झींगा पालन के पर्यावरणीय परिणाम

झींगा पालन को न केवल अनुमति देना बिल्क इसके पालन को बढ़ावा देना युक्तिसंगत हैं। इससे किसी हद तक निर्यात आमदनी होती हैं। इससे जनता को पौष्टिक आहार भी मिलता है। यद्यपि पर्यावरणीय उलझनों से कोई पूरी तरह मुक्त नहीं हो सकता, यह आर्थिक तौर पर उचित नहीं होगा कि झींगा पालन पर पूरी तरह रोक लगाई जाए।झींगा पालन को न केवल अनुमति देना बिल्क इसके पालन को बढ़ावा देना युक्तिसंगत हैं। इससे किसी हद तक निर्यात आमदनी होती हैं। इससे जनता को पौष्टिक आहार भी मिलता है। यद्यपि पर्यावरणीय उलझनों से कोई पूरी तरह मुक्त नहीं हो सकता, यह आर्थिक तौर पर उचित नहीं होगा कि झींगा पालन पर पूरी तरह रोक लगाई जाए।

पिछले दशकों के दौरान पर्यावरण चिन्तन, गवेषण एवं लेखन का प्रमुख विषय रहा हैं। यद्यपि उत्पादन अथवा उपभोग क्रिया-कलापों में शायद ही कोई ऐसा हो जिससे बाह्यताओं पर प्रभाव न पड़ता हो। वर्ष 1960 में अर्थशास्त्र की नियमित शाखा के तौर पर पर्यावरण का अध्ययन प्रारम्भ हुआ। नकारात्मक बाह्यताओं का लगभग प्रत्येक क्रिया-कलाप का मुख्य उद्देश्य होता हैं। शून्य प्रदूषण केवल शून्य उत्पादन से सम्भव हो सकता है। हालांकि उत्पादकों को बाह्यताओं की सामाजिक कीमत की क्षतिपूर्ति करने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं होता है। फिर कुछ राज्यों ने बाह्यताओं का देशीकरण किया है। इसके लिए यह आवश्यक होगा कि प्रदूषकों की पहचान, उपाय एवं मानीटर प्रभावों का पता लगाने तथा उसे सहन करने अथवा सुरक्षा स्तर के भीतर बनाए रखने आदि से सम्बन्धित उपाय किए जाने चाहिए। अन्ततः इसमें व्यापार को बन्द करना शामिल है। इसलिए उत्पादन क्रिया-कलाप (आर्थिक उन्नति की ओर अग्रसर) और पर्यावरण की क्षमता में से किसी एक को अपनाना होगा।

इस लेख में तमिलनाडु के समुद्रतटीय जिला नागा पट्टीनम में झींगा पालन सम्बन्धी पर्यावरणीय परिणामों (आंशिक अनुमान) का विश्लेषण दिया गया है। यह केवल नकारात्मक बाह्यताओं के कारण स्थापित किया गया है और बाह्यताओं को देशीकृत करने की प्रक्रिया, डिजाइन और प्रवर्तन की कठिनाइयों से लिखी गई हैं। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि उत्पादन क्रिया-कलापों को पूरी तरह रोक दिया जाए। इसके आगे इस बात पर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है कि झींगा पालन से होने वाले आर्थिक लाभों के साथ-साथ पर्यावरणीय क्षति का वस्तुपरक मूल्यांकन किया जाए। झींगा खेती की नकारात्मक बाह्यताओं को देशीकरण की व्यावहारिक नीति बनाई जाए, जिससे राष्ट्रीय आय में आर्थिक समानता और निवल लाभ को सुनिश्चित किया जा सके।

