सारांश
कैन्सर, रोगों का एक वर्ग है जिसमें काशिकाओं की अनियंत्रित वृद्धि के साथ ही शरीर के दूसरे अंगों में भी फैलने और विनाश करने की क्षमता होती है। अधिकतर (90-95 प्रतिशत) कैन्सर का कारण वातावरण होता है। शेष (5-10 प्रतिशत) आनुवंशिकी से निर्धारित होते हैं। ज्यादातार कैन्सर को प्रारम्भिक अवस्था में ही उसके चिन्ह एवं लक्षण या स्क्रीनिंग द्वारा पहचाना जा सकता है। चिकित्सीय परीक्षण जैसे रक्त जाँच, एक्स-रे, सी.टी. स्कैन, एण्डोस्कोपी तथा बायोप्सी प्रमुख हैं। कुछ कैन्सर की रोकथाम उसको उत्पन्न करने वाले जोखिम कारकों जैसे, तम्बाकू चबाना, मोटापा, शारीरिक निष्क्रियता, मदिरापान, यौन सम्बन्धित रोगों आदि से बचाव करके किया जा सकता है।
Abstract : A group of diseases involving abnormal cell growth with the potential to invade or spread to other parts of the body, is known as cancer. Majority (90-95%) of cancers are due to environmental factors. Remaining (5-10%) is due to inherited factors. Most of the cancers can be recognized at early stage due to the appearance of signs and symptoms or through screening. Investigations include blood tests, X-rays, CT scans, endoscopy and biopsy. Some cancers can be prevented by avoiding risk factors as tobacco chewing, obesity, physical inactivity, alcohol intake and sexually transmitted diseases etc.
एक अर्बुद (ट्यूमर) का अर्थ है कोशिकाओं की असामान्य वृद्धि जिससे एक परावर्तित (ट्रांसफॉर्मड) कोशिकाओं का समूह बन जाता है। जिसे गांठ (लम्प) कहा जाता है। इसके बनने के प्रमुख कारण होते हैं- कोशिका विभाजन को नियंत्रित करने वाली प्रक्रिया का समापन तथा उसके अन्दर उपस्थित जीन्स (आनुवंशिकता की इकाई) में किन्हीं लक्षणों के प्रति जीनी उत्परिवर्तन (जीनिक म्यूटेशन)।
सामान्यतः अर्बुद दो प्रकार के होते हैं- सुयम अर्बुद (बिनाइन) जो अधिकतर परिसम्पुटित (इनकेप्स्लेटेड) होते हैं व एक ही स्थान तक सीमित रहते हैं। दूसरे अर्बुद, दुर्दम अर्बुद (मैलिगनेन्ट) कहलाते हैं जिनमें कोशिकायें परिसम्पुटित न होने के कारण रक्त परिवहन के साथ-साथ शरीर के दूसरे भागों में जाकर स्थापित हो जाती हैं (इस प्रक्रिया को स्थलान्तरण या मेटास्टैसिस कहा जाता है)। दुर्दम कोशिकायें (कैन्सरस सेल्स) अपनी सतह पर लगे हुए पदार्थों के कारण विशेष गुणों से युक्त होती हैं साथ ही इनमें एक विशेष घटक (रिसेप्टर) भी होता है जो किसी भी औषधि या हार्मोन के साथ संयुक्त होकर कोशिका की कार्यिकी को बदल देता है। इस कारणवश इन कोशिकाओं में स्वतःस्रावी कारक (ऑटोक्राइन फैक्टर्स) पैदा हो जाते हैं जो उनको विशेष प्रतिजनीय गुण (एण्टीजीनिक प्रॉपर्टी) से युक्त कर देते हैं। हमारे शरीर के प्रतिरोध क्षमता तंत्र (इम्यून सिस्टम) द्वारा इस प्रतिरोधी उद्दीपों के संदर्भ में दुर्दम कोशिकाओं