काली से गिरथी गंगा तक

साढ़े चार महीने साथ-साथ सफर करने के बाद 8 जून 1997 को सुमीता, विनीता और मैं आधिकारिक तौर पर बछेन्द्री पाल के नेतृत्व में की जा रही भारतीय महिलाओं की पहली ट्रांस हिमालय यात्रा से अलग हो गए। अपनी अन्तिम बैठक में हम सबने अपनी भावनाओं को दबाए रखा। मैं कह सकती हूँ कि इस बेतरह बिगड़ चुकी मौजूदा परिस्थितियों में यह यात्रा हममें से हरेक के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण बन गई थी परिणामस्वरूप जैसी कि हमें आशंका थी, बछेन्द्री ने नकदी या सामान के रूप में उन चीजों में हमें हिस्सा देने से साफ इंकार कर दिया जिन्हें जुटाने में हमने भरपूर मदद की थी।

कुमाऊँ 8 जून से 22 जून 1997

जौलजीवी में, जहाँ गोरी और काली नदियों का संगम है, हम अगले दो महीने तक आखिरी बार एक दूसरे से मुखातिब हुए। हम मुनस्यारी की ओर बढ़े, जहाँ से हमें मिलम, ऊँटाधूरा व खिंगुर होते हुए चमोली गढ़वाल जिले के मलारी में पहुँचना था। दूसरी ओर वे लोग और नीचे की ओर चलकर सड़क मार्ग से कपकोट की ओर रवाना हुए, जहाँ से उनकी योजना आदिबद्री और कुआरी पास होते हुए बद्रीनाथ पहुँचने की थी।

मुनस्यारी के हमारे दोस्तों ने घर पहुँचकर हमारा ऐसा जोरदार स्वागत किया कि हमारे सफर की अब तक की सारी थकान और कड़वाहट काफूर हो गई। बीते किस्से दोहराए गए और इस बार हम उन बातों में खूब हँस रहे थे। मैं उन बातों को याद कर रही थी जो अरुणाचल प्रदेश में अपनी यात्रा की शुरुआत में एकाकी व ठंडे आर्मी बैरक में मैंने पढ़ी थीं।

दर्द गुजर जाता है और सुन्दरता बनी रहती है। अगले दो दिनों का सफर आरामदेह रहा पहले मटमैली काली के साथ जौलजीवी तक और फिर उत्तर-पश्चिम दिशा में हल्के रंग के बर्फीले पानी वाली गोरी गंगा के उद्गम की ओर। हम बंगापानी के नजदीक बिजलीघर के लिए बनी उजाड़ सुरंग में चमगादड़ों की खोज में निकले। बरम में हम हाड़ कंपा देने वाले ठंडे पानी की नदी में तैरे और यहीं सड़क किनारे एक ढाबे में गोरी से ताजी पकड़ी असेला मछली के शोरबे और भात का आनन्द लिया। इसके बाद बंगापानी, मदकोट और मुनस्यारी होते हुए हम आखिर अपने घर सरमोली जा पहुँचे।

12 जून 1997 सरमोली आराम का दिन

घर पहुँचते ही मेरे शरीर का रोआं-रोआं थम जाना चाहता है। शरीर और मन पर जैसे मानो बोझ रखा हुआ है। मैं बस सोना चाहती हूँ लेकिन अपने परिवार के बीच घर पर होने के अहसास को एक पल के लिए भी जुदा नहीं होने देना चाहती।

मुनस्यारी की दो प्रबुद्ध महिलाएँ-भागा दी और तारा देवी छोटा सा बुके लेकर पहुँची हैं। वह हम सबका नागरिक अभिनन्दन करना चाहती हैं। हमारे आग्रह करने पर वह यहाँ के परिचितों के साथ एक बैठक बुलाने पर राजी हो जाती हैं। कुछ लोग इस बात से बेहद निराश हैं कि बछेन्द्री मुनस्यारी नहीं आई। अब तक मैंने उसे विवाद के बारे में उन्हें कुछ नहीं बताया, सिर्फ इतना भर कहा कि हमने दो अलग-अलग रास्ते पकड़ लिए हैं। इस तरह हम जल्दी ही लोगों की पहली परीक्षा में उतरने वाले हैं। सरमोली की ही मेरी एक छोटी सी सहेली बैंड बाजे और पटाखों के बीच सात फेरे लेने जा रही है और एक अन्य दोस्त ने अपने जीवन की यात्रा पूरी कर ली थी।

