तमिलनाडु के कुडनकुलम स्थित परमाणु संयंत्र ने 13 जुलाई से काम करना शुरू कर दिया है, लेकिन रेडियोएक्टिव कचरे को निस्तारित करने का कोई उपाय नहीं हुआ है, दूसरी ओर रूस से हुए समझौते और अमेरिका से हुई ‘डील’ की अस्पष्टता भी है।
आश्चर्यजनक तथ्य तो यह है कि दक्षिण समुद्री इलाके में रेत के खनन के जरिए ‘थोरियम’ निकाले जाने की वजह से वहां लोगों में कैंसर जैसी बीमारियाँ पहले से ही हो रही हैं और फिर प्राकृतिक आपदाएं कहकर भी तो नहीं आतीं...ऐसे में बेशक आने वाली पीढ़ियों के लिए ही चिंतित हैं लोग। जापान से लेकर कुडनकुलम तक...तभी तो कोरागट्टम करते, हंसते-गाते मछुआरे गंगई अम्मा (नदी की देवी) की आराधना भूलकर परमाणु ऊर्जा के विरोध में जुटे हैं... ऐसा था एक गांव... खुशहाल, समृद्ध। लोग खेती करते, मवेशी पालते, अच्छा पैसा कमाते। स्त्रियां घर संभालतीं और बच्चे स्कूल से आकर मटरगश्ती करते फिरते...
...लेकिन कोई दो वर्ष बीते, गांव में खेती लगभग खत्म हो गई, धान के बजाय खेतों में लंबी-लंबी खरपतवार है, यहां की गायों का दूध अब बिकता नहीं। औरतें घर खर्च चलाने की उधेड़बुन में हैं।
मार्च, 2011 में जापान में भूकंप, सुनामी और फुकुशिमा परमाणु संयंत्र में हुए विस्फोट के बाद से वहां मानव बस्तियों के हालात बदतर हो गए हैं, लोगों के मन दरक चुके हैं... ...दरार धीरे-धीरे लंबी होकर दक्षिण भारत में तमिलनाडु के कुडनकुलम कस्बे तक पहुंच गई है। एक अनजानी आशंका से भयभीत हैं यहां के निवासी... इस दहशत की वजह है यहां पिछले दिनों शुरू हुआ परमाणु संयंत्र... जापान में फूटे परमाणु संयंत्र से टूटे मानव मनों की ध्वनि की प्रतिध्वनि हमारे देश में सुनाई पड़ रही है।
मन का टूटना एवं जुड़ना कभी न थमने वाली प्रक्रिया है। मन सदैव ही एक स्थाई अवस्था में आने के प्रयास में विचलित रहता है। कभी तो लगता है कि मन जैसे यूरेनियम है... बहुरुपिया यूरेनियम, एक ऐसा तत्व है, जो लगातार रूप बदलता रहता है, कभी एक रूप में स्थिर रहता ही नहीं... बहुरुपियों में यूरेनियम अकेला नहीं, यहां तो पूरी की पूरी जमात है- प्लूटोनियम, थोरियम, स्ट्राशियम, रूबीडियम इत्यादि। इन सभी को एक ही श्रेणी में रखा जाता है रेडियोएक्टिव तत्वों की श्रेणी में... इन तत्वों की परमाणु संरचना में अनवरत परिवर्तन होते रहते हैं। परमाणु यानी किसी भी तत्व का सबसे छोटा टुकड़ा, जिसमें एक नाभिक होता है, जिसके चारों ओर इलेक्ट्रॉन चक्कर लगाते रहते हैं। नाभिक में रहते हैं प्रोटॉन तथा न्यूट्रॉन, इनकी संख्या में बदलाव की वजह से ही रेडियोएक्टिव तत्व अस्थिर होता है, निरंतर विखंडित होता है। इस विखंडन में हानिकारक विकिरण निकलते हैं। साथ ही निकलती है ऊर्जा। ये ऊर्जा व्यर्थ ही चली जाती है।
...किंतु हम ठहरे इंसान, ऊर्जा बेकार कैसे जाने देते, लिहाजा सालों तक अनुसंधान कर हमने इस ऊर्जा का प्रयोग दो प्रकार से करना सीखा-परमाणु हथियार बनाए एवं परमाणु ईंधन से विद्युत बनाई।
