ता इसमें रूस, कनाडा और चीन ने क्योटो ताप सन्धि में बने रहने और उसके अनुमोदन की अपनी मंशा जताई। ऑस्ट्रेलिया ने भी ऐसा ही मन बनाया और बाली सम्मेलन, 2007 में सन्धि में सम्मिलित होने की घोषणा कर दी। रूसी पहल से सन्धि के असमर्थक देशों में अनुपालन भी आरम्भ हो गया।
भावी रणनीति : दशा और दिशा
चूँकि क्योटो ताप सन्धि की समाप्ति की सीमा वर्ष 2012 है, अतः भावी रणनीति बनाने के लिए 3-15 दिसम्बर, 2007 तक नूसा दुआ, बाली (इंडोनेशिया) में एक बैठक आहूत की गई लेकिन पुनः अमेरिकी दुराग्रह के कारण कोई आम सहमति न बन सकी। समझौते के मूल मसौदे में यूरोपीय संघ ने समृद्ध राष्ट्रों के लिए वर्ष 2020 तक हरित गृह गैसों के उत्सर्जन में 25-40 प्रतिशत तक की कटौती करके 1990 के नीचे के स्तर से लाने की स्पष्ट सीमाएँ निर्धारित करने पर जोर दिया था लेकिन अमेरिका ने ऐसी कोई प्रतिबद्धता स्वीकार करने से पुनः मना कर दिया।
बाली सम्मेलन की अगली कड़ी कोपेनहेगेन, 2009 में किसी आम निष्कर्ष पर पहुँचना था लेकिन यह बैठक भी किसी अंजाम तक नहीं पहुँची। सम्मेलन के अन्त में जो समझौता हुआ भी, उसमें कहा गया कि धरती का औसत ताप पूर्व औद्योगिक युग (सन् 1850 से पूर्व) की तुलना में 20 सें. से अधिक नहीं बढ़ने दिया जाएगा लेकिन इसके लिए कोई स्पष्ट समय-सीमा या कानूनी बन्दिश तय नहीं की गई।
कमोबेश ऐसा ही हाल कानकुन सम्मेलन का भी हुआ। 194 देशों के प्रतिनिधियों की लम्बी कवायद बेनतीजा रही। कानकुन, मेक्सिको में 29 नवम्बर से 10 दिसम्बर, 2010 तक आयोजित बैठक ‘कॉप-16’ थी अर्थात् यह 16वें दौर की वार्ता थी।
दिसम्बर, 2009 में कोपेनहेगेन में आयोजित ‘कॉप-15’ के इस अग्रगामी चरण में ऐसे निष्कर्ष पर पहुँचना था जिससे अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर एक बन्धनकारी सन्धि अस्तित्व में आ सके जो 2012 में समाप्त हो रही क्योटो ताप सन्धि को स्थानाच्युत कर सके जिससे धरती की संरक्षा के पुख्ता इन्तजाम किए जा सकें। मगर दुर्भाग्य अमेरिका और जापान के भारी दबावों और विरोध के चलते अन्त तक गतिरोध बरकरार रहा। इस महासम्मेलन की सबसे बड़ी विफलता यह थी कि क्योटो प्रोटोकॉल के अन्तर्गत उत्सर्जन में कटौती सम्बन्धी दायित्वों को 2012 से आगे बढ़ाने पर कोई सहमति ही नहीं बन पाई। क्योटो प्रोटोकॉल ही एक मात्र सन्धि है जो विकसित देशों पर उत्सर्जन में कटौती की कानूनी बन्दिशें रखती है। तमाम गतिरोधों के कारण कानकुन की बहस बेनतीजा रही और क्योटो ताप सन्धि के बाध्यकारी लक्ष्यों को आगे नहीं बढ़ाया जा सका जो त्रासद है।
डरबन महासम्मेलन और उसके निष्कर्ष
