कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी नदी के पानी के बँटबारे का मामला लगभग 124 साल पुराना मामला है। इस विवाद को मानसून की बेरुखी हवा देती है। सन 1995 और सन 2002 में मानसून ने धोखा दिया। मानसून की बेरुखी हालात खराब किये। सन 2003 से 2006 तक के सालों में तामिलनाडु और कर्नाटक में मानसून की बरसात सामान्य हुई। पानी का बँटवारा, मुद्दा नहीं बना।
सन 2016 में मानसून फिर खलनायक की भूमिका में है। पानी की किल्लत के कारण तमिलनाडु और कर्नाटक की जनता एक बार फिर आमने-सामने है। सम्पत्ति को जिस प्रकार दोनों ओर के लोग नुकसान पहुँचा रहे हैं उसे देखकर प्रतीत होता है मानों सारा दोष सम्पत्ति का ही है। लगता है समस्या का हल सम्पत्ति को हानि पहुँचाने में छुपा है। उसे हानि पहुँचाने वाले शायद यह मानते हैं कि सरकारों या न्यायालयों तक अपनी बात पहुँचाने का यही कारगर या आसान तरीका है।
कावेरी नदी के जल वितरण की जड़ में मुख्यरूप से सन 1890, 1892 और 1924 में मद्रास प्रेसीडेंसी और तत्कालीन मैसूर रियासत के बीच हुए समझौते हैं।
सन 1890 में हुई बैठक में फैसला हुआ था कि मैसूर राज्य को अपने सिंचाई संसाधनों के तर्क-संगत विकास की स्वतंत्रता होगी तो मद्रास प्रेसीडेंसी को अपने हितों की व्यावहारिक सुरक्षा का अधिकार। यही मेरा पानी तेरा पानी के झगड़े की जड़ है।
कर्नाटक चाहता है कि दोनों राज्यों के बीच समानता के आधार पर पानी का बँटबारा हो जबकि तामिलनाडु का तर्क है कि ऐतिहासिक समझौतों के कारण उसने लगभग 30 लाख एकड़ सिंचित जमीन विकसित कर ली है। अब इस भूमि के उपयोग को बदलना या उसे सिंचाई से वंचित करना सम्भव नहीं है। यदि बदलाव लागू किया जाता है तो लाखों किसानों की आजीविका पर उसका बहुत बुरा असर पड़ेगा।
देश के आजाद होने के बाद देशी रियासतों का भारत में विलय हुआ और नए-नए प्रान्त बने। इस विलय ने मैसूर और मद्रास प्रेसीडेंसी को मैसूर (कर्नाटक) और मद्रास (तमिलनाडु) में बदल दिया। इसके बाद राज्यों का पुनर्गठन हुआ और अनेक इलाकों का राजनैतिक समीकरण बदल गया। कावेरी नदी घाटी के इलाके में भी बदलाव हुए और कुर्ग (कावेरी का उद्गम स्थान) मैसूर राज्य का हिस्सा बना। हैदराबाद रजवाड़े और बम्बई प्रेसीडेंसी का बहुत बड़ा हिस्सा मैसूर राज्य में जोड़ा गया।
मलावार का कुछ इलाका जो पहले मद्रास प्रेसीडेंसी का हिस्सा था, केरल राज्य में मिलाया गया। पुदुचेरी को केन्द्र शासित प्रदेश का दर्जा मिला। राज्यों के पुनर्गठन के कारण कावेरी नदी की घाटी का इलाका मैसूर, मद्रास, केरल और पुदुचेरी राज्यों का अंग बना।
इस बदलाव ने कावेरी जल विवाद की तस्वीर और समीकरण बदल दिये। हिस्सेदारों की फेहरिस्त में केरल और पुदुचेरी जुड़े और उन्होंने विवाद में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई तथा कावेरी के पानी के बँटवारे में अपना हिस्सा माँगा।