बिजली बनाने के लिए परमाणु भट्टियां लगाईं, वहां विखंडन प्रक्रिया को कृत्रिम तरीके से करवाया। ये किस प्रकार संभव हुआ इसके लिए थोड़ी सी भौतिकी जाननी होगी। उदाहरण के लिए लेते हैं-यूरेनियम का एक रूप ‘यू 235’, इस पर एक न्यूट्रॉन का हमला करने पर, यह एक न्यूट्रॉन लेकर ‘यू 236’ में बदल जाता है। ‘यू 236’ एक अतिरिक्त न्यूट्रॉन को पाकर अत्यधिक उत्तेजित हो जाता है, स्थिर नहीं रह पाता और टूट कर दो भागों में विभक्त हो जाता है। इस पूरी क्रिया में ढेर सारी ऊर्जा और 2 न्यूट्रॉन मुक्त होते हैं। ये दोनों न्यूट्रॉन अन्य दो ‘यू 235’ पर हमला करते हैं। ये प्रक्रिया बिना रुके चलती रहती है। इसे श्रृंखला अभिक्रिया कहते हैं,जो कि परमाणु बम में अनियंत्रित होती है, परमाणु संयंत्र में नियंत्रित। इसे नियंत्रित करने के लिए संयंत्र में न्यूट्रॉन अवशोषित करने वाले पदार्थ प्रयोग किए जाते हैं, जो हैं भारी पानी, ग्रेफाइट, बोरोन आदि। संयंत्र में न्यूट्रॉन की बमबारी शुरू करने एवं जारी रखने के लिए तापमान नियत बनाए रखा जाता है। इसके लिए संयंत्र में ‘कूलिंग सिस्टम’ मौजूद रहता है। सिस्टम में पानी का इस्तेमाल करते हैं, श्रृंखला अभिक्रिया से निकली ऊष्मा से ये पानी बहुत गर्म हो जाता है। इससे भाप बनती है, उस भाप से टरबाइन चलाकर बिजली बनाई जाती है।
यदी कुडनकुलम संयंत्र की बात करें तो ये एक ‘थर्ड जेनरेशन मॉडल’ का संयंत्र है। यहां परमाणु ईंधन के तौर पर यूरेनियम तथा नियंत्रक के रूप में ग्रेफाइट और हल्का पानी (साधारण पानी) इस्तेमाल किए गए हैं। अभी तक संयत्रों में भारी पानी प्रयुक्त किया जाता रहा था, जो कि खतरनाक है।
दरअसल भारी पानी भी न्यूट्रॉन अवशोषित कर एक रेडियोएक्टिव तत्व ‘ट्रिटियम में तब्दील हो जाता है। बहरहाल ये एक बेहद सुरक्षित संयंत्र है, जिसका ‘कूलिंग सिस्टम’ उम्दा है, उच्च क्षमता के जेनरेटर्स यहां हैं, इसके अलावा ये ठोस भू-भाग पर बना है, न कि फुकुशिमा की तरह समुद्री तटभूमि पर। सुनामी जैसे समुद्री तूफानों और उच्च तीव्रता के भूकंप से भी यह क्षेत्र सुरक्षित है। प्रत्यक्षतः किसी भी प्रकार का प्रदूषण यह परमाणु भट्टी नहीं फैला रही है। इतने सुरक्षा बंदोबस्त और खासियतों के बावजूद भी बंगाल की खाड़ी के किनारे खड़ा कुडनकुलम परमाणु संयंत्र, अपने ही आसपास बसे लाखों लोगों का कड़ा विरोध झेल रहा है। ये संयंत्र एक हजार मेगावाट बिजली बना रहा है, जो पूरे तमिलनाडु के घरों को रोशन करेगी।
