सुप्रीम कोर्ट के आदेश को दोहराते हुए राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने देश की किसी नदी में लाइसेंस या पर्यावरण मंजूरी के बिना रेत के खनन पर रोक लगा दी है। सवाल है कि नदियों को बचाने के लिए जनहित याचिकाओं और उस पर दिए गए अदालती फैसले से शुरू हुआ अभियान क्या खनन माफिया के फावड़े रोक पायेगा? न्यायाधिकरण अपने आदेश को लागू करने के लिए उन्हीं अफसरों पर निर्भर है जिनमें कुछ तो भ्रष्ट हैं और जो मुरैना के आइपीएस अफसर नरेन्द्र कुमार की तरह तनकर खड़े होते हैं, उन्हे कुचलकर मार दिया जाता है या दुर्गाशक्ति नागपाल की तरह निलंबित कर दिया जाता है। भवन निर्माण के बढ़ते कारोबार और उसके लिए मची रेत की लूट के इस माहौल में क्या हम नदियों को बचा पाएंगें?
राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने हाल ही में अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में देश की किसी भी नदी में बिना किसी लाइसेंस या पर्यावरण मंजूरी के रेत खनन करने पर रोक लगा दी। अपने आदेश में उसने देश के सभी राज्यों के खनन अधिकारियों और पुलिस से इसे सख्ती से लागू करने को कहा है। राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) की जस्टिस स्वतंत्र कुमार की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि किसी भी नदी से रेत निकालने के लिए पहले इजाजत लेना जरूरी होगा। हालांकि जिन इलाकों में नदियों से रेत निकाली जाती है, उनमें ज्यादातर में पहले से इजाजत लेना जरूरी है, लेकिन ताजा आदेश ने पूरे देश में अब इसे जरूरी बना दिया है।
राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण देश भर में किसी भी नदी से रेत की खुदाई करने या निकालने से पहले केन्द्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय या संबंधित राज्य के पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण से इजाजत लेना जरूरी होगा। एक तरह से देखा जाए तो नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का यह आदेश, फरवरी 2012 में आए सुप्रीम कोर्ट के आदेश का ही दोहराव भर है। सर्वोच्च न्यायालय के साफ-साफ आदेश के बाद भी देश में रेत के अवैध खनन में कोई कमी नहीं आई। अदालत का आदेश निष्प्रभावी ही रहा। यही वजह है कि राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण को भी अब इसमें अपना हस्तक्षेप करना पड़ा है।
राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने याचिका का दायरा व्यापक करते हुए कहा कि उसका आदेश पूरे देश में लागू होगा, क्योंकि याचिका पर्यावरण के गंभीर मुद्दे को उठाती है, जबकि शुरुआत में पीठ ने यमुना, गंगा, हिंडन, चंबल, गोमती और अन्य नदियों की तलहटी और किनारों से बालू के खनन पर रोक लगाई थी, लेकिन बाद में अपने आदेश को बदलते हुए उसने कहा कि अवैध तरीके से रेत निकालने का मुद्दा देशभर में लागू होता है।