के प्रतिजनों के लिये प्रतिकाय (एण्टी बॉडीज) तो बनाये जाते हैं परन्तु वे इनकी प्रक्रिया को नजरअन्दाज (भेदकर) करते हुए खूब वृद्धि करने में सक्षम होती हैं जो उनकी सतह पर पाये जाने वाले प्रतिजनों में निरन्तर/सतत परिवर्तनों के होते रहने के कारण हुआ करता है। इस प्रकार दुर्दम कोशिकायें शरीर की प्रतिरोध क्षमता वाली कोशिकाओं को भ्रमित करके उन्हें अपना कार्य नहीं करने देती हैं। मनुष्य के शरीर की सभी कोशिकायें अपनी प्रकृति के आधार पर सदैव अपनी-अपनी प्रकार की एक जैसी ही दिखती हैं तथा उनमें अभ्रंशीय (डीजेनेरेटिव) व प्रतिक्रमणीय (रीग्रेसिव) परिवर्तन बहुत कम दिखाई देते हैं। इसके साथ-साथ इन कोशिकाओं में विक्षेपण/स्थलान्तरण (मेटास्टैसिस) की प्रवृत्ति भी नहीं दिखाई देती हैं।
कैंसर शरीर के किसी भाग के ऊतक में उत्पन्न हो सकता है। ऊतकों की प्रकृति के आधार पर इनका वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है-
1. उपकलार्बुद (कार्सिनोमा) - इस प्रकार के दुर्दम अर्बुद उपकलाकी कोशिकाओं में बनते हैं।
2. ग्रन्थिलार्बुद (एडीनो कार्सिनोमा) - ये अधिकतर दुर्दम होते हैं तथा ग्रन्थिल ऊताकों में उपस्थित कोशिकाओं में बनते हैं।
3. लसिकार्बुद (लिम्फोमा) - शरीर में लसीकाम ऊतक से बने हुए कैन्सर जैसे- हॉजकिन्स डिजीज।
4. लसिका सार्कोमा (लिम्फो सार्कोमा) - अधिकांश दुर्दम अर्बुद जो लसिकाम ऊतक में बनते हैं जैसे- लिम्फोसर्कोमा ऑफ इन्टस्टाइन।
5. सार्काबुद (सार्कोमा) - संयोजी ऊतक (कनेक्टिव टिश्यू) जैसे- पेशियों, हड्डियों आदि में बनने वाले अधिकांश दुर्दम अर्बुद जो मूत्राशय, वृक्कों, यकृत, प्लीहा, फेफड़ों आदि को प्रभावित कर सकते हैं।
6. हरितार्बुद/तीव्रश्वेत रक्तता (ल्यूकीमिया) - अस्थिमज्जा व रक्त में उत्पन्न लसिकाभ (लिम्फ्वाइड) या रक्तोत्पादक (हीमैप्वाइटिक) ऊतक में पाया जाने वाला दुर्दम अर्बुद।
7. हिमैन्जियोसार्कोमा - रक्त वाहिनियों का दुर्दम अर्बुद जो अन्तः कला (इन्डोथीलियम) एवं तन्तुप्रस (फाइब्रोब्लास्ट) ऊतक का बना होता है।
8. एमीलोब्लास्टोमा - जबड़े विशेषकर निचले जबड़े का अर्बुद जो दुर्दम भी हो सकता है तथा इसमें इनेमेल की विशिष्ट होती है।
9. यकृतार्बुद (हिपैटोमा) - यकृत में पाया जाने वाला एक दुर्दम अर्बुद।
10. हीमैन्जियोब्लास्टोमा (रक्त वाहिका प्रस अर्बुद) - मस्तिष्क का एक कोशिका- रक्त वाहिका अर्बुद जो अधिकतर अनुमस्तिष्क में होता है।
कैन्सर के प्रारम्भिक लक्षण (प्रोग्नोस्टिक सिम्पटम्स) - चिकित्सा विज्ञानियों के अनुसार शरीर में उत्पन्न कोई परिवर्तन/अपसामान्यता जो छः सप्ताह से ज्यादा अवधि की हो गई हो तथा इस दौरान उसमें गिरावट की स्थिति नहीं दिखाई पड़ती हो तो उसकी तुरंत जाँच करवाना आवश्यक है। कैन्सर की जाँच व उपचार जितना ही जल्दी आरम्भ हो जाये, परिणाम उतने ही अच्छे होने की संभावना है। इस बीमारी के पूर्वानुमान/प्राग्यान से सम्बद्ध सहायक लक्षण निम्नलिखित हो सकते हैं-
