केरल की बाढ़ का पहला सबक है कि भूकम्प और बाढ़ चालाक मनुष्यों द्वारा बाँटने और राज करने के लिये ईजाद किये गए विभेद को नहीं मानते। इसका दूसरा सबक यह है कि यदि हम प्रकृति का उत्पीड़न और तय की गई सीमाओं का उल्लंघन करेंगे, तो वह हमसे बदला लेगी।
मैं पहली बार 1993 में पर्यावरणविद माधव गाडगिल के साथ केरल गया था। हमें प्रतिष्ठित जन विज्ञान संगठन केरल शास्त्र साहित्य परिषद (केएसएसपी) द्वारा बुलाई गई एक बैठक को सम्बोधित करने के लिये आमंत्रित किया गया था। एर्णाकुलम रेलवे स्टेशन पर केएसएसपी के वरिष्ठ सदस्य और जीव विज्ञानी एम के प्रसाद ने हमारी अगवानी की। समाज में अपनी ऊँची हैसियत के बावजूद प्रोफेसर प्रसाद बस से आये थे और उन्होंने बहुत साधारण पोशाक बुशर्ट और रबर की चप्पलें पहन रखी थीं।
उसके बाद मेरा कई बार केरल जाना हुआ। एक इतिहासकार के रूप में मुझे जिस चीज ने सर्वाधिक प्रभावित किया, वह है इस राज्य में स्पष्ट तौर पर नजर आने वाला समतावाद। हाल ही में आई बाढ़ के समय इसकी झलक एक बार फिर नजर आई, जब जाति या धर्म की परवाह किये बिना तमाम लोग सामने आये और राहत और पुनर्वास में योगदान दिया। राज्य के बाहर के विचारक हिन्दुओं को ईसाइयों और मुसलमानों के खिलाफ खड़ा करना चाहते थे, लेकिन मलयाली लोगों ने ऐसा नहीं किया। खाड़ी के समृद्ध प्रवासी, जिन्होंने पीड़ितों को दिन-रात बचाने में जुटे मछुआरों के लिये अपनी चेकबुक खोल दी, से लेकर हर किसी ने त्रासदी की इस घड़ी में अपने सामाजिक और राजनीतिक मतभेदों को दरकिनार कर दिया।
इसलिये केरल की बाढ़ का पहला सबक यह है: भूकम्प और बाढ़ चालाक मनुष्यों द्वारा बाँटने और राज करने के लिये ईजाद किये गए विभेद को नहीं मानते। लेकिन इसके साथ ही दूसरा सबक भी है, जिसे समझना और उस पर अमल करना कठिन है। वह यह है कि यदि हम प्रकृति का उत्पीड़न करेंगे और उसके द्वारा मानव व्यवहार (खासतौर से लालच) के लिये तय की गई सीमाओं का उल्लंघन करेंगे, तो वह हमसे बदला लेगी।
यदि केरल इस दूसरे सबक पर गौर करना चाहता है, तो उसे उस शख्स की बातों को ध्यान से सुनना होगा, जोकि वही वैज्ञानिक हैं, जिनके साथ मैं पहली बार उस राज्य में गया था। माधव गाडगिल ने इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस से जुड़ने के लिये पश्चिमी अकादमिक दुनिया का आकर्षक करियर छोड़ दिया और वहाँ पारिस्थितिकी विज्ञान से सम्बन्धित केन्द्र की स्थापना की। अपनी किताबों और निबन्धों तथा अपने विद्यार्थियों के जरिए, जिन्हें उन्होंने तराशा है और प्रेरणा दी है, पारिस्थितिकी जवाबदेही के लिये निरन्तर काम किया।
मौजूदा सन्दर्भों में माधव गाडगिल का सबसे प्रासंगिक योगदान उस समिति की रिपोर्ट है, जिसके वह अध्यक्ष थे। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री रहते जयराम रमेश ने इस समिति का गठन किया था, जिसने अन्धाधुन्ध उत्खनन से पश्चिमी घाट के लिये उत्पन्न खतरों का व्यापक विश्लेषण प्रस्तुत किया। गाडगिल रिपोर्ट ने रेखांकित किया, “कुलीनों ने अपने लालच से घाट को बर्बाद कर दिया और गरीबों ने इसे कुतर डाला, जोकि वहाँ निर्वाह का प्रयास कर रहे हैं। यह एक महान त्रासदी है, क्योंकि पहाड़ियों की यह शृंखला दक्षिण भारत की पारिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था की रीढ़ है।” इसके बाद रिपोर्ट कहती है, “इसके बावजूद सकारात्मक पक्ष यह है कि पश्चिमी घाट क्षेत्र देश के उन चुनिन्दा क्षेत्रों में है जहाँ साक्षरता की दर सर्वोच्च है और यहाँ पर्यावरण जागरुकता का स्तर भी ऊँचा है। लोकतांत्रिक संस्थाएँ मजबूत हैं और केरल क्षमता निर्माण तथा पंचायती राज संस्थाओं को मजबूत करने में देश में सबसे आगे है।”
