कैसे धान का कटोरा बन गया कालाहांडी

लगभग 11 लाख की आबादी वाला यह जिला देश के सबसे अधिक गरीबी वाले जिले में रखा जाता था। 1985 में जहां 88 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन जी रहे थे, वहीं आज लगभग 33 फीसदी लोग ही गरीबी रेखा के नीचे हैं। एफसीआइ के अनुसार यहां 1997 में 40 हजार टन चावल खरीदा गया था। जबकि आज यहां 80 हजार टन चावल खरीदा जा चुका है और 1.25 चावल प्राप्त किए जाने की उम्मीद है। यह पूरे राज्य का एक तिहाई है। कृषि जानकारों का कहना है कि तमाम रिकॉर्डों को तोड़ते हुए इस साल कालाहांडी क्षेत्र में एक से अधिक फसल हुआ। इस क्षेत्र में हुई पर्याप्त वर्षा ने किसानों की खुशियों में बढ़ोत्त्तरी कर दी थी। किसानों का कहना है कि इस साल कुछ और फसलों का उत्पादन हुआ है। 1998 में जहां 7883 से दोगुणा होते हुए 14959 हेक्टेयर क्षेत्र में रबी फसल हुआ था वहीं इस वर्ष 25 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में रबी फसल हुआ है। भारत सरकार ने भी स्वीकार किया है कि 2003-04 से कालाहांडी क्षेत्र में कृषि उत्पादन में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है।

कालाहांडी क्षेत्र में उत्पादन में वृद्धि का क्रेडिट केंद्र सरकार अपने खाते में लेना चाह रही है। उसका कहना कि अपर इंद्रावती सिंचाई परियोजना के कारण कृषि उत्पादन में बढ़ोत्तरी हो रही है। वहीं राज्य सरकार अपना क्रेडिट लेने के लिए दावा कर रही है। जबकि इसके बीच क्षेत्र के वासी अथक मेहनत व गैर सरकारी संगठनों के जमीनी कार्य को हर कोई दरिकनार कर रहा है। गांव के सहयोग से गैर सरकारी संगठनों द्वारा किये गए कार्य का ही परिणाम है कि आज कभी भूखा रहने वाला कालाहांडी क्षेत्र चावल उत्पादन में देश में अग्रणी स्थान बनाने की ओर अग्रसर है।

हालांकि स्थानीय लोगों का कहना है कि गैर सरकारी संगठनों ने लोगों को अपने अधिकार के प्रति जागरूक किया। वर्षो से अध्यनरत व अखबारों और पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन करने वाले सुदर्शन छोटराय ने बताया कि कालाहांडी के लोगों में काफी जागरूकता आयी है। लोग पहले की अपेक्षा चीजों को ज्यादा समझ रहे हैं। 1991 के आर्थिक उदारीकरण का भी प्रभाव पड़ा है। आर्थिक उदारीकरण के बाद लोग बाहरी दुनिया से संपर्क में आया। तकनीकों के ज्ञान बढ़ने और आर्थिक उन्नति के कारण खेती में पैसा लगाना शुरू किया।

लोअर इंद्रावती व अपर


छोटराय के मुताबिक पारंपरिक सिंचाई का क्षेत्र की उपज बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इनके मुताबिक इस क्षेत्र के विकास में पंचायत का योगदान सर्वाधिक है। पंचायत के अधिकार संपन्न होने से लोगों को अपने अधिकार का बोध हुआ। पंचायत को मिलने वाले वित्तीय योगदान से छोटे-छोटे काम होने लगे। लोगों को सरकारी दफ्तर के चक्कर लगाने से छुटकारा मिल गया और पंचायत के काम से लोगों को काफी फायदा हुआ। यहां की भूमि पहले से ही उपजाऊ है, सिर्फ सिंचाई की कमी थी। जो पंचायत ने अपने स्तर से काम किया और पारंपरिक सिंचाई के स्रोतों को फिर से मजबूत किया। इसी का परिणाम है कि आज चावल उत्पाद का रिकार्ड कायम हो रहा है।

छोटे परियोजनाओं का योगदान


बड़ी सिंचाई परियोजनाओं के साथ-साथ पारंपरिक व छोटे सिंचाई परियोजनाओं ने भी कृषि उत्पादन बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। छोटी परियोजनाओं में खर्च बहुत कम आता है। इस खर्च को भी पंचायत अपने स्तर पर मुहैया करा देता है। ग्रामीण श्रम के माध्यम से इस योजना को पूरा कर लिया जाता है।