भारतीय स्थान


1993 में कुल एक मिलियन हेक्टेयर पालन क्षेत्र 6,09,000 टन विश्व झींगा पालन हुआ और विश्व के कुल उत्पादन में 85 प्रतिशत झींगा पालन एशिया देशों (समुद्र उत्पाद निर्यात विकास एजेन्सी-1997) से प्राप्त हुआ। विश्व के बहुत से भागों में झींगा खेती में हुई तकनीकी सुधारों से झींगा पालन के जरिए झींगी उत्पादन में वृद्धि को अग्रसर किया है। जहाँ उत्पादन की स्थिति सहायक पाई गई वहाँ झींगा खेती की विस्तृत और अर्द्ध-विस्तृत पद्धति को अपनाया गया।

भारत में झींगा खेती ने पिछले वर्षों में नया मोड़ लिया है। भारत को झींगी उत्पादन और निर्यात में विश्व में विशेष स्थान प्राप्त है। समुद्री उत्पादों में झींगा का प्रमुख स्थान है। झींगा पालन की गवेषण और विकास को बढ़ाने के लिए भारत सरकार ने विश्व विद्यालयों, मत्स्य क्षेत्रों, कॉलेजों और संवर्धन संस्थानों जैसे- समुद्री उत्पाद निर्यात विकास एजेंसी (MPEDA), अनेक बैंक एवं वित्तीय संस्थानों जैसे नाबार्ड तथा आईसीआईसीआई आदि को बढ़ावा दिया है जिन्होंने अपनी पूँजी झींगा पालन उद्योग में लगाना लाभदायक पाया है। अनेकों बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने विकाशील देशों में झींगा खेती में बहुत दिलचस्पी जाहिर की है।

तमिलनाडु


तमिलनाडु में खारे पानी के उपलब्ध 56,000 हेक्टेयर क्षेत्र में से केवल 2879 हेक्टेयर क्षेत्र में हो रहे झींगा पालन सम्बन्धी तथ्य यह स्पष्ट तौर पर दर्शाता है कि पर्यावरणीय उलझनें न केवल आज बल्कि भविष्य में भी कोई गम्भीर परिणाम नहीं है।वर्ष 1995 के अनुसार, तमिलनाडु में 56,000 हेक्टेयर खारा पानी क्षेत्र में से मात्र 2,879 हेक्टेयर क्षेत्र में झींगा पालन किया गया। इस राज्य में खारा पानी को विशाल अशोधित क्षेत्र के मुकाबले कुल 5.14 प्रतिशत क्षेत्र में ही झींगा की खेती हुई। तमिलनाडु अन्य राज्यों से काफी पीछे है। उदाहरणार्थ, पश्चिम बंगाल में झींगा पालन क्षेत्र 34,660 हेक्टेयर है जबकि तमिलनाडु में 2,879 हेक्टेयर (MPEDA-1997) है। झींगा उत्पादकों के अनुसार तमिलनाडु में 1092 टन झींगा उत्पाउन हुआ। इसलिए यहाँ यह कहना कुछ अतिश्योक्ति होगा कि तमिलनाडु के तटीय क्षेत्र का झींगा पालन के लिए शोधन किया गया जिसके कारण गम्भीर पर्यावरण उलझने सामने आई। तमिलनाडु में खारे पानी के उपलब्ध 56,000 हेक्टेयर क्षेत्र में से केवल 2879 हेक्टेयर क्षेत्र में हो रहे झींगा पालन सम्बन्धी तथ्य यह स्पष्ट तौर पर दर्शाता है कि पर्यावरणीय उलझनें न केवल आज बल्कि भविष्य में भी कोई गम्भीर परिणाम नहीं है। समग्र परिणाम न के बराबर ही है।

1996-97 में भारत से कुल 3,78,199 टन समुद्री उत्पादों का निर्यात हुआ जिसका कुल मूल्य 4,12,136 लाख रुपए था। उनमें से झींगा का निर्यात 1,05,429 टन का हुआ जिसका कुल मूल्य 2,70,189 लाख रुपए था। इसी अवधि में तमिलनाडु से 40,878 टन समुद्री उत्पादों का निर्यात हुआ जिसका कुल मूल्य 1,07,567 लाख रुपए था। इस कुल निर्यात में केवल झींगा का 13,049 टन का निर्यात हुआ जिसका कुल मूल्य 44,988 लाख रुपए (मत्स्य क्षेत्र सांख्यिकी 1997-98) था।