कई दशकों के जमीनी अनुभवों और अद्यतन वैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर गाडगिल रिपोर्ट ने आर्थिक विकास और पर्यावरण संवहनीयता के बीच सन्तुलन स्थापित करने की बात की थी। रिपोर्ट कहती है, विकास योजनाओं को कठोर ढाँचे में तैयार नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि इन्हें स्थानीय और समय विशेष की परिस्थितियों के अनुरूप स्थानीय समुदायों की सम्पूर्ण भागीदारी के साथ तैयार किया जाना चाहिए, इस प्रक्रिया को को-मैनेजमेंट नाम दिया गया। इससे संरक्षण का विकास से सम्मिलन होगा और इसे असंगत रूप में नहीं देखा जाएगा।
गाडगिल रिपोर्ट ने रेखांकित किया कि पारिस्थितिकी संवेदनशीलता सिर्फ एक वैज्ञानिक नहीं, बल्कि मानवीय चिन्ता भी है। वह तर्क देती है कि आधुनिक विज्ञान को किसानों, मजदूरों, चरवाहों और मछुआरों के स्थानीय पारिस्थितिकी ज्ञान से समृद्ध होना चाहिए। इसमें टिप्पणी की गई, नियामक नियंत्रण का बेजा केन्द्रीकरण न तो कारगर होगा न ही इसने कारगर तरीके से काम किया है। इसने वकालत की कि राजनीतिक व्यवस्था “पश्चिमी घाट में संसाधनों और पर्यावरणीय संघवाद को मजबूत करेगी और शासन के अधिक बहुसंख्यक रूपों और निर्णय लेने के कई केन्द्रों की तरफ बढ़ेगी, जो पारिस्थितिकी तंत्र के दबावों और परिवर्तन के लिये अधिक नवीन प्रतिक्रिया, सीखने, सहयोग और बेहतर अनुकूलन को सक्षम बनाएगी।”
गाडगिल रिपोर्ट ने आर्थिक गतिविधियों से सम्बन्धित विभिन्न क्षेत्रों की बारीकी से जाँच की : कृषि, पशुपालन, वन, मत्स्य पालन, बिजली, उद्योग आदि। इसने इनमें से प्रत्येक क्षेत्र में मौजूद तरीकों के साथ ही इस पर भी गौर किया कि कैसे अत्याधुनिक विज्ञान और भागीदारी वाली निर्णय लेने की प्रक्रिया से उन्हें और सक्षम और टिकाऊ बनाया जा सकता है। खासतौर से खनन के क्षेत्र की कहानी पर गौर किया जा सकता है, जिसने वनों को बर्बाद कर दिया, मिट्टी को खराब कर दिया, वातावरण को प्रदूषित कर दिया और जलस्रोतों को जर्जर कर दिया। खनन ने मानवीय स्वास्थ्य को भी खासा नुकसान पहुँचाया है और किसानों, चरवाहों और मछुआरों को बेरोजगार कर दिया।
पूरे भारत में राजनेताओं की साठगाँठ से अनियंत्रित खनन ताबड़तोड़ तरीके से हो रहा है, जिसमें ठेकेदार प्रकृति को बर्बाद कर रहे हैं और स्थानीय समुदायों को विपन्न कर रहे हैं। जमीनी रिपोर्ट्स बताती हैं कि पत्थरों और रेत के उत्खनन के कारण होने वाले भूस्खलन, मिट्टी के क्षरण और मलबों ने केरल की बाढ़ की भयावहता को बढ़ाने में योगदान दिया।
जयराम रमेश की पहल पर तैयार गाडगिल रिपोर्ट को उनके बाद बने पर्यावरण मंत्री ने रद्दी की टोकरी में डाल दिया। इस मंत्री ने यहाँ तक कि इसके प्रसारण को भी रोका; लेकिन एक समझदार सूचना आयुक्त ने सुनिश्चित किया कि यह रिपोर्ट ऑनलाइन उपलब्ध हो। मौजूदा त्रासदी की पृष्ठभूमि में इसे दोबारा पढ़ा जाना चाहिए और इस पर व्यापक विमर्श होना चाहिए। इसके सबक सिर्फ केरल के लिये नहीं हैं, बल्कि कर्नाटक, गोवा और महाराष्ट्र में भी उन्हें लागू किया जाना चाहिए जिनके पश्चिमी घाट में स्थित जिले हाल के दशक में बर्बाद हो गए हैं।
वास्तव में गाडगिल रिपोर्ट के पीछे के विचारों को कहीं अधिक संवेदनशील पहाड़ी शृंखला हिमालय में भी लागू किये जाने की जरूरत है। यदि वहाँ वनों की कटाई, खनन और लापरवाही से सड़कों का चौड़ीकरण नहीं होता और नदियों के किनारे निर्माण नहीं होते, तो 2013 में उत्तराखण्ड में आई बाढ़ से जीवन और सम्पत्ति को हुए नुकसान की भयावहता वैसी नहीं होती। हिमालय के साथ ही घाटों में संसाधनों के समझदारी से इस्तेमाल करने की जरूरत है। इसके लिये भ्रष्ट राजनेताओं और लालची ठेकेदारों को चुनौती देने की जरूरत है और यह नागरिक समाज और वैज्ञानिक ज्ञान, दोनों के बीच तालमेल से हो सकता है।
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