कानून पर जिद की जीत


हम सब जानते हैं कि इस मुद्दे पर विश्व बैंक की मोर्स कमेटी रिपोर्ट में विशेषज्ञों ने गम्भीर आपत्ति उठाई थी। फिर वॉलिंग फॉर्ड नामक अन्तरराष्ट्रीय सलाहकार की नियुक्ति हुई और 600 क्यूसेक पानी छोड़ने का निर्णय हुआ। मप्र ने आपत्ति उठाई कि गुजरात और मप्र में से किसके हिस्से का पानी छोड़ें इस पर विवाद भी खड़ा हुआ। आखिर में समझौता तो हुआ, लेकिन निर्णय का पूरा पालन नहीं हुआ और न ही किसी ने इस समस्या पर चिन्ता दिखाई।

सरदार सरोवर जलाशय के कारण पर्यावरण पर पड़ रहे अनेक प्रतिकूल प्रभावों की बात नई नहीं है। वर्ष 1985 से ही नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने बाँध सम्बन्धित विविध मुद्दे उठाए हैं जिसमें विस्थापन व पुनर्वास, भूकम्प का खतरा, स्वास्थ्य पर असर, लाभ क्षेत्र में दलदलीकरण का असर आदि के साथ एक महत्त्व का मुद्दा था सरदार सरोवर बाँध के निचले निवास स्थलों के 51 कि.मी. दूरी तक के क्षेत्र पर समुद्र के गम्भीर असर का अध्ययन। बड़े बाँध की वजह से इस समस्या का अध्ययन और वैज्ञानिक आकलन जरूरी था। इसके बाद ही इससे सम्बन्धित योजना बनाना कारगर होता। सन 1987 में बाँध को दी गई मंजूरी सशर्त थी लेकिन दुर्भाग्यवश उसमें इस मुद्दे का संज्ञान नहीं लिया गया था। इसके बाद नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण की हर बैठक में सन 2013 तक इसकी मात्र चर्चा होती रही और कहा गया कि निचले निवास पर प्रभाव सम्बन्धी अध्ययन जारी है लेकिन उसके अपूर्ण होने के कारण योजना नहीं बन पाई है। यही बात प्रत्येक वार्षिक रिपोर्टाें में लिखी जाती रही। सन 2013 से तो यह मुद्दा रिपोर्टाें में से गायब ही हो गया।

पिछले कुछ सालों से सरदार सरोवर के नीचे के गाँवों व शहरों पर भी बाँध एवं समुद्र दोनों का असर आना शुरू हो गया है। जनता गर्मी में सूखा और बारिश के मौसम में बाढ़ का चक्र भुगतने को अभिशप्त हो गई है। एक से अधिक बार बड़े पैमाने पर मछलियाँ मरी एवं किनारे पर आकर इकट्ठा हो गई। समुद्र के नजदीक के गाँवों में जमीन और खेती प्रयोग में आने वाले सतह जल के अलावा अब भूजल में भी खारापन आना शुरू हो गया है। प्रधानमंत्री मोदी ने जून 2014 के बाद सरोवर बाँध की ऊँचाई 122 से 139 मी. तक बढ़ाने का निर्णय कानून, अदालत के आदेशों, पुनर्वास नीति, पर्यावरणीय समस्याएँ, जाँच रिपोर्ट्स की अनदेखी तथा मानव अधिकारों का उल्लंघन करते हुए ले लिया। विरोध के बावजूद इस कार्य को जल्दबाजी में पूरा किया गया। कई बार पत्र लिखने के बावजूद प्रधानमंत्री ने नर्मदा बचाओ आन्दोलन से चर्चा करना गवारा नहीं किया।

बाँध के गेट्स लगाने व मंजूरी न होते हुए बन्द रखे जाने से समुद्र गुजरात की जमीन और पानी पर अतिक्रमण करते हुए 30 किमी तक अन्दर आ गया है। भड़ूच औद्योगिक क्षेत्र में कई उद्योग बन्द हो गए हैं। उन्होंने प्रतिनिधिमंडल के द्वारा मुख्यमंत्री को समस्या बताई और माँग रखी कि उन्हें पर्याप्त मात्रा में शुद्ध पानी दिया जाये। कांग्रेस और भाजपा के निचले वास के नेताओं ने दल की कई सभाओं का बहिष्कार किया। कांग्रेस के अहमद पटेल ने पहली बार नर्मदा बचाने की माँग की। इसके बाद कुछ पानी छोड़ा गया। किन्तु आज भी समस्या कायम है। अब तक इसका सन्तोषजनक हल नहीं निकला है और न ही सरकार इसके प्रति गम्भीर है। सरदार सरोवर जलाशय के गेट्स बन्द करने की तैयारी आज भी चल रही है।

हम सब जानते हैं कि इस मुद्दे पर विश्व बैंक की मोर्स कमेटी रिपोर्ट में विशेषज्ञों ने गम्भीर आपत्ति उठाई थी। फिर वॉलिंग फॉर्ड नामक अन्तरराष्ट्रीय सलाहकार की नियुक्ति हुई और 600 क्यूसेक पानी छोड़ने का निर्णय हुआ। मप्र ने आपत्ति उठाई कि गुजरात और मप्र में से किसके हिस्से का पानी छोड़ें इस पर विवाद भी खड़ा हुआ। आखिर में समझौता तो हुआ, लेकिन निर्णय का पूरा पालन नहीं हुआ और न ही किसी ने इस समस्या पर चिन्ता दिखाई। सन 2005 से लेकर सन 2013 तक की नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण की रिपोर्ट्स तथा पर्यावरणीय उपदल की बैठकों का विवरण पढ़ने से मालूम होता है कि हर बार बस यही निष्कर्ष निकालकर कहा गया कि अध्ययन अधूरे हैं और इसी कारण योजना नहीं बनी है।

वर्ष 2013 के बाद तो अन्य पर्यावरणीय मुद्दों की तरह यह विषय भी चर्चा से बाहर हो गया। जबकि सन 2001 में गठित केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय की देवेन्द्र पाण्डे कमेटी ने अपनी रिपोर्ट के अध्ययन नियोजन के अभाव में गुजरात के बाँध पर होने वाले गम्भीर असरों के बारे में आगाह किया था। इसके बावजूद इन पर ध्यान न देते हुए बाँध को आगे धकेलकर, विस्थापितों के साथ गुजरात के ही हजारों खेतीहर, मछुआरों, ग्राम व शहरवासी तथा परिक्रमा करने वालों पर भी खतरा मँडरा रहा है। गुजरात की 18 ग्रामसभाओं ने इसकी भर्त्सना की है। 15 जुलाई से हजारों विस्थापित आदिवासी भी केवड़िया कॉलोनी स्थित बाँध स्थल के पास धरना व उपवास शुरू कर चुके हैं।

सुश्री मेधा पाटकर सुविख्यात समाजकर्मी हैं एवं नर्मदा बचाओ आन्दोलन की वरिष्ठ कार्यकर्ता हैं।

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