हर साल लाखों टन बालू का अवैध खनन होता है और इससे राजकोष को लाखों-करोड़ों रुपये का नुकसान हो रहा है। रेत खनन का अवैध व्यवसाय अकेले उत्तर प्रदेश की समस्या नहीं, बल्कि देश के सभी राज्यों में एक जैसी कहानी है।बहरहाल एनजीटी ने इस संबंध में सभी प्रतिवादियों को 14 अगस्त तक जवाब देने के लिए नोटिस जारी किया है। इस पूरे मामले को गंभीर मानते हुए पीठ ने कहा कि अब देश की किसी भी नदी से रेत की खुदाई करने या रेत निकालने से पहले केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय या संबंधित राज्य के पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण से इजाजत लेना जरूरी होगा। फिर वह चाहे छोटा-सा ही क्षेत्र क्यों न हो।
इस आदेश से पहले देश में कहीं भी पांच हेक्टेयर से कम के प्लाट से रेत खनन के लिए पर्यावरण मंत्रालय या संबंधित राज्य के पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण से इजाजत की कोई जरूरत नहीं होती थी, लेकिन अब यहां भी मंजूरी जरूरी होगी।
पीठ ने यह आदेश उत्तर प्रदेश में रेत माफिया के खिलाफ दायर एक याचिका की सुनवाई के दौरान दिया। याचिका में कहा गया था कि राज्य में रेत माफिया, सरकारी तंत्र के साथ मिलकर सरकार को लाखों-करोड़ों रुपये का चूना लगा रहा है। याचिका में उत्तर प्रदेश में रेत माफिया की गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए राज्य सरकार को सख्त निर्देश देने की भी मांग की गई थी। वरिष्ठ वकील राज पंजवानी और रित्विक दत्ता ने अदालत में याचिकाकर्ता की ओर से दलील दी कि हर साल लाखों टन बालू का अवैध खनन होता है और इससे राजकोष को लाखों-करोड़ों रुपये का नुकसान हो रहा है।
रेत खनन का अवैध व्यवसाय अकेले उत्तर प्रदेश की समस्या नहीं, बल्कि देश के सभी राज्यों में एक जैसी कहानी है। राज्य की सीमा से सटे मध्यप्रदेश में भी सत्ता के संरक्षण में बड़े पैमाने पर अवैध खनन का काम जारी है। चंबल और नर्मदा नदी के किनारे पर रेत माफिया वृहद पैमाने पर अवैध रेत खनन करते हैं। उन्हें कोई रोकने-टोकने वाला नहीं।
रेत माफियाओं के हौसले इस कदर बढ़ गए हैं कि ओंकारेश्वर क्षेत्र में ओंकारेश्वर बांध के निकट तक रेत खनन कर डाला। यहां इतना ज्यादा रेत खनन हुआ है कि अब बांध पर भी खतरे के बादल मंडराने लगे हैं। नदियों के किनारे नियम-कायदों को ताक पर रख रेत निकालने का धंधा कमोबेश सभी राज्यों में धड़ल्ले से चलता रहा है। किसी भी अन्य कारोबार में नियमों का इतना ज्यादा उल्लंघन नहीं होता, जितना कि खनन के क्षेत्र में। फिर वह चाहे रेत का खनन हो या लौह अयस्क या किसी और खनिज का।
बेल्लारी खदानों के बारे में कर्नाटक के तत्कालीन लोकायुक्त संतोष हेगड़े की रिपोर्ट और गोवा के बारे में शाह आयोग की रिपोर्ट इसकी बड़ी मिसाल है। गोवा कि इन दोनों रिपोटरें ने व्यापक भ्रष्टाचार के साथ ही उसमें राजनीतिकों की मिलीभगत की भी कहानी उजागर की है। नदियों के किनारे हो रहे रेत खनन ने जहां नदियों की पारिस्थितिकी पर बहुत बुरा असर डाला है, वहीं मैदानी इलाकों में भी बाढ़ के खतरे को बढ़ाया है।
अवैध खनन के खिलाफ सरकारें कोई वाजिब कार्रवाई करें, इसके उलट वे रेत माफियाओं का ही संरक्षण करती हैं। हाल ही में ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जब राज्य सरकारों ने रेत माफियाओं पर कार्रवाई न कर, उलटे अपने प्रशासनिक अधिकारियों को ही दंडित किया। इन अधिकारियों का कसूर सिर्फ इतना था कि उन्होंने रेत माफियाओं पर नकेल डालने की कोशिश की थी।
अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं, जब राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के गौतमबुद्ध नगर जिले की आइएएस अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल को रेत माफिया के खिलाफ कार्रवाई करने की सजा भुगतनी पड़ी। अखिलेश सरकार ने रेत माफिया के खिलाफ कार्रवाई करने पर उन्हें निलंबित कर दिया।
एसडीएम दुर्गा शक्ति नागपाल समेत जिन लोगों ने भी इस तरह के अवैध खनन का विरोध किया, उन्हें उसकी सजा मिली। मध्य प्रदेश के जांबाज आइपीएस नरेन्द्र कुमार को उस वक्त अपनी जान गंवानी पड़ी, जब उन्होंने अकेले खनन माफियाओं से टकराने की कोशिश की। अवैध खनन ने देश भर में जगह-जगह माफिया पैदा कर दिए हैं, जो अपने रास्ते में बाधक बनने वालों को हटाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।
हरित पंचाट के हालिया फैसले से अवैध रेत खनन के सिलसिले पर विराम लगने की एक बार फिर उम्मीद जागी है, लेकिन बात फिर वहीं पर जाकर खत्म हो जाती है कि क्या राज्य सरकारें इस निर्देश पर कड़ाई से अमल करेंगी? ऐसे खनन की निगरानी बेहद मुश्किल भरा काम है। अकेले केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के वश की बात नहीं।
केंद्र को पूरी तरह से राज्य सरकारों के तंत्र पर निर्भर रहना पड़ता है। जब तक राज्य सरकारें अपनी जिम्मेदारी ठीक ढंग से नहीं निभातीं, तब तक अवैध रेत खनन रोकना मुश्किलों भरा ही काम होगा। अवैध खनन जहां भी हो, रेत माफियाओं पर सरकार पर्यावरण संरक्षण कानून के तहत सख्त से सख्त कार्रवाई करे। तभी जाकर देश में अवैध खनन पर लगाम लगेगी।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
नदियों का अवैध खनन रोकने वाली आइएएस दुर्गा शक्ति नागपाल के साथ जो कुछ भी हुआ है, वह किसी से छिपा नहीं है। नदियों को रौंदते अवैध खनन से केवल यूपी से गुजरती नदियां ही नहीं, बल्कि समूचे देश की नदियां जूझ रही हैं। बेखौफ खनन, सरकार की मंशा जाहिर कर रहा है कि वह इसे लेकर कितनी गंभीर है।
अवैध खनन की वजह से यमुना नदी 500 मीटर पूरब की ओर विस्थापित हो गई है। यह गंभीर स्थिति है। आज यमुना का यह हाल हुआ है, कल देश की अन्य नदियां भी इसी तरह विस्थापित होती जाएंगी।सरकारी मशीनरी में लगी जंग से क्षुब्ध राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण का आदेश नदियों की थमती सांसों को नए सिरे से ‘ऑक्सीजन’ देने का काम करेगा। यह नदियों के लिए बेहतर कदम तो साबित होगा ही साथ ही पर्यावरण भी असंतुलित होने से बचेगा।
आजादी के बाद अवैध खनन तेजी से आगे बढ़ा। भवन निर्माणों में चूने की जगह सीमेंट ले रहा था। भारत में कई सीमेंट कंपनियों ने अपने पांव जमाए। चूंकि सीमेंट मजबूती के सारे दावे पूर्ण कर रहा था तो लोगों ने भी इसको हाथों हाथ लिया। सीमेंट में बिना रेत या बालू के काम नहीं चल सकता था। जब मांग बढ़ी तो इसके कारोबारियों ने नदियों की तरफ रुख किया।
पहाड़ों से अपने साथ रेत और बालू लाने वाली नदियों में खनन कार्य शुरू हो गया। हालांकि नदियों का खनन जरूरी भी है, लेकिन उसके लिए कुछ मानक तय हैं। उस हिसाब से उसका खनन होना चाहिए, लेकिन किसी भी चीज का बेहिसाब होना, वह सही नहीं है।