अब कुछ बात 1892 के समझौते की। इस समझौते के बारे में आज की कर्नाटक सरकार का कहना है कि यह समझौता गुलाम देश की दो असमान इकाइयों यथा रजवाड़े और अंग्रेज सरकार के राज्य के बीच हुआ था। इस समझौते ने मद्रास सरकार को असीमित अधिकार प्रदान किये हैं। यह समझौता कर्नाटक के हितों के पूरी तरह विरुद्ध हैं। इसी के कारण कर्नाटक की सिंचाई व्यवस्था पिछड़ी है।
विवाद की कहानी बताती है कि आजादी के बाद, सन 1960 के आते-आते सभी को जल विवाद की गम्भीरता का अनुभव होने लगा। सन 1924 के अनुबन्ध की समाप्ति की समय सीमा पास आ रही थी। चर्चाएँ प्रारम्भ हुई और लगभग दस साल तक चलती रही। परिणाम वही ढाँक के तीन पात। इसी दौरान केन्द्र सरकार ने कावेरी फैक्ट फाइन्डिंग कमेटी का गठन किया।
कमेटी ने सन 1973 में रिपोर्ट प्रस्तुत की। इस रिपोर्ट के आधार पर राज्यों के बीच चर्चाओं का दौर चला और सन 1974 में कावेरी घाटी अथॉरिटी का प्रस्ताव सामने आया। इस दौरान तामिलनाडु राज्य का सिंचाई का रकबा 14.40 लाख एकड़ से बढ़कर 25.80 लाख एकड़ हो गया। जबकि कर्नाटक में सिंचाई रकबा अपनी पूर्व स्थिति अर्थात 6.80 लाख एकड पर स्थिर रहा अर्थात सिंचाई सुविधा नहीं बढ़ाई जा सकी। इस हकीकत ने कर्नाटक के लोगों के मन में पुराने समझौते की खामियों को पुख्ता किया।
भारत सरकार ने अन्तरराज्यीय जल विवाद एक्ट 1954 के तहत कावेरी नदी जल विवाद अभिकरण का गठन किया। अभिकरण ने लगभग 16 सालों तक विभिन्न पक्षों के तर्क सुने और दिनांक 5 फरवरी 2007 को अपना फैसला सुनाया। इस फैसले के अनुसार तमिलनाडु को 419 बिलियन क्यूबिक फीट और कर्नाटक को 270 बिलियन क्यूबिक फीट पानी मिलना सुनिश्चित हुआ है।
इसके अलावा केरल को हर साल 30 बिलियन क्यूबिक फीट और पुदुचेरी को 7 बिलियन क्यूबिक फीट पानी दिया जाएगा। विभिन्न कारणों तथा तर्काें के आधार पर कर्नाटक सहित सभी राज्य इस फैसले से नाखुश हैं पर कावेरी नदी के जल विवाद के तकनीकी पक्ष को समझने के लिये नदी घाटी और पानी की उपलब्धता से जुड़े कुछ आँकड़ों को समझना आवश्यक है। ये आँकड़े कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल और पुदुचेरी राज्यों से सम्बन्धित हैं-
विवरण |
कर्नाटक |
तमिलनाडु |
केरल |
पुदुचेरी |
योग |
नदी घाटी का क्षेत्रफल (वर्ग किलोमीटर) |
34,273 (42%) |
44,016 (54%) |
2,866 (3.5%) |
148 (0.5%) योग में जोड़ा नहीं |
81,155 |
नदी घाटी का सूखा प्रभावित क्षेत्रफल (वर्ग किलोमीटर) |
21,870 (63.8%) |
12,790 (29.2%) |
- |
- |
34,660 |
कर्नाटक के अनुसार राज्य का जल योगदान (बिलियन एकड़ फीट) |
425 (53.7%) |
252 31.8%) |
113 (14.3%) |
|
790 |
तमिलनाडु के अनुसार राज्य का जल योगदान (बिलियन एकड़ फीट) |
392 (52.9%) |
222 (30%) |
113 (14.3%) |
|
740 |