गैर सरकारी संगठन एजेएसए कालाहांडी में 1989 से काम कर रहा है। इस संगठन ने क्षेत्र में पानी की कमी को दूर करने के लिए काफी प्रयास किया है। इसने ग्रामीण जनता के सहयोग डीबीआइ तकनीक को लागू किया। इसने लोगों को पानी की महत्ता समझाते हुए फसलों सिंचाई डीबीआइ तकनीक को अपनाने की सलाह दी। इस संगठन से जुड़े मनोरंजन बेहरा ने पंचायतनामा को बताया कि डायवर्सन बेस्ड इरीगेशन (डीबीआइ) तकनीक का प्रयोग कालाहांडी के एम रामपुरा ब्लॉक में कर उसने पानी की कमी को दूर करने का प्रयास किया। इस तकनीक के प्रयोग से किसान की आमदनी अच्छा खासा इजाफा हो गया।

इस संस्थान का कहना है कि डीबीआइ तकनीक के माध्यम से जमा पानी का उपयोग घरेलू कार्यों के अलावा, मवेशी के पीने के लिए प्रयोग किया जाता है। इतना ही नहीं इसका प्रयोग कर गांव के लोग सब्जी का उत्पादन भी करने लगे हैं। इनका दावा है डीबीआइ के माध्यम से 50 एकड़ तक की सिंचाई की जा सकती है। इंद्रावती सिंचाई परियोजना के कारण उपज में बढ़ोत्तरी हुई है।

केला बन रहा है आमदनी का जरिया


खाद्य फसलों के पर्याप्त उत्पादन के बाद कालाहांडी के लोगों ने अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए केला का उत्पादन शुरू किया है। इसकी खेती ने किसानों की रूठी किस्मत के दरवाजे खोल दिये हैं।

इलाके में पारंपरिक तौर पर धान की खेती होती थी। लेकिन सूखे की वजह से यह फसल खेतों में ही सूख जाती थी। अब ऐसा नहीं है। कालाहांडी में हजारों एकड़ ज़मीन पर केले की खेती हो रही है। राज्य सरकार की पहल पर किसान धान की जगह बड़े पैमाने पर केले की खेती कर रहे हैं। केले की नई-नई किस्मों की खेती होने लगी है। एक एकड़ ज़मीन पर केले की खेती के लिए एक किसान को औसतन साल में 30 हजार रुपये खर्च करने पड़ते हैं। इस पर उसे 70 हजार से एक लाख रुपये तक का मुनाफा होता है।

गैर सरकारी संगठनों का दावा है कि केले के उत्पादन ने किसानों की किस्मत बदल दी है। ये लोग चावल, मक्का के अलावा दलहन पहले ही उपजाते थे। अब केले से होने वाली आमदनी ने लोगों की जिंदगी को खुशियों से भर दी है।

डायवर्सन बेस्ड इरीगेशन क्या है


 इस तकनीक में ऊंचे स्थान से नीचे आने वाले पानी को एकत्र कर पाइप के माध्यम से गांव में ले जाया जाता है। इस परियोजना से जुड़े संजय कुमार राय ने पंचायतनामा को बताया किसी ऊंचे स्थान पर पानी के स्रोत को इकट्ठा कर पाइप के माध्यम से गांवों में पानी लाया जाता है। इस पाइप से हर घर को जोड़ दिया जाता है। इतना ही नहीं इस पानी को खेतों तक भी ले जाया जाता है। उन्होंने बताया कि लोग ऊंचाई के हिसाब से घरों में टंकी तक में पानी स्टोर कर लेते हैं।

राय के मुताबिक इसमें खर्च लगभग चार लाख के आसपास आता है। पहले यह काम जमशेदजी टाटा ट्रस्ट के द्वारा किया जाता था। लेकिन अब इसके लिए अनुदान नवार्ड व अन्य सरकारी एजेंसियों द्वारा भी दिया जा रहा है। उन्होंने बताया कि इसके लिए ग्रामसभा भी इस प्रस्ताव को पारित कर डीबीआइ के लिए अनुरोध कर सकती है। उसके बाद सरकारी एजेंसी सर्वेक्षण का काम कर इसे अंतिम रूप देती है। इतना ही नहीं सरकारी एजेंसी को उपयुक्त लगने पर इसके लिए जरूरत के सारे सामान अनुदान के तहत मुहैया कराये जाते हैं। उन्होंने बताया कि इस काम को गांव के लोगों के सहयोग से किया जाता है। अधिकांश मामलों में यह काम ग्रामीण श्रमदान व सरकारी अनुदान से होता है।