पर्यावरणीय आशंकाएँ


निम्नलिखित चार मुख्य आधार हैं जिनके अनुसार झींगा पालन पर्यावरणीय क्षति के लिए कारण माना गया हैः-

(1) झींगा पालन क्रिया-कलापों की प्रकृति और विस्तार के अनुसार मनुष्यों को सामाजिक-आर्थिक और जीवन स्तर पर झींगा खेती के होन से विभिन्न प्रभाव पड़ते हैं। पर्यावरणविदों की राय है कि झींगा पालन क्रिया-कलापों के कारण, पानी झींगी के विकास के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले खादों और रसायनों से प्रदूषित होता है।

(2) औद्योगिक झींगी खेती कायम नहीं हैं। जहाँ कहीं इसकी कोशिश की गई है वहाँ व्यापारिक झींगी खेती का विभिन्न प्रकार के कारणों से कायम रहना सम्भव नहीं हुआ है। इनमें पर्यावरण की विकृतीकरण, प्रदूषण और बीमारियाँ शामिल हैं, विकृत तालाब अन्य किसी प्रयोजन के लिए शायद ही प्रयोग किए जाते है। इस कारण से यह उद्योग रैप एण्ड रन उद्योग (CASI-1997) के नाम से जाना जाता है।

(3) कृषि भूमि मालिक का कहना है कि आसपास में उपलब्ध भूमियों की उत्पादकता मिट्टी और पानी के खारेपन के कारण कम हो रही है। यह कहा जाता है कि समुद्र तटीय क्षेत्र के साथ लगे भूमि में से निकाले गए पानी में समुद्र का पानी आ जाता है जिससे भूमि के अन्दर पाया जाने वाला पानी और भी खारा हो जाता है।

(4) यह भी समझा गया है कि झींगा पालन ने परम्परागत मछुआरों को बेघर कर दिया है क्योंकि अधिकतर और परम्परागत, व्यक्ति तथा निर्गामता कम्पनियों सहित संस्थाएँ भारी पूँजी तथा कार्य लागत लगाकर इसमें शामिल हो गए हैं। फलस्वरूप इसके इस क्षेत्र में सामाजिक और आर्थिक असमानता को बढ़ावा मिला है। केसटीलो के.ए. तथा सेगोनिया एल.जैड. (1991) ने अनुभव किया कि व्यापारिक मत्स्य खेती के आर्थिक लाभ बड़ी मात्रा में खेती मालिकों और मत्स्य व्यापारियों को मिले हैं।

उपर्युक्त आधारों के वैज्ञानिक सत्यता के न होते हुए भी वस्तुगत तौर पर समुद्र तटीय भूमियों में पाए जाने वाले प्रदूषण के विस्तार और समस्याओं पर विचार करना होगा चाहे ये भूमि झींगा पालन वाली हों अथवा न हों। निम्नलिखित कथनों से सत्यता का पता लगाने में सहायता मिल सकती है।

समुद्रतटीय मिट्टी के खारेपन के कारणों में भौगोलिक, मौसमी और जल विज्ञान के पहलू शामिल हैं। समग्र समुद्रतटीय पट्टी में भूमिगत जल खारा है चाहे उसमें झींगा भी न रहा हो (PWD-SS and LUO)। इसलिए झींगा पालन से भूमिगत जल के प्रदूषित होने की सम्भावना (जो पहले ही खारा है) न्यूनतम होते हुए भी अनुपात से दूर नहीं किया जा सकता।