1. कोई गांठ या उभार जो शरीर में अचानक ही दिखाई पड़ने लगे।
2. घाव/जख्म विशेषकर ऐसा जिसके किनारे उठे हों तथा बाहर की ओर उल्टे हों जिससे जख्म का रूप गोभी के फल जैसा दिखता हो।
3. बिना किसी विकृति के शरीर से रक्तस्राव या तरल पदार्थ का निकलना।
4. त्वचा में कोई भी परिवर्तन का दिखाई देना।
5. खांसी आना तथा गेले की आवाज का कर्कश होना (हारस्नेस ऑफ वॉयस)
6. मल के स्वरूप व प्रकृति में परिवर्तन जैसे गोल-गोल पिण्डों के रूप में या उसका रंग सामान्य से लाल कालापन लिये होना।
7. बिना कारण या विकृति के अचानक वजन का कम होने लगना (लगभग 7-8 प्रतिशत तक एक माह में)।
8. अकारण या बिना किसी विकृति के सिर में दर्द होना।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) की वर्ष 2014 में जारी की गई रिपोर्ट के अनुसार भारत के महानगरों में कैन्सर के 1,00,000 नये रोगी प्रतिवर्ष निदान के दौरान आते देखे गये हैं तथा इसके अनुसार वर्ष 2015 तक यह संख्या बढ़कर 11,48,692 तक पहुँच जायेगी जो 5,48,844 पुरुषों तथा 5,79,847 के नये रोगियों की संख्या तक जा सकती है। भारतीय चिकित्सा व अनुसंधान परिषद की जनसंख्या आधारित कैन्सर पंजीकरण की वर्ष 2013 की रिपोर्ट के अनुसार महानगरों में प्रमुख तीन प्रकार के कैन्सर से संबंधित पुरुषों व स्त्रियों की संख्या इस प्रकार है-
पुरुष | स्त्री |
मुँह का कैन्सर-45,669 | स्तन का कैन्सर-94288 (जिसमें स्टेज वन 90ः, स्टेज टू 80% तथा स्टेज थ्री 40-50ः की अनुजीवन दर देखी गई है) |
फेफड़ों का कैन्सर-52,685 | सर्वाइकल कैन्सर-92,731 |
पौरुष ग्रन्थि (प्रोस्टेट) का कैन्सर-35029 | अण्डाशयी कैन्सर-36,423 |
1. फेफड़ों का कैन्सर - धूम्रपान (किसी भी रूप में) इसका प्रमुख कारक हो सकता है। यह आवश्यक नहीं आप स्वयं धूम्रपान नहीं करते परन्तु फिर भी दूसरों के धूम्रपान से निकले धुएँ को सांस में ले जाने के कारण (पैसिव स्मोकर्स) आपको अधिक खतरा हो सकता है। अतः तम्बाकू के धुएँ से बचाव द्वारा इसके खतरे को बहुत हद तक कम किया जा सकता है। इस दिशा में मीडिया द्वारा ‘‘तम्बाकू से कैन्सर हो सकता है जो जानलेवा है’’ जैसे विज्ञापनों का निरन्तर दिखाया जाना हो सकता है। जनचेतना को विकसित करने में सहायक सिद्ध हो सके ऐसा विश्वास किया जा सकता है। इसके प्रमुख लक्षण खांसी, बलगम (रक्त की धारियों में रंजित), आवाज में कर्कशता (हार्शनेस) वजन का गिरना, सीने में दर्द आदि हो सकते हैं। यहाँ यह नितान्त आवश्यक है कि निदानकर्ता को तपेदिक व कैन्सर में विभेद का अच्छा ज्ञान हो क्योंकि ये लक्षण तपेदिक में भी दिखाई देते हैं तथा उसका उपचार यदि जल्दबाजी में शुरू हो गया हो तो दिक्कत आ सकती है। अतः उसके निदान हेतु एक्सरे, सी.टी. स्कैन व जीवोति परीक्षण (बायोप्सी) का प्रयोग होता है।
