सुना था कि अबकी बार बड़ा बढ़िया कोई बजट आने वाला है। जिससे देश में नई जान आएगी, उन्नति होेगी, नया जमाना आएगा, तरक्की होगी, आत्मसम्मान जागृत होगा। लेकिन जब काटा तो खून का एक कतरा भी नहीं निकला और प्राणदायिनी रक्त की एक भी बूँद नहीं निकली। - डाॅ. राममनोहर लोहिया (1967)
डाॅ. लोहिया के उक्त उद्गारों के ठीक पचास वर्ष बाद आए मोदी सरकार के तीसरे बजट पर इससे सशक्त टिप्पणी शायद ही कुछ और हो सकती है। वित्तमंत्री द्वारा लच्छेदार भाषा में कृषि प्रधान व ग्राम प्रधान बजट पेश किए जाने के बाद सेंसेक्स का करीब 1200 अंक उछल जाना कमोवेश बजट की वास्तविकता को हमारे सामने ला देता है। किसी महत्त्वपूर्ण किसान संगठन की प्रतिक्रिया के बजाए उद्योगपतियों और उद्योेेग संगठनों द्वारा बजट के कसीदे पढ़े जाना क्या सिद्ध करता है? गौरतलब है किसानों की आत्महत्याएँ इसलिए नहीं हो रही हैं, क्योंकि उसके घर या खेत तक पक्की सड़क नहीं हैं। सौ साल पहले आज के मुकाबले 10 प्रतिशत सड़कें भी नहीं थीं लेकिन एक भी किसान आत्महत्या (खेती की वजह से) नहीं कर रहा था। याद रखिए जिस तरह जीवन-बीमा जीवन का पर्याय नहीं होता ठीक उसी तरह कृषि-बीमा भी कृषि का पर्याय या स्थानापन्न नहीं हो सकता।आज कृषि सड़क की कमी की समस्या से नहीं बल्कि आधुनिक औद्योगिक कृषि की बढ़ती लागत, अत्यधिक परिष्कृत बीजों की असफलता, रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों से बर्बाद होती खेती, भूमि की घटती उत्पादकता, जलवायु परिवर्तन कृषि उत्पादों के मूल्यों में आ रही कमी, पश्चिमी देशों द्वारा कृषि को दी जा रही अत्यधिक सब्सिडी, भारत में कृषि को लेकर बनाया जा रहा प्रतिकूल वातावरण, कृषि को फायदे का धंधा बनाने की साजिश, चारे की घटती उपलब्धता, ऋण वसूली में बैंकों द्वारा जबरदस्ती, कृषि उपज मंडियों में फैली अनियमिताओं जैसी तमाम समस्याओं से ग्रसित है। परन्तु सरकार को लगता है जैसे सड़कें बना देने से कृषि की दशा व दिशा सुधर जाएगी।
सड़कों का जाल बिछाने से सर्वाधिक फायदा उद्योग और ठेकेदारों का होता है। चूँकि देश की आर्थिक स्थिति बदहाल है ऐसे में विनिर्माण उद्योग में माँग का अभाव है। अतएव कृषि के माथे ठीकरा फोड़कर उद्योगों को लाभ पहुँचाने का जरिया ढूँढ लिया गया है। यह सोच चालाकी से आगे जाती है। इस हेतु हम सब पर 0.5 प्रतिशत शेष भी लगाया जा रहा है। कृषि के साथ ही साथ सामाजिक मुद्दों को भी खूब महत्त्व और धन देने की बात कही गई है। हमें बार-बार याद दिलाया जा रहा है कि हम दुनिया के सबसे अधिक युवाओं वाले देश हैं। परन्तु गौर करिए सन 2013-14 में जब यूपीए सरकार थी तो इस विभाग का बजट 16,768 करोड़ था और इस वर्ष यह मात्र 1691 करोड़ यानि महज 10 प्रतिशत रह गया है। बजट की जादूगरी में दो शब्द आते हैं पहला बजट में प्रावधान और दूसरा होता है संशोधित अनुमान। यह दूसरा शब्द ही वास्तविक होता है। इसे वित्तमंत्री की भाषा में समझिए।