राष्ट्रीय पर्यावरणीय इजीनियरिंग रिसर्च संस्थान (NEERI-1994) की रिपोर्ट के अनुसार, झींगी खेती प्रवाही से प्रदूषण और प्रदूषण के सम्भावित अन्य स्रोतो से जल में आम प्रदूषण की तुलना यह दर्शाता है कि झींगी खेती बाह्य प्रवाही से सम्भावित प्रदूषण अपेक्षाकृत घरेलू अथवा उद्योगीय गन्दे पानी से कम मात्रा में पाया जाता है। झींगा खेती बहि प्रवाही की वास्तविक गुण अपेक्षाकृत समुद्रतटीय प्रदूषण के अन्य स्रोतों की तुलना में कम खतरनाक होता हैं।

झींगा पालन के कारण प्रदूषण के बारे में विचार करना, परिमापित करना और उपाय करना तथ प्रभावों में अन्तर करना कठिन है। झींगा पालन के नकारात्मक पर्यावरणीय परिणामों के बारे में कुछ निर्णायक और दीर्घ अवधि अनुभव-जन्य सबूत है। लेकिन अभी भी विभिन्न प्रेसर ग्रुप में उपलब्ध पर्यावरणीय लॉबीकार हैं जिनमें से कुछ ने पर्यावरणीय चिंतन अपने निहित स्वार्थों के कारण झींगा पालन को बड़ा मुद्दा बना दिया है। इस प्रेसर रणनीति में प्रायः वैज्ञानिक आँकड़ों का समर्थन प्राप्त नहीं है। यह अधिकतर अंकित अनुमान पर आधारित है।

झींगा के निर्यात से विदेशी मुद्रा बड़ी मात्रा में अर्जित होती हैं। 3,049 टन झींगा वर्ष 1996-97 के दौरान तमिलनाडु राज्य से निर्यात किया गया जबकि राज्य से 40,878 टन समुद्री उत्पाद का निर्यात किय गया। कुल नियति मूल्य 1,07,567.23 लाख रुपए में से 44,988.82 लाख रुपए का झींगा निर्यात किया गया। इसी प्रकार 1997-98 में किए गए कुल 1,00,977 टन समुद्री उत्पाद में से 66,868 टन झींगा का निर्यात हुआ, यह निर्यात भारत से पालन खेती के तहत किया गया (मत्स्य सांख्यिकी 1996-97)।

लाभदायकता


अन्य व्यापारिक जोखिम की तरह झींगा खेती में भी आवर्ती और अनावर्ती दोनों प्रकार के निवेश की आवश्कता होती है। झींगा खेती के लिए तैयार खेत वर्ष में दो बार झींगा फसल लेने के लिए इस्तेमाल हो सकता है। यह अनुमानित है कि 5 हेक्टेयर जल प्रवाहित क्षेत्र में झींगी के विस्तृत प्रकार की फसल लेने के लिए 12.5 लाख रुपए (7.5 लाख पूँजी लागत तथा 5 लाख दो फसलों की खेती के लिए लागत) एक वर्ष के लिए आवश्यक है। एक वर्ष की खेती पर हुए कुल व्यय ऋण की ब्याज सहित अदायगी को अलग करके वर्ष के अन्त में 5.10 लाख रुपए का निवल लाभ होना सम्भव है। पहले वर्ष में प्रति हेक्टेयर प्रतिवर्ष 1.02 लाख रुपए और 7 वर्ष के अन्त में यह लाभ 1.55 लाख रुपए आता हैं (यह अनुमान है कि 7 वर्ष की अवधि में यह लाभ दर अधिकतम होगी)। 7वें वर्ष के पश्चात सकल लाभ निवल लाभ के समान होगा (MPEDA-1997)।

