नदी के मूल प्रवाह में ऐसी रुकावटें डालने का यह काम इतने बड़े स्तर पर होता है कि इसकी वजह से गंगा के निचले इलाकों में हर साल बाढ़ आ जाती है। यही वजह है कि स्वर्गीय स्वामी निगमानंद के गुरु स्वामी शिवानंद ने भी पिछले दिनों गंगा में कहीं भी खनन रोकने की मांग को लेकर अपना अनशन शुरू कर दिया है।
हाल में गंगा के अवैध खनन के खिलाफ झंडा बुलंद करने वाले संगठनों का एक प्रतिनिधि मंडल जब उत्तरांचल के मुख्यमंत्री बीसी खंडूरी के यहां पहुंचा तो मुख्यमंत्री ने उन्हें यह कहकर निराश कर दिया कि नुकसान के साथ खनन के फायदों को भी ध्यान में रखते हुए इसे पूरी तरह रोकना मुमकिन नहीं है। तो क्या हरिद्वार के मातृ सदन के युवा संत स्वामी निगमानंद का बलिदान व्यर्थ चला जाएगा ? अवैध खनन रोकने की मांग को लेकर वह पूरे 114 दिनों तक मृत्युपर्यंत अनशन पर रहे, फिर भी उनकी मांग सुनी नहीं गई। गंगा को देश में अनेक धार्मिक - सांस्कृतिक कारणों से मोक्ष और जीवन देने वाली नदी कहा गया है। पर पिछले कुछ दशकों से इसमें जो प्रदूषण फैल रहा है, उससे गंगा के ही खत्म हो जाने का खतरा पैदा हो गया है। स्थिति ऐसी ही रही तो अगले कुछ वर्षों में न तो इसका जल पीने लायक बचेगा, न ही नदी अपने मौलिक स्वरूप में रह पाएगी।माइनिंग के फायदे ?
जरा यह तो सुनें कि गंगा में माइनिंग के फायदे क्या हैं, जिनका उल्लेख करके उत्तरांचल के मुख्यमंत्री ने इस पर रोक लगाने से इनकार कर दिया है। उनका कहना है कि यह राज्य की कमाई का मसला है। पर राजस्व से ज्यादा इसकी जरूरत गंगा के आस-पास रहने वाले लोगों के लिए है। वह कहते हैं कि अगर खनन पूरी तरह रोक दिया गया तो गंगा अपना रास्ता बदल लेगी। जाहिर है, एक प्रदेश का मुख्यमंत्री किसी विवादास्पद मसले पर कोई बयान बहुत सोच - विचार के बाद ही देगा। तो क्या यह माना जाए कि खनन विरोधी गलत हैं और मुख्यमंत्री सही? देश के अन्य हिस्सों की तरह उत्तरांचल में भी खनन की एक सरकारी नीति है। इसी नीति का परिणाम है कि 140 वर्ग किमी के दायरे में फैले हरिद्वार के पूरे कुंभ क्षेत्र में माइनिंग की इजाजत नहीं है। पर नदी का प्रवाह बाधित न हो, उसमें जमा होने वाली गाद के कारण किनारों पर बाढ़ न आ जाए, इसके लिए वहां भी साल में एक बार नदी की सफाई होती है। यह भी एक तरह की माइनिंग है और इसके लिए बाकायदा ठेके दिए जाते हैं। इससे हरिद्वार जिले को सालाना 10-12 करोड़ का राजस्व मिलता है।
नफे - नुकसान का गणित
तो सवाल यह है कि क्या यह सरकारी, यानी वैध खनन गंगा को कोई नुकसान नहीं पहुंचाता? कई रिपोर्टों में इसका खुलासा हुआ है कि खनन माफिया किस तरह सरकारी ठेकों का बेजा इस्तेमाल करता है। ये ठेकेदार नदी की न सिर्फ बहुत गहरी खुदाई करते हैं बल्कि निर्धारित दायरे के बाहर जाकर भी हाथ साफ कर लेते हैं। देहरादून, हरिद्वार और रुड़की आदि क्षेत्रों में रीयलिटी सेक्टर में आए बूम के बाद से वहां रेत - बजरी की मांग बहुत बढ़ गई है। नदी से रेत उठाकर एक ट्रक में भरने में ज्यादा से ज्यादा दो - ढाई सौ रुपये खर्च होते हैं जबकि बाजार में इसकी तीन गुना कीमत आसानी से मिल जाती है। 