‘केरे’ का शहर बन गया कंक्रीट का ‘काड़ू’

water management
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एक सदी पहले किसी दानवीर द्वारा गढ़े गए कामाक्षी पाल्या तालाब से तो अब इलाके के बाशिंदों ने तौबा कर ली है । वे चाहते हैं कि किसी भी तरह यह झील पाट दी जाए। हुआ यूं कि इस तालाब में पानी की आवक को पहले सुनियोजित तरीके से रोक दिया गया। वहां अतिक्रमण किया गया। फिर चारों ओर की कालोनियों के गंदे पानी की निकासी इसमें कर दी गई। एक तो साफ पानी आने का रास्ता बंद और ऊपर से गंदगी का जमावड़ा! इस ताल के तट पर दो स्कूल हैं। स्कूल वाले चाहते हैं कि इस बदबू-गंदगी के ढेर से बेहतर है कि इसे पाट कर यहां बच्चों के लिए खेलने का मैदान बना दिया जाए। लेकिन प्रशासन इसके लिए तैयार नहीं है। देश के सबसे खूबसूरत महानगर कहे जाने वाले बंगलूरू की फिजा अब कुछ बदली-बदली सी है। अब यहां भीषण गरमी पड़ने लगी है। जाहिर है कि इसके साथ गंभीर जल-संकट भी पैदा हो गया है। यदि थेाड़ी-सी बारिश हो जाए तो कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं का मुख्यालय बंगलूरू पानी-पानी हो जाता है। कारण अब दबी जुबान से सामने आने लगा है- यहां के पारंपरिक तालाबों के स्वरूप के साथ अवांछित छेड़छाड़ हुई, जिसके कारण यहां जल हर तरह का संकट बन गया है।

सरकारी रिकार्ड के मुताबिक नब्बे साल पहले बंगलूरू शहर में 2789 केरे यानी झील हुआ करती थी। सन् साठ आते-आते इनकी संख्या घट कर 230 रह गई। सन् 1985 में शहर में केवल 34 तालाब बचे और अब इनकी संख्या तीस तक सिमट गई है। जल निधियों की बेरहम उपेक्षा का ही परिणाम है कि ना केवल शहर का मौसम बदल गया है, बल्कि लोग बूंद-बूंद पानी को भी तरस रहे हैं। वहीं ईएमपीआरई यानी सेंटर फॉर कंजर्वेशन, इनवारमेंटल मैनेजमेंट एंड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट ने दिसंबर-2012 में जारी अपनी रपट में कहा है कि बंगलूरू में फिलहाल 81 जल-निधियों का अस्तित्व बचा है, जिनमें से नौ बुरी तरह और 22 बहुत कुछ दूषित हो चुकी हैं। शोधकर्ता पी जयप्रकाश, पीपी दास, डीजेमायथेरंड और व श्रीनिवास ने ‘‘एसेसमेंट एंड कंजर्वेशन स्ट्रेजेडीज फॉर वाटर बॉडीज आफ बंगलूरू’’ नाम से एक शोध पत्र तैयार किया, जिसमें चेताया गया है कि शहर के अधिकांश तालाबों के पानी की पीएच कीमत बहुत ज्यादा है।

शहर की आधी आबादी को पानी पिलाना टीजी हल्ली यानि तिप्पा गोंडन हल्ली तालाब के जिम्मे है। इसकी गहराई 74 फीट है। लेकिन 1990 के बाद से इसमें अरकावति जलग्रहण क्षेत्र से बरसाती पानी की आवक बेहद कम हो गई है। अरकावति के आसपास कालोनियों, रिसॉर्ट्स और कारखानों की बढ़ती संख्या के चलते इसका प्राकृतिक जलग्रहण क्षेत्र चौपट हो चुका है। इस तालाब से 140 एमएलडी (मिलियन लीटर डे) पानी हर रोज प्राप्त किया जा सकता है। चूंकि तालाब का जल स्तर दिनों-दिन घटता जा रहा है, सो बंगलूरू जल प्रदाय संस्थान को 40 एमएलडी से अधिक पानी नहीं मिल पाता हैै।