फिर भी यहां के लोगों के मन बुझे हैं। वे अपने ही गाँवों से विस्थापित कर दिए गए, जब से परमाणु संयंत्र समझौते पर रूस और भारत ने हस्ताक्षर किए। इस बात को तीस से भी ज्यादा साल हो गए। विस्थापन के दर्द के साथ उन्हें उन हानिकारक विकिरणों का खतरा भी है, जो बहुत धीमे से शरीर में प्रविष्ट होते हैं, दीर्घकाल तक असर दिखाते हैं। उनकी आने वाली पीढ़ियाँ भी इन्हीं रेडियोएक्टिव तत्वों के साथ जन्म लेंगी। श्रृंखला अभिक्रिया में यू-235 जिन दो तत्वों में विभाजित होता है, वो कहने को तो अपशिष्ट हैं, लेकिन रेडियोधर्मी हैं, जिनके क्षरण के लिए 5 हजार से ज्यादा वर्ष की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। साथ ही ये असाधारण तौर पर गर्म होते हैं। इनके निस्तारण का सवाल अब भी ज्यों का त्यों है। अभी तक ऐसी जगह की तलाश की जा रही है, जहां इन्हें फेंका जा सके, जहां न मनुष्य हो, न जीव-जंतु, न वनस्पति... संयंत्र में कूलेंट की तरह प्रयुक्त पानी समुद्र में छोड़ा जाएगा, यानी पूरी खाद्य श्रृंखला पर बड़ा संकट है।
इन सबके बीच एक अन्य आश्चर्यजनक तथ्य तो यह है कि दक्षिण समुद्री इलाके में रेत के खनन के जरिए ‘थोरियम’ निकाले जाने की वजह से वहां लोगों में कैंसर जैसी बीमारियाँ पहले से ही हो रही हैं और फिर प्राकृतिक आपदाएं कहकर भी तो नहीं आतीं...ऐसे में बेशक आने वाली पीढ़ियों के लिए ही चिंतित हैं लोग। जापान से लेकर कुडनकुलम तक...तभी तो कोरागट्टम (तमिलनाडु का लोकनृत्य) करते, हंसते-गाते मछुआरे गंगई अम्मा (नदी की देवी) की आराधना भूलकर परमाणु ऊर्जा के विरोध में जुटे हैं...
1. रूस के सहयोग से स्थापित कुडनकुलम परमाणु संयंत्र में किसी भी प्रकार की दुर्घटना की ज़िम्मेदारी भारत की ही होगी। (भारत-रूस परमाणु समझौता 1988)
2. भारत अपने बदले हुए कानून के तहत चाहता है कि परमाणु भट्टी की तीसरी और चौथी इकाई की ज़िम्मेदारी रूस ले। (सिविल लायबिलिटी फॉर न्यूक्लियर डैमेज एक्ट 2010)
3. रूस इस बात के लिए कतई तैयार नहीं। उसका कहना है वो 2008 में हुए एक अन्य समझौते के तहत ही काम करेगा यानी भारत ही यूनिट 3 और 4 की ज़िम्मेदारी वहन करेगा। (इंटरगवर्नमेंटल एग्रीमेंट 2008)
4.अभी तक दोनों देशों के बीच ज़िम्मेदारी के मुद्दे पर कोई सहमती नहीं।
1. 0.45 किलोग्राम यूरेनियम के विखंडन से प्राप्त ऊर्जा 3000 टन कोयले के जलने से मिलने वाली ऊर्जा के बराबर होती है।
2. सौर ऊर्जा की कीमत तकरीबन 20 रुपए किलोवाट, पवन ऊर्जा 10 रुपए किलोवाट, जबकि परमाणु ऊर्जा 1-3 रुपए किलोवाट पड़ती है।
आश्चर्यजनक तथ्य तो यह है कि दक्षिण समुद्री इलाके में रेत के खनन के जरिए ‘थोरियम’ निकाले जाने की वजह से वहां लोगों में कैंसर जैसी बीमारियाँ पहले से ही हो रही हैं और फिर प्राकृतिक आपदाएं कहकर भी तो नहीं आतीं...ऐसे में बेशक आने वाली पीढ़ियों के लिए ही चिंतित हैं लोग। जापान से लेकर कुडनकुलम तक...तभी तो कोरागट्टम करते, हंसते-गाते मछुआरे गंगई अम्मा (नदी की देवी) की आराधना भूलकर परमाणु ऊर्जा के विरोध में जुटे हैं... ऐसा था एक गांव... खुशहाल, समृद्ध। लोग खेती करते, मवेशी पालते, अच्छा पैसा कमाते। स्त्रियां घर संभालतीं और बच्चे स्कूल से आकर मटरगश्ती करते फिरते...