जिन्दगी की सुईयाँ तेजी से आगे बढ़ रही हैं। ढेर सारी चिट्ठियाँ लिखनी हैं। हमारे विभाजन के कारणों पर एक प्रेस नोट तैयार करना है। अपने अभियान के लिए नया नाम खोजना है और आगे की यात्रा के लिए साजो-सामान जुटाना है। इन सब कामों के लिए मात्र तीन दिन का समय है। विनीता के पति दिव्येश, जो हिमालयन क्लब के कोषाध्यक्ष भी है, मुम्बई से हमारे अभियान के लिए स्पॉन्सरशिप का पत्र लेकर पहुँचे। लेकिन इसमें उन्होंने एक अजीब सी शर्त जोड़ी है-विनीता हमारे इस छोटे से तीन सदस्यीय दल की नेता रहेगी। इस मुद्दे पर उन्होंने पहले मुझसे कोई बात नहीं की। सरसरी तौर पर देखा जाए तो इस हरकत को संरक्षणवाद की पुरानी राजनीति का आदर्श उदाहरण माना जा सकता है। क्लब के नियमों के नाम पर नेतृत्व को ऐसे मुकुट में तब्दील कर दिया गया, जिस क्लब के संचालक अपने पसंदीता व्यक्ति के ही सर पर रखेंगे। उनकी नजर में इसके साथ जुड़ी जिम्मेदारी की कोई अहमियत नहीं। इस मुद्दे पर एक बार फिर हमारे बीच गर्मागर्म बहस हुई और अन्ततः यह तय हुआ कि तीन सदस्यों का यह छोटा सा ग्रुप आपसी सहमति से काम करेगा और इसका कोई पता नहीं होगा।

16 जून 1997

सरमोली-सेलपानी-गोरीगंगा-लीलम-रारगाड़ी सुबह 9.30-सांय 6.10, 2,160 मीटर, हवलदार का होटल

मैं सरस्वती दी, बसन्ती, राजू, जग्गे और अपने गाँव के अन्य दोस्तों से विदा लेती हूँ। थियो हमें दस दिन बाद मलारी में मिलेंगे। यह हमारे पहले लम्बे पड़ा का समापन होगा। जंस्कार हमेशा की तरह मुझे जोरदार झप्पी देता है और बिना रोये-मचले प्यार से मुझे विदा करता है। अपने बाल संसार से वह जैसे कह रहा है-यह अच्छी महिलाओं का अभियान है।

जैसे ही मैं चलना शुरू करती हूँ, मेरे पांव ठिठक जाते हैं और मैं पत्थर की बटिया के किनारे चुपचाप बैठ जाती हूँ। बीते कुछ दिनों में गुजरा तूफानी घटनाक्रम आँखों के आगे घुमड़ने लगता है। एक भीषण बवंडर उठा और गुजर गया और मैं अपने भीतर की पगडंडी पर आराम से चल पड़ती हूँ। नौ दिन पहले जंस्कार मुझे फिर से मिला। आठ दिन पहले मैंने बछेन्द्री को कहा कि मुझे अब अलग होना ही होगा। छह दिन पहले मैं अपने घर पहुँची। पाँच दिन पहले मैं खुद के बिस्तर पर सोई। हर दिन भाग-भाग कर वैकल्पिक अभियान की तैयारी की। दो दिन पहले अपनी दो साथियों को समझाने का प्रयास करती रही, जिनके साथ आगे यात्रा होनी है। आज मैं अकेले चल रही हूँ। अकेलापन जीवन की यात्रा का एकमात्र अवश्यभावी सत्य प्रतीत होता है।