इस साल फरवरी में तालाब की गहराई 15 फीट से कम हो गई। पिछले साल यह जल स्तर 17 फीट और उससे पहले 26 फीट रहा है । बंगलूरू में पानी की मारा-मारी चरम पर है । गुस्साए लोग आए रोज तोड़-फोड़ पर उतारू हैं। परंतु उनकी जल गगरी ‘टीजी हल्ली’ को रीता करने वाले कंक्रीट के जंगल यथावत फलफूल रहे हैं।

बंगलूरू के तालाब सदियों पुराने तालाब-शिल्प का बेहतरीन उदाहरण हुआ करते थे। बारिश चाहे जितनी कम हो या फिर बादल फट जाएं, एक-एक बूंद नगर में ही रखने की व्यवस्था थी। ऊंचाई का तालाब भरेगा तो उसके कोड़वे (निकासी) से पानी दूसरे तालाब को भरता था। बीते दो दशकों के दौरान बंगलूरू के तालाबों में मिट्टी भर कर कालोनी बनाने के साथ-साथ तालाबों की आवक व निकासी को भी पक्के निर्माणों से रोक दिया गया। पुट्टन हल्ली झील की जल क्षमता 13.25 एकड़ है,जबकि आज इसमें महज पांच एकड़ में पानी आ पाता है।

झील विकास प्राधिकरण को देर से ही सही, लेकिन समझ में आ गया है कि ऐसा पानी की आवक के राज कोड़वे को सड़क निर्माण में नष्ट हो जाने के कारण हुआ है । जरगनहल्ली और मडीवाला तालाब के बीच की संपर्क नहर 20 फीट से घट कर महज तीन फीट की रह गई।

अल्सूर झील को बचाने के लिए गठित फाउंडेशन के पदाधिकारी राज्य के आला अफसर हैं । 49.8 हेक्टेयर में फैली इस अकूत जलनिधि को बचाने के लिए जनवरी-99 में इस संस्था ने चार करोड़ की एक योजना बनाई थी। अल्सूर ताल को दूषित करने वाले 11 नालों का रास्ता बदलने के लिए बंगलूरू महानगर पालिका से अनुरोध भी किया गया था ।

कृष्णम्मा गार्डन, डेविस रोड, लेजर रोड, मोजीलाल गार्डन के साथ-साथ पटरी रोड कसाई घर व धोबी घाट की 450 मीट्रिक गंदगी इस जलाशय में आ कर मिलती है । समिति ने कसाई खाने को अन्यत्र हटाने की सिफारिश भी की थी । लेकिन खेद है कि अल्सूर को जीवित रखने के लिए कागजी घोड़ों की दौड़ से आगे कुछ नहीं हो पाया। इस झील का जलग्रहण क्षेत्र (कैचमेंट एरिया) 11 वर्ग किमी है, जिस पर कई छोटे-बड़े कारखाने जहर उगल रहे हैं।

जाहिर है कि यह गंदगी बेरोक-टोक झील में ही मिलती है। फाउंडेशन की रिपोर्ट में बताया गया है कि इस तालाब को बचाने के लिए इसमें जमा चार से पांच घन मीटर गाद व कचरे की सफाई तत्काल करनी होगी।

हैब्बाल तालाब के पानी की परीक्षण रिपोर्ट साफ दर्शाती है कि इसका पानी इंसान तो क्या मवेशियों के लायक भी नहीं रह गया है । इसमें धातु, कोलीफॉर्म बैक्टीरिया, ग्रीस और तेल आदि की मात्रा सभी सीमाएं तोड़ चुकी है। पानी के ऊपर गंदगी व काई की एक फीट मोटी परत जम गई है । क्लोराइड का स्तर 780 मिग्रा प्रति लीटर मापा गया है, जबकि इसकी निर्धारित सीमा 250 है ।

