गंगा को स्वच्छ बनाने का मिशन उसमें मिलने वाली नदियों को स्वच्छ बनाए बिना पूरा हो ही नहीं सकता। इस नाते काली नदी को भी ‘नमामि गंगे योजना’ में शामिल करना होगा। चौंकाने वाली बात तो यह है कि नदी को बचाने की प्रदूषण विभाग को कतई चिन्ता नहीं है। नई दिल्ली, 6 सितम्बर। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गंगा को स्वच्छ बनाने का बीड़ा उठाया। केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री उमा भारती अपने नेता की तुलना भगीरथ से करती हैं। वे गंगा को अपनी माँ बता उसकी सफाई की चिन्ता में दिन-रात दुबली हुई जा रही हैं। लेकिन गंगा को मैली करने वाली नदी की तरफ अभी सरकार का ध्यान गया ही नहीं।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फरनगर जिले के एक गाँव अंतवाड़ा से निकली काली नदी तीन सौ किलोमीटर का सफर तय कर कन्नौज के मेहन्दी गंज में गंगा में मिलती है। इसका सफर मेरठ, हापुड़, बुलन्दशहर, अलीगढ़, कासगंज, एटा व फर्रुखाबाद से होकर कन्नौज में पूरा होता है।
पचास साल पहले तक काली नदी का पानी एक दम साफ-सुथरा था। लेकिन जगह-जगह इसमें प्रवाहित होने वाले विषैले औद्योगिक कचरे, सीवर के मैले पानी और जहरीले रसायनों ने इसे जानलेवा रोगों की जननी बना दिया है। यह गंगा को तो प्रदूषित कर ही रही है, अपने किनारों पर बसी आबादी के लिये काल बन चुकी है। इसके दोनों किनारों पर छोटे-बड़े करीब बारह सौ गाँव-कस्बे आबाद हैं। उद्गम स्थल पर इसका स्वरूप छोटी नाली जैसा है।
शुरुआती तीन किलोमीटर तक इसका पानी एकदम साफ-सुथरा है। लेकिन खतौली की चीनी मिल के प्रदूषित कचरे से इसकी तबाही शुरू होती है। इसके बाद मेरठ में दौराला की चीनी मिल और केमिकल फैक्टरी का प्रदूषित कचरा इसे नदी के बजाय गन्दे नाले में बदल देता है।
रास्ते में सीवर से लेकर शराब फैक्टरियों और मीट कारखानों के कचरे को भी यही नदी प्रवाहित करती है। अलीगढ़ तक तो हर जगह नदी सितम ही सहती है। हाँ अलीगढ़ के बाद जरूर इसे औद्योगिक कचरे से निजात मिलती है। यही वजह है कि अलीगढ़ से कासगंज तक इसमें प्रवाहित गन्दगी का स्तर कुछ कम हो जाता है।
गैर सरकारी संगठन नीर फ़ाउंडेशन ने इस नदी के पानी के कई जगह से नमूने लिये। उन्हें प्रयोगशाला में जाँच के लिये भेजा। जाँच की रिपोर्ट देखकर संगठन के लोग हैरान रह गए। नीर फ़ाउंडेशन के संयोजक रमन त्यागी के मुताबिक, नदी के दोनों तरफ दो किलोमीटर तक के इलाके का भूजल भी बुरी तहर प्रदूषित मिला।
नदी किनारों की आबादी इसी भूजल के सेवन के कारण जानलेवा बीमारियों की शिकार है। और तो और मवेशियों तक में बाँझपन की बीमारी बढ़ गई है। छोटे बच्चों के मानसिक विकास पर खतरनाक असर पड़ा है।
जाँच में नदी का पानी मानवीय सेवन तो दूर एक भी जगह जलीय जीवों के जीवित रहने लायक भी नहीं मिला। भारी धातुओं और प्रतिबन्धित कीटनाशकों की पानी में बहुत ज्यादा मात्रा पाई गई। ज्यादातर नमूनों में शीशे (लैड) की मौजूदगी मिली।
साफ है कि गंगा को स्वच्छ बनाने का मिशन उसमें मिलने वाली नदियों को स्वच्छ बनाए बिना पूरा हो ही सकता। इस नाते काली नदी को भी ‘नमामि गंगे योजना’ में शामिल करना होगा। चौंकाने वाली बात तो यह है कि नदी को बचाने की प्रदूषण विभाग को कतई चिन्ता नहीं है।