90 के दशक में भवन निर्माण उद्योग की गति इतनी तेज हो गई कि खनन माफियाओं का जन्म होने लगा। बिना किसी सरकारी इजाजत के धड़ल्ले से यह अवैध कारोबार फलता-फूलता गया। चूंकि इसमें फायदा अधिक था तो राजनीति ने हाथ रख दिया। आज स्थिति इतनी भयावह हो गई है कि खनन माफिया समूचे देश में नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए नदियों को खत्म करने पर टूट पड़े हैं। चाहे गंगा हो, चंबल या फिर यमुना। अवैध खनन के हमलों से आज नदियां ‘घायल’ हो चुकी हैं।
जगह-जगह से बालू-रेत निकलने से समस्या पैदा होगी। फिर हरियाली खत्म हो रही है। ग्लोबल वार्मिग का असर है कि अब बरसात का पानी बढ़ेगा, घटेगा नहीं। अवैध खनन से नदियां खोखली हो जाएंगी तो बाढ़ का खतरा हमेशा बना रहेगा।
विशुद्ध पर्यावरण की नजर से देखें तो अवैध खनन ने ईको डायवर्सिटी को प्रभावित किया है। तमाम जलचर मारे जाते हैं। हर नदी की अपनी फूड श्रृंखला होती है, वह नष्ट हुई जा रही है। इसका ताजा उदाहरण यमुना नदी है। प्रदूषण की मार से नदी की फूड श्रृंखला खत्म हो चुकी है। नदी में पाए जाने वाले पौधों से लेकर जीव तक एक दूसरे पर निर्भर रहते हैं, वह अब नहीं नजर आते। वहीं अवैध खनन की वजह से यमुना 500 मीटर पूरब की ओर विस्थापित हो गई है। यह गंभीर स्थिति है। आज यमुना का यह हाल हुआ है, कल देश की अन्य नदियां भी इसी तरह विस्थापित होती जाएंगी। कुछ हो भी चुकी हैं।
यमुना ही ऐसी नदी है जो चट्टानों से सबसे अधिक बालू लाती है। बहुत मोटी बालू होने की वजह से यह सीमेंट के लिए अधिक उपयोगी नहीं है, लेकिन गड्ढों को भरने के लिए इससे उपयुक्त कोई बालू नहीं है। आगरा से मथुरा तक यमुना नदी में काफी यू टर्न हैं। इनमें से अगर एक भी टर्न को नुकसान होता है तो पूरी नदी पर असर पड़ेगा।
यमुना एक्सप्रेसवे के दोनों तरफ पांच टाउनशिप बनाने की योजना चल रही है। इतनी बड़ी टाउनशिप में अंदाजा लगाया जा सकता है कि बालू निकालने के लिए यमुना की छाती को कितना भेदा जाएगा। फिर समस्या आएगी पानी की। आगरा शहर को ही पानी नसीब नहीं हो रहा तो वहां कैसे पूर्ति हो सकेगी। सीवेज की अलग समस्या होगी। इन सब की जरूरत अकेली यमुना को ‘जबरन’ पूरी करनी पड़ेगी।
विकास की गति को भी बनाए रखना है, क्योंकि जिस तरह से जनसंख्या बढ़ रही है लोगों के रहने और खाने की समस्या भी पैदा हो रही है। इस समस्या का फायदा भवन निर्माण करने वाली कंपनियों ने उठाया और नदियों के पास घरों का निर्माण करा दिया गया, जबकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश हैं कि नदियों के किनारे किसी भी तरह का निर्माण न किया जाए, लेकिन आदेशों का पालन कराने वाले ही गुमसुम हो गए हैं।
पूंजीपतियों के आगे सरकार बौनी नजर आ रही है। आज दुर्गा शक्ति नागपाल मामले से एक फायदा हुआ है कि जनता जो खनन को लेकर कभी गंभीर नहीं रही उसे मालूम हो गया है कि नदियों का खनन कितना विध्वंसकारी है। खनन की परिभाषा जनता जान चुकी है। जनता का दबाव बहुत जरूरी है।
