ज्वार भाटा का क्या महत्व है

ज्वार-भाटा की स्थिति
ज्वार-भाटा की स्थिति

पृथ्वी का लगभग 21 प्रतिशत भाग पानी से ढका हुआ है। केवल 20 प्रतिशत भू-भाग में दीप और महाद्वीप अवस्थित हैं। पृथ्वी का बड़ा भाग जो पानी से ढका हुआ है, उसे हम समुद्र कहते हैं और इस समुद्र को कई सागरों और महासागरों में विभाजित किया गया है। समुद्र की गतिविधियों के बारे में हमें बहुत कम ज्ञान है और समुद्र से संबंधित जो भी साहित्य उपलब्ध है वह उच्चकोटि का है। जो आम आदमी की समझ से बाहर है। जो व्यक्ति समुद्र से दूर बसे हुये हैं (जैसा कि भारत में उत्तरी भाग एवं भव्य भाग) उन लोगों के लिए समुद्र से संबंधित ज्ञान किसी कोतुहल से कम नहीं है। धरती के समान समुद्र में भी बहुत सी प्रक्रियाएं होती रहती हैं जिनमें एक प्रक्रिया ज्वार-भाटा है। ज्वार भाटा एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जो चंद्रमा सूर्य और पृथ्वी के संयुक्त गुरुत्वाकर्षण से उत्पन्न होती है। इस लेख में ज्वार-भाटा के कारण और उसके मापन की विधियों के बारे में बताया गया है।

भारत में गुजरात के तटीय क्षेत्र की भौतिक संरचना खाड़ी के कारण अन्य जगहों से अलग है, इसलिए इसकी ज्वारीय सीमा सबसे अधिक है।

समुद्री जलस्तर के उतार एवं चढ़ाव को ज्वार-भाटा कहा जाता है। समुद्री जलस्तर के चढ़ाव के समय समुद्र का पानी तट की ओर बढ़ता है जिसे ज्वार कहते हैं और इसके विपरीत उतरते के समय समुद्र का जल तट से समुद्र की ओर घटता है और इस घटना को भाटा या निम्न ज्वार कहा जाता है। जो समुद्री तरंग ज्वार के द्वारा उत्पन्न होती है उसे ज्वारीय तरंग (Tidal (wave) कहते हैं। उच्च ज्वार एवं निम्न ज्वार के अंतर को ज्वारीय सीमा (Tidal Range) कहा जाता है। 

समुद्री जल का उतार एवं चढ़ाव, सूर्य एवं चंद्रमा के संयुक्त गुरुत्वाकर्षण के कारण उत्पन्न होता है। सूर्य का आकार चंद्रमा के आकार से कई गुना अधिक है, लेकिन उसी अनुपात में पृथ्वी से सूर्य की दूरी भी अधिक है। चंद्रमा, सूर्य की तुलना में पृथ्वी से बहुत निकट है। इसलिए पृथ्वी की सतह पर चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव सूर्य की तुलना में अधिक है। जिस प्रकार पृथ्वी पश्चिम दिशा से पूर्व दिशा की ओर अपनी धुरी पर चक्कर लगाती है उसी प्रकार चंद्रमा भी पृथ्वी का पश्चिम दिशा से पूर्व दिशा की ओर दीर्घ वृत्ताकार में परिक्रमा करता है।

दीर्घ वृत्ताकार परिक्रमा के कारण चंद्रमा और पृथ्वी के बीच की दूरी बदलती रहती है। जैसा की चित्र 1 में दिखाया गया है। जब यह दूरी अधिकतम (लगभग 4,07000 किमी.) होती है तो उसे भुमुच्य (Apogee) और जब यह दूरी न्यूनतम (लगभग 3,56,000 किमी.) होती है तो इसे भू-समीपक (Perigee) कहा जाता है। साधारणतः पृथ्वी के केंद्र से चंद्रमा के केंद्र की दूरी लगभग 3,84,800 किमी. है। पृथ्वी का व्यास लगभग 12800 किमी. है तो पृथ्वी की त्रिज्या 6400 किमी. होगी। चूंकि चंद्रमा की लगभग 1737 किमी. है। इसी आधार पर ज्ञात किया जा सकता है कि पृथ्वी की सतह से चंद्रमा की सतह की दूरी लगभग 3,76,663 किमी. है। पृथ्वी की दूसरी सतह (जो चंद्रमा के सामने की सतह से विपरीत है) से चंद्रमा की सतह की दूरी लगभग 3,90,463 किमी. है।