...लेकिन कोई दो वर्ष बीते, गांव में खेती लगभग खत्म हो गई, धान के बजाय खेतों में लंबी-लंबी खरपतवार है, यहां की गायों का दूध अब बिकता नहीं। औरतें घर खर्च चलाने की उधेड़बुन में हैं।
मार्च, 2011 में जापान में भूकंप, सुनामी और फुकुशिमा परमाणु संयंत्र में हुए विस्फोट के बाद से वहां मानव बस्तियों के हालात बदतर हो गए हैं, लोगों के मन दरक चुके हैं... ...दरार धीरे-धीरे लंबी होकर दक्षिण भारत में तमिलनाडु के कुडनकुलम कस्बे तक पहुंच गई है। एक अनजानी आशंका से भयभीत हैं यहां के निवासी... इस दहशत की वजह है यहां पिछले दिनों शुरू हुआ परमाणु संयंत्र... जापान में फूटे परमाणु संयंत्र से टूटे मानव मनों की ध्वनि की प्रतिध्वनि हमारे देश में सुनाई पड़ रही है।
मन का टूटना एवं जुड़ना कभी न थमने वाली प्रक्रिया है। मन सदैव ही एक स्थाई अवस्था में आने के प्रयास में विचलित रहता है। कभी तो लगता है कि मन जैसे यूरेनियम है... बहुरुपिया यूरेनियम, एक ऐसा तत्व है, जो लगातार रूप बदलता रहता है, कभी एक रूप में स्थिर रहता ही नहीं... बहुरुपियों में यूरेनियम अकेला नहीं, यहां तो पूरी की पूरी जमात है- प्लूटोनियम, थोरियम, स्ट्राशियम, रूबीडियम इत्यादि। इन सभी को एक ही श्रेणी में रखा जाता है रेडियोएक्टिव तत्वों की श्रेणी में... इन तत्वों की परमाणु संरचना में अनवरत परिवर्तन होते रहते हैं। परमाणु यानी किसी भी तत्व का सबसे छोटा टुकड़ा, जिसमें एक नाभिक होता है, जिसके चारों ओर इलेक्ट्रॉन चक्कर लगाते रहते हैं। नाभिक में रहते हैं प्रोटॉन तथा न्यूट्रॉन, इनकी संख्या में बदलाव की वजह से ही रेडियोएक्टिव तत्व अस्थिर होता है, निरंतर विखंडित होता है। इस विखंडन में हानिकारक विकिरण निकलते हैं। साथ ही निकलती है ऊर्जा। ये ऊर्जा व्यर्थ ही चली जाती है।
...किंतु हम ठहरे इंसान, ऊर्जा बेकार कैसे जाने देते, लिहाजा सालों तक अनुसंधान कर हमने इस ऊर्जा का प्रयोग दो प्रकार से करना सीखा-परमाणु हथियार बनाए एवं परमाणु ईंधन से विद्युत बनाई।
बिजली बनाने के लिए परमाणु भट्टियां लगाईं, वहां विखंडन प्रक्रिया को कृत्रिम तरीके से करवाया। ये किस प्रकार संभव हुआ इसके लिए थोड़ी सी भौतिकी जाननी होगी। उदाहरण के लिए लेते हैं-यूरेनियम का एक रूप ‘यू 235’, इस पर एक न्यूट्रॉन का हमला करने पर, यह एक न्यूट्रॉन लेकर ‘यू 236’ में बदल जाता है। ‘यू 236’ एक अतिरिक्त न्यूट्रॉन को पाकर अत्यधिक उत्तेजित हो जाता है, स्थिर नहीं रह पाता