तालाब की डाउन साइड में एक पुरातन कालीन पत्थरों से निर्मित झिरी नजर आएगी। इसका नाम देवझिरी है। कहते हैं, यहाँ भी पहले इफरात पानी रहता था, लेकिन अभी इसका पानी नीचे चला गया है। तालाब के नीचे वाले नाले में जगह-जगह पानी रोका गया है। यहाँ एक बड़ी गेबियन संरचना तैयार की गई है। पहले यहाँ पत्थर-ही-पत्थर थे। अब यहाँ पौधे और हरियाली दिखाई देने लगी है। यह बदलाव पानी रोकने के प्रयासों के चलते केवल तीन साल में आ गया है। पहले यहाँ लूज बोल्डर रखे गए थे। पानी पर अवरोध नहीं होने से बहाव काफी तेज रहता था। यह झिरियों का गाँव है। कहते हैं तराना तहसील का यह गाँव इसलिये मशहूर था कि यहाँ सदैव पानी झिरियों से निकलता रहता था। इसलिये इसका नाम भी झिरनिया पड़ गया। यह पानी 1970 के आस-पास तक लखुन्दर नदी में जाकर मिल जाता था। कल्पना ही नहीं कर सकते थे कि यहाँ कभी जलसंकट होगा।
ऐसा माना जाता है कि पानी की प्रचुरता की कभी-कभी समाज को उसके प्रति बेपरवाह बना देती है। प्रकृति तो अपनी सौगात देती है, लेकिन समाज का आँचल शायद उस स्वरूप में नहीं रह पाता है कि वह उसे समेट कर सहेजता रहे। कालान्तर में झिरनिया के साथ भी ऐसा ही हुआ। झिरियाँ धीरे-धीरे सूखने लगीं। 1980 के बाद से ही यहाँ जलसंकट की गूँज सुनाई देने लगी। खेती के लिये संकट आया। बाद में पीने के पानी का भी संकट बढ़ने लगा। गर्मी के दिनों में केवल एक ही हैण्डपम्प चल पाता था। इसकी भी गहराई 400 फीट थी। यह रुक-रुक कर चलता था। लोग पानी के लिये घंटों कतार में खड़े रहते थे। पानी लेने का क्रम 24 घंटे ही चलता रहता था। रात बारह बजे बाद भी लोग पानी के लिये नम्बर लगाते थे।
गाँव में पानी आन्दोलन की बात चली तो परेशान समाज उत्साह के साथ इसके लिये एकजुट हो गया। लोगों में एक उम्मीद थी, शायद इस प्रयास से झिरनिया का पुराना समृद्ध ‘पानी इतिहास’ फिर वर्तमान बन जाये। काश, यह अपने नाम के अनुरूप फिर जिन्दा झिरियों वाला गाँव कहलाने लगे। राष्ट्रीय मानव बसाहट एवं पर्यावरण केन्द्र के परियोजना अधिकारी मुकेश बड़गइया कहते हैं- “गाँव-समाज के लोगों ने पानी के लिये भरपूर सहयोग दिया। पानी समिति अध्यक्ष नारायण सिंह, सचिव बंशीलाल, गाँव के वरिष्ठ उमराव सिंह, मानसिंह व समाज के अन्य लोग गाँव के सूखे के खिलाफ उठ खड़े हुए। और गाँव के तालाब, लूज बोल्डर, गलीप्लग, आर.एम.एस., गेबियन संरचनाएँ देखते-देखते हमें लगा कि व्यवस्था और समाज यदि संकल्प ले ले तो गाँव को उसकी पुरानी पानी से समृद्ध होने की पहचान लौटाई जा सकती है।”
...हम इस समय एक तालाब किनारे खड़े हैं। पानी समिति सचिव बंशीलाल, नारायणसिंह, मुकेश बड़गइया और गाँव-समाज साथ में हैं। यह इलाका बंजर हो चुका था। घास तक नहीं उगती थी। पहले नाले पर 25 गली प्लग बनाए। 55 सोक पिट्स भी तैयार किये। इसके बाद नाले को रोककर तालाब बनाया गया। इसे छोटी झिरी का नाला कहते हैं। किसी जमाने में झिरी से निकला पानी यहीं से गुजरता था। यहाँ एक कुण्डी भी है। उसमें पुनः पानी रहने लगा है। इस तालाब निर्माण में गाँव के लोगों की सराहनीय भागीदारी रही। ट्रैक्टर वालों ने 200 रुपए के बजाय। 125 रुपए प्रति ट्रॉली ली। काली मिट्टी पास के गाँव की नायता तलाई से बुलवाई गई। इस मिट्टी की पाल से पानी अच्छी तरह से रुका। अलबत्ता, नीचे से अवश्य रिचार्ज हुआ।
आपको सुखद आश्चर्य होगा, तालाब बनने से नीचे की साइड के पाँच ट्यूबवेल बढ़िया चलने लगे। इससे पहली बार यहाँ 25 एकड़ में रबी की फसल ली जा रही है। इस तालाब के लिये गाँव के उमरावसिंह जी ने अपनी दो बीघा जमीन दान दी है। नीचे की बंजर जमीन में अब बड़े पैमाने पर घास भी होने लगी है। इससे बिलोद्री गाँव के कुएँ भी जिन्दा होने लगे हैं।