2. मुँह का कैन्सर - भारत वर्ष में इसके रोगियों की संख्या अधिकतम देखी गई है, इनमें से 70% को तब ज्ञात होता है जब वे स्टेज थ्री व स्टेज फोर तक पहुँच जाते हैं। मुँह का कैन्सर जीवन शैली से सम्बद्ध होता है तथा इसका प्रमुख कारण तम्बाकू का सेवन है। इसके अतिरिक्त नियमित व अत्यधिक मद्यपान भी इसका कारक हो सकता है। कभी-कभी दाँतों की धार अधिक पैनी हो जाती है जिससे मुँह में घाव आदि हो जाने से भी यह रोग हो सकता है। इसके प्रमुख लक्षण मुँह में घाव/जख्म का होना (जो 3 सप्ताह से ऊपर का हो गया हो) मुँह में लाल या श्वेत रंग दाग/धब्बा/पैच दिखना, मुँह खोलने में तकलीफ होना तथा गर्दन में दर्द आदि होते हैं।
3. पौरुष ग्रन्थि (प्रोस्टेट ग्लैंड) कैन्सर - अधिकतर यह 60 वर्ष के ऊपर के पुरुषों में होता है पर कभी-कभी 50 वर्ष व बहुत कम 40-50 वर्ष के पुरुषों में भी देखा गया है। इसके रोगियों में तेजी से पेशाब लगना, पेशाब तुरन्त ही करने की आवश्यकता (ऐसा न करने पर निकल जाने का भय हो सकता या निकल भी सकती है), पेशाब के साथ दर्द का अनुभव, पेशाब की धार का धीमा रहना तथा बूँद-बूँद बहुत समय तक होते रहना (टपकना) जिससे मूत्राशय पूरी तरह खाली नहीं हो पाता (कम्प्लीट वॉयडिंग) आदि प्रमुख लक्षण देखे जाते हैं। निदान हेतु पी.एस.ए. टेस्ट (प्रोस्टेट सिक्रिटिंग एन्टीजेन टेस्ट) के साथ एम.आर.आई. (मैग्नेटिक रेजोनेन्स इमेजिंग) व जीवोति परीक्षण (बायोप्सी) का प्रयोग प्रचलित है।
4. स्तन कैन्सर - टाटा मेमोरियल सेन्टर, मुंबई के आंकड़ों के अनुसार शहरीय भारत में 22 में से 1 महिला को उसके जीवन में स्तन कैन्सर हो सकता है। इसका शिकार सबसे अधिक 43-46 वर्ष की महिलायें होती देखी गई हैं परन्तु, विशेषज्ञों ने 20-30 वर्ष की महिलाओं में भी इसे होते देखा है। इसके लिये आवश्यक है स्वतः स्तन परीक्षण (वी.एस.ई./ब्रेस्ट सेल्फ इग्जामिनेशन) जो महिलाओं को 20 वर्ष की आयु के पश्चात नियमित रूप से करना चाहिये जिससे उनमें होने वाले परिवर्तनों जैसे लाली, गांठ, तरल पदार्थ निकलना आदि को ध्यान से देखना चाहिये। स्वतः परीक्षण के बाद 40 वर्ष की आयु तक नियमित समय पर किसी स्त्री-रोग विशेषज्ञ (गाइनोकोलॉजिस्ट) से परीक्षण करवाना चाहिये। निदान के लिये अल्ट्रासाउन्ड (स्तन व गांठ विशेषकर), एक्स-रे परीक्षण (मैमोग्राफी) के साथ-साथ एम.आर.आई. कराना चाहिये तथा आवश्यक हो तो एफ.एन.ए.सी. विधि द्वारा विकृति विज्ञानी जाँच के साथ मिलाकर सारी चीजों के संदर्भ में देखना चाहिये। यहाँ यह भी आवश्यक बताया जाता है कि जाँच करने की आवश्यकता है कि इस गांठ की कोशिकायें इस्ट्रोजन के प्रति संवेदी तो नहीं हैं (क्योंकि इससे हार्मोन चिकित्सा कारगर हो सकती है)। अतः कुछ नये टेस्ट जैसे इस्ट्रोजन रिसेप्टर ऐसे, प्रोजेस्ट्रॉन रिसेप्टर ऐसे, एच.ई.आर. 2 (ह्यूमन इपीडर्मल ग्रोथ फैक्टर रिसेप्टर 2, जो कैन्सर की कोशिकाओं की वृद्धि को प्रोत्साहित करता है) भी निदान व पुष्टि हेतु उपयोग में लाये जा रहे हैं।
