नदी जोड़ो परियोजना से बेहतर होगा कि हम अपनी नदियों को सहेजना सीखें। शायद इसी तरीके से हम प्राकृतिक आपदाओं के असर को कम कर पाएँगे। यही एकमात्र तरीका सस्ता और सुनिश्चित है, जो लम्बे समय तक अपने दम पर चल सकेगा और हमें बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का मुँह नहीं देखना पड़ेगा।
विकासशील देशों में जल संकट बहुत गहरा है। वैश्विक स्तर पर भारत में जल संकट कितना गहरा है, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि दुनिया का हर तीसरा प्यासा व्यक्ति भारतीय है। पिछले डेढ़ दशक में देश बाढ़ और सूखे की चपेट में रहा है, जिसका देश की अर्थव्यवस्था पर भयावह प्रभाव पड़ा है। इससे उत्पन्न संकट के रूप में जान-माल की क्षति का बहाना बनाकर राजग सरकार ने वर्ष 2002 में 580 अरब रुपए की लागत से हिमालय और प्रायद्वीप क्षेत्र में 30 नदी-जोड़ों की पहचान की थी। हालांकि नदियों को जोड़ने की शुरुआती कवायद जवाहरलाल नेहरू की सरकार के सिंचाई मंत्री के. एल. राव ने गंगा-कावेरी लिंक परियोजना प्रस्ताव देकर की थी। इसके बाद वर्ष 1974 में मुम्बई के मशहूर इंजीनियर कैप्टन दिनशा दस्तूर ने भी नदियों को नहरों के जरिए जोड़े जाने का प्रस्ताव रखा था, परन्तु उस समय पर्यावरणविदों और जनता की सहमति उन परियोजनाओं के पक्ष में नहीं बन पाई थी। यही वजह है कि उन परियोजनाओं को लागू नहीं किया जा सका था।इस लम्बे कालखण्ड में हमारे मूल्यबोधों में गिरावट आई है। समाज पर बाजारवाद हावी होता चला गया। अक्सर नई योजनाओं का लाभ-ही-लाभ दिखाकर हम पर उन्हें थोपने की कोशिश होती रही है। जनहित की बात करने वाली किसी भी पार्टी की सत्तासीन सरकार ने उन परियोजनाओं के दूसरे पक्षों पर चर्चा कराने की कभी जरूरत नहीं समझी। केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना के सिलसिले में पर्यावरण राहत व पुनर्वास की शंकाओं के बावजूद सरकारों की जल्दबाजी अखरती है। ऐसा लगता है कि वस्तुतः इन बड़ी-बड़ी परियोजनाओं में जल संकट का मुद्दा इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितना बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हित का दबाव।
इतनी बड़ी पहलकदमी और जनता की भलाई की दुहाई देने वाली कोई भी सरकार परियोजना से लाभ-हानि का पर्याप्त अध्ययन कराए बगैर पर्यावरणविद और सामाजिक सरोकार रखने वाले संगठनों के अध्ययनों को यों ही क्यों खारिज कर देती है? दो नदियों के जल की जलचरी को बेसिन की अन्तरप्रवाह प्रणाली सहित बहुत सारी अन्य बातों में भिन्नताएँ होने के बावजूद उस पर करोड़ों रुपए खर्च करके भी लागू करने पर सरकार क्यों आमादा होती है?
