कैसे बचे प्रकृति?

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हम एक ही दिन क्यों प्रकृति को बचाने का कार्य करें वर्ष भर क्यों न करें? हम यह कौन-सा न्याय प्रकृति के साथ कर रहे हैं कि वर्ष भर उसका दोहन करें और एक दिन चंद घंटों के लिए उसके जख्मों पर मरहम पट्टी करें। क्या हमें रोजाना प्राणदायक वायु नहीं चाहिए? क्या हमें प्यास रोजाना नहीं लगती है? क्या हमारा पेट रोजाना रोटी नहीं मांगता है? तो फिर प्रकृति के संरक्षण के लिए एक ही दिन क्यों सोचें उसके लिए भी रोजना ही कुछ समय निकाल कर कार्य क्यों न करें। पांच जून को हम पौधे लगाएंगे लेकिन बरसात से पहले लगाये गये कितने प्रतिशत पौधे वृक्ष बन पाते हैं? हम क्यों नहीं बरसात में पौधे लगाते मात्र इसलिए कि बरसात में विश्व पर्यावरण दिवस नहीं होता है।

एक-दूसरे को समस्या बताना तथा हर कार्य में नकारात्मक सोच बना लेना, शायद हमारी आदत में शुमार हो गया है। हम कभी यह नहीं सोचते हैं कि जिस समस्या की जानकारी हम दूसरों को प्रेषित कर रहे हैं या फिर उस समस्या के सन्दर्भ में दूसरों की कटु आलोचना कर रहे हैं उसके समाधान के लिए हमारा प्रयास क्या है? पर्यावरण से जुडे़ कुछ विशेष दिवसों पर भी हम बस रोना ही रोएंगे कि उद्योगपति अपने मुनाफे के चक्कर में नदी व धरती के गर्भ से स्वच्छ व निर्मल जल खींचकर बर्बाद तथा प्रदूषित कर रहे हैं, रोजाना बढ़ते वाहनों के कारण प्राणदायक वायू जहरीली होती जा रही है, जनरेटरों व प्रेशर हार्न आदि के चलते ध्वनि प्रदूषण अपनी सीमाएं लांघ रहा है तथा एयरकंडीशन व फ्रीज आदि के कारण क्लोरो फ्लोरो कार्बन जैसी गैसें निकल रही हैं जिसके कारण से धरती का गर्म होना जारी है। हमारी आलोचना से देश का अन्नदाता किसान भी नहीं बच पाता है। हम किसान पर यह आरोप मढ़ देते हैं कि वह अपनी फसलों में अधिक कीटनाशक इस्तेमाल कर रहा है जिस कारण से खाद्यान्नों में कीटनाशकों के अंश पाए जा रहे हैं।

पर्यावरण के बिगड़ते जाने के मुद्दे पर एक-दूसरे को कोसना फैशन सा बन गया है। जहां विकसित देश विकासशील और गरीब देशों को गुनहगार मानते हैं वहीं गरीब और विकासशील देश विकसित देशों की अत्यधिक आधुनिक जीवन शैली को इसके लिए कसूरवार ठहराते हैं। भारत में एक ग्रामीण शहरी को और शहरी ग्रामीण को एक-दूसरे से अधिक पर्यावरण का दुश्मन समझता है। मेरी सर्वाधिक शिकायत उन सज्जनों से रहती है जोकि एक अच्छे और नेक काम को भी मात्र दिखावे के रूप में 365 दिन में से मात्र एक दिन कुछ क्षण के लिए ही करते हैं जबकि बाकि बचे 364 दिन हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहते हैं। हम एक ही दिन क्यों प्रकृति को बचाने का कार्य करें वर्ष भर क्यों न करें? हम यह कौन सा न्याय प्रकृति के साथ कर रहे हैं कि वर्ष भर उसका दोहन करें और एक दिन चंद घंटों के लिए उसके जख्मों पर मरहम पट्टी करें। क्या हमें रोजाना प्राणदायक वायु नहीं चाहिए? क्या हमें प्यास रोजाना नहीं लगती है? क्या हमारा पेट रोजाना रोटी नहीं मांगता है? तो फिर प्रकृति के संरक्षण के लिए एक ही दिन क्यों सोचें उसके लिए भी रोजना ही कुछ समय निकाल कर कार्य क्यों न करें।