और टूट कर दो भागों में विभक्त हो जाता है। इस पूरी क्रिया में ढेर सारी ऊर्जा और 2 न्यूट्रॉन मुक्त होते हैं। ये दोनों न्यूट्रॉन अन्य दो ‘यू 235’ पर हमला करते हैं। ये प्रक्रिया बिना रुके चलती रहती है। इसे श्रृंखला अभिक्रिया कहते हैं,जो कि परमाणु बम में अनियंत्रित होती है, परमाणु संयंत्र में नियंत्रित। इसे नियंत्रित करने के लिए संयंत्र में न्यूट्रॉन अवशोषित करने वाले पदार्थ प्रयोग किए जाते हैं, जो हैं भारी पानी, ग्रेफाइट, बोरोन आदि। संयंत्र में न्यूट्रॉन की बमबारी शुरू करने एवं जारी रखने के लिए तापमान नियत बनाए रखा जाता है। इसके लिए संयंत्र में ‘कूलिंग सिस्टम’ मौजूद रहता है। सिस्टम में पानी का इस्तेमाल करते हैं, श्रृंखला अभिक्रिया से निकली ऊष्मा से ये पानी बहुत गर्म हो जाता है। इससे भाप बनती है, उस भाप से टरबाइन चलाकर बिजली बनाई जाती है।
यदी कुडनकुलम संयंत्र की बात करें तो ये एक ‘थर्ड जेनरेशन मॉडल’ का संयंत्र है। यहां परमाणु ईंधन के तौर पर यूरेनियम तथा नियंत्रक के रूप में ग्रेफाइट और हल्का पानी (साधारण पानी) इस्तेमाल किए गए हैं। अभी तक संयत्रों में भारी पानी प्रयुक्त किया जाता रहा था, जो कि खतरनाक है।
दरअसल भारी पानी भी न्यूट्रॉन अवशोषित कर एक रेडियोएक्टिव तत्व ‘ट्रिटियम में तब्दील हो जाता है। बहरहाल ये एक बेहद सुरक्षित संयंत्र है, जिसका ‘कूलिंग सिस्टम’ उम्दा है, उच्च क्षमता के जेनरेटर्स यहां हैं, इसके अलावा ये ठोस भू-भाग पर बना है, न कि फुकुशिमा की तरह समुद्री तटभूमि पर। सुनामी जैसे समुद्री तूफानों और उच्च तीव्रता के भूकंप से भी यह क्षेत्र सुरक्षित है। प्रत्यक्षतः किसी भी प्रकार का प्रदूषण यह परमाणु भट्टी नहीं फैला रही है। इतने सुरक्षा बंदोबस्त और खासियतों के बावजूद भी बंगाल की खाड़ी के किनारे खड़ा कुडनकुलम परमाणु संयंत्र, अपने ही आसपास बसे लाखों लोगों का कड़ा विरोध झेल रहा है। ये संयंत्र एक हजार मेगावाट बिजली बना रहा है, जो पूरे तमिलनाडु के घरों को रोशन करेगी।
फिर भी यहां के लोगों के मन बुझे हैं। वे अपने ही गाँवों से विस्थापित कर दिए गए, जब से परमाणु संयंत्र समझौते पर रूस और भारत ने हस्ताक्षर किए। इस बात को तीस से भी ज्यादा साल हो गए। विस्थापन के दर्द के साथ उन्हें उन हानिकारक विकिरणों का खतरा भी है, जो बहुत धीमे से शरीर में प्रविष्ट होते हैं, दीर्घकाल तक असर दिखाते हैं। उनकी आने वाली पीढ़ियाँ भी इन्हीं रेडियोएक्टिव तत्वों के