पृथ्वी की सतह जो चंद्रमा के सामने है, उस पर गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव अधिक होता है, क्योंकि यह सतह पृथ्वी को अन्य सतह की अपेक्षा चंद्रमा से नजदीक होती है। जबकि पृथ्वी की विपरीत सतह जो चंद्रमा के सामने की सतह से विपरीत है उस पर गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव आपेक्षाकृत कम होगा। क्योंकि यह सतह पृथ्वी की अन्य सतह की अपेक्षा चंद्रमा से अधिकतम दूरी पर होती है। पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमते हुये 24 घंटों में एक चक्कर पूर्ण करती है। इसलिए पृथ्वी का खास बिंदु चंद्रमा के एक बार सामने, एक बार पौधे एक बार दक्षिणावर्त और एक वार वामावर्त होता है। 

पृथ्वी की सतह का पानी चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण द्वारा आकर्षित होता है जिससे ज्वार उत्पन्न होता है। साथ ही पृथ्वी के दूसरी तरफ जहां पृथ्वी के प्रतिक्रियावादी दल के कारण पानी का उभार बाहर की ओर हो जाता है उससे भी ज्वार उत्पन्न होता है लेकिन इसका मान चंद्रमा के सामने वाले ज्वार के अपेक्षा कम होता है। जैसा की चित्र 2 में दिखाया गया है।

भू-समीपक (Perigee) की अवस्था में जब चंद्रमा और पृथ्वी के बीच दूरी न्यूनतम होती है, तो पृथ्वी पर चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण का मान अधिकतम होता है और भूम्युच्च (Apogee) की अवस्था में जब चंद्रमा और पृथ्वी के बीच दूरी अधिकतम होती है तो पृथ्वी पर चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण का मान न्यूनतम होता है। लेकिन चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण का मान ही ज्वार को पूरी तरह से निर्धारित नहीं करता है। ज्वार के मान को प्रभावित करने वाले बहुत से कारक हैं जैसे समुद्र की गहराई, चौड़ाई और समुद्री किनारे का विन्यास आदि। समुद्री तल जो पानी के बहाव में घर्षण उत्पन्न करता है, वह भी ज्वार के मान को कुछ हद तक प्रभावित करता है। संसार में सबसे अधिक ज्वारीय सीमा फंडी की खाड़ी में जो न्यू ब्राउनश्विक और नोवा स्कोटिया, कनाडा के बीच में मापी गई है। यहाँ पर ज्वारसीमा लगभग 15 मीटर तक है।

"पृथ्वी की सतह जो चंद्रमा के सामने है उस पर गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव अधिक होता है क्योंकि यह सतह पृथ्वी की अन्य सतह की आपेक्षा चंद्रमा से नजदीक होती है जबकि पृथ्वी की विपरीत सतह जो चंद्रमा के सामने की सतह से विपरीत हैं उस पर गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव आपेक्षाकृत कम होगा क्योंकि यह सतह पृथ्वी की अन्य सतह की अपेक्षा चंद्रमा से अधिकतम दूरी पर होती है। पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमते हुये 24 घंटों में एक चक्कर पूर्ण करती है इसलिए पृथ्वी का खास बिन्दु चंद्रमा के एक बार सामने, एक बार पीछे एक बार दक्षिणावर्त और एक बार वामावर्त होता है।"