उत्तराखंड की त्रासदी से हम आज सबक नहीं ले सकते तो बड़ी गलती कर रहे हैं। हालांकि राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण का एक कदम असरकारक सिद्ध होगा। सामाजिक संगठनों से लेकर तमाम पर्यावरणविदें और सरकार को गंभीर होकर नदियों को अवैध खनन और इनके माफियाओं के बढ़ते हौसलों पर ऐसे ‘बांध’ का निर्माण करना होगा, जिसके पार कोई जाने की हिम्मत न कर पाए।
(कमलदीप से बातचीत पर आधारित)
हरित पंचाट का हस्तक्षेप
जाहिद खानराष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने हाल ही में अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में देश की किसी भी नदी में बिना किसी लाइसेंस या पर्यावरण मंजूरी के रेत खनन करने पर रोक लगा दी। अपने आदेश में उसने देश के सभी राज्यों के खनन अधिकारियों और पुलिस से इसे सख्ती से लागू करने को कहा है। राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) की जस्टिस स्वतंत्र कुमार की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि किसी भी नदी से रेत निकालने के लिए पहले इजाजत लेना जरूरी होगा। हालांकि जिन इलाकों में नदियों से रेत निकाली जाती है, उनमें ज्यादातर में पहले से इजाजत लेना जरूरी है, लेकिन ताजा आदेश ने पूरे देश में अब इसे जरूरी बना दिया है।
राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण देश भर में किसी भी नदी से रेत की खुदाई करने या निकालने से पहले केन्द्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय या संबंधित राज्य के पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण से इजाजत लेना जरूरी होगा। एक तरह से देखा जाए तो नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का यह आदेश, फरवरी 2012 में आए सुप्रीम कोर्ट के आदेश का ही दोहराव भर है। सर्वोच्च न्यायालय के साफ-साफ आदेश के बाद भी देश में रेत के अवैध खनन में कोई कमी नहीं आई। अदालत का आदेश निष्प्रभावी ही रहा। यही वजह है कि राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण को भी अब इसमें अपना हस्तक्षेप करना पड़ा है।
राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने याचिका का दायरा व्यापक करते हुए कहा कि उसका आदेश पूरे देश में लागू होगा, क्योंकि याचिका पर्यावरण के गंभीर मुद्दे को उठाती है, जबकि शुरुआत में पीठ ने यमुना, गंगा, हिंडन, चंबल, गोमती और अन्य नदियों की तलहटी और किनारों से बालू के खनन पर रोक लगाई थी, लेकिन बाद में अपने आदेश को बदलते हुए उसने कहा कि अवैध तरीके से रेत निकालने का मुद्दा देशभर में लागू होता है।
हर साल लाखों टन बालू का अवैध खनन होता है और इससे राजकोष को लाखों-करोड़ों रुपये का नुकसान हो रहा है। रेत खनन का अवैध व्यवसाय अकेले उत्तर प्रदेश की समस्या नहीं, बल्कि देश के सभी राज्यों में एक जैसी कहानी है।बहरहाल एनजीटी ने इस संबंध में सभी प्रतिवादियों को 14 अगस्त तक जवाब देने के लिए नोटिस जारी किया है। इस पूरे मामले को गंभीर मानते हुए पीठ ने कहा कि अब देश की किसी भी नदी से रेत की खुदाई करने या रेत निकालने से पहले केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय या संबंधित राज्य के पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण से इजाजत लेना जरूरी होगा। फिर वह चाहे छोटा-सा ही क्षेत्र क्यों न हो।
