केरल की बाढ़, राज्य में लगभग 100 वर्षों के दौरान आई सबसे बड़ी प्राकृतिक आपदा है। सरकारी सूचनाओं पर यदि गौर करें तो इससे पूर्व 1924 में राज्य को भीषण बाढ़ का सामना करना पड़ा था।
इस आपदा ने राज्य के कुल 14 जिलों में से 13 को अपनी चपेट में ले रखा है जिससे 57 लाख लोग प्रभावित हुए हैं। अब तक 350 लोगों की जाने जा चुकी हैं और हजारों लोगों को सरकारी कैम्पों में रहने के लिये मजबूर होना पड़ा है। पर सवाल है कि इस त्रासदी की विभीषिका के क्या कारण हैं? क्या ये पूर्णतः प्राकृतिक हैं या प्रदेश की पारिस्थितिकी में लगातार हो रहे मानवीय हस्तक्षेप ने इसे और विकराल बना दिया है। अगर पारिस्थितिकी और पर्यावरणविदों की माने तो इन सवालों के उत्तर हाँ हैं। इस प्राकृतिक विपदा के दोनों ही पहलुओं का विस्तृत विवरण इस लेख में दिया गया है।
प्राकृतिक कारण (Natural Reasons)
तापमान का बढ़ना: केरल सहित आस-पास के राज्यों के तापमान में लगातार वृद्धि दर्ज की जा रही है। इस वर्ष मार्च के महीने के शुरुआती दिनों में ही पलक्कड़ का तापमान 40 डिग्री पहुँच गया था। भारतीय मौसम विभाग ने इस वर्ष के शुरुआत में ही यह कहा था कि राज्य में मार्च से मई के महीनों का तापमान इस वर्ष ज्यादा रहेगा।
भारतीय मौसम वैज्ञानिकों द्वारा जारी किये गए एक रिपोर्ट के अनुसार केरल तथा उसके आस-पास के राज्यों के तापमान में इस सदी के अन्त तक 1 से 2 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि दर्ज की जाएगी। वर्ष 2013 में 1951 से 2010 तक के मौसम और तापमान में हो रहे बदलाव सम्बन्धी आँकड़ों को आधार बनाकर मौसम विभाग द्वारा जारी किये गए एक रिपोर्ट के अनुसार केरल और उसके आस-पास के राज्यों के जाड़े के तापमान में भी वृद्धि दर्ज की जा रही है।
इस रिपोर्ट के मुताबिक तापमान में सबसे ज्यादा वृद्धि गोवा में दर्ज की गई है। गोवा के तापमान में 0.03 डिग्री सेल्सियस प्रतिवर्ष की वृद्धि दर्ज की जा रही है। मौसम वैज्ञानिकों का कहना है कि तापमान में हो रही इस वृद्धि का परिणाम मौसमी बदलाव के रूप में देखने को मिल रहा है। इसी का परिणाम है कि अचानक अतिवृष्टि, सूखा आदि जैसी समस्याओं से लोगों का सामना हो रहा है।
तापमान में विश्व स्तर पर भी वृद्धि दर्ज की जा रही है। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि इस शताब्दी के अन्त तक विश्व स्तर पर तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होगी जिसका व्यापक प्रभाव चक्रवाती तूफानों और वर्षा के पैटर्न पर पड़ेगा। इसी अनुमान के तहत यह कहा जा रहा है कि वर्षा की मात्रा में 6 गुणा तथा चक्रवाती तूफानों में 10 प्रतिशत तक की वृद्धि हो सकती है।
बारिश की अधिकता: इस वर्ष पिछले ढाई महीनों में दक्षिण-पश्चिम मानसून से केरल में अत्यधिक बारिश हुई है। भारतीय मौसम विभाग द्वारा जारी आँकड़े के अनुसार इन महीनों में केरल में लगभग 2300 मिलीमीटर से अधिक बारिश हुई है जो सामान्य से लगभग 40 प्रतिशत ज्यादा है। अगस्त में अब तक 700 मिलीमीटर से ज्यादा बारिश हो चुकी है।
आँकड़ों पर यदि गौर करें तो बारिश की यह मात्रा अगस्त 2017 में अमेरिका के ह्यूस्टन में आये हरिकेन हार्वे से हुई वर्षा के समान है। बारिश की इस अत्यधिक मात्रा ने पूरे प्रदेश को बाढ़ की चपेट में ले लिया। केरल के लिये यह एक अप्रत्याशित घटना है क्योंकि यहाँ 2013 में पूरे मानसून सीजन के दौरान सामान्य से 37 प्रतिशत ज्यादा बारिश हुई थी। केरल में दक्षिण-पश्चिम मानसून के अतिरिक्त उत्तर-पूर्व मानसून से भी वर्षा होती है।
मानवजनित कारण (Manmade Reasons)