बहरहाल, 17वें चक्र की वार्ता (कॉप-17) 28 नवम्बर से 11 दिसम्बर, 2011 तक डरबन, द. अफ्रीका में आहूत करने की घोषणा की गई, इस उम्मीद के साथ कि कोई बन्धनकारी सन्धि वजूद में आ सके। बैठक आहूत भी हुई लेकिन भारत और यूरोपीय संघ के बीच गतिरोध बरकरार रहा, अन्ततोगत्वा सहमति बन ही गई। बैठक तयशुदा सीमा (10 दिसम्बर) से 36 घण्टे अधिक चली और आखिरी दिन यानी 11 दिसम्बर को जो निष्कर्ष आया, उस पर सभी देशों ने अपनी सहमति प्रकट की। इस महासम्मेलन को डरबन प्लेटफॉर्म की संज्ञा दी गई।
समझौते के मुख्य बिन्दु
1. विकसित देशों ने क्योटो प्रोटोकॉल के अन्तर्गत वर्ष 2013 से अपने गैसीय उत्सर्जनों में कटौती करने पर रजामन्दी जाहिर कर दी है।
2. नयी सन्धि के अन्तर्गत सभी देश एक कानूनी व्यवस्था में रहने को प्रतिबद्ध होंगे।
3. समझौते पर वार्ता वर्ष 2012 से आरम्भ होकर 2015 में समाप्त हो जाएगी।
4. इसके बाद एक नया अनुबन्ध वर्ष 2020 में समग्र विश्व में प्रभावी हो जाएगा।
5. क्योटो ताप सन्धि का आरम्भ से ही विरोध करने वाले और इससे बाहर बने रहने वाले राष्ट्र अमेरिका ने भी डरबन सम्मेलन का समर्थन किया है।
6. समझौते में यह सुनिश्चित हुआ है कि 37 विकसित राष्ट्र स्वैच्छिक कटौती के अन्तर्गत शनैःशनैः वर्ष 2012 के अन्त तक हरित गृह गैसों का उत्सर्जन 1990 के स्तर पर 6 प्रतिशत तक कम कर देंगे।
डरबन सम्मेलन में भारत का पक्ष रखते हुए पर्यावरण और वन मन्त्री जयन्ती नटराजन ने कहा कि ‘भारत वर्ष 2020 के बाद ही क्योटो सन्धि जैसी नयी सन्धि का अंग बनने पर विचार करेगा लेकिन इसके पूर्व विकसित देश अपना उत्सर्जन कम करें और विकासशील देश इसके लिए वित्तीय सहायता और प्रौद्योगिकी उपलब्ध कराने की मौलिक प्रतिबद्धता का पालन करें। इस मामले में विकासशील और छोटे देशों की समानता, व्यापार में बाधक और बौद्धिक सम्पदा से जुड़ी चिन्ताओं का भी समाधान किया जाय।’ यद्यपि भारत के इस दृष्टिकोण का यूरोपीय संघ ने शुरू में विरोध किया लेकिन अन्त में उसने ये बातें मान लीं और उभय देशों के बीच का गतिरोध समाप्त हुआ और सम्मेलन सार्थक हुआ।
विकसित देशों ने क्योटो प्रोटोकॉल के अन्तर्गत वर्ष 2013 से अपने गैसीय उत्सर्जनों में कटौती करने पर रजामन्दी जाहिर कर दी है। क्योटो ताप सन्धि का आरम्भ से ही विरोध करने वाले और इससे बाहर बने रहने वाले राष्ट्र अमेरिका ने भी डरबन सम्मेलन का समर्थन किया है। समझौते में यह सुनिश्चित हुआ है कि 37 विकसित राष्ट्र स्वैच्छिक कटौती के अन्तर्गत शनैःशनैः वर्ष 2012 के अन्त तक हरित गृह गैसों का उत्सर्जन 1990 के स्तर पर 6 प्रतिशत तक कम कर देंगे।