इस आदेश से पहले देश में कहीं भी पांच हेक्टेयर से कम के प्लाट से रेत खनन के लिए पर्यावरण मंत्रालय या संबंधित राज्य के पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण से इजाजत की कोई जरूरत नहीं होती थी, लेकिन अब यहां भी मंजूरी जरूरी होगी।
पीठ ने यह आदेश उत्तर प्रदेश में रेत माफिया के खिलाफ दायर एक याचिका की सुनवाई के दौरान दिया। याचिका में कहा गया था कि राज्य में रेत माफिया, सरकारी तंत्र के साथ मिलकर सरकार को लाखों-करोड़ों रुपये का चूना लगा रहा है। याचिका में उत्तर प्रदेश में रेत माफिया की गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए राज्य सरकार को सख्त निर्देश देने की भी मांग की गई थी। वरिष्ठ वकील राज पंजवानी और रित्विक दत्ता ने अदालत में याचिकाकर्ता की ओर से दलील दी कि हर साल लाखों टन बालू का अवैध खनन होता है और इससे राजकोष को लाखों-करोड़ों रुपये का नुकसान हो रहा है।
रेत खनन का अवैध व्यवसाय अकेले उत्तर प्रदेश की समस्या नहीं, बल्कि देश के सभी राज्यों में एक जैसी कहानी है। राज्य की सीमा से सटे मध्यप्रदेश में भी सत्ता के संरक्षण में बड़े पैमाने पर अवैध खनन का काम जारी है। चंबल और नर्मदा नदी के किनारे पर रेत माफिया वृहद पैमाने पर अवैध रेत खनन करते हैं। उन्हें कोई रोकने-टोकने वाला नहीं।
रेत माफियाओं के हौसले इस कदर बढ़ गए हैं कि ओंकारेश्वर क्षेत्र में ओंकारेश्वर बांध के निकट तक रेत खनन कर डाला। यहां इतना ज्यादा रेत खनन हुआ है कि अब बांध पर भी खतरे के बादल मंडराने लगे हैं। नदियों के किनारे नियम-कायदों को ताक पर रख रेत निकालने का धंधा कमोबेश सभी राज्यों में धड़ल्ले से चलता रहा है। किसी भी अन्य कारोबार में नियमों का इतना ज्यादा उल्लंघन नहीं होता, जितना कि खनन के क्षेत्र में। फिर वह चाहे रेत का खनन हो या लौह अयस्क या किसी और खनिज का।
बेल्लारी खदानों के बारे में कर्नाटक के तत्कालीन लोकायुक्त संतोष हेगड़े की रिपोर्ट और गोवा के बारे में शाह आयोग की रिपोर्ट इसकी बड़ी मिसाल है। गोवा कि इन दोनों रिपोटरें ने व्यापक भ्रष्टाचार के साथ ही उसमें राजनीतिकों की मिलीभगत की भी कहानी उजागर की है। नदियों के किनारे हो रहे रेत खनन ने जहां नदियों की पारिस्थितिकी पर बहुत बुरा असर डाला है, वहीं मैदानी इलाकों में भी बाढ़ के खतरे को बढ़ाया है।
अवैध खनन के खिलाफ सरकारें कोई वाजिब कार्रवाई करें, इसके उलट वे रेत माफियाओं का ही संरक्षण करती हैं। हाल ही में ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जब राज्य सरकारों ने रेत माफियाओं पर कार्रवाई न कर, उलटे अपने प्रशासनिक अधिकारियों को ही दंडित किया। इन अधिकारियों का कसूर सिर्फ इतना था कि उन्होंने रेत माफियाओं पर नकेल डालने की कोशिश की थी।
अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं, जब राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के गौतमबुद्ध नगर जिले की आइएएस अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल को रेत माफिया के खिलाफ कार्रवाई करने की सजा भुगतनी पड़ी। अखिलेश सरकार ने रेत माफिया के खिलाफ कार्रवाई करने पर उन्हें निलंबित कर दिया।