चित्र 3 के अनुसार पृथ्वी अपनी धुरी पर 24 घंटों में एक पूरा चक्कर लगा लेती है चूंकि पृथ्वी अपनी धुरी पर एवं चंद्रमा पृथ्वी की कक्षा में दोनों पश्चिम से पूर्व की ओर घूमते हैं इसलिए 24 घंटों के बाद पृथ्वी और चंद्रमा का समान कोण आने में थोड़ा विलम्ब होता है और इस विलंब की गणना चंद्रमा और पृथ्वी की सापेक्षिक गति से की जा सकती है। पृथ्वी का 'ग' बिन्दु चंद्रमा की 'क' स्थिति पर एक सीधी रेखा बनाता है। परंतु जब पृथ्वी 24 घंटों में एक पूरा चक्कर लगाकर उसी स्थिति पर पहुंचती है तब तक चंद्रमा 'ख' स्थिति पर पहुँच जाता है। जो पृथ्वी के 'विन्दु से सीधी रेखा बनाता है हम जानते हैं कि चंद्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करने में 27 दिन 7 घंटे 43- मिनट और 17.3 सेकंड लेता है, अतः यह कहा जा सकता है कि चंद्रमा पृथ्वी के परिक्रमा करने में लगभग 27.5 दिन अर्थात 55/2 दिन का समय लेता है। पूरा भाग 55/2 दिन में पूरा होता है इसलिए एक भाग 2/55 [क और ख के बीच की दूरी) दिन में पूरा होगा। यहाँ चाल को स्थिर माना गया है। समय और दूरी दोनों एक दूसरे के बराबर होंगे। इसलिए कुल विलम्ब (2/55x 24x60) = 52 मिनट, पृथ्वी और चंद्रमा का समान कोण आने में 24 घंटे 52 मिनट का समय लगता है। इसी आधार पर कहा जा सकता है कि 12 घंटे 25 मिनट के पश्चात दूसरी उच्च ज्वार की घटना घटती है और 6 घंटे 15 मिनट के पश्चात ज्वार से निम्न ज्वार भाटा की घटना घटती है।

प्रत्येक दिन ज्वार-भाटा की स्थिति अलग-अलग होती है जैसा की चित्र 4 में दिखाया गया है। क्योंकि पृथ्वी और चंद्रमा की समान स्थिति 27 दिन 7 घंटे 43 मिनट और 17.5 सेकंड के बाद आती है। जबकि पृथ्वी और सूर्य को समान स्थिति आने में लगभग 365.25 दिन का समय लगता है। यहाँ देखने योग्य बात यह है कि पृथ्वी और चंद्रमा की समान स्थिति लगभग 27.5 दिन में आ जाती है जबकि पृथ्वी और सूर्य की समान स्थिति नहीं होती है इसलिए माह के उपरान्त उच्चतम ज्वार (spring tide) पृथ्वी और चंद्रमा की समान स्थिति होने पर भी समान नहीं होती। जब पृथ्वी सूर्य एवं चंद्रमा लगभग सीधी रेखा में होते है (ऐसा सिर्फ पुर्णिमा और आमावस्या को हो संभव है) और उस समय ज्वार का मान उच्च होता । किन्तु इस स्थिति से 7वें या 8वें दिन बाद जय सूर्य, पृथ्वी और चंद्रमा को रेखा से दक्षिणावर्त का कोण बनाता है, तो उस समय पृथ्वी पर चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण का मान और सूर्य के गुरुत्वाकर्षण का मान एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। जिससे कुल गुरुत्वाकर्षण के मान में कमी आ जाती है और इस प्रकार निम्न ज्वार घटित होता है। जब पृथ्वी सूर्य एवं चंद्रमा एक सीधी रेखा में होते हैं तो इसे युति अयुति-विन्दु (Syzygy) कहा जाता है। जब सूर्य, चंद्रमा और पृथ्वी क्रमानुसार एक सीधी रेखा में होते है तो उसे संयोजन (conjunction) कहते हैं और जब पृथ्वी सूर्य एवं चंद्रमा के बीच में आ जाती है तो उसे प्रतिपक्ष (Opposition) कहते हैं। दूसरी तरफ जब सूर्य, पृथ्वी और चंद्रमा से दक्षिणावर्त कोण बनाता है तो उस स्थिति की समकोणिक (Quadrature) कहते हैं और इस समय ज्वार की स्थिति निम्न होती है। कंजक्सन (conjunction) अमावस्या (New Moon) को और प्रतिपक्ष (Opposition) पूर्णिमा (Full Moon) को ही होता है। उपरोक्त दोनों ही स्थित में ज्वार का मान उच्च होता है लेकिन पृथ्वी सूर्य एवं चन्द्रमा एक सीधी रेखा में हों और पृथ्वी एवं चंद्रमा के बीच की न्यूनतम दूरी हो तो उस ज्वार को बृहत् ज्वार (स्प्रिंग टाइड) कहा जाता है और यह मान सामान्य ज्वार के मान से 15 से 20 प्रतिशत तक अधिक होता है। लेकिन जब सूर्य, चंद्रमा और पृथ्वी की रेखा से लगभग 90 अंश का कोण बनाता है और पृथ्वी एवं चंद्रमा के बीच की दूरी अधिकतम हो तो इसे लघु ज्वार (Neap tide) कहा जाता है और यह मान सामान्य ज्वार के मान से 15 से 20 प्रतिशत तक कम होता है, क्योंकि पृथ्वी पर चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण का मान सूर्य के गुरुत्वाकर्षण के मान के द्वारा निरस्त हो जाता है या उसकी दिशा विचलित हो जाती है।