सम्मेलन में पहली बार बेसिक समूह के सभी देश - ब्राजील, द. अफ्रीका, भारत और चीन एक साथ खड़े नजर आए। यहाँ तक कि भारत के पक्ष का उसके प्रमुख प्रतिद्वंद्वी राष्ट्र चीन ने भी समर्थन किया और सम्मेलन अंजाम तक पहुँचा। निष्कर्षतः क्योटो के बाद डरबन सम्मेलन दूसरा महासम्मेलन था जिसमें सभी राष्ट्रों में मतैक्य निर्मित हुआ। सभी राष्ट्रों ने इस बात पर अपनी सहमति प्रकट की कि वे वर्ष 2020 से अपने-अपने यहाँ गैसीय उत्सर्जनों में कटौती के प्रति प्रतिबद्ध हैं ताकि अपनी धरती की हरीतिमा बचाई जा सके। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस पर अमल किया जाएगा और 1997 से आरम्भ हुई कवायद को अमली जामा पहनाया जा सकेगा।
18वें दौर की वार्ता दोहा, कतर में 26 नवम्बर से 8 दिसम्बर, 2012 तक हुई जिसमें 200 से भी अधिक देशों के राजनयिकों ने भाग लिया। दोहा में यह सुनिश्चित किया जाना था कि वर्ष 2012 के बाद क्या होगा? डरबन में आम सहमति बन चुकी थी कि 2012 में क्योटो प्रोटोकॉल का पहला चरण समाप्त होने के बाद दूसरा दौर 1 जनवरी, 2013 से आरम्भ होकर 2020 तक चलेगा लेकिन दोहा सम्मेलन भी किसी सुनिश्चित परिणाम तक नहीं पहुँच सका और न ही हम तय कर सके कि 2012 से 2020 के बीच क्योटो प्रोटोकॉल के दूसरे चरण में वैश्विक गरमाहट से हम कैसे निजात पा सकेंगे और उसकी बाबत हमने क्या तैयारियाँ की हैं?
आज से 20 साल पहले 1992 में यूएनएफसीसीसी का गठन हुआ था और तभी से जलवायु परिवर्तन के मुद्दों पर विमर्श जारी है मगर अभी तक इन खतरों से निपटने के लिए कोई भी जमीनी धरातल नहीं तैयार कर सके हैं, उसके क्रियान्वयन की बात तो दूर रही। दोहा सम्मेलन के निष्कर्ष कुछ इस तरह रहें :
1. धरती का ताप बढ़ाने वाली गैसों के उत्सर्जनों में कटौती के मुद्दे को क्योटो प्रोटोकॉल के दूसरे चरण में ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया।
2. ‘पृथ्वी सम्मेलन’ (1992) से लेकर अब तक जो भी विमर्श हुए हैं वे पर्यावरणीय मुद्दों की अनदेखी करते रहे हैं। ये फोरम अमीर बनाम गरीब देशों के बीच लड़ाई के लिए जाने जाते रहे हैं। गरीब राष्ट्र अपनी माँगों को लेकर चीखते रहे हैं और अमीर राष्ट्र उनकी अनदेखी और मनमानी करते आए हैं।
3. विकसित राष्ट्र हमेशा से ही यह मंशा रखते आए हैं कि क्योटो प्रोटोकॉल सभी राष्ट्रों के लिए समान रूप से लागू हो जो विकासशील राष्ट्रों को बर्दाश्त नहीं है। क्योटो ताप सन्धि ही एकमात्र ऐसी सन्धि है जो विकसित और औद्योगिक राष्ट्रों को अपने कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने के लिए बाध्य करती है।
4. ‘दोहा क्लाइमेट गेटवे’ में क्योटो ताप सन्धि की अवधि बढ़ाने पर आम सहमति बन ही गई। उम्मीद की जानी चाहिए कि 2020 तक विकसित राष्ट्रों में इसके तहत हरित गृह गैसों के उत्सर्जन को नियन्त्रित किया जा सकेगा।