राज्यों द्वारा चाही पानी की सकल मात्रा |
465 (41%) |
566 (50%) |
100 (9%) |
9.3 (1%) |
11403 |
तमिलनाडु राज्य की इच्छानुसार राज्यों को पानी का आवंटन |
177 (24%) |
566 (76%0 |
5 (1%) |
- |
748 |
अभिकरण के निर्णय के अनुसार राज्यों को पानी का आवंटन |
270 (37%) |
419 (58%) |
30 (4%) |
7 (1%) |
726 |
तालिका के अवलोकन से पता चलता है कि विवाद की जड़ में पानी की कमी है। उसे दूर करना ही हल है। कर्नाटक को लगता है कि उसके 425 बिलियन एकड़ फीट के योगदान के बदले में उसे मात्र 270 बिलियन एकड़ फीट पानी मिला है। वहीं तमिलनाडु को 252 बिलियन एकड़ फीट योगदान के बदले में 419 बिलियन एकड़ फीट पानी मिला है। यह आँकड़ों का खेल है। यदि तमिलनाडु के आँकड़ों के अनुसार देखें तो हालत थोड़ी अलग है।
नदी घाटी के योगदान का मामला मात्र तकनीकी नहीं है। वह बेहद जटिल है। वह बहुआयामी है। अन्तरराज्यीय नदियों के बीच पानी के बँटवारे की जड़ में खेती, पेयजल, निस्तार, खेती, आमोद-प्रमोद और कल कारखानों की अनिवार्य जरूरतें हैं।
भारत जैसे विशाल देश में जहाँ सूखा सम्भावित एवं बरसात पर निर्भर इलाकों को साल में बामुश्किल चार महीने पानी मिलता हो, उस देश में अन्तरराज्यीय नदियों के पानी के बँटवारे का मामला, अपने आप प्रभावित आबादी की मूलभूत जरूरतों और आजीविका से जुड़ा संवेदनशील मामला बन जाता है। दूसरी ओर यह मामला राज्यों की जिम्मेदारियों से भी जुड़ा है तो तीसरी ओर राजनैतिक पार्टियों के लिये भी जनहित और वर्चस्व से जुड़ा अहम मसला है।
ऐसा मसला जिसमें मतदाताओं से जुड़ने या टूटने की असीम सम्भावनाएँ हैं इसीलिये सभी राजनैतिक दल, अन्तरराज्यीय नदियों के पानी के बँटवारे में अपनी भूमिका तलाशते हैं। अधिक-से-अधिक पानी को अपने राज्य में लाने का प्रयास करते हैं।
रामास्वामी अय्यर के अनुसार नदी जल विवादों के निपटारे में आपसी समझदारी और समझौते को मानने की इच्छा ही सर्वोपरी होती है। वे यह स्वीकार भी करते हैं कि यही सद्इच्छा ही परिदृश्य से पूरी तरह गायब है। कुछ लोगों का मानना है कि नदी घाटी जल विवादों में हितग्राही समाज की राय, उनकी इच्छा और उनके कायदे कानूनों की बात नहीं होती। उसे मुख्यधारा में लाया जाना चाहिए।
जल विवादों को निपटाने में राजनैतिक इच्छाशक्ति महत्त्वपूर्ण है। प्रजातांत्रिक देश में, प्रजा की राय ही सर्वोपरि है। इसे नकारना सम्भव नहीं होता। इसलिये यह विकल्प दे सकती है। इस पर काम करने के पहले पानी के अधिकारों को नए परिभाषित करना होगा, उसके आवंटन की सीमाएँ तय करनी होंगी और उनमें समानता तथा सामाजिक न्याय के तत्वों को स्थान देना होगा। वही जल बँटवारे का सर्वमान्य आधार बन सकता है। हितग्राही समाज को सभी प्रबन्धकीय अधिकार सौंपना ही एकमात्र विकल्प लगता है।
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