5. गर्भाशय-ग्रीवा (सर्विक्स) का कैन्सर (सर्वाइकल कैन्सर) - यह कैन्सर धीरे-धीरे बढ़ने वाला होता है जो कई वर्षों (15-20) में विकसित होता गया है। इस कैन्सर का कारक ह्यूमन पैपीलोमा वायरस (एच.पी.वी.) जो संक्रमण द्वारा संसर्ग के दौरान या फिर अन्य कारकों जैसे पति-पत्नी दोनों ही द्वारा अपने जननांगों को ठीक से स्वच्छ न रखना। इसका सबसे अधिक संक्रमण अक्सर 15 वर्ष या कम आयु में प्रथम लैंगिक संसर्ग, एक से अधिक लोगों से संसर्ग (जो गर्भाशय ग्रीवा को क्षति पहुँचाकर उसे संक्रमण हेतु अधिक सुग्राह/गृहणशील/ससेप्टिबिल बना देता है। इसके अतिरिक्त एच.आई.वी. संक्रमण, हर्पीज सिम्पलेक्स, क्लेमाइडिया व गोनोरिया भी इसके कारक हो सकते हैं। इसका निदान लिक्विड बेस्ड पैप टेस्ट (उचित होगा यदि एच.आई.वी. के टेस्ट के साथ किया जाय) द्वारा किया जाता है जिसे जीवोति परीक्षण (बायोप्सी) द्वारा सुनिश्चित भी कर लेना आवश्यक है। प्रारम्भिक अवस्था में इस कैन्सर के रोगी में कोई स्पष्ट लक्षण दिखाई नहीं देते, परन्तु बाद की अवस्था में संसर्ग के दौरान पीड़ा होना, रक्तस्राव, अनावश्यक तरल स्राव योनि मार्ग से होना, तथा लम्बे समय से चला आ रहा/जीर्ण (क्रॉनिक) कमर दर्द आदि लक्षण देखे जा सकते हैं।
6. अण्डाशयी कैन्सर (ओवरियन कैन्सर) - महिलाओं में अण्डाशयों की स्थिति बहुत अन्दर होने के कारण उनका भौतिक परीक्षण सरलता से नहीं किया जा सकता अतः इस कैन्सर का पता काफी अग्रिम (एडवान्स्ड) अवस्था में ही चल पाता है। दसियों वर्षों के अनुसंधानों के बाद आज भी यह जानकारी भलीभाँति उपलब्ध नहीं हो सकी है कि अण्डाशयी कैन्सर क्यों होते हैं? इसके प्रमुख लक्षण पेट फूलना, बार-बार पेशाब लगना उदरशूल, रजोनिवृत्ति के बाद रक्तस्राव, भूख का न लगना, मूत्राशय से रक्त स्राव तथा पेट में गैस भर जाना आदि देखे गये हैं। श्रोणीय भाग का परीक्षण, ट्रान्सवजाइनल सोनोग्राफी तथा सी ए-125 के लिये रक्त परीक्षण द्वारा इसका निदान किया जा सकता है (विशेषकर उन महिलाओं में जिनके परिवार में इसका पूर्व इतिहास रहा हो)।
7. कैन्सर की चिकित्सा/इलाज - आमतौर पर कैन्सर की चिकित्सा हेतु इन तीन प्रकार की विधियों का सहारा लिया जाता है-
1. शल्य चिकित्सा - इस विधि द्वारा कैन्सर से प्रभावित भाग को काटकर शरीर से अलग करके निकाल दिया जाता है। इसका प्रयोग स्तन, बृहदांत्र, मलाशय, फेफड़ों, आमाशय तथा गर्भाशय आदि के कैन्सर हेतु किया जाता है। अर्बुद निकालने के साथ-साथ प्रभावित अंग का संधान/क्षति-पूर्ति भी की जाती है। कभी-कभी अर्बुद के साथ-साथ स्वस्थ ऊतक को भी निकाला जा सकता है जैसे स्तन अपनयनी शल्य (मैस्टेकटॉमी)।