इसके बाद मेरे पैर खुद-ब-खुद उठे और शरीर एक लय में आ गया था। कल तक मैं इतनी थकी हुई महसूस कर रही थी कि ठीक से सीधे चल पाना भी मुश्किल हो रहा था।

गोरी की हुँकारती हुई लहरें हमेशा की तरह मुझे सुन्न कर देती हैं। दो वर्ष पूर्व पाटन के नीचे उतीस के घने जंगल में इसकी बाढ़ से मची तबाही के निशान आज भी दिखाई पड़ते हैं। लेकिन इसके आगे मेरी आँखे ठीक से देख नहीं पातीं। धुंधलका शुरू होने को है और टोली की धीमी रफ्तार हमें रारगाड़़ी में रुकने पर मजबूर कर देती है।

दुंग पहुँचने में पूरे दो दिन लगे। हम तीन औरतों के अलावा हमारे साथ चार आदमी पातों से और एक दरांती गाँव से है। ये लोग हमारे पोर्टर होने के अलावा इस दुस्साहसी अभियान का हिस्सा भी बनना चाहते थे। हमारा दोस्त विजय, जो मुनस्यारी में काम करता है और पिछले वर्ष दो जोड़े याक इस घाटी में लाने के सिलसिले में इस मार्ग पर सफर कर चुका है, हमारे चार सदस्यीय रिले सपोर्ट टीम का सदस्य है।

जैसे ही हम ऊपर मरतोली गाँव तक चढ़ते हैं, सांझ का कमजोर सूरज बादलों की झिर्री से ढलकते हुए हरे बुग्याल पर अपनी नाजुक रोशनी उड़ेल देता है। ब्रिजगंगा धुरा पर जाड़ों की बर्फ अब भी पसरी हुई है और उत्तर में त्रिशूली व हरदेवल अपनी देदीप्यमान आभा के साथ विराजे हैं। संगड़ा के बाद हम एक बार फिर ट्रांस हिमालय में प्रवेश कर गए हैं।

एक सीधी सच्ची बात मेरे मन में उभरती है- जीवन की तरह पहाड़ों में हरेक को अपना खुद का बोझ उठाने की आदत डालनी पड़ती है और अपनी इच्छा व क्षमता के बीच तारतम्य बिठाना सीखना पड़ता है। मुझे याद आता है किस तरह हमारे पुराने ग्रुप में यात्रा के बीच रफ्तार की लय तोड़ देने वाले ठहराव कितनी निराशा पैदा करते थे। किस तरह बछेन्द्री ने, जो वस्तुतः बेहद दृढ़निश्चयी महिला है, अपने शरीर के दर्द को थेरागंला में रुकने का बहाना नहीं बनने दिया। अपने आप को आगे धकेलते रहने में मुझे आनन्द आ रहा है। हम ल्वां गाड़ और बुर्फू में पुल से गोरी नदी को पार करते हैं। यहाँ मैं सयाना जी के घर पहुँचती हूँ। अच्छे दिनों में वह मिलम के जाने माने जड़ी-बूटी उत्पादक थे। पूरे दिन का सबसे शानदार पल था याक मधु को विजय पिछले साल मलासी से यहाँ लेकर आया आईटीबीपी के चैकपोस्ट पर सौजन्यपूर्ण मुलाकात के बाद हम इस दिन की यात्रा जारी रखते हैं। वेगवान और ताकवतर गुनखा गाड़ से आगे तीखी हवाओं ने बैंगनी, हरे और भूरे पहाड़ों में सर्पाकार निशान बना दिए हैं। ठण्डे रेगिस्तान की विरल वनस्पतियों के बैंगनी आभा लिए हुए फूल गाड़ के साथ-साथ चलने वाली उजली बैंगनी चट्टानों का मानों साथ देने के लिए खिले हुए हैं। यहाँ हम पड़ाव डालते हैं। शाम पाँच बजे नए दुंग में बनी आईटीबीपी चैकपोस्ट में तैनात जवानों ने हमारे लिए गर्मागर्म भोजन के अलावा रात बिताने को एक शानदार टेंट का इन्तजाम किया है।