एसडीएम दुर्गा शक्ति नागपाल समेत जिन लोगों ने भी इस तरह के अवैध खनन का विरोध किया, उन्हें उसकी सजा मिली। मध्य प्रदेश के जांबाज आइपीएस नरेन्द्र कुमार को उस वक्त अपनी जान गंवानी पड़ी, जब उन्होंने अकेले खनन माफियाओं से टकराने की कोशिश की। अवैध खनन ने देश भर में जगह-जगह माफिया पैदा कर दिए हैं, जो अपने रास्ते में बाधक बनने वालों को हटाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।
हरित पंचाट के हालिया फैसले से अवैध रेत खनन के सिलसिले पर विराम लगने की एक बार फिर उम्मीद जागी है, लेकिन बात फिर वहीं पर जाकर खत्म हो जाती है कि क्या राज्य सरकारें इस निर्देश पर कड़ाई से अमल करेंगी? ऐसे खनन की निगरानी बेहद मुश्किल भरा काम है। अकेले केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के वश की बात नहीं।
केंद्र को पूरी तरह से राज्य सरकारों के तंत्र पर निर्भर रहना पड़ता है। जब तक राज्य सरकारें अपनी जिम्मेदारी ठीक ढंग से नहीं निभातीं, तब तक अवैध रेत खनन रोकना मुश्किलों भरा ही काम होगा। अवैध खनन जहां भी हो, रेत माफियाओं पर सरकार पर्यावरण संरक्षण कानून के तहत सख्त से सख्त कार्रवाई करे। तभी जाकर देश में अवैध खनन पर लगाम लगेगी।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
सीमेंट प्रयोग के साथ बढ़ा रेत का खनन
ब्रज खंडेलवालनदियों का अवैध खनन रोकने वाली आइएएस दुर्गा शक्ति नागपाल के साथ जो कुछ भी हुआ है, वह किसी से छिपा नहीं है। नदियों को रौंदते अवैध खनन से केवल यूपी से गुजरती नदियां ही नहीं, बल्कि समूचे देश की नदियां जूझ रही हैं। बेखौफ खनन, सरकार की मंशा जाहिर कर रहा है कि वह इसे लेकर कितनी गंभीर है।
अवैध खनन की वजह से यमुना नदी 500 मीटर पूरब की ओर विस्थापित हो गई है। यह गंभीर स्थिति है। आज यमुना का यह हाल हुआ है, कल देश की अन्य नदियां भी इसी तरह विस्थापित होती जाएंगी।सरकारी मशीनरी में लगी जंग से क्षुब्ध राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण का आदेश नदियों की थमती सांसों को नए सिरे से ‘ऑक्सीजन’ देने का काम करेगा। यह नदियों के लिए बेहतर कदम तो साबित होगा ही साथ ही पर्यावरण भी असंतुलित होने से बचेगा।
आजादी के बाद अवैध खनन तेजी से आगे बढ़ा। भवन निर्माणों में चूने की जगह सीमेंट ले रहा था। भारत में कई सीमेंट कंपनियों ने अपने पांव जमाए। चूंकि सीमेंट मजबूती के सारे दावे पूर्ण कर रहा था तो लोगों ने भी इसको हाथों हाथ लिया। सीमेंट में बिना रेत या बालू के काम नहीं चल सकता था। जब मांग बढ़ी तो इसके कारोबारियों ने नदियों की तरफ रुख किया।
पहाड़ों से अपने साथ रेत और बालू लाने वाली नदियों में खनन कार्य शुरू हो गया। हालांकि नदियों का खनन जरूरी भी है, लेकिन उसके लिए कुछ मानक तय हैं। उस हिसाब से उसका खनन होना चाहिए, लेकिन किसी भी चीज का बेहिसाब होना, वह सही नहीं है।
90 के दशक में भवन निर्माण उद्योग की गति इतनी तेज हो गई कि खनन माफियाओं का जन्म होने लगा। बिना किसी सरकारी इजाजत के धड़ल्ले से यह अवैध कारोबार फलता-फूलता गया। चूंकि इसमें फायदा अधिक था तो राजनीति ने हाथ रख दिया। आज स्थिति इतनी भयावह हो गई है कि खनन माफिया समूचे देश में नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए नदियों को खत्म करने पर टूट पड़े हैं। चाहे गंगा हो, चंबल या फिर यमुना। अवैध खनन के हमलों से आज नदियां ‘घायल’ हो चुकी हैं।