300 फीसदी प्रॉफिट कमाने के ऐसे अवसर को खनन माफिया भला हाथ से क्यों जाने देगा? अनुमान है कि कुल वैध और अवैध माइनिंग से खनन माफिया दो - तीन सौ करोड़ रुपये की कमाई इस छोटे से इलाके में कर रहा है, जबकि राज्य सरकार 10-12 करोड़ रुपये के राजस्व के लिए यहां माइनिंग रोकने के पक्ष में नहीं है।
अब वह पहलू भी देखें जिसके तहत नदी की सेहत, पर्यावरण और लोगों की सहूलियत के तर्क के साथ मुख्यमंत्री खंडूरी नदी में माइनिंग की जरूरत बताते हैं। सच्चाई यह है कि अत्यधिक खनन के कारण नदी के किनारों का तेज कटाव होने लगा है। इससे गंगा किनारे के किसान अपनी उपजाऊ जमीनों का बड़ा हिस्सा हर साल गंवाने को मजबूर हो रहे हैं। किनारों पर होने वाली माइनिंग ने वहां की जमीनों को खोखला बना दिया है, जिससे वहां खेती करना संभव नहीं रह गया है। छोटी जोत वाले किसानों की आजीविका के मद्देनजर यह एक काफी बड़ा मसला है। आंखें खोलने वाला एक सच यह भी है कि नदी के बहाव की दिशा बदलने के लिए भी खनन माफिया ही ज्यादा जिम्मेदार है। एक ही जगह से ज्यादा से ज्यादा रेत - बजरी उठाने के लिए, या नदी में नई जगहों पर खुदाई करने के लिए ये लोग रेत की बोरियां आदि रखकर नदी के प्रवाह की दिशा बदल देते हैं। नदी के मूल प्रवाह में ऐसी रुकावटें डालने का यह काम इतने बड़े स्तर पर होता है कि इसकी वजह से गंगा के निचले इलाकों में हर साल बाढ़ आ जाती है। यही वजह है कि स्वर्गीय स्वामी निगमानंद के गुरु स्वामी शिवानंद ने भी पिछले दिनों गंगा में कहीं भी खनन रोकने की मांग को लेकर अपना अनशन शुरू कर दिया है।
पर इसे रोकेगा कौन
नियमों के मुताबिक छोटे स्तर पर होने वाले ऐसे खनन से यदि पर्यावरण और लोगों के जीवन को खतरा है तो उसके बारे में कोई निर्णय लेने का अधिकार राज्य सरकार को है। पर यदि राज्य सरकार अवैध खनन पर पाबंदी को लेकर राजस्व या फिर किसी अन्य कारण से बेरुखी दिखाती है तो केंद्र की सरकार एनवायरनमेंटल एक्ट के सेक्शन 5 के तहत वहां ऐसी गतिविधियां रोकने की कार्रवाई कर सकती है। गौरतलब है कि गंगा में बेतहाशा माइनिंग की खबरों और स्वामी निगमानंद के अनशन के दौरान तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने उत्तरांचल सरकार से अवैध माइनिंग पर एक्शन लेने को कहा था। चेतावनी के लहजे में उन्होंने यह भी कहा था कि केंद्र को ऐसे खनन के खिलाफ पूरे देश में पूर्णत : रोक लगाने का हक है। बेशक, ऐसी किसी भी कार्यवाही से राज्य और केंद्र के रिश्तों में दरार आ सकती है और सत्ता व विपक्ष के राजनीतिक हितों का नया टकराव शुरू हो सकता है। लेकिन इसकी पहल तो इन्हीं में से किसी को करनी होगी, क्योंकि स्वामी निगमानंद की मौत से स्पष्ट है कि जनता का विरोध इस मामले में नक्कारखाने में तूती की आवाज ही साबित हो रहे हैं।
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