2. विकिरण चिकित्सा - इस विधि में कैन्सर को जलाने के लिये एक्स-रे या अन्य रेडियोधर्मी पदार्थ जैसे कोबाल्ट60 रेडियम आदि की विकिरणों का उपयोग किया जाता है। इस विधि का प्रयोग सामान्यतः मूत्राशय, गर्भाशय-ग्रीवा, त्वचा, ग्रीवा व सिर आदि के कैन्सर की चिकित्सा हेतु किया जाता है परन्तु यह न समझा जाय कि अन्य प्रकार के कैन्सर का इलाज में इसका उपयोग नहीं होता। विकिरण के प्रभाव से प्रभावित ऊतक के साथ-साथ सामान्य ऊतक की कोशिकाएँ भी मर जाती हैं। अतः इसके प्रयोगकर्ताओं को विशेषज्ञ, अनुभवी तथा अत्यधिक सतर्क होना अति आवश्यक है। आधुनिक संयंत्र जैसे सुपरवोल्टेज एक्स-रे, कोबाल्ट बम, लीनियर एक्सीलिरेटर तथा साइक्लोट्रॉन आदि कारगर सिद्ध हुए हैं जिनका उपयोग सिर, ग्रीवा, स्तन, ग्रसनी, फेफड़ों, गर्भाशय ग्रीवा, फेफड़ों तथा पौरुष ग्रन्थि के कैन्सर की चिकित्सा हेतु किया जाता है।
3. औषधियों द्वारा - इसे रासायनिक साधन चिकित्सा (कीमोथिरेपी) भी कहा जाता है। लगभग 50 से ऊपर औषधियों का प्रयोग तीव्रश्वेत रक्तता (ल्यूकीमिया), लसीकार्बुद, वृषण कैन्सर आदि की चिकित्सा हेतु किया जा रहा है। इन औषधियों का निर्माण इस बात को ध्यान में रखकर किया जाता है कि वे कैन्सर कोशिकाओं को तो अधिक परन्तु सामान्य कोशिकाओं को कम से कम प्रभावित करें। ये सारी औषधियाँ अत्यधिक विषैली होती हैं तथा इनके अनेक प्रकार के अनुषंगी प्रभाव (साइड इफेक्ट्स) जैसे उल्टी आना, बालों का गिर जाना, संक्रमण के प्रति अधिक सुग्राह्यता। आजकल कई औषधियों को मिलाकर प्रयोग किया जाता है जिससे अनुषंगी प्रभावों को कम किया जा सके। कैन्सर चिकित्सा में औषधियों के संदर्भ में अत्याधुनिक अनुसंधान निम्नलिखित दिशा में किये जा रहे हैं-
अ. बायो रेसपॉन्स मॉडीफायर थिरेपी - ये वे पदार्थ हैं जो शरीर के प्रतिरोधी क्षमता तंत्र को उत्तेजित करके कैन्सर कोशिकाओं को नष्ट करने की दिशा में कार्य करते हैं। इनका निर्माण प्रयोगशालाओं में जैवप्रौद्योगिकी (बायोटेक्नोलॉजी), आण्विक जीव विज्ञान (मॉलिक्यूलर बायोलॉजी) की विधियों द्वारा किया जाता है। उदाहरणार्थ- इन्टरफेरॉन, इन्टरल्यूकीन-2 तथा मोनो क्लोनल प्रतिकाय (मोनोक्लोलन एण्टी बॉडीज)। जी.एम.-सी.डी.एफ. प्रोटीन बनाई गई है जो श्वेत कणिकाओं (डब्ल्यू.बी.सी.) की संख्या में वृद्धि करती हैं तथा उन रोगियों के लिये लाभदायक हैं जिन्हें श्वेत कणिकाओं को नष्ट करने वाली औषधियाँ दी जाती है।
ब. डिफरेन्शियेटिंग एजेन्ट्स - ये एक नई श्रेणी की औषधियाँ बनाई जाती हैं जो कैन्सर वाली कोशिकाओं को सामान्य कोशिकाओं में परिवर्तित कर देती हैं। रीटिनॉयड्स नामक इस प्रकार की औषधि का प्रयोग तीव्रश्वेत रक्तता, गर्भाशय ग्रीवा, त्वचा आदि के कैन्सर के उपचार हेतु किया जा रहा है।
स. रोगक्षमता विज्ञान (इम्यूनोलॉजी) - शोध द्वारा पता लगाया गया है कि अनेक कैन्सर कोशिकाओं में कुछ ऐसे पदार्थ होते हैं जो शरीर की प्रतिरोधी क्षमता को बढ़ा देते हैं जिससे कैन्सर से बचाव संभव हो सकता है।
द. पोषण - विटामिन ए व सी की भारी मात्रा प्रयोगशाला में जन्तुओं में कैंसर को रोकती हुई (अध्ययनों के दौरान) देखी गयी है। कुछ भोज्य पदार्थ जैसे- गोभी, बंधा, पालक, गाजर, फल, आटे की ब्रेड, अनाज, सी-फूड कैन्सर को रोकने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं। कम वसा का सेवन भी कैन्सर को रोकता देखा गया है। (इससे अधिक औषधियों पर चर्चा लेखक के चिकित्साशास्त्री न होने के कारण अधिकार क्षेत्र के बाहर है)।