अगले दिन टालमटोल का रवैया जारी है। आसमान बादलों से ढका है। विजय को अनुकूलन के लिए और समय चाहिए। कुछ देर बाद आसमान खुल गया और दोपहर में हम रवाना होते हैं। करीब सवा घण्टे बाद हम पुराने दुंग पहुँच जाते हैं। हमने आपस में जिम्मेदारियाँ बाँटी हैं। सुमी हिसाब-किताब रखती है। भीम दा जिन्हें पातों में लोग लाजवाब शिकारी मानते हैं, खाने-पीने का जिम्मा संभाले हुए हैं। रालम वन पंचायत के सरपंच प्रहलाद दा के हिस्से सामान की देखभाल का काम है।

मेरे जिम्मे साजो-सामान की व्यवस्था और कुछ बतंगड़ और खींचतान के बाद विनीता दवाइयों की व्यवस्थापक है। काम-काज के इस सामूहिक तरीके में, जहाँ हर व्यक्ति की राय अहमियत रखती हो, यह बात बेहद जरूरी हो जाती है कि हम जिम्मेदार बने रहें ताकि सभी काम ठीक-ठीक निभ जाएँ।

20 जून 1997, शुक्रवार पुराना दुंग-लेस्सर-बमरलास-ऊँटाधुरा-गंगपानी-सुम्मा-टोपीढुंगा

सुबह 4 बजे गड गल 11 बजे, 5, 185 मी. 17,336 फीट (एसपीएफ हट)

टोपीढुंगा में शाम का सूरज दमक रहा है। कोई छह बजे हैं। सूरज गिरथी गंगा घाटी में डूब रहा है। लाल टाँगों वाले कौवे हवा की मेंथर लहरों के साथ तैर रहे हैं। इसे एक मुश्किल भरे दिन का कमोबेश खुशनुमा अन्त कहा जा सकता है।

सुबह 2 बजे उठने में कोई खास दिक्कत नहीं हुई। अंधेरे में कोहरे और बूँदाबादी के बीच निकल पड़ना भी इतना बुरा प्रतीत नहीं होता। पीडब्लूडी हट से लेस्सर और बमलास के संगम तक पहुँचने में हमें 45 मिनट लगे। चढ़ाई की ओर बर्फ के दीदार हुए। इसके बाद हम हल्की चढ़ाई वाला मलबे से भरा भेड़ मार्ग पकड़ते हैं। जैसे-जैसे हम ऊँचाई की ओर बढ़ते हैं पातों के लोगों की रफ्तार मंद पड़ने लगती है। सुबह आठ बजे शहद-पनीर के साथ रोटी का नाश्ता करने वाले हम तीन खूब चल रहे हैं। परी ताल दर्रा पूरी तरह जमा हुआ है। क्या नयनाभिराम रंगमंच सजा है! नंदा गोंड के द्विशिखर। निथर और- चट्टानी शिखर और नंदा पाल। ऊंटाधुरा के बाईं ओर का चट्टानी शिखर भूरे रंग का है। यह निखालिस मुड़ी हुई चट्टान है। हम परी ताल का चक्कर काटकर ऊंटाधुरा की लम्बी और तीखी चढ़ाई के आधार पर पहुँच जाते हैं। चारों ओर सफेदी का दबदबा है।

यह बात करीब-करीब साफ है कि प्रहलाद दा और विजय ऊँचाई के कारण शिथिल पड़ने लगे हैं। वह घबराए हुए, सरदर्द से नाशाद और आगे चल पाने में लाचार हैं। हम तीन लोग विजय के बोझ में से 10 किग्रा और प्रहलाद दा से 5 किग्रा हिस्सा बाँट लेते हैं। उन्हें ऊपर दर्रें तक तेजी से खींचते हैं। मौसम का मिजाज लगातार बदल रहा है- बर्फ, कोहरा और फिर हवा। मैं इन दोनों को लेकर चिन्तित हूँ और विजय व उनमें से दो अन्य को वापस दुंग लौट जाने की सलाह देती हूँ लेकिन उन्होंने आगे बढ़ने का फैसला किया।

