कैसे कारगर हों राहत के तौर-तरीके (How effective are the methods of relief)

राहत के मौजूदा परिप्रेक्ष्य में हम पाते हैं कि राहत सहायता के तौर-तरीकों में समन्वय का अभाव परिलक्षित होता है। बेतुका वितरण दिखलाई पड़ता है। भ्रष्टाचार और ईर्ष्या जैसे मुद्दे सतह पर उभरे दिखलाई पड़ते हैं। राहत सामग्री के वितरण में भेद-भाव तथा नकद क्षतिपूर्ति के तौर-तरीकों से लोगों में मायूसी, विवाद और असंतोष पनपता दिखता है। लोगों ही नहीं बल्कि समुदायों के बीच वैमनस्य बढ़ता देखा जाता है

आपदा मतलब कि बड़े पैमाने पर होने वाली तबाही। ऐसी जिससे पार पाने में किसी समुदाय या देश की क्षमता क्षीण पड़ जाती है। तबाही के हालात में सहायता, आपदा का ही पर्याय बन चुकी है। वर्ष 2004 में आई सुनामी के बाद से सहायता पहुँचने के सिलसिले ने नये आयाम ले लिए जब बेतहाशा सहायता प्राप्त हुई। आपदा राहत एवं पुनर्वास कार्य को बाहरी मदद, जो नकदी या अन्य किसी रूप में हो सकती है, के बिना किसी अन्जाम पर नहीं पहुँचाया जा सकता। आपदा से उबरने के लिए मिली सहायता को राहत, सुधार, पुनर्निर्माण एवं पुनर्वास कार्यों में व्यय किए जाने से तमाम मुद्दे और चिन्ताएँ बाबस्ता हैं। राहत का वितरण, जवाबदेही, पारदर्शिता और तार्किकता जैसी तमाम बातों से सामना होता है। कई दफा सहायता आपदा प्रभावितों के हालात सामान्य बनाने में अड़चन भी बन जाती है, उनके भीतर पर-निर्भरता का भाव पनपा देती है। सहायता कई बार अपने साथ ऐसे स्थाई बदलाव ले आती है, जो या तो भले के लिए होते हैं या नकारात्मक प्रभाव तक छोड़ जाते हैं। बहरहाल, नेपाल में राहत की बात हम करें तो हमें मानवीय पक्ष को सर्वोपरि रखना ही होगा।

सुनामी 2004 का अनुभव


2004 में आई सुनामी के बाद सर्वाधिक करीब 14 बिलियन अमेरिकी डॉलर की सहायता प्राप्त हुई। इतिहास में इससे पूर्व कभी भी इतने उत्साह से सहायता का हाथ नहीं बढ़ाया गया था। सम्भवत: ऐसा इसलिए हुआ कि यह आपदा किसी एक अकेले देश पर नहीं आई थी। इसने 14 देशों को अपनी चपेट में लिया था। इसकी प्रकृति अपने आप में अद्वितीय था, जिसने बड़े स्तर पर जान-माल का नुकसान किया था। अगर इतनी बड़ी मात्रा में सहायता नहीं मिली होती तो प्रभावित देशों के लिए इस आपदा से उबर पाना असम्भव ही था।

बहरहाल, राहत के मौजूदा परिप्रेक्ष्य में हम पाते हैं कि राहत सहायता के तौर-तरीकों में समन्वय का अभाव परिलक्षित होता है। बेतुका वितरण दिखलाई पड़ता है। भ्रष्टाचार और ईर्ष्या जैसे मुद्दे सतह पर उभरे दिखलाई पड़ते हैं। राहत सामग्री के वितरण में भेद-भाव तथा नकद क्षति-पूर्ति के तौर-तरीकों से लोगों में मायूसी, विवाद और असंतोष पनपता दिखता है। लोगों ही नहीं बल्कि समुदायों के बीच वैमनस्य बढ़ता देखा जाता है।

हमें ध्यान रखना होगा कि चाहे सरकार हो या स्वैच्छिक संगठन, नागरिक समाज हो या धार्मिक समूह या जातीय समूह या आमजन अगर राहत पा रहे हैं, तो कुछेक नैतिकताओं की पालना करते हुए अच्छे से उसका उपयोग कर सकते हैं। जरूरी है कि प्रभावितों की वास्तविक जरूरतों और अपेक्षाओं को राहत सहायता का करीने से इस्तेमाल करते हुए पूरा किया जाए। ऐसा करने में कोई विसंगति न रहने पाए। अगर कोई विषमता या विसंगति रह गई तो तमाम सवाल उठ खड़े होंगे कि किसकी जरूरतों को अच्छे से पूरा किया गया। किसकी नहीं।

क्या दानदाता एजेंसियों की अपेक्षाएँ पूरी हुईं या स्थानीय सरकारों के मन की हो गई या अफसरशाही की बल्ले-बल्ले हो गई या फिर क्या निर्माण या पर्यटन उद्योग के हालात बेहतर हो चले या फिर क्या वाकई प्रभावित-पीड़ितों की मदद हो सकी?