पृथ्वी अपनी धुरी पर 24 घंटे में एक पूरा चक्कर लगा लेती है, इसलिए 24 घंटे में दो बार उच्च ज्वार और दो बार निम्न ज्वार आता है लेकिन सारे संसार में ऐसा नहीं होता है क्योंकि कुछ स्थानों पर 24 घंटों में केवल एक उच्च ज्वार और एक निम्न ज्वार ही आता है और इस घटना को दैनिक ज्वार कहा जाता हैं। चित्र 5 में ज्वार-भाटा की वास्तविक स्थिति को दिखाया गया है।

पृथ्वी सूर्य की एक परिक्रमा लगभग 363 दिनों मैं पूरी करती है। दीर्घ वृत्ताकार परिक्रमा के कारण एक साल में दो बार ऐसा होता है जब पृथ्वी और सूर्य के बीच के दूरी न्यूनतम होती है। इस समय पृथ्वी पर सूर्य के गुरुत्वाकर्षण का मान भी अपेक्षाकृत अधिक होता है और इससे उच्च ज्वार को घटना घटित होती है उसे विषुव ज्वार कहा जाता है। 

पृथ्वी अपनी धुरी पर 24 घंटे में एक पूरा चक्कर लगा लेती है इसलिए 24 घंटे में दो बार उच्च ज्वार और दो बार निम्न ज्वार आता है लेकिन सारे संसार में ऐसा नहीं होता है। क्योंकि कुछ स्थानों पर 24 घंटों में केवल एक उच्च ज्वार और एक निम्न ज्वार की ही आता है और इस घटना को दैनिक ज्वार कहा जाता है। चित्र 5 में ज्वार-भाटा की वास्तविक स्थिति को दिखाया गया है। पृथ्वी, सूर्य की एक परिक्रमा लगभग 365 दिनों में पूरी करती है। दीर्घ वृत्ताकार परिक्रमा के कारण एक साल में दो बार ऐसा होता है जब पृथ्वी और सूर्य के बीच के दूरी न्यूनतम होती है। इस समय पृथ्वी पर सूर्य के गुरुत्वाकर्षण का मान भी अपेक्षाकृत अधिक होता है और इससे उच्च ज्वार की घटना घटित होती है उसे विषुव ज्वार कहा जाता है।

समुद्र में ज्वार-भाटा मापन की विधियाँ एवं सिद्धांत

समुद्र में ज्वार मापन की कई विधियाँ हैं जैसे पैमाना विधि, प्लोट गेज विधि, वलर गेज विधि, ध्वनि गेज विधि, दबाव गंज विधि, रडार गेज विधि और उपग्रह अवलोकन विधि आदि। इस लेख में इनमें से दो प्रमुख विधियों का वर्णन किया गया है।