पश्चिमी घाट की सम्पदा का दोहन: पश्चिमी घाट, पारिस्थितिकी के दृष्टि से एक प्रमुख विरासत है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए केन्द्र सरकार ने वर्ष 2010 में देश के जाने-माने पारिस्थितिकी विशेषज्ञ की अध्यक्षता में ‘वेस्टर्न घाट इकोलॉजी एक्सपर्ट पैनल’ (Western Ghat Ecology Expert Panel) के नाम से एक कमेटी गठित की थी। कमेटी को इस विशेष क्षेत्र के संरक्षण और उसकी वर्तमान स्थिति के बारे में रिपोर्ट देनी थी।
कमेटी ने वर्ष 2011 में केन्द्र सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी। रिपोर्ट में कमेटी ने पश्चिमी घाट के पूर्ण विस्तार क्षेत्र में खनन गतिविधियों को बन्द करने, वनों के विनाश को रोकने, निर्माण कार्य पर प्रतिबन्ध लगाने सहित कई महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये थे। इसके अतिरिक्त कमेटी ने पश्चिमी घाट को पारिस्थितिकी की दृष्टि से काफी संवेदनशील हिस्सा बताया था।
पश्चिमी घाट का विस्तार केरल सहित देश के छह राज्यों में है। लेकिन केरल सरकार ने आर्थिक विकास की होड़ में इस संवेदनशील क्षेत्र के बड़े हिस्से के दोहन पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया। यहाँ वनों की कटाई अबाध रूप से जारी रही और इसके साथ ही खनन की गतिविधि भी लगातार जारी रही।
एक अनुमान के मुताबिक पिछले 40 वर्षों में इस संवेदनशील क्षेत्र में पड़ने वाले राज्य के करीब 9000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में वनों का पूर्णतः विनाश कर दिया गया है। इसका परिणाम अपरदन में वृद्धि, मिट्टी की पानी शोषित करने की क्षमता में कमी, नदियों में गाद की मात्रा में वृद्धि, तापमान में वृद्धि आदि के रूप में देखने को मिला। केरल की बाढ़ पर अपना मत रखते हुए माधव गाडगिल ने कहा है कि बाढ़ का प्रभाव कम होता यदि पश्चिमी घाट की पारिस्थितिकी का बेतरतीब ढंग से दोहन नहीं किया गया होता।
भूस्खलन को मिला बढ़ावा: पश्चिमी घाट में हुई अवांक्षित गतिविधियों ने इस क्षेत्र के पहाड़ी क्षेत्रों को कमजोर कर दिया। इसी का परिणाम है कि केरल की भयावह बाढ़ में भूस्खलन की विभीषिका देखने को मिली। भूस्खलन से पलक्कड़, कन्नूर, इडुक्की, कोझिकोड, वायनाड और मालापुरम जिले सबसे ज्यादा प्रभावित हुए। इन जिलों में भूस्खलन से गम्भीर क्षति हुई है।
भूस्खलन के मलबे में दबने से दर्जनों लोगों को अपनी जान तक गँवानी पड़ी। भूस्खलन की इस तीव्रता का मुख्य कारण वनों के विनाश और खनन गतिविधियाँ हैं। पेड़ों के कटान और खनन से मिट्टी के अपरदन को बढ़ावा मिला जिससे चट्टानें कमजोर हो गईं। बारिश की अधिकता के कारण चट्टानें संगठित नहीं रह पाईं और भूस्खलन बड़े पैमाने पर हुआ।
डैमों के पानी से स्थिति हुई बदतर: इडुक्की और मुल्लापेरियार डैम से छोड़े गए पानी ने बाढ़ की विभीषिका को और भी बदतर बना दिया। ये दोनों ही डैम पेरियार नदी पर बनाए गए हैं। इडुक्की डैम से लगातार तीन दिनों तक 10 लाख लीटर प्रति सेकेंड की दर से पानी बहाया गया। यह एशिया का सबसे बड़ा आर्च डैम है।
मौसम विभाग द्वारा जारी आँकड़े के मुताबिक इडुक्की जिले में इस वर्ष सामान्य से 84 प्रतिशत ज्यादा बारिश हुई। यह राज्य का बारिश से सबसे ज्यादा प्रभावित जिला है। डैम केरल में मानसून आने के बाद लगातार हो रही बारिश के कारण बाढ़ के पूर्व ही भर चुका था। मिली जानकारी के अनुसार जुलाई में ही डैम में पानी, संग्रहण क्षमता के उच्च स्तर तक पहुँच चुका था जिसका मूल कारण जिले का बारिश से सबसे ज्यादा प्रभावित होना था।