जल की कठोरता 710 मिग्रा पहुंच गई है, इसे 200 मिग्रा से अधिक नहीं होना चाहिए। गौरतलब है कि इस झील पर हिमालय और मध्य एशिया से कोई 70 प्रजाति के पक्षी आया करते थे । 1970 के बाद बंगलूरू की बढ़ती महानगरीय विद्रूपता ने गंदी नालियों की राह इस ओर कर दी । धीरे-धीरे पंछियों की संख्या घटने लगी। चेल्ला केरे झील को तो देवन हल्ली में बन रहे नए इंटरनेशनल एयरपोर्ट तक पहुंचने के लिए गढ़े जा रहे एक्सप्रेस हाईवे का ग्रहण लग गया है ।

कोई एक सदी पहले किसी दानवीर द्वारा गढ़े गए कामाक्षी पाल्या तालाब से तो अब इलाके के बाशिंदों ने तौबा कर ली है । वे चाहते हैं कि किसी भी तरह यह झील पाट दी जाए। हुआ यूं कि इस तालाब में पानी की आवक को पहले सुनियोजित तरीके से रोक दिया गया। वहां अतिक्रमण किया गया। फिर चारों ओर की कालोनियों के गंदे पानी की निकासी इसमें कर दी गई। एक तो साफ पानी आने का रास्ता बंद और ऊपर से गंदगी का जमावड़ा! इस ताल के तट पर दो स्कूल हैं।

स्कूल वाले चाहते हैं कि इस बदबू-गंदगी के ढेर से बेहतर है कि इसे पाट कर यहां बच्चों के लिए खेलने का मैदान बना दिया जाए। लेकिन प्रशासन इसके लिए तैयार नहीं है। वह बात दूसरी है कि शहर के कई तालाबों को सुखा कर पहले भी मैदान बनाए गए हैं। कर्नाटक गोल्फ क्लब के लिए चेल्ला घट्टा झील को सुखाया गया, तो कंटीरवा स्टेडियम के लिए संपंगी झील से पानी निकाला गया।

अशोक नगर का फुटबाल स्टेडियम शुल्या तालाब हुआ करता था तो साईं हाकी स्टेडियम के लिए अक्कीतम्मा झील की बलि चढ़ाई गई। मेस्त्री पाल्या झील और सन्नेगुरवन हल्ली तालाब को सुखा कर मैदान बना दिया गया है । गंगाशेट्टी व जकरया तालाबों पर कारखाने खड़े हो गए हैं । आगसन तालाब अब गायत्रीदेवी पार्क बन गया है । तुमकूर झील पर मैसूर लैंप की मशीनें हैं।

होसाकेरे हल्ली अभी कुछ साल पहले तक प्रवासी पक्षियों की पसंदीदा जगह हुआ करता था। धीरे-धीरे इसे चारों ओर से बंगलूरू की पॉश कालोनियों ने घेर लिया। नतीजा सामने है - अब वहां पक्षी पास भी नहीं फटकते हैं, मच्छर, सांप, गंदगी, काई और बेतरतीब झाड़ियां ही यहां बची हैं। सरकारी अमले मानते हैं कि यह विशाल झील जिस तरह से तीन तरफ से पठार से घिरी है, वाटर हार्वेस्टिंग का अनूठा स्थल है। लेकिन बजट की कमी का रोना होते हुए इसके पूरी तरह बर्बाद होने का इंतजार किया जा रहा है ।

अग्रा ताल की दुर्गति भी सरकारी अफसरों की नासमझाी या सोची-समझी साजिश का नतीजा है। यह तिकोने आकार का तालाब है। कुछ साल पहले इससे एक बरसाती नाले का जोड़ दिया गया। बरसाती नाले के साथ गंदा पानी इसमें आने लगा व पानी की गुणवत्ता घटने लगी। अब इस तालाब का इस्तेमाल शहर के कचरे के डंपिंग ग्राउंड के तौर पर हो रहा है।