दर्रे से आगे विशालकाय एवं सुरक्षित बर्फीले ढलान हैं। इस साल कहीं भी बर्फ के कंगूरे नहीं बने हैं। हम ढलान में फिसलते हुए नीचे की ओर दौड़ पड़ने हैं। लगभग दोपहर के वक्त हम अहानिकर प्रतीत होने वाली सुमना को पार करते हैं। 2 बजे टोपीढुंगा में हैं। करीब चार बजे के आस-पास विजय और मैं खिंगुर दर्रे की ओर जाने वाले 52 मोड़ रास्ते के सर्वे के लिए जाते हैं। सुमना गर्जन-तर्जन वाली काली ग्लेशियल नदी में कायान्तरित हो चुकी है। विजय चट्टानों को फांदते हुए इसे पार करता है। जिस वक्त हम आगे के रास्ते की रेकी कर रहे थे, विनी और सुमी खाना बनाने में जुटी थीं। लौटने पर हम बीते दिनों की उस घटना को याद करते हैं, जब यारलुंग बुग्याल के निकट नेपाल में पहुँचते ही हिम तेंदुआ हमारी रसोई से 152 पूरियाँ लेकर रफूचक्कर हो गया। उस वक्त हम टेंट में निश्चित होकर रात की नींद ले रहे थे।

यह वही रास्ता है, जिसका इस्तेमाल 62 के भारत-चीन युद्ध से पहले जोहार के शौका व्यापारी तिब्बत जाने के लिए करते थे। इस रास्ते वे अपने कारवां के साथ चाय, कपड़ा, राशन, सोना और यहाँ तक कि तमाम लोहा-लक्कड़ लेकर तिब्बत जाते थे। तिब्ब से वे नमक, पशमीना ऊन और बोरेक्स लेकर लौटते थे। चूँकि बीच में कहीं भी पड़ाव लायक जगह और पानी का स्रोत नहीं था, उन्हें एक दिन के भीतर तीन बेहद कठिन दर्रें पार करने पड़ते थे-ऊँटाधुरा, जयंती धुरा और कुंगरी-बिंगरी। बीच में कभी खराब मौसम के पल्ले पड़ना विनाशकारी साबित होता था। हिमालय के इस साढ़े चार महीने की यात्रा-अनुभव ने सिखा दिया था कि सबसे अहानिकर दिखाई पड़ने वाले दर्रों को भी सुरक्षित पार करना है तो जितना सुबह सम्भव हो चलना शुरू करो और दोपहर से पहले-पहले इन्हें पार कर लो। इसके बाद यहाँ मौसम बिल्कुल भरोसे लायक नहीं रहता।

21 जून 1997, शनिवार पूर्णिमा

टोपीढुंगा-कियो, गाड़-खिंगुर, लाड-मैतोली स्पर-चुदांग-तल्ला-लपथल, 4ः20 सुबह, 8ः15 सुबह, 5 बजे सुबह ,5,185 मीटर, 5,290 मीटर

एक शानदार और भरपूर दिन

हम सुबह दो बजे जग गए। बोझ के बँटवारे में कुछ अड़चन आई। हर कोई धीमा पड़ रहा है। सुमना को पार करते वक्त पूरी तरह अंधकार छाया हुआ है। पीडब्ल्यूडी गैंग को अपनी आवाजाही के लिए बने तख्तों के पुल से हम नदी के उस पार पहुँचाते हैं। मौसम की शुरूआत है, गैंग अभी तक पहुँची नहीं है। हम खड़े व संकरे गॉर्ज में ऊपर खिंगुर ला के आधार की ओर लगातार बढ़ रहे हैं। बर्फीला पुल पार करते हैं। दूसरा, नाले पर दो बल्लियाँ डालकर तैयार किया गया। तीसरे और अन्तिम पुल के बाद गॉर्ज से बाहर निकलने तक तीखी चढ़ाई है। क्या शानदार और विशालकाय चट्टानी मेहराब हैं। 52 मोड़ों में से मैंने 38 तक गिने। आज हम खूब चले।