गाँव में शिव मन्दिर के पास की एक झिरी भी जिन्दा हो गई है। कुंडी में सात सालों से गायब पानी फिर दिखने लगा है। तालाब की डाउन साइड में एक पुरातन कालीन पत्थरों से निर्मित झिरी नजर आएगी। इसका नाम देवझिरी है। कहते हैं, यहाँ भी पहले इफरात पानी रहता था, लेकिन अभी इसका पानी नीचे चला गया है। तालाब के नीचे वाले नाले में जगह-जगह पानी रोका गया है। यहाँ एक बड़ी गेबियन संरचना तैयार की गई है। पहले यहाँ पत्थर-ही-पत्थर थे। अब यहाँ पौधे और हरियाली दिखाई देने लगी है। यह बदलाव पानी रोकने के प्रयासों के चलते केवल तीन साल में आ गया है। पहले यहाँ लूज बोल्डर रखे गए थे। पानी पर अवरोध नहीं होने से बहाव काफी तेज रहता था। वे 500 मीटर तक बहकर चले गए। इस वजह से गेबियन संरचना तैयार करना पड़ा। मवेशी भी अब यहाँ आकर पानी पीने लगे हैं। पानी रिचार्ज भी हो रहा है। बंशीलाल कहते हैं- “जल संचय के प्रयासों से गाँव में 15 ट्यूबवेल और लगभग 25-30 कुएँ जिन्दा हो गए हैं। मोटे तौर पर हर किसान का 5 से 10 बीघा तक रबी का रकबा बढ़ा है। पहले गाँव में सिंचित क्षेत्र 17 हेक्टेयर था, जो अब बढ़कर 45 हेक्टेयर हो गया है। गाँव की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में भी व्यापक बदलाव आया है। पानी आन्दोलन के बाद गाँव में 4 ट्रैक्टर व 7 मोटर साइकिलें नई आ गई हैं।”
गाँव में एक तलाई का भी गहरीकरण कराया है। काली मिट्टी में उसकी पिचिंग भी करवाई है। टैंकरों से पानी डलवाकर उसे मजबूती प्रदान की गई है। यह भी रिचार्जिंग के काम आ रही है। झिरनिया में 6 डबरियाँ भी बनाई गई हैं। इसमें नारायणसिंह, उमरावसिंह और मानसिंह ने पहल की है। इन डबरियों का पानी रिचार्जिंग व मवेशियों के पीने के काम में आ रहा है। बिलोद्री व यशवंतगढ़ से भी मवेशी यहाँ पानी के लिये आते हैं।
तराना के इन क्षेत्रों में जल संचय कार्यों से गाँवों के बाहर खेतों में बदलाव देखा जा सकता है। झिरनिया-टानलाखेड़ी-गोलवा मार्ग पर पड़त भूमि पर पानी उपलब्ध होने की वजह से खेती की तैयारी की जा रही है। इस इलाके में तीन आर.एम.एस. बने हैं। आकलियाखेड़ी की 40 हेक्टेयर जमीन पर रौनक लौट रही है।
झिरनिया में भी पहाड़ी से नाले की ओर जगह-जगह पानी को रोका गया है। ऊपर बंजर जमीन पर कंटूर ट्रेंच बनाए गए। इसके बाद गलीप्लग, लूज बोल्डर, नाला बन्धान, गेबियन संरचना और फिर आर.एम.एस. तैयार किये।
इस गाँव की एक कहानी और है।
समाज पानी आन्दोलन की आयोजना जमाने एक जाजम पर बैठा तो एक मन्दिर और मांगलिक भवन की जरूरत भी महसूस हुई। पानी आन्दोलन में सहभागिता के लिये यह एक तरह की ‘टेस्टिंग’ भी थी। गाँव वाले जुट गए। सभी ने अपने घर से एक से डेढ़ क्विंटल सोयाबीन दिया। इसे बाजार में बेचकर इसकी राशि व प्रत्येक घर के सदस्यों के श्रमदान से एक मांगलिक भवन बना व मन्दिर का जीर्णोद्धार हो गया। यह चमत्कार 15 दिनों में हो गया। आज गाँव में सहभागिता की सुन्दर रचना तैयार है। वाटर मिशन के पचास हजार व पचास हजार समाज के, इस तरह यह निर्माण सम्पन्न हो गया। गाँव ने इसके बाद पानी आन्दोलन में पीछे मुड़कर नहीं देखा।
...क्या आपके गाँव में भी झिरियाँ बहती हैं?
झिरनिया से सबक लेकर हमें उनकी हिफाजत करनी चाहिए।
...और यदि झिरियाँ बहती थीं, तो चिन्तन, मनन और अमल करिए
झिरनिया की भाँति, ताकि गाँव की समृद्ध पानी विरासत को फिर वर्तमान बनाया जा सके।
...आमीन!
बूँदों के तीर्थ (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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