शैट्टी केरे कभी लोगों के मनोरंजन व मौज मस्ती का अड्डा हुआ करता था। वहां खूब नाव चलती थीं। सुब्रमण्यपुरा में बहुमंजिला अपार्टमेंट्स बनने के साथ ही इस विशाल झील के दुर्दिन शुरू हो गए। वहां का सीवर सीधे तालाब में गिरने पर पहले किसी ने ध्यान नहीं दिया, जब एक दशक पहले गर्मी के दिनों में वहां से सढ़ांध आने लगी तब तब झील मर चुकी थी। यहां की परवाह ना तो नगर निगम ने की और ना ही झाील विकास प्राधिकरण ने, परिणाम सामने हैं कि अब लोग इस गंदे पानी के जमाव से छुटकारा पाने के लिए आंदोलन कर रहे हैं।

यही तो बिल्डर व सरकार चाहती है, इस बहाने कई एकड़ बेशकीमती जमीन तिजारत के लिए मिल जाएगी। भारत सरकार के वन और पर्यावरण मंत्रालय के सहयोग से कुछ साल पहले इंडियन इंस्टीट्यूट आफ साइंस (आईआईएस) ने एक अध्ययन का आयोजन किया था जिसमें पता चला था कि बंगलूरू शहर का रचनाहल्ली ताल में सड़ांध शुरू हो चुकी है जबकि अमृतहल्ली का पूरा पानी काई व गंदगी के कारण मटमैला-हरा हो गया है।

सिब्बल-नागवारा वाटरशेड में स्थित इन दो महत्वपूर्ण जल निधियों पर शोध करने वाले आईआईएस के सेंटर फार इकॉलाजी साइंस के वैज्ञानिक आर रजनीकांत और टी वी रामचंद्र ने अपनी रपट में लिखा था कि इन दोनों झीलों के जीवन को संकट में डालने का काम आसपास की बस्तियों की नालियों व कारखानों की निकासी सीधे इनमें डालने ने किया है।

इन तालाबों की दुर्दशा के चलते करीब के कई किलोमीटर इलाके के भूगर्भ जल का ना केवल स्तर नीचे गया है, बल्कि पाताल पानी की गुणवत्ता भी प्रभावित हुई है। इस रिपोर्ट में झीलों पर से अतिक्रमण हटाने के लिए कानूनी कार्यवाही करने, इनकी गाद सफाई जैसे सुझाव दिए गए थे। रपट कहीं लाल बस्ते में खो गई और दोनों तालाब गुमनामी के गर्त में।

तालाबों के बिगड़ते पर्यावरण जनता यदा-कदा गुस्सा जताती रही है। जब माहौल गर्म होता है तो सरकारी विभाग लाखों-करोड़ों की योजना बना कर सुनहरे सपने दिखाते हैं। इधर लोगों का रोश खत्म हुआ और उधर ‘नाकाफी बजट’ की टिप्पणी के साथ योजनाएं ठंडे बस्ते में चली जाती हैं।

पिछले अनुभव यह कड़वा सच तो उजागर करते हैं कि प्रदेश भर के हजारों तालाबों का जीर्णोंद्वार सरकार के बदौलत होने से रहा। राज्य सरकार अब जन सहयोग के भरोसे 60 फीसदी तालाबों की सफाई की योजना बना रही है । सन् 2008 में पहले प्रदेश के चुनिंदा 5000 तालाबों की हालत सुधारने के लिए ढाई करोड़ की एक योजना तैयार की गई थी। पर सियासती उठापटक के इस दौर में तालाबों के लिए आंसू बहाने की फुर्सत किसे है?

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Post By: Shivendra
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