5. क्योटो ताप सन्धि को अगले 8 वर्षों तक जारी रखने पर आम सहमति बनी है। यह समझौता मात्र उन विकसित देशों पर लागू होगा जो समग्र विश्व के हरित गृह गैसों के 15 प्रतिशत उत्सर्जन के लिए ही जिम्मेदार हैं।
भारत, चीन और अमेरिका को इसके दायरे से बाहर रखा गया है। यूरोपीय संघ, ऑस्ट्रेलिया, स्विट्जरलैण्ड और 8 अन्य औद्योगिक राष्ट्रों ने 2020 तक उत्सर्जन कटौती के बाध्यकारी समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं।
1. इस सम्मेलन में सबसे बड़ा गतिरोध पुनः अमेरिका ने उत्पन्न किया। उसने इस सम्मेलन के तहत किसी भी नये समझौते से अपने को जोड़ने से इंकार कर दिया। अमेरिका का वही अड़ियल रवैया। रूस ने भी इस प्रस्ताव को एक सिरे से खारिज कर दिया।
2. यह शुभ संकेत है कि ‘जी-77’ के देशों, चीन और ‘बेसिक’ समूह के देशों ने दोहा सम्मेलन के कथित परिणामों का स्वागत किया है।
3. मुहिम चलाई गई कि 2015 में क्योटो प्रोटोकॉल के दूसरे समझौते पर मतैक्य बने जो समान रूप से समग्र विश्व में लागू हो।
सम्मेलन की समाप्ति एक निहायत ही तल्ख माहौल में हुई। प्रदूषण दूर किए जाने के लिए किए जाने वाले उपायों को लेकर विकसित/औद्योगिक राष्ट्रों ने विकासशील राष्ट्रों को जो धन मुहैया किए जाने का वायदा किया था, उसी के मद्देनजर यह भी एक ‘फ्लॉप शो’ रहा क्योंकि उस पर कोई भी ठोस कदम आज तक नहीं उठाया गया।
कानकुन सम्मेलन में ‘हरित जलवायु कोष’ स्थापित करने की पहल हुई थी जिसकी चर्चा पिछले डरबन सम्मेलन में छाई रही। क्योटो ताप सन्धि के समय से ही एक खरब डॉलर प्रति वर्ष मुहैया कराए जाने की बातें तो हो रही हैं लेकिन अभी तक इसने अमली जामा नहीं पहना। यद्यपि आज यह राशि भी तुच्छ प्रतीत हो रही है। विकासशील देशों की यह भी माँग रही है कि हरित कोष क्योटो समझौते से अलग हटकर हो।
दोहा में कुछेक विकसित राष्ट्रों ने विकसित/विकासशील राष्ट्रों के बीच की खाई को यह कहकर और गहरा कर दिया कि एक अरब डॉलर की वार्षिक सहायता मात्र अनुदान नहीं होगी, इसमें कुछ धन ऋण के रूप में होगा और कुछ ‘सीडीएम’ के अन्तर्गत और इसी मुद्दे पर सम्मेलन में दो फांक हो गया। अन्त आते-आते सम्मेलन में तल्ख़ माहौल बन गया और वह भी बेनतीजा रहा।
‘सीडीएम’ के अन्तर्गत विकासशील राष्ट्र बेहतर तकनीकों से प्रदूषण को कम करने के प्रयास करते हैं और वह जो भी कर पाते हैं, विकसित राष्ट्र उसके बदले उन्हें धन तो देते हैं लेकिन विकासशील राष्ट्रों द्वारा प्रदूषण घटाने के उपक्रमों को स्वयं अपने प्रयासों में दिखा देते हैं। सवाल यह है कि ऐसे में गरीब राष्ट्र क्या करें?
(लेखक सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार विजेता होने के साथ प्रसिद्ध लोक विज्ञान लेखक हैं)
ई-मेल: sdprasad24oct@yahoo.com
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