जगह-जगह से बालू-रेत निकलने से समस्या पैदा होगी। फिर हरियाली खत्म हो रही है। ग्लोबल वार्मिग का असर है कि अब बरसात का पानी बढ़ेगा, घटेगा नहीं। अवैध खनन से नदियां खोखली हो जाएंगी तो बाढ़ का खतरा हमेशा बना रहेगा।
विशुद्ध पर्यावरण की नजर से देखें तो अवैध खनन ने ईको डायवर्सिटी को प्रभावित किया है। तमाम जलचर मारे जाते हैं। हर नदी की अपनी फूड श्रृंखला होती है, वह नष्ट हुई जा रही है। इसका ताजा उदाहरण यमुना नदी है। प्रदूषण की मार से नदी की फूड श्रृंखला खत्म हो चुकी है। नदी में पाए जाने वाले पौधों से लेकर जीव तक एक दूसरे पर निर्भर रहते हैं, वह अब नहीं नजर आते। वहीं अवैध खनन की वजह से यमुना 500 मीटर पूरब की ओर विस्थापित हो गई है। यह गंभीर स्थिति है। आज यमुना का यह हाल हुआ है, कल देश की अन्य नदियां भी इसी तरह विस्थापित होती जाएंगी। कुछ हो भी चुकी हैं।
यमुना ही ऐसी नदी है जो चट्टानों से सबसे अधिक बालू लाती है। बहुत मोटी बालू होने की वजह से यह सीमेंट के लिए अधिक उपयोगी नहीं है, लेकिन गड्ढों को भरने के लिए इससे उपयुक्त कोई बालू नहीं है। आगरा से मथुरा तक यमुना नदी में काफी यू टर्न हैं। इनमें से अगर एक भी टर्न को नुकसान होता है तो पूरी नदी पर असर पड़ेगा।
यमुना एक्सप्रेसवे के दोनों तरफ पांच टाउनशिप बनाने की योजना चल रही है। इतनी बड़ी टाउनशिप में अंदाजा लगाया जा सकता है कि बालू निकालने के लिए यमुना की छाती को कितना भेदा जाएगा। फिर समस्या आएगी पानी की। आगरा शहर को ही पानी नसीब नहीं हो रहा तो वहां कैसे पूर्ति हो सकेगी। सीवेज की अलग समस्या होगी। इन सब की जरूरत अकेली यमुना को ‘जबरन’ पूरी करनी पड़ेगी।
विकास की गति को भी बनाए रखना है, क्योंकि जिस तरह से जनसंख्या बढ़ रही है लोगों के रहने और खाने की समस्या भी पैदा हो रही है। इस समस्या का फायदा भवन निर्माण करने वाली कंपनियों ने उठाया और नदियों के पास घरों का निर्माण करा दिया गया, जबकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश हैं कि नदियों के किनारे किसी भी तरह का निर्माण न किया जाए, लेकिन आदेशों का पालन कराने वाले ही गुमसुम हो गए हैं।
पूंजीपतियों के आगे सरकार बौनी नजर आ रही है। आज दुर्गा शक्ति नागपाल मामले से एक फायदा हुआ है कि जनता जो खनन को लेकर कभी गंभीर नहीं रही उसे मालूम हो गया है कि नदियों का खनन कितना विध्वंसकारी है। खनन की परिभाषा जनता जान चुकी है। जनता का दबाव बहुत जरूरी है।
उत्तराखंड की त्रासदी से हम आज सबक नहीं ले सकते तो बड़ी गलती कर रहे हैं। हालांकि राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण का एक कदम असरकारक सिद्ध होगा। सामाजिक संगठनों से लेकर तमाम पर्यावरणविदें और सरकार को गंभीर होकर नदियों को अवैध खनन और इनके माफियाओं के बढ़ते हौसलों पर ऐसे ‘बांध’ का निर्माण करना होगा, जिसके पार कोई जाने की हिम्मत न कर पाए।
(कमलदीप से बातचीत पर आधारित)
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Post By: pankajbagwan