गरीब वरिष्ठ नागरिकों एवं विधवाओं के लिये वित्तमंत्री ने कुल 2426 करोड़ का प्रावधान इस बजट में किया है। जो कि सन 2015-16 के 3,385 करोड़ के प्रावधान से काफी कम है। परन्तु वित्तमंत्री ने सन 2015-16 का संशोधित अनुमान जोकि 1,568 करोड़ रु. था का सहारा लेकर दावा किया कि इस वर्ष इस मद में वृद्धि की गई है। यदि मनरेगा की बात करें तो इस वर्ष बजट अनुमान 38500 करोड़ रु. है। लेकिन इसमें से पिछले वर्ष के बकाया यानि करीब 5000 करोड़ रु. को निकाल दें तो इसकी राशि में कमी आई है। नई एवं नवीकरणीय ऊर्जा के बजट में तो अक्षरशः कमी आई है जबकि प्रधानमंत्री मोदी अन्तरराष्ट्रीय सौर ऊर्जा मिशन के गठन को पेरिस जलवायु सम्मेलन में जोर-शोर से जारी कर चुके हैं।
लघु सिंचाई योजनाओं के बजट में कमी की गई है। इससे कृषि की महत्ता स्वमेव स्पष्ट हो जाती है। यदि स्वास्थ्य के क्षेत्र में बात करें तो नई स्वास्थ्य बीमा योजना में 1 लाख (वरिष्ठ नागरिकों को 30,000 अतिरिक्त ) रु.प्रति परिवार प्रतिवर्ष का प्रावधान किया गया है। इस योजना में जनभागीदारी होगी। इस तरह की बीमा योजनाओं का क्रियान्वयन निजी स्वास्थ्य संस्थानों के माध्यम से ही सम्भव हो पाएगा क्योंकि सरकार ने सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की बेहतरी के लिये कुछ भी नए कदम उठाने का रत्तीभर भी प्रयास नहीं किया है। इसलिए बीमा के माध्यम से स्वास्थ्य सुरक्षा भारतीय जनमानस के साथ धोखाधड़ी और सरकार का अपनी जवाबदेही से बचने का प्रयास कहा जा सकता है। बजट विश्लेषकों ने हिसाब लगाया कि पिछले वर्ष के बजट में वित्तमंत्री ने ‘कृषि’ शब्द का 24 बार प्रयोग किया इस बार इसके उलट 42 बार इस शब्द का प्रयोग किया। परन्तु कृषि के बजट में इतनी ज्यादा वृद्धि केवल लेखा (अकाउंट) सम्बंधी परिवर्तन के कारण दिखाई दे रही है।
गौरतलब है यूपीए सरकार ने कृषि ऋण ब्याज अनुदान देना शुरु किया था और इसकी जवाबदारी वित्तमंत्रालय को सौंपी थी। परन्तु इस वर्ष हमारे चतुर वित्तमंत्री ने इस हेतु 15000 करोड़ रु. का आवंटन सीधे कृषि मंत्रालय को कर दिया। इससेे कृषि मंत्रालय के बजट में जबरदस्त उछाल दिखाई देने लगा है।पूँजीवाद के आदि विचारक माने जाने वाले एडम स्मिथ ने लिखा है “निश्चित रूप से, कोई भी ऐसा समाज फलता-फूलता और सुखी नहीं हो सकता जिसके बहुसंख्य सदस्य गरीब और दुखी हों। इसके अलावा, समाज का तकाजा है कि जो लोग पूरी जनता को भोजन, वस्त्र और मकान उपलब्ध कराते हैं उनको अपने खुद के श्रम के उत्पाद का इतना हिस्सा तो मिले कि उन्हें स्वयं भी ठीक-ठाक भोजन वस्त्र और आवास सुलभ हो सके।’’ हमारे राजनेता पिछले 25 वर्षों से पूँजीवाद की स्थापना को लेकर प्राणप्रण से जुटे हैं। हमारी एनडीए सरकार तो पूरी तरह से पूँजीपतियों के हाथ का खिलौना बनती नजर आ रही है। उसे अपने वायदों और कथित सिद्धान्तो से कुछ भी लेना देना नहीं है। वरना वह कृषि उत्पाद प्रसंस्करण व विपणन में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश को किस नैतिक आधार पर बजट में शामिल करती है जबकि वह स्वयं ही यूपीए शासन में इसका विरोध कर चुकी है? पिछले बजट में ‘स्मार्ट सिटी’ को अपना जय-घोष बनाने वाले वित्तमंत्री इस बार तो जैसे उसका नाम लेना ही भूल गए इतना ही नहीं सबको घर उपलब्ध करवाने का वायदा करने वाली सरकार ने इस हेतु यूपीए द्वारा 2013-14 में 27,480 करोड़ के बजाए महज 17114 करोड़ रु. का प्रावधान किया गया। यानि स्मार्ट सिटी का भविष्य आज ही स्पष्ट हो रहा है। सरकार व बजट की दिशाहीनता उच्चशिक्षा व विद्यालयीन शिक्षा व समेकित बाल विकास योजना (आईसीडीएस) में भी साफ नजर आई।
इससे पहले पिछले वर्ष के आर्थिक सर्वेक्षण ने देश की वित्तीय कलई खोल ही दी थी। पिछले वर्ष प्रत्यक्ष करों के संग्रहण में 45000 करोड़ रु. की कमी आई थी। कृषि की वृद्धि दर सिर्फ 1.1 प्रतिशत पर ठहर गई। निर्यात और आयात दोनों में क्रमशः 17.6 और 15.5 प्रतिशत की कमी आई। रेलवे की माल ढुलाई में सिर्फ एक प्रतिशत की वृद्धि हुई। बैंकों के खराब ऋण (एन.पी.ए.) लगातार बढ़ रहे हैं। बैंको के संकटग्रस्त ऋणों की रकम करीब 8.5 करोड़ रु.यानि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के करीब 7 प्रतिशत तक पहुँच गई है। निजी क्षेत्र ऋण लेने में डर रहा है इसके बावजूद क्या हम एक उछाल मारती अर्थव्यवस्था हैं? पिछले साल के बजट में जीडीपी में 11.5 प्रतिशत (2015-16) की वृद्धि के अनुमान के बरस्क यह वृद्धि महज 8.6 प्रतिशत ही रही है। जाहिर है, इसके बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था महान है।
यह तय है कि गुजरात के पाटीदार आरक्षण आंदोलन, बिहार विधानसभा की हार और नवीनतम जाट आरक्षण आंदोलन ने मोदी और मोदी सरकार को कड़क ठंड में पसीना ला दिया है। उनका यह कृषि व किसान प्रेम कोई स्थाई भाव नहीं है। अपनी इस मुद्रा में भी वे अंततः फायदा अपने ‘सूट बूट वालों’ का ही देख रहे हैं। वे शिक्षा व स्वास्थ्य को निजीकरण से मुक्त नहीं कराना चाहते और सांप्रदायिकता एवं अतिराष्ट्रवाद के सहारे पाँच विधानसभाओं के चुनावों में अपनी नैया पार लगाना चाहते हैं। पहली बार अपने बूते पर सरकार बना रही भाजपा को इतिहास से कुछ सीखना चाहिए और इतिहास को नए सिरे से लिखने के बजाए पहले उसे ध्यान से बाचना चाहिए। आज नहीं तो कल बजट की असलियत सामने आ ही जाएगी।
वित्तमंत्री का बजट भाषण सुनते हुए अनायास ही कबीर की यह पंक्तियाँ याद आ गईं...
कबीर आप ठगाइये, और न ठगिए कोय,
आप ठगा सुख होत है और ठगे दुख होय।
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