राय ने बताया कि वे डीबीआइ तकनीक से पिछले 20 वर्षों से जुड़े हैं। उन्होंने बताया वे झारखंड के लोहरदग्गा जिला के किसको प्रखंड के छाटा चोय गांव में में इस परियोजना को तैयार किया था। उन्होंने बताया कि आसपास के क्षेत्र में यह सफल रहा है।

एक गैर सरकारी संगठन एजेएसए से जुड़े मनोरंजन बेहरा ने बताया कि परियोजना के पूरा हो जाने के बाद इसकी देख-रेख के लिए गांव के लोगों की कमेटी बनायी जाती है। जो इसकी देखरेख और मरम्मत का काम देखता है। गांव के लोग इसमें आनेवाले खर्च का वहन भी करते हैं। गांव के लोग 50 रुपये महीने के हिसाब से इसके लिए पैसा भी जमा करते हैं।

कम सिंचाई वाली फसलों की दी जा रही तवज्जो


कालाहांडी में भले ही उड़ीसा के एक तिहाई धान का उत्पादन किया जा रहा है। लेकिन, गैर सरकारी संगठन सहभागी विकास संस्थान का कहना है कि धान जिले के 52 फीसदी क्षेत्र पर ही बोया जाता है। बाकी 48 फीसदी क्षेत्र पर अन्य फसलें उपजायी जाती है। संस्थान प्रेसीडेंट जगजीत प्रदान ने पंचायतनामा को बताया कि कालाहांडी के 48 फीसदी क्षेत्रों में कम सिंचाई वाली फसलों को प्राथमिकता दी जा रही है। लोगों को बताया जा रहा है कि कम सिंचाई की आवश्यकता वाले फसलों को बोने से उन्हें क्या लाभ होगा।

इस क्षेत्र में पड़ने वाले सूखे के लिए उन्होंने सरकारी नीतियों को दोषी ठहराया है। उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र में बीच के समय अधिक सिंचाई की आवश्यकता पड़ने वाले फसलों को बोया जाने लगा था। उसे पर्याप्त पानी नहीं मिल पाता था जिस कारण से प्रदेश में सूखे की स्थिति पैदा हो जाती थी। बीते कुछ वर्षों में विभिन्न संस्थाओं द्वारा लोगों को जागरूक किये जाने के बाद लोगों ने स्थिति को समझा। लोगों ने अब कम सिंचाई वाले फसलों को अधिक बोना शुरू कर दिया। जिसके बाद सूखे जैसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ रहा है। उन्होंने बताया कि क्षेत्र के लोगों ने कम सिंचाई वाले फसल मकई, अरहर, ट्री प्लांटेशन को प्राथमिकता देना शुरु कर दिया है।

प्रधान के मुताबिक कालाहांडी क्षेत्र में सिंचाई के लिए पुराने पैटर्न ही बेहतर हैं। छोटे-छोटे तालाब, जलाशय आदि में पानी को जमा करने का सिस्टम अभी भी नये सिस्टमों से बेहतर है। उन्होंने बताया कि इन तालाबों में पानी जमा करने के साथ-साथ लोगों को मछली पालन के लिए भी प्रोत्साहित किया जा रहा है। इससे लोगों को फायदा हो रहा है। लोग सिंचाई व अन्य उपयोग के लिए तालाब के पानी का उपभोग कर रहे हैं। साथ ही मछली पालन से उसके आमदनी में भी खासा इजाफा हो रहा है। उन्होंने बताया कि इसका फायदा भी लोगों को मिला है।

एक अनुकरणीय उदाहरण


कभी गरीबी व भूखमरी के लिए खबरों में रहने वाला कालाहांडी आज धान उत्पादन में रिकार्ड कायम करने के लिए चर्चा में है। कालाहांडी में धान का उत्पादन लाख टन से ऊपर पहुंच गया है। बताया जा रहा है कि कालाहांडी के लगभग 52 फीसदी क्षेत्र पर धान का उत्पादन हो रहा है। क्षेत्र के लोग धान उत्पादन में रिकार्ड कायम करने के बाद रबी फसल और सब्जी का भी यहां पर्याप्त उत्पादन करने लगे हैं। यहां के लोग केले के उत्पादन के माध्यम से भी अपनी आमदनी में अच्छा खासा इजाफा कर लिया है। यह सिर्फ सरकारी प्रयासों का नतीजा नहीं है बल्कि सामुदायिक सहभागिता और गैर सरकारी संगठनों के अथक प्रयास के बाद कालाहांडी में हरियाली दिखाई दी है।

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