साथ जन्म लेंगी। श्रृंखला अभिक्रिया में यू-235 जिन दो तत्वों में विभाजित होता है, वो कहने को तो अपशिष्ट हैं, लेकिन रेडियोधर्मी हैं, जिनके क्षरण के लिए 5 हजार से ज्यादा वर्ष की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। साथ ही ये असाधारण तौर पर गर्म होते हैं। इनके निस्तारण का सवाल अब भी ज्यों का त्यों है। अभी तक ऐसी जगह की तलाश की जा रही है, जहां इन्हें फेंका जा सके, जहां न मनुष्य हो, न जीव-जंतु, न वनस्पति... संयंत्र में कूलेंट की तरह प्रयुक्त पानी समुद्र में छोड़ा जाएगा, यानी पूरी खाद्य श्रृंखला पर बड़ा संकट है।
इन सबके बीच एक अन्य आश्चर्यजनक तथ्य तो यह है कि दक्षिण समुद्री इलाके में रेत के खनन के जरिए ‘थोरियम’ निकाले जाने की वजह से वहां लोगों में कैंसर जैसी बीमारियाँ पहले से ही हो रही हैं और फिर प्राकृतिक आपदाएं कहकर भी तो नहीं आतीं...ऐसे में बेशक आने वाली पीढ़ियों के लिए ही चिंतित हैं लोग। जापान से लेकर कुडनकुलम तक...तभी तो कोरागट्टम (तमिलनाडु का लोकनृत्य) करते, हंसते-गाते मछुआरे गंगई अम्मा (नदी की देवी) की आराधना भूलकर परमाणु ऊर्जा के विरोध में जुटे हैं...
एक विवाद यह भी
1. रूस के सहयोग से स्थापित कुडनकुलम परमाणु संयंत्र में किसी भी प्रकार की दुर्घटना की ज़िम्मेदारी भारत की ही होगी। (भारत-रूस परमाणु समझौता 1988)
2. भारत अपने बदले हुए कानून के तहत चाहता है कि परमाणु भट्टी की तीसरी और चौथी इकाई की ज़िम्मेदारी रूस ले। (सिविल लायबिलिटी फॉर न्यूक्लियर डैमेज एक्ट 2010)
3. रूस इस बात के लिए कतई तैयार नहीं। उसका कहना है वो 2008 में हुए एक अन्य समझौते के तहत ही काम करेगा यानी भारत ही यूनिट 3 और 4 की ज़िम्मेदारी वहन करेगा। (इंटरगवर्नमेंटल एग्रीमेंट 2008)
4.अभी तक दोनों देशों के बीच ज़िम्मेदारी के मुद्दे पर कोई सहमती नहीं।
परमाणु ऊर्जा का अर्थशास्त्र
1. 0.45 किलोग्राम यूरेनियम के विखंडन से प्राप्त ऊर्जा 3000 टन कोयले के जलने से मिलने वाली ऊर्जा के बराबर होती है।
2. सौर ऊर्जा की कीमत तकरीबन 20 रुपए किलोवाट, पवन ऊर्जा 10 रुपए किलोवाट, जबकि परमाणु ऊर्जा 1-3 रुपए किलोवाट पड़ती है।
विश्व की बड़ी परमाणु संयंत्र दुर्घटनाएँ
फुकुसिमा त्रासदी | दाइची, जापान | 11 मार्च, 2011 |
चेर्नोबिल त्रासदी | युकेन, रूस | 26 अप्रैल, 1986 |
थ्री माइल आइलैंड दुर्घटना | अमेरिका | 28 मार्च, 1979 |
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