देश के उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में विभाजित बुन्देलखण्ड इलाका पिछले कई सालों से सूखे का दंश झेल रहा है। मौसम की मार की वजह से बुन्देलखण्ड के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। सूखे की वजह से आत्महत्याओं के साथ ही, बड़ी संख्या में किसान यहाँ से पलायन कर रहे हैं। आसन्न संकट को देखते हुये यहाँ के अन्नदाता किसानों ने मजबूरी में मजदूर बनने के लिये महानगरों की ओर रुख कर लिया है। बुन्देलखण्ड का आज शायद ही कोई ऐसा गाँव हो, जहाँ घरों में ताला न लटका हो। सूखे की इस भयानक त्रासदी से अपने और परिवार को बचाने के लिये इस इलाके से अब तक कोई 62 लाख से ज्यादा किसान, मजदूर पलायन कर चुके हैं।
मध्य प्रदेश के अकेले सागर संभाग की ही यदि बात करें, तो बीते कुछ सालों में इस संभाग के पाँच जिलों छतरपुर, टीकमगढ़, दमोह, पन्ना और सागर जिलों से पलायन करने वालों का आँकड़ा तकरीबन पाँच लाख पार कर चुका है। यह आँकड़े सचमुच बेहद डरावने हैं। आर्थिक तंगी की वजह से किसान और कामगार बुन्देलखण्ड से बड़ी तादाद में महानगरों की ओर पलायन कर रहे हैं और सरकारें तमाशाई बनी हुई हैं। जैसा कि कहीं कुछ हुआ ही न हो। सरकार की इस अनदेखी ने समस्या को और भी त्रासद बना दिया है। ऐसा नहीं है कि दोनों राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार ने इलाके के सूखा पीड़ित किसानों को संकट से उबारने के लिये कुछ किया न हो, लेकिन जो कुछ किया है, वह ऊँट के मुँह में जीरे के समान है। किसानों को भुखमरी और बेरोजगारी से बचाने के लिये और भी प्रयास की जरूरत है।
मध्य प्रदेश के सागर संभाग के पाँच जिले छतरपुर, पन्ना, टीकमगढ़, सागर और दमोह व चंबल संभाग का दतिया जिला बुन्देलखण्ड में आते हैं। जबकि उत्तर प्रदेश के झांसी संभाग के सभी जिले झांसी, ललितपुर, बांदा, महोबा, चित्रकूट, उरई और हमीरपुर बुन्देलखण्ड भूभाग में हैं। कोई 1.60 लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल के इस इलाके की आबादी तीन करोड़ से अधिक है। इस इलाके की लगभग 86 फीसदी आबादी सीधे तौर पर खेती के आसरे है। बुन्देलखण्ड हालाँकि प्राकृतिक सम्पदा के मामले में बेहद सम्पन्न हैं, लेकिन यह अल्प वर्षा का स्थाई शिकार है। तिस पर राजनीतिक और सरकारी उपेक्षा अलग। बुन्देलखण्ड में जिस तरह के आज हालात हैं, वे पहले कभी नहीं थे। यहाँ औसत वर्षा होती थी, जो खेती के लिये पर्याप्त थी। लेकिन पिछले कुछ दशकों में जिस तरह से जंगलों की अंधाधुँध कटाई हुई, उसने यहाँ के पर्यावरण को पूरी तरह से नष्ट कर दिया है।
बुन्देलखण्ड के इलाकों में अवैध खनन का कारोबार किसी से छिपा हुआ नहीं है। पहाड़ के पहाड़ खोद डाले गये हैं। खनन का आलम यह है कि 200 फुट नीचे तक जमीन खोद दी गयी है। एक लिहाज से यदि देखें तो मौसम की बेरुखी के साथ-साथ जंगलों की अंधाधुँध कटाई और अवैध खनन बुन्देलखण्ड की मौजूदा त्रासदी के लिये जिम्मेदार है। जल संरक्षण के उपायों के अभाव और जल संग्रहण के परम्परागत तरीकों के प्रति उदासीनता ने इस संकट को और बढ़ाया है। कम बारिश की वजह से बुन्देलखण्ड के कुँए-तालाब तो सूख ही गये हैं, फसलों के लिये जीवनदायिनी माने जाने वाले बाँधों में भी पानी की बेहद कमी है। यदि समय रहते इस समस्या का निदान नहीं ढूँढा तो आने वाले दिनों में पानी की कमी से सिंचाई तो प्रभावित होगी ही, साथ ही पेयजल का संकट भी गहराएगा। सिंचाई के लिये पानी की कमी, गिरते जलस्तर और सूखे की मार की वजह से बुन्देलखण्ड में कृषि संकट बढ़ता जा रहा है।
साल 2014 की खरीफ की फसल सूखे के चलते और साल 2015 की रबी की फसल ओलावृष्टि और बेमौसम बारिश के चलते बर्बाद हो चुकी है। बुन्देलखण्ड में मौसम से खेती की बर्बादी का यह लगातार तीसरा साल है। किसानों की खेती बिगड़ रही है तो उनके परिवार के अर्थशास्त्र पर भी असर पड़ रहा है। सूखा और अकाल की स्थिति के चलते किसानों, खेतिहर मजदूरों को खाने के लाले पड़ गये हैं। लागत के अनुपात में फसल की उपज न होने की वजह से किसान परेशान होकर आत्महत्या करने को मजबूर हैं। बीते छह साल में यहाँ के 3,223 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। एक तरफ परेशान हाल किसान खुदकुशी में ही अपनी निजात ढूँढ रहे हैं तो दूसरी ओर संवेदनहीन सरकारें आत्महत्या कर रहे किसानों को नपुंसक बताकर उनकी मौत का मजाक उड़ा रही है।