भारत के पास विशाल समुद्रतटीय भूमि उपलब्ध है। झींगा पालन के पर्याप्त मात्रा में अनुकूल संसाधनों के उपस्थित होने के कारण, यह अनुमान है कि अनुमानित 11,90,000 हेक्टेयर क्षेत्र में खारापानी होने से 2 मिलियन व्यक्तियों को रोजगार के अवसर उपलब्ध हो सकते हैं।भारत के पास विशाल समुद्रतटीय भूमि उपलब्ध है। झींगा पालन के पर्याप्त मात्रा में अनुकूल संसाधनों के उपस्थित होने के कारण, यह अनुमान है कि अनुमानित 11,90,000 हेक्टेयर क्षेत्र में खारापानी होने से 2 मिलियन व्यक्तियों को रोजगार के अवसर उपलब्ध हो सकते हैं। विदेशी मुद्रा के सन्दर्भ में यह परियोजना उच्च आर्थिक मूल्य वाली हैं। झींगा एक अच्छा कारोबारी प्रस्ताव है जिसमें उच्च यूनिट मूल्य उपलब्ध है, यह एक लघु अवधि की फसल हैं जो निवेश पर शीघ्र आय देती है। इसके लिए तेजी से फैसले वाला विश्व बाजार उपलब्ध है (मत्स्य क्षेत्र सांख्यिकी 1996-97)।

समुद्री-उत्पाद निर्यात विकास एजेंसी (1994-96) के अनुसार झींगी खेती के कारण रोजगार के अवसरों में वृद्धि हुई है। धान की खेती के लिए प्रति हेक्टेयर एक फसल के लिए औसतन 180 श्रम दिवसों की आवश्यकता होती है। जबकि झींगा खेती में 60 श्रम दिवसों की आवश्यकता पड़ती है। धान की वर्ष में एक फसल जबकि झींगा की वर्ष में दो फसल ली जा सकती है। कृषि श्रमिक की वार्षिक 7,500 रुपए औसतन आमदनी जबकि झींगा खेती के श्रमिक वार्षिक 14,000 रुपए औसतन आमदनी कमाते हैं। सरकार प्रदूषण शमन लागत (PAC) अथवा अति लागत टैक्स के रूप में झींगा खेती मालिकों (प्रदूषणों) से वसूल कर सकती हैं और झींगा खेतों के आसपास में रहने वाले ग्रामीणों के जीवन स्तर में सुधार के लिए उक्त धन राशि का प्रयोग कर सकते है। इससे ग्रामीणों को गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगार तथा पीने का साफ पानी मुहैया कराया जा सकता है। निश्चित तौर पर यह उनके लिए अन्य लाभों के मुकाबले आर्थिक रूप से लाभदायी सिद्ध होगा। वास्तव में, झींगा किसानों के आसपास में रहने वाले प्रभावित व्यक्तियों के पास आय के स्थानान्तरण को जरिए झींगा खेती अखिरकार इन व्यक्तियों के वर्तमान जीवन स्तर को भविष्य में अधिक बेहतर बनायेगी।

पूर्वोक्त कारणों को ध्यान में रखते हुए, झींगा पालन की न केवल अनुमति देना बल्कि इसके पालन को बढ़ावा देना युक्तिसंगत है। इससे किसी हद तक नियत आमदनी होती है। इससे जनता को पौष्टिक आहार भी मिलता है यद्यपि पर्यावरणीय उलझनों से कोई पूरी तरह मुक्त नहीं हो सकता है। यह आर्थिक रूप से उचित नहीं होगी कि झींगा पलान पर पूरी तरह रोक लगा दी जाए। पर्यावरणीय कार्य समूह द्वारा अपने दबाव और कानूनी तरीकों के जरिए लॉबी करके रोक को समर्थन दिया जाए। बृहद आर्थिक विकास विचार द्वारा आदेशित वस्तुपरक पर्यावरणीय प्रस्ताव ऐसी प्रणाली को दर्शाएगा जिसके अन्तर्गत झींगा किसानों से पर्यावरणीय प्रभाव से युक्त व्यक्तियों के पास क्षतिपूर्ति के तौर पर आय की स्थानान्तरण करना है। इसे अन्य शब्दों में झींगा खेती की बाह्यताओं को देशी करने का एक समान तरीका है।

(श्री ए. वल्लियम्माय भारतीदासन विश्वविद्यालय ट्रिच्चि में इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर हैं एवं श्री सी. तंगमुत्तू ए.ओ.एम. कॉलेज नागपट्टणम तमिलनाडु में लेक्चरर हैं।)

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