खिंगुर ला पहुँचने पर मुझे गहरे सन्तोष का अनुभव हुआ। इसके बाद हम तीन और विजट मैतोली पर जा पहुँचे। विजय की तबियत फिर खराब होने लगी तो वह और नीचे की ओर भागे। बाद में हम भी उनके पीछे-पीछे आए। चुदांग के लम्बे ढलान में मैंने अपनी रफ्तार को लगाम दी ताकि भीम दा के साथ बने रह सकूँ। यहाँ से हम चुजन ला, बेल्चाधुरा और संचुमा ला को देख सकते हैं। हमारे दूर दाहिनी ओर केला ला है लेकिन यहाँ से हम उसे नही देख सकते। चुदांग पहुँचकर हम चिदमु गाड़ पार करते हैं और लपथल की ओर चढ़ने लगते हैं।

अगले पड़ाव से ठीक पहले एक ढलान में थुनियाल ढुंग के दर्शन करते हुए आज हमारी जादुई दोपहर गुजरी। माना जाता है कि यह एक बेलेम्नाइटेटा जीवाश्म है। स्थानीय लोग इसे स्तन कैंसर की अचूक औषधि बताते हैं। आगे की किस्म के अमोनाइट जीवाश्मों को देखकर तो हम जैसे पगला गए। देर शाम हम बुरी तरह थके हुए पड़ाव तक पहुँचते हैं।

आज की रात हमने परित्यक्त आईटीबीपी पोस्ट के खंडहरों में खुले में बिताई। जब हम सोने की तैयारी कर रहे थे, दूर कहीं से भेड़ों को बुलाने की आवाज आ रही थी। भेड़पालक भी रात बिताने इधर की ओर ही आ रहे थे। इस वक्त शाम के करीब सात बजे थे।

अगले दिन भी जीवाश्मों की हमारी खोज जारी रहती है और जल्दी ही हमेें लगने लगा कि हम चोरों का गिरोह बनते जा रहे हैं। लालच किस तरह करोड़ों साल पुराने इतिहास को उजाड़ने पर मजबूर करता है। लपथल की ढलानों पर अब शायद ही कोई जीवाश्म साबुत बचा हो। सब के सब तोड़ डाले गए। ज्यादातर शायद आईटीबीपी के यहाँ तैनात जवानों द्वारा नष्ट किए गए। लोग बताते हैं कि इन्हें खच्चरों में लादकर बाहर भेजा गया।

लपथल के लहराते विस्तार से बाहर निकलकर हम 22 जून को शेरशाल गाड़ को पार करते हैं। यहाँ कुमाऊँ की सीमा समाप्त होती है और गढ़वाल मंडल शुरू हो जाता है। रोजाना करीब 9 से 13 घण्टे लगातार चलते हुए और दो ऊँचे दर्रें पारकर हम प्रस्तावित उत्तराखण्ड के पश्चिमी हिस्से में प्रवेश करते हैं। नीचे की ओर दूर रेओली गाड़ तक रास्ता ढलान से होकर गुजरता है। छह किमी लम्बा थका देने वाला रास्ता हमें वापस सुमना नदी तक लाता है। इसके बाद निखालिस चट्टानों को काटकर राह बनाई गई है। केओ गाड़ के बाद हम गाढ़े रंग वाली गिर्थी गंगा तक पहुँचते हैं, जो आगे गहरे गॉर्ज मे उतर जाती है। इक्कीस प्वाइंट के बाद हम चौड़ी सड़को गुजरते हैं। सूरज हमारे बढ़ने की दिशा में डूब रहा है और हम 16 प्वाइंट में आईटीबीपी के सप्लाई डिपो पर आज का सफर पूरा करते हैं। आईटीबीपी के भारी-भरकम तम्बू पूरे हमारे ठहरने का इन्तजाम है। प्रहलाद दा और भीम दा घर वापस लौटना चाहते हैं। धुरू को छोड़कर हरे को 860 रुपए का भुगतान किया गया। वह हमारे सात बने रहने का फैसला करता है।

 

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