काली नदी के किनारे के खेतों में उगाई जा रही फसलों में भी जहरीले रसायनों की मौजूदगी मिली है। बैगन, लौकी, फूलगोभी, मूली और गाजर के नमूनों की जाँच से इनमें खतरनाक कीटनाशक मिले। बीएचसी व हैप्टाक्लोर जैसे कीटनाशकों के उपयोग पर बेशक पाबन्दी है पर सब्जियों के जरिए ये जानलेवा कीटनाशक लोगों के शरीर में पहुँच ही रहे हैं। जो धीमा जहर बन कैंसर जैसी बीमारी को बढ़ावा दे रहे हैं।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फरनगर जिले के एक गाँव अंतवाड़ा से निकली काली नदी तीन सौ किलोमीटर का सफर तय कर कन्नौज के मेहन्दी गंज में गंगा में मिलती है। इसका सफर मेरठ, हापुड़, बुलन्दशहर, अलीगढ़, कासगंज, एटा व फर्रुखाबाद से होकर कन्नौज में पूरा होता है।
पचास साल पहले तक काली नदी का पानी एक दम साफ-सुथरा था। लेकिन जगह-जगह इसमें प्रवाहित होने वाले विषैले औद्योगिक कचरे, सीवर के मैले पानी और जहरीले रसायनों ने इसे जानलेवा रोगों की जननी बना दिया है। यह गंगा को तो प्रदूषित कर ही रही है, अपने किनारों पर बसी आबादी के लिये काल बन चुकी है। इसके दोनों किनारों पर छोटे-बड़े करीब बारह सौ गाँव-कस्बे आबाद हैं। उद्गम स्थल पर इसका स्वरूप छोटी नाली जैसा है।
शुरुआती तीन किलोमीटर तक इसका पानी एकदम साफ-सुथरा है। लेकिन खतौली की चीनी मिल के प्रदूषित कचरे से इसकी तबाही शुरू होती है। इसके बाद मेरठ में दौराला की चीनी मिल और केमिकल फैक्टरी का प्रदूषित कचरा इसे नदी के बजाय गन्दे नाले में बदल देता है।
रास्ते में सीवर से लेकर शराब फैक्टरियों और मीट कारखानों के कचरे को भी यही नदी प्रवाहित करती है। अलीगढ़ तक तो हर जगह नदी सितम ही सहती है। हाँ अलीगढ़ के बाद जरूर इसे औद्योगिक कचरे से निजात मिलती है। यही वजह है कि अलीगढ़ से कासगंज तक इसमें प्रवाहित गन्दगी का स्तर कुछ कम हो जाता है।
गैर सरकारी संगठन नीर फ़ाउंडेशन ने इस नदी के पानी के कई जगह से नमूने लिये। उन्हें प्रयोगशाला में जाँच के लिये भेजा। जाँच की रिपोर्ट देखकर संगठन के लोग हैरान रह गए। नीर फ़ाउंडेशन के संयोजक रमन त्यागी के मुताबिक, नदी के दोनों तरफ दो किलोमीटर तक के इलाके का भूजल भी बुरी तहर प्रदूषित मिला।
नदी किनारों की आबादी इसी भूजल के सेवन के कारण जानलेवा बीमारियों की शिकार है। और तो और मवेशियों तक में बाँझपन की बीमारी बढ़ गई है। छोटे बच्चों के मानसिक विकास पर खतरनाक असर पड़ा है।
जाँच में नदी का पानी मानवीय सेवन तो दूर एक भी जगह जलीय जीवों के जीवित रहने लायक भी नहीं मिला। भारी धातुओं और प्रतिबन्धित कीटनाशकों की पानी में बहुत ज्यादा मात्रा पाई गई। ज्यादातर नमूनों में शीशे (लैड) की मौजूदगी मिली।
साफ है कि गंगा को स्वच्छ बनाने का मिशन उसमें मिलने वाली नदियों को स्वच्छ बनाए बिना पूरा हो ही सकता। इस नाते काली नदी को भी ‘नमामि गंगे योजना’ में शामिल करना होगा। चौंकाने वाली बात तो यह है कि नदी को बचाने की प्रदूषण विभाग को कतई चिन्ता नहीं है।
काली नदी के किनारे के खेतों में उगाई जा रही फसलों में भी जहरीले रसायनों की मौजूदगी मिली है। बैगन, लौकी, फूलगोभी, मूली और गाजर के नमूनों की जाँच से इनमें खतरनाक कीटनाशक मिले। बीएचसी व हैप्टाक्लोर जैसे कीटनाशकों के उपयोग पर बेशक पाबन्दी है पर सब्जियों के जरिए ये जानलेवा कीटनाशक लोगों के शरीर में पहुँच ही रहे हैं। जो धीमा जहर बन कैंसर जैसी बीमारी को बढ़ावा दे रहे हैं।
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Post By: RuralWater