  • रडार प्रणाली
  • दबाव गेज प्रणाली

रडार प्रणाली

जैसा की चित्र 6 में दिखाया गया है कि ज्वार-भाटा को विभिन्न प्रकार से माप सकते हैं। रडार गेज एक आधुनिक प्रणाली है, जो उच्च शुद्धता के साथ ज्वार-भाटा को मापता है लेकिन रडार गेज प्रणाली का उपयोग केवल उन जगहों पर किया जाता है जहां पर जल की सतह में विक्षुब्धता कम हो और एक पुख्ता भौतिक ढांचा से रडार गेज प्रणाली के काम करने का सिद्धांत दूरी = चालxसमय पर आधारित है, यहाँ चाल नियत है। रडार गेज प्रणाली में संकेतों को उच्च आवृत्ति (24GHz) पर काम में लाया जाता है। रडार एन्टेना द्वारा भेजे गए उच्च आवृत्ति के संकेत उद्देश (ऑब्जेक्ट) से टकराने के बाद वापस उसी रडार ऐन्टेना द्वारा ग्रहण किए जाते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में लगे समय को दो से विभाजित कर रडार एन्टेना और उद्देश (ऑब्जेक्ट) के बीच की दूरी ज्ञात की जाती है यह दूरी हर सेकंड ज्ञात की जा सकती है और इस दूरी का औसत मान मेमोरी में संरक्षित कर लिया जाता है और यह औसत मान हम अपनी जरूरत के अनुसार 5, 10, 20, 50 अथवा 60 मिनट या इससे अधिक रख सकते हैं रडार द्वारा मापी गयी दूरी अर्थात रडार सेंसर (संवेदक) से समुद्र के पानी की सतह के बीच की दूरी हवाई दूरी (एरियल डिस्टेन्स) कही जाती है और इस दूरी को चार्ट डेट से घटाकर ज्वार एवं भाटा के मान को ज्ञात किया जाता है।

दबाव गेज प्रणाली

दबाव गेज प्रणाली के द्वारा समुद्र में कहीं भी स्वार-भाटा का मापन किया जा सकता है। ज्वार का मापन करने के लिये दबाव गेज प्रणाली पर आधारित कई यंत्रों का उपयोग किया जाता है जैसे (आनंदेरा डेटा इन्स्ट्रमेंट द्वारा निर्मित WLR Seaguard, WTR9 राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान (ONIO) द्वारा निर्मित सी लेवल गेज वालपोर्ट द्वारा निर्मित वे एंड टाइड रिकॉर्डर आदि) दबाव गेज प्रणाली के काम करने का सिद्धांत, दबाव के द्वारा तत्व के गुण में परिवर्तन जाना, जैसा कि क्रिस्टल की आवृत्ति अथवा प्रतिरोध दबाव से बदल जाते हैं और इसी आवृत्ति अथवा प्रतिरोध के रेखीय बदलाव को हम यंत्र की संरचना के काम में लाते हैं। जल के दबाव के कारण यंत्र के संवेदक में जो परिवर्तन होते हैं उसे माप कर समुद्री ज्वार-भाटा का मान ज्ञात होता है।

P=Pgh+ Patm=
rho
जहां P = rho पानों का घनत्व जो लगभग स्थिर है, गुरुत्वाकर्षण है और यह लगभग स्थिर है P= निरपेक्ष दबाव और Patm= वायुदाब इसलिए h= (P-Patm)/Prho g अर्थात (P-Patm) का मान ऊंचाई h के समानुपाती है जैसे-जैसे पानी की ऊंचाई बढ़ती जाती है वैसे-वैसे दवा का मान भी बढ़ता जाता है और यह मान भी मेमोरी में हर एक सेकंड संग्रहित होता रहता है और इस मान का औसत मान जरूरत के अनुसार 5,10,20,30 अथवा 60 मिनट में अलग से संग्रहित कर लेते हैं इससे हमें एकल बिन्दु पर ज्वार-भाटा का मान ज्ञात हो जाता है।

जैसा चित्र 6 के 'अ' भाग में दिखाया गया है इस व्यवस्था को आई मूरिंग डेप्लॉयमेंट कहा जाता है इस व्यवस्था में यंत्र के अन्दर डेटा को संग्रहित किया जाता यंत्र के पानी के बाहर निकालने के बाद यंत्र से डेटा कम्प्यूटर में भेजा जाता है और जरूरत के अनुसार डेटा का विश्लेषण किया जाता है। 