सच तो यह है कि कोई भी सरकार अपने सूचना तंत्रों के माध्यम से जनता के प्रति अपार लगाव का मिथ्या प्रचार करती है। जनता को बरगला कर अपने हित साधती है, अन्यथा यमुना की सफाई पर करोड़ों रुपए खर्च करने के बाद भी वह और मैली क्यों होती जा रही है? शिवनाथ नदी को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथ बेच क्यों दिया जाता है? शीतल पेय बनाने वाली कम्पनियों को केरल और राजस्थान के जलस्रोतों का दोहन करने की खुली छूट क्यों दे दी जाती है? केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर तथा केन्द्रीय जल-संसाधन मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी ने 25 अगस्त, 2005 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की उपस्थिति में हस्ताक्षर किये।
केन नदी पर गाँव के आस-पास एक बाँध तथा 237 किलोमीटर लम्बी नहर से केन नदी का अतिरिक्त जल बेतवा नदी में डाला जाएगा। यह बताया जा रहा है कि केन नदी का पानी बेतवा नदी में आने से बेतवा के ऊपरी बेसिन इलाके में चार मध्यम सिंचाई परियोजनाओं का निर्माण हो सकेगा। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने आशा जताई है कि इससे पाँच लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई हो सकेगी। इसके अलावा पीने के पानी की समस्या का भी समाधान होगा।
इस अवसर को मुख्यमंत्री गौर ने ऐतिहासिक बताया। वह इस योजना को लेकर इतने उत्साहित हैं कि उन्होंने मध्य प्रदेश और राजस्थान के बीच चंबल और पार्वती नदियों को जोड़ने की बात कह डाली, जबकि केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी ने स्वीकार किया कि परियोजना के लिये तैयार की गई सम्भाव्यता रिपोर्ट को लेकर पर्यावरण, राहत व पुनर्वास सम्बन्धी कुछ आशंकाएँ हैं। उत्तर प्रदेश सरकार की इस योजना को लेकर हिचक है, जो वाजिब भी है। पर्यावरणीय परिवर्तन एक लम्बी प्रक्रिया के तहत ही अनुकूल परिणाम देता है, अन्यथा आपदाएँ आती हैं और आपदाओं की भरपाई कर पाना थोड़ा मुश्किल होता है। मुगलकाल में लखनऊ में बनाए गए हैदर कैनाल से लेकर इन्दिरा सागर बाँध परियोजना तक प्रकृति से जबरदस्ती का परिणाम हमारा समाज एक लम्बी कालावधि तक भुगतेगा। आजादी से लेकर अब तक बड़े बाँधों ने केवल भारत में 3.5 करोड़ लोगों को विस्थापित किया है। विस्थापितों के लिये पुनर्वास और राहत की व्यवस्था की राह में बहुत सारी व्यावहारिक दिक्कतें हैं, जिसे पूरा करने के लिये बड़ी इच्छाशक्ति की जरूरत है।
दूसरा पहलू यह है कि जब हम जानते हैं कि पीछे के प्रयोगों में हमें हमेशा विफलता मिली है तो फिर अपनी इच्छाशक्ति जन विरोधी नीतियों के फलने-फूलने में लगाकर क्यों बर्बाद करें? इससे तो बेहतर यह होता कि हम छोटी-छोटी, परन्तु व्यावहारिक योजनाओं के सहारे भारत को विकास के रास्ते पर ले जाने की ईमानदार कोशिश कर पाते, अन्यथा परियोजना को पहले साकार करने में जनता के करोड़ों-अरबों रुपए लगाएँ और विफल होने पर उसके नकारात्मक विकास से निपटने के लिये फिर अरबों की धनराशि बहाएँ। अपने इन संसाधनों का 50 फीसदी प्रयोग भी अगर हम व्यावहारिक योजनाओं पर निष्ठा से कर पाते तो निश्चित तौर पर 21वीं सदी के भारत का नक्शा कुछ ही दशकों में विश्व के मानचित्र पर सम्मान के साथ देखा जाने लगेगा।
नदी जोड़ो परियोजना से बेहतर होगा कि हम अपनी नदियों को सहेजना सीखें। शायद इसी तरीके से हम प्राकृतिक आपदाओं के असर को कम कर पाएँगे। यही एकमात्र तरीका सस्ता और सुनिश्चित है, जो लम्बे समय तक अपने दम पर चल सकेगा और हमें बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का मुँह नहीं देखना पड़ेगा।
जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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पुस्तक परिचय - जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण | |
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