जवाबदेही को परखा जाना आवश्यक है। सहायता का वितरण करने वालों के व्यवहार, कर्मठता, सहायता की पहुँच और तौर-तरीकों की परख जरूरी है। सुनामी के बाद प्रभावितों तक सहायता पहुँचाने के तौर-तरीकों से विवाद उठे। इन्डोनेशिया और श्रीलंका में समुदायों के स्तर पर टकराव देखने को मिले। प्रभावित देशों में सहायता पहुँचाने के तरीकों ने भूराजनैतिक शक्तियों और राजनीतिक रूप से शक्तिशाली समूहों को सर्वेसर्वा बना दिया। सहायता का वितरण उनका राजनीतिक एजेंडा बन गया। स्थानीय समुदाय के स्तर पर पहल, एकजुटता और हमदर्दी धीरे-धीरे लोप हो गई और ईर्ष्या, गलाकाट मुकाबले और दिलजलेपन का बोलबाला हो गया। वास्तविक रूप से लाभान्वित होने के हकदारों में असंतोष पनपा। विदेशी एजेंसियों का भी ध्यान इस तरफ गया। ऐसी खबरें भी आईं कि राहत का पैसा उन लोगों पर व्यय किया गया जिन्हें अपेक्षाकृत कम नुकसान हुआ था और वे प्रभावित उपेक्षित रह गए जिनका ज्यादा नुकसान हो चुका था।

श्रीलंका में एक्शन एड को ज्ञात हुआ कि मात्र 26 प्रतिशत सहायता ईस्ट कोस्ट पर पहुँची जहाँ सर्वाधिक नुकसान हुआ था, जबकि 86 प्रतिशत सहायता राशि दक्षिण में व्यय की गई जहाँ बनिस्बत कम नुकसान हुआ था। वैश्वीकरण के पश्चात आज के दौर में आपदा सहायता तकनीक से संचालित हो रही है। सहायता के प्रवाह और इसे पहुँचाने वाली एजेंसियों की जवाबदेही प्रभावित देशों, उनके लोगों या नागरिक समाज के प्रति या तो सीमित रह गई, या है ही नहीं। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के श्रीलंका चैप्टर ने दिसम्बर, 2007 में रिपोर्ट दी थी कि कोई 53 मिलियन रुपये का कुछ पता नहीं कि कहाँ गया। उसका कुछ हिसाब-किताब नहीं था।

नेपाल में आपदा


राष्ट्रों/सरकारों के स्तर से नेपाल पहुँचने वाली सहायता में एकजुटता दिखती है। मानवीयता का जज्बा झलकता है। पूर्व में सहायता राशि को जिस प्रकार खुर्द-बुर्द किया गया उसके मद्देनजर विभिन्न खिलाड़ियों के बीच समन्वय कम दिख रहा है। इस समय जरूरी है कि हम खुद से सवाल करें-किस मद पर इमदाद को खपाया जाएगा? बुनियादी तौर पर इसे कहाँ खपाया जाएगा? इसे किस प्रकार से खपाया जाएगा? तथा, किनके लिए इसे खपाया जाएगा? इन सवालों के जवाब खोजने पर हमें स्वत: ही पता चल जाएगा कि सहायता से कौन लाभान्वित होने हैं। न केवल यह बल्कि हम यह भी जान पाएँगे कि इस लाभ की प्रकृति और इसे जरूरतमन्दों तक पहुँचाने का तौर-तरीका क्या होगा?

सर्वाधिक विनाशकारी भूकम्प और उनमें हुए जानमाल का नुकसान

 

घटना का नाम

साल

क्षेत्र और राज्य

नुकसान

मुम्बई भूकम्प

1618

मुम्बई, महाराष्ट्र

2,000

बंगाल का भूकम्प

1737

बंगाल

3,00,000

हिमाचल का भूकम्प

1905

कांगड़ा, हिप्र

20,000

बिहार का भूकम्प   

1934

बिहार

6,000

बिहार-नेपाल का भूकम्प

1988

बिहार-नेपाल सीमा

1,004 मौत, 25,000 मकान ध्वस्त

उत्तरकाशी का भूकम्प

1991

अविभाजित उत्तर प्रदेश

768 मौत 5066 घायल, 42,000 मकान ध्वस्त

लातूर का भूकम्प

1993

लातूर, मराठवाड़ा, महाराष्ट्र के क्षेत्र

7,928 मौत, 30,000 घायल, 30,000 मकान ध्वस्त

जबलपुर का भूकम्प

1997

जबलपुर, मध्य प्रदेश

38 मौत, 8,546 मकान ध्वस्त

चमोली

1999

अविभाजित उत्तर प्रदेश अब उत्तराखंड

100 मौत, 2,595 मकान ध्वस्त

गुजरात का भूकम्प

2001

गुजरात के भुज, बचाऊ, अंजार, अहमदाबाद और सूरत

25,000 और 6.3 मिलि. लोग पीड़ित, 2,31,000 मकान ध्वस्त

कश्मीर का भूकम्प

2005

कश्मीर राज्य

86,000 मौत (कश्मीर और हिमालय के आस-पास के) 4,50,000 मकान ध्वस्त

सिक्किम का भूकम्प

2011 नेपाल सीमा

पूर्वोत्तर भारत व सिक्किम

97 मौत और व्यापक क्षेत्र में भूस्खलन

नेपाल व भारत के भूकम्प

2015

नेपाल और उत्तर भारत

6,000 से ज्यादा लोग मारे गए, 10,000 घायल (अंतिम आंकड़ा बाकी)

 


लेखक - असि. प्रोफेसर, सेंटर ऑफ सोशल मेडिसिन एंड कम्युनिटी हेल्थ, जेएनयू

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