चित्र 6 के व', 'स', और द में डेटा को यंत्र के अन्दर संरक्षित रखने के अलावा वास्तविक समय में दूसरे स्थान पर प्रेषित भी किया जाता है। इस प्रकार की व्यवस्था के अंतर्गत हम संसार की किसी भी जगह से मापित ज्वार-भाटा का मान प्राप्त कर सकते हैं- 
चित्र में दिखाया गया ज्वारीय ग्राफ (सी एस आई आर राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान (NIO) गोवा द्वारा निर्मित रडार गेज के द्वारा मापित ज्वार के मान के आधार पर बनाया गया है ग्राफ के विश्लेषण से पता चलता है कि पोर्ट ब्लेयर (अंडमान-निकोबार), कारवार (कर्नाटक), रेम (गोवा) और पिपायाव (गुजरात) में ज्वार के मान अलग-अलग है। उपरोक्त सभी स्थानों पर ज्वार समय अलग-अलग है। ज्वार की पुनरावृत्ति सभी स्थानों पर समान है। ज्वार के मान के विश्लेषण से यह भी ज्ञात होता है कि करवार ज्वार और बेरेम ज्वार उच्च से निम्न और अग्रसर है। उसी समय पिपावाद ज्वार निम्न से उच्च की और अग्रसर होता है। इस ग्राफ से यह भी पता चलता है कि भारत के पश्चिम तट पर जब ज्वार निम्न उच्च होता है उसी समय पूर्वी तट पर ज्वार (पोर्ट सेचर) लगभग उच्च /निम्न होता है। गुजरात के तटीय क्षेत्र की भौतिक संरचना खाड़ी के कारण भारत के अन्न तटीय स्थानों से अलग है इसलिए ज्वारीय सीमा सबसे अधिक है।

ज्वार भाटा का महत्व

भाटा ऊर्जा का एक अक्षय स्रोत है ज्वारीय ऊर्जा पर्यावरण के अनुकूल ऊर्जा है। जिसके द्वारा ग्रीन हाउस गैसों का उत्पादन नहीं होता। चक्रीय स्थिति के कारण हम ज्वार की वृद्धि और गिरावट की भविष्यवाणी कर सकते हैं जो ऊर्जा उत्पादन एवं अन्य कार्यों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है जहां पर ज्वार-भाटा का मान उच्च होता है, वहां ऊर्जा उत्पादन का कार्य बहुत कुशलता के साथ किया जा सकता है। भारत में ज्वारीय ऊर्जा उत्पादन की काम्बे एवं कच्छ की खाड़ी में बहुत सी संभावनाएं है, क्योंकि यहाँ पर ज्वार-भाटा के मान में बहुत अंतर है बहुत प्रकार के समुद्री विचलन में ज्वार-भाटा को अहम भूमिका है। ज्वार भाटा में सम्पूर्ण पानी का बहाव ऊपर से नीचे तक होता है, जहां पर ज्वार-भाटा का मान उच्च होता है वहाँ के बंदरगाह में जहाजों के आवागमन पूरी तरह ज्वार पर निर्भर करता है। वैज्ञानिक शोध के अध्ययन में ज्वार-भाटा का बहुत महत्व है। ज्वार भाटा के डेटा का अध्ययन करके समुद्र स्तर की गणना की जा सकती है, वर्तमान समय में समुद्र के जल स्तर का बढ़ना काफी चर्चा का विषय है। जोकि जलवायु परिवर्तन और वैश्विक उष्णता (Global Warming) से प्रभावित हो रहा है।

ज्वार-भाटा ऊर्जा का एक अक्षय स्रोत है। ज्वारीय ऊर्जा पर्यावरण के अनुकूल ऊर्जा है जिसके द्वारा ग्रीन हाउस गैसों का उत्पादन नहीं होता। चक्रीय स्थिति के कारण हम ज्वार की वृद्धि और गिरावट की भविष्यवाणी कर सकते हैं जो ऊर्जा उत्पादन एवं अन्य कार्यों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। जहां पर ज्वार-भाटा का मान उच्च होता है वहाँ ऊर्जा उत्पादन का कार्य बहुत कुशलता के साथ किया जा सकता है। भारत में ज्वारीय ऊर्जा उत्पादन की काम्बे एवं कच्छ की खाड़ी में बहुत सी संभावनाएं हैं क्योंकि यहाँ पर ज्वार-भाटा के मान में बहुत अंतर है

स्रोत - विज्ञान प्रगति, दिसम्बर 2013  

संपर्क सूत्र - श्री जय सिंह एवं श्री विजय कुमार कनोजिया, सी एस आई आर राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान, दोना, पावला, गोवा, ई-मेल jsingh@nio.org

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