जब भी कोई प्राकृतिक आपदा आती है तो सारी उम्मीदें सरकार पर टिकी होती है। सरकार से उम्मीद की जाती है कि इस आड़े समय में वह किसानों की हर मुमकिन मदद करेगी। सरकार मदद करती भी है, लेकिन प्रशासनिक पिरामिड से गुजरती हुई यह मदद जब किसानों तक पहुँचती है, तो उसके हाथ कुछ ज्यादा नहीं बचता। भ्रष्ट तंत्र के चक्रव्यूह में फँस कर किसान दिनोंदिन कर्ज में डूबता चला जाता है। मजदूर बन कर महानगरों की ओर पलायन करना उसकी मजबूरी बन जाती है। कोई किसान, खेतिहर मजदूर नहीं चाहता कि वह अपनी सरजमीं, अपना गाँव छोड़े। अपने और परिवार को जिंदा रखने के लिये ही उसे गाँव छोड़ना पड़ता है। बुन्देलखण्ड में एक तरफ सूखे से यह विकराल हालात हैं तो दूसरी तरफ सरकारें जानकर भी अंजान बनी हुई हैं। सियासी पार्टियों के लिये सूखा और पलायन कोई मुद्दा ही नहीं है। जातीय मुद्दे से यह मुद्दा हमेशा हल्का साबित होता है। सभी सियासी पार्टियाँ किसानों के लिये घड़ियाली आँसू ज़रूर बहाती हैं, लेकिन यहाँ से पलायन कर रहे किसानों का मुद्दा, कभी चुनावी मुद्दा नहीं बनता।
बुन्देलखण्ड को गरीबी और बदहाली से निकालने के लिये केन्द्र सरकार ने उसे कई बार विशेष पैकेज दिया, लेकिन फिर भी इसके हालात नहीं सुधरे। तत्कालीन यूपीए सरकार ने बुन्देलखण्ड में रोजगार, विकास और गाँवों की दशा सुधारने के लिये साढ़े सात हजार करोड़ रुपये का पैकेज दिया था। इस पैकेज में से 3506 करोड़ रुपये उत्तर प्रदेश के जिलों के लिये और 3760 रुपये मध्य प्रदेश के जिलों के लिये था। जाहिर है कि यह पैकेज बहुत बड़ा था, यदि दोनों राज्य सरकारें इस धनराशि का सही इस्तेमाल करतीं तो बुन्देलखण्ड की पूरी तस्वीर ही बदल जाती। एक एनजीओ के सर्वेक्षण के मुुताबिक, साल 2009 से लेकर अब तक सरकारी पैकेज की केवल 11 फीसदी रकम ही इस्तेमाल हो पाई है। जो रकम इस्तेमाल भी हुई, उसे राज्य सरकारों ने दूसरे कामों में खर्च कर दिया। लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी ने अपने घोषणा-पत्र में स्पष्ट किया था कि केन्द्र की सत्ता में आने पर वह ‘प्रधानमंत्री ग्राम सिंचाई योजना’ और कम ब्याज की दर से किसानों को कृषि ऋण देकर, उनकी माली हालत सुधारेगी।
सिंचाई संसाधनों की कमी को पूरा करने के लिये नदियों को एक-दूसरे से जोड़ा जायेगा ताकि हर खेत तक पानी पहुँच सके। मोदी सरकार को केन्द्र की सत्ता सम्भाले दो साल पूरे होने वाले हैं, लेकिन कोई भी वादा अभी तलक अमल में नहीं आ पाया है। यही हाल राज्य सरकारों के वादों का है। बड़े-बड़े वादों से इधर सरकारें यदि कुछ ज़रूर बुनियादी बातों पर ही अमल करें तो बुन्देलखण्ड की स्थिति में बड़ा बदलाव आ सकता है। मसलन नदियों को आपस में जोड़ने के बजाय यहाँ परम्परागत सिंचाई संसाधनों को बढ़ावा दिया जाए। बुन्देलखण्ड के मौजूदा हालात को देखते हुये यहाँ सबसे पहले ग्राम और कृषि आधारित आजीवका की आवश्यकता है, ताकि पलायन को तुरन्त रोका जा सके। सरकार को बुन्देलखण्ड के लिये अलग से एक ऐसी कृषि नीति घोषित करनी चाहिये, जो इस क्षेत्र के पर्यावरण और पारिस्थितिकी को नुकसान न पहुँचाए। जो भी नीति बने, उसे पशुपालन और वानिकी के साथ जोड़ा जाय।
सरकार, राष्ट्रीकृत बैंकों को सिंचाई के परम्परागत साधनों के विकास के लिये ग्राम पंचायतों को वित्तीय सहायता मुहैया कराने का निर्देश दे। यही नहीं सरकार को अपनी तरफ से यह कोशिश करनी चाहिये कि यहाँ के किसान ज्यादा मात्रा में पानी, रासायनिक खाद और उन्नत बीजों का इस्तेमाल करने वाली फसलों के बजाय मोटे अनाजों और दलहनों की खेती की ओर उन्मुख हों। बुन्देलखण्ड के 90 फीसदी किसान और ग्रामीण आबादी कर्ज के बोझ तले कराह रही है। बुन्देलखण्ड को सूखे से उबारने के लिये जरूरी है कि किसानों का कर्ज माफ कर दिया जाय।
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