डैम में पानी का स्तर 2395 फीट तक पहुँच चुका था जो उसकी कुल जल वहन क्षमता से मात्र 8 फीट कम था लेकिन डैम से पानी नहीं छोड़ा गया। न तो सरकार और न ही केरल स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड (Kerala State Electricity Board) और न ही सेंट्रल वाटर कमीशन (Central Water Commission) ने डैम से पानी छोड़ने के लिये कोई कदम उठाया। उस समय ही यदि डैम से पानी छोड़ दिया जाता तो बाढ़ के प्रभाव को कम किया जा सकता था क्योंकि वह अपेक्षाकृत कम बारिश का समय था। बारिश के लगातार होने कारण जब राज्य बाढ़ की चपेट में आ चुका था तो 16 अगस्त को डैम से पानी छोड़ने की शुरुआत की गई।
पानी छोड़ने में हुई इस देरी की मूल वजह डैम से पैदा होने वाली बिजली को माना जा रहा है। राज्य के बिजली विभाग के लोगों का मानना था कि डैम में पानी का जमाव ज्यादा रहने से अधिक बिजली पैदा की जा सकेगी। इतना ही नहीं मुल्लापेरियार डैम से छोड़े गए पानी ने भी बाढ़ के प्रभाव को और भी बढ़ा दिया। यह डैम भी केरल में स्थित है लेकिन इस पर तमिलनाडु का अधिकार है। तमिलनाडु को यह अधिकार अंग्रेजी हुकूमत के दौरान दिये गए थे जिसमें अब तक कोई बदलाव नहीं किया गया है।
गौरतलब है कि इस डैम से भी पानी तब छोड़ा गया जब यह अपनी क्षमता 142 फीट के स्तर तक पहुँच चुका था। केरल की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में इस सम्बन्ध में एक हलफनामा दायर किया था। इसमें उसने कहा था कि तमिलनाडु सरकार से बार-बार कहे जाने पर भी बाढ़ से पूर्व डैम से पानी नहीं छोड़ा गया। इस मुद्दे पर सुनवाई के बाद कोर्ट ने डैम में 31 अगस्त तक 139 फीट पानी के स्तर को मेन्टेन रखने का आदेश दिया है। इसके अतिरिक्त नदियों द्वारा हो रहे अपरदन के कारण पानी में घुले मिट्टी के कण डैम की तली में जम गए हैं जिससे इसकी जल संग्रहण क्षमता कम हो रही है।
आपदा से निपटने की तैयारी नहीं: यह जानकर आपको आश्चर्य होगा कि केरल सरकार के पास किसी भी प्रकार की आपदा से निपटने के लिये कोई विशेष दल नहीं है। सरकार ने इस तरह के किसी भी टास्क फोर्स का भी गठन नहीं किया है जो आपदा से निपटने के लिये प्रशिक्षित हो। इसी वजह से वहाँ राहत कार्य के लिये केन्द्रीय सरकारी एजेंसियों और अन्य पर पूरी तरह आश्रित होना पड़ा। राहत कार्य के लिये दिल्ली, गाँधीनगर के अलावा अन्य जगहों से एनडीआरएफ की टीम भेजी गई। इसके अलावा सेना का भी इस्तेमाल करना पड़ा। केरल में आई इस बाढ़ से सबक लेते हुए अन्य राज्यों को भी प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिये पूरी तैयारी रखने की जरूरत है।
गोवा को भी है सचेत रहने की जरूरत: गोवा के पश्चिमी घाट क्षेत्र में बिना किसी रोक-टोक के चल रही खनन गतिविधियाँ भविष्य के लिये खतरनाक साबित हो सकती हैं। गोवा में पर्यावरण संरक्षण के नियमों को सरकार द्वारा समुचित तरीके से लागू नहीं करना खनन गतिविधियों के आम होने की एक बड़ी वजह है। पत्थर के लिये गोवा में पश्चिमी घाट पहाड़ी पर बड़े पैमाने पर खनन किया जाता है।
लागत कम और फायदा ज्यादा होने के कारण बहुत से लोग इस व्यापार से जुड़े हैं। लगातार हो रहे खनन के कारण पहाड़ खोखले हो रहे हैं। वनों का विनाश हो रहा है। प्रदेश के हिस्से में पड़ने वाली पहाड़ी क्षेत्र का पारिस्थितिकीय सन्तुलन बिगड़ रहा है। और इन्हीं सभी गतिविधियों का प्रतिफल है कि दक्षिणी राज्यों में गोवा के तापमान में सबसे ज्यादा वृद्धि दर्ज की जा रही है। केरल जैसी गोवा की भी स्थिति हो सकती है इसकी सम्भावना माधव गाडगिल भी जता चुके हैं।
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