8. कैन्सर से कैसे बचें? - यद्यपि यह बहुत सी कठिन बात है कि कैन्सर की रोकथाम के बारे में कुछ कहा जा सके फिर भी कई प्रयास इस दिशा में किये जा रहे हैं। मोटे तौर पर निम्नलिखित निर्देश इसके खतरे से बचाव में संभवतः सहायक सिद्ध हो सकते हैं, ऐसा अनेक वैज्ञानिकों का मत है।
1. नियमित रूप से शारीरिक व्यायाम, जिस रूप में आप कर सकें, अवश्य करें।
2. वसायुक्त भोजन जैसे मक्खन, डेरी उत्पादन कम मात्रा में ही लें।
3. अपने को यथासंभव पराबैंगनी किरणों (अल्ट्रावायलेट रेंज) से बचा कर रखें।
4. धूम्रपान संभव हो तो न करें, यदि करते हों तो कृपया ऐसे स्थान पर करें जिससे दूसरों की सांस में उसका धुआँ न जाये।
5. मद्यपान में संभव कटौती करें, यदि मद्यपान न करें तो बेहतर होगा।
6. स्त्रियाँ 50 वर्ष की उम्र के पश्चात गर्भाशय-ग्रीवा का नियमित परीक्षण किसी स्त्री रोग विशेषज्ञ से 3-5 वर्ष में अवश्य करायें।
7. स्वतः स्तन परीक्षण नियमित रूप से करें तथा गांठ, स्राव आदि की स्थिति देखते ही स्त्रीरोग विशेषज्ञ से सलाह लें।
8. स्वस्थ भोज्य पदार्थ जैसे फल, सब्जियाँ आदि प्रचुर मात्रा में प्रयोग करें।
9. स्त्रियाँ सर्वाइकल, स्तन तथा अंडाशयी कैन्सर से बचाव हेतु कम से कम दो वर्ष तक स्तनपान अवश्य करायें, क्योंकि अध्ययनों से पता चलता है कि जो महिलाएँ अपने बच्चों को दो वर्षों तक स्तनपान कराती हैं उनमें स्तन कैन्सर की संभावना 50 प्रतिशत तक कम हो जाती है। साथ ही 30 वर्ष की उम्र के पूर्व बच्चे पैदा कर लेने पर भी स्तन कैन्सर का खतरा कम हो सकता है।
10. अधिक पानी पिया करें जिससे मूत्राशय के कैन्सर की संभावना कम हो जाती है। कम से कम 2 लीटर पानी रोज पीना आवश्यक है।
11. मोटापे को न आने दें तो ज्यादा बेहतर होगा अतः अपने भोजन, क्रियाकलापों, व्यायाम आदि द्वारा यह प्रयास करें कि आपका बेसल मेटाबोलिक इन्डेक्स (बी.एम.आई.) 18.5-25 किलोग्राम/मीटर2 के बीच रहे।
12. ऐसा भी अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि सेलफोन का कम समय तक ही प्रयोग किया करें जिससे सिर के कैन्सर से बचा जा सके। या फिर उसे स्पीकर मोड पर अथवा ईयरफोन पर रखकर सिर से थोड़ी दूर रखें।
अवलोकित संदर्भ
1. शुक्ला, एस.सी. (2005) कैन्सर, विवेक (संयुक्तांक), बी.एस.एन.वी. पी.जी. कॉलेज, 2004-2005, मु.पृ. 123-130।
2. दास गुप्ता, के., नेवर गेट प्रिवंशन, खण्ड-7, अंक-11, मु.पृ. 56-65।
लेखक परिचय
एस.सी. शुक्ल
अ.प्र. विभागाध्यक्ष, प्राणि विज्ञान विभाग, बी.एस.एन.वी.पी.जी. कॉलेज, लखनऊ 226001 उ.प्र. भारत
पता : ए-1104, इन्दिरा नगर, लखनऊ-226016, उ.प्र. भारत
प्राप्त तिथि-01.05.2016 स्वीकृत तिथि-25.08.2016
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