जाने-अनजाने में हम निरंतर सांस लेते रहते हैं। यदि कुछ समय के लिये भी सांस लेना बंद हो जाए तो, जीवित रह पाना मुश्किल हो जाएगा। दरअसल, सांस लेने और छोड़ने की प्रक्रिया को श्वशन कहते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर सांस लेने की क्रिया होती कैसे है?
शायद आप जानते होंगे कि हमारे श्वशन तंत्र के अंगों में मुख्यतः नासिका, नासामार्ग, ग्रसनी, कंठ नली, वायुनाल, श्वसनी, श्वासनली तथा फेंफड़े सम्मिलित होते हैं। फेंफड़ों के अंदर अत्यंत सूक्ष्म अनेकों कोष्ठ होते हैं जिनको ‘वायु कोष्ठ’ कहते हैं। श्वशन प्रक्रिया में हम अपनी नाक या मुँह के रास्ते से हवा को अंदर खींचते हैं और फिर इसी तरह बाहर छोड़ते हैं। जब हम हवा को अंदर खींचते हैं तो इसमें मुख्यतः 79 प्रतिशत नाइट्रोजन, लगभग 21 प्रतिशत ऑक्सीजन तथा 0.04 प्रतिशत कार्बन-डाइ-ऑक्साइड होती है। गैसों का यह मिश्रण हमारे विंडपाइप या वायु नाल से होते हुए ब्रांकी नामक दो बड़ी नलियों के द्वारा दोनों फेफड़ों में पहुँचता है। यहाँ से हवा ब्रोंकाइलोस यानि श्वास नलिकाओं के छोटे-छोटे रास्तों की प्रणाली से होते हुए अंततः फेंफड़ों में मौजूद लाखों छोटे-छोटे कोष्ठों में पहुँच जाती हैं, जिन्हें अल्वेयोली अर्थात उलूखन यानि वायुकोष्ठ कहते हैं। श्वसन क्रिया में एक अणु ग्लूकोज के ऑक्सीकरण के फलस्वरूप कार्बन डाइऑक्साइड, जल वाष्प तथा लगभग 686 किलो कैलोरी ऊर्जा निकलती है।
इस क्रिया में उत्पन्न ऊर्जा हमारी जैविक क्रियाओं के संचालन के लिये काम आती है। जब हम सांस बाहर की ओर छोड़ते हैं तो हवा उन नन्हें कोष्टों से होते हुये हमारे मुँह या नाक के रास्ते बाहर निकल जाती है। बाहर छोड़ी गई हवा में पहले की अपेक्षा ऑक्सीजन की मात्रा कम होती है तथा कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा अधिक होती है और इसके साथ जलकण भी काफी मात्रा में होते हैं।
हमारी श्वसन प्रक्रिया में उलूखन कोशिकाओं यानि वायुकोष्ठों का जाल बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य करता है, क्योंकि यहीं पर फुफ्फुसीय धमनी से बिना ऑक्सीजन वाला रक्त आता है और ऑक्सीजनयुक्त होकर वापस फुफ्फुसीय शिराओं में प्रविष्ठ होकर शरीर में लौट जाता है। इस प्रक्रिया से रक्त शुद्धि होती रहती है। यहीं पर उलूखल कोशिकाओं में उपस्थित वायु तथा वाहिकाओं में उपस्थित रक्त के बीच गैसों का आदान-प्रदान होता है, जिसके लिये सांस का आना-जाना होता रहता है। लेकिन सवाल यह भी पैदा होता है कि इस तरह सांस का लगातार आना-जाना होता कैसे है?
दरअसल, हमारे फेफड़ों के ठीक नीचे मांसपेशियों की एक बड़ी सी शीट होती है, जिसे डायाफ्राम कहा जाता है। जब यह डायाफ्राम सिकुड़ता है तो बाहर की हवा नाक या मुँह के रास्ते अंदर की ओर खिंचती है, लेकिन जब यह फैलता है तो हवा बाहर निकलती है। जब हम नाक के रास्ते सांस अंदर लेते हैं तो वह हमारे फेफड़ों के लिये पर्याप्त तापमान तक गर्म हो जाती है तथा मुँह के रास्ते सांस लेने की अपेक्षा अधिक नम तथा साफ भी होती है। इसका मुख्य कारण होता है हमारी नाक में मौजूद छोटे-छोटे बाल तथा इसमें स्थित चिपचिपा पदार्थ, जिसकी वजह से सांस के साथ आने वाले धूलकण या तो बालों में फंस जाते हैं या फिर चिपचिपे पदार्थ में चिपक जाते हैं। जिसके फलस्वरूप साफ और नम हवा ही अंदर जाती है। नासिका छिद्रों से ली गई हवा नासामार्ग से होते हुये सांस नली में जाती है।
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