पांच जून को हम पौधे लगाएंगे लेकिन बरसात से पहले लगाये गये कितने प्रतिशत पौधे वृक्ष बन पाते हैं? हम क्यों नहीं बरसात में पौधे लगाते मात्र इसलिए कि बरसात में विश्व पर्यावरण दिवस नहीं होता है। लेकिन हमें कार्य की महत्ता व उसकी सार्थकता को जानते व समझते हुए कार्य करना चाहिए और सही समय पर सही कार्य करना चाहिए। तभी उसके सही नतीजे देखने को मिलेंगे। हम शायद सच्चाई स्वीकर करने से डरते हैं और सच्चाई यही है कि इस पृथ्वी के प्रत्येक इंसान का पर्यावरण को बिगाड़ने या सुधारने में योगदान होता है। क्योंकि हम चाहे कपड़े पहनें या फिर अपने पेट को भरने के लिए अन्न पैदा करें, कहीं न कहीं पर्यावरण का नुकसान करते हैं। जब ऐसा है तो हमें उसकी भरपाई भी करनी चाहिए। सभी समुदायों के धार्मिक ग्रंथों में पर्यावरण हितैषी बनने के लिए कहा गया है। मनु स्मृति में एक वृक्ष को दस पुत्रों के बराबर की संज्ञा दी गई है।

मनु स्मृति में ही कहा गया है कि अगर कोई व्यक्ति सार्वजनिक स्थल के पानी को किसी भी प्रकार से गंदा करता है तो उसको कठोर सजा दी जानी चाहिए। कुरान कहती है कि जल ही जीवन है। वेद तो पानी के महत्व की गाथाओं से भरे पड़े हैं। इसाई समुदाय में भी प्रकृति प्रेम को श्रेष्ठता प्रदान की गई है। कोई भी दिवस हमारे अंदर यह जागृति तो पैदा करने के लिए पर्याप्त हो सकता है कि उस दिन से हम विशेष विषय की बात करें लेकिन यदि हमें उस दिवस की रस्म अदायगी ही करनी है तो ये दिवस तो प्रत्येक वर्ष आते रहेंगे और समस्याएं घटने के बजाए बढ़ती रहेंगी। हमारा किसी भी दिवस को मनाना तभी सार्थक है जब हम उस दिवस के विषय की महत्ता को समझते हुए कुछ सकारात्मक और ठोस कार्य करके दिखाएं।

आज वास्तव में सम्पूर्ण प्रकृति संकट के दौर से गुजर रही है। उसे पृथ्वी के प्रत्येक नागरिक के योगदान की आवश्यकता है। प्रातःकाल से लेकर सायं तक प्रकृति का किसी न किसी रूप में दोहन हो रहा है। उसकी भरपाई हेतु किए जाने वाले कार्य नगन्य ही हैं। हमें मन में ठान लेना है कि बरसात में दस पेड़ अवश्य लगाएंगे, मन में तय कर लेना है कि प्रत्येक दिन प्रकृति को बचाने के विचार को समाज में फैलाने का कार्य करेंगे तथा मन में ठान लेना है कि धरा को हरा-भरा बनाने के लिए प्रयास जरूर करेंगे। अगर कुछ ऐसे कड़े निर्णय हम वास्तव में कर लें तो समस्या का समाधान संभव है नहीं तो तय है प्रकृति अपना बदला लेकर रहेगी। इस लेख को पढ़ने वाले कुछ सज्जन व्यक्तित्व कहेंगे कि यह भी तो आलोचनात्मक लेख है लेकिन उनके इस सवाल का जवाब मेरे पास नहीं है।

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