यह देश हमारा था,
तालाब, नदी और झरनों से।
नहरें और पोखर खूब बने,
कुदरत के अजब खिलौने से।।
यहां कुमुद कुमदनी खिलते थे,
रातों को चकई रोती थी।
मिलने को चकवा व्याकुल था,
रातों को दुनियां सोती थी।।
मिलन हुआ न रातों में,
वे सुबह उजालों में मिलते थे।
चकई चकवा की अमर कहानी,
मेरे दादी, बाबा कहते थे।।
कहां गये वे ताल पोखरे,
जिनमें ये सब रहते थे।
मानव इनसे जल लेता था,
पशु पक्षी पानी पीते थे।।
ये ताल पोखरें झीलें थीं,
जिनमें न केवल पानी था ।
जीवन की एक सुरम्यता थी।।
जीवन एक मधुर कहानी था ।।
जीवन भी था गतिवान यहां
कड़ियों से कड़ियां जुड़ती थीं।
उद्भव और विकास चला,
सदियों से सदियां जुड़ती थीं।।
अब साहित्य हमारा व्याकुल है,
आंखो की तुलना झील नहीं।
अधरों की तुलना कमल नहीं,
नयनों की तुलना मीन नहीं।।
जाड़े की तुलना हंस नहीं,
बिन सीपी मोती वंश नहीं।
साहित्य हमारा क्या लिखे,
तुलना को है जब अंश नहीं।
सारस खेतों में रोता है,
पोखर बिन नींद न सोता है।
पूरा परिवार तनाव ग्रसित
मानव तो मात्र श्रोता है।।
बगुले भी कौ-कौं करते हैं,
मानव से मन-मन कहते हैं।
पीडा़ मेरी तुम सुन सकते,
कैसे मेरे बच्चे रोते हैं।।
मेरी ममता आहें भरती,
आंखो से आंसू झरते हैं।
जब कोई ताल सूखता है,
कितने जल जीवन मरते हैं।।
झीलें तो खुदवा सकते हो,
जीवन वापस नहीं आते हैं।
अरबों खरबों की दुनिया है,
हजारो साल नष्ट हो जाते हैं।।
जब कोई झील सूखती है,
तब दुनियां एक उजड़ती है।।
मेरी ममता सिसकी भरती है,
बगुला से बगुली कहती है।।
अपने नसीब में नहीं रहा,
यहां का अब दाना पानी।
चल उड़ चल रे बगले
अब यह झील हुई बेगानी।।
बगुलों के ये व्याकुल जोड़े,
उड़के भी कहीं ना जायेंगे।
जहां जहां भी ये जायेंगे।
ऐसा ही दृश्य ये पायेंगें।।
दो, तीन, सैकड़ों क्या गिनती,
तालाब, नदी, पोखर सूखे।
बन गये कई मंजिल महल,
फिरते सारस रोते भूखे।।
नाड़ी की नाड़ी रुक बैठी,
नरकुल के कुल यहां नष्ट हुए।
पटेरा, बन्सा, नागर मोथा
बिन सबके हमको कष्ट हुए।।
जन्तु जगत और पादपगण,
कर के व्यथित चले मन को।
ये बैठ रो रहे आपस में,
तड़प तड़प कोसें जन को।।
कोई तो आज बताए इन्हें
बेचारे जायें तो कहां जायें।
वेदनापूर्ण इन घडि़यों में,
जब आप ही ढांढस बंधवायें।।
उप वन संरक्षक, एस.सी.यादव
संकलन और टाइपिंग – नीलम श्रीवास्तव
तालाब, नदी और झरनों से।
नहरें और पोखर खूब बने,
कुदरत के अजब खिलौने से।।
यहां कुमुद कुमदनी खिलते थे,
रातों को चकई रोती थी।
मिलने को चकवा व्याकुल था,
रातों को दुनियां सोती थी।।
मिलन हुआ न रातों में,
वे सुबह उजालों में मिलते थे।
चकई चकवा की अमर कहानी,
मेरे दादी, बाबा कहते थे।।
कहां गये वे ताल पोखरे,
जिनमें ये सब रहते थे।
मानव इनसे जल लेता था,
पशु पक्षी पानी पीते थे।।
ये ताल पोखरें झीलें थीं,
जिनमें न केवल पानी था ।
जीवन की एक सुरम्यता थी।।
जीवन एक मधुर कहानी था ।।
जीवन भी था गतिवान यहां
कड़ियों से कड़ियां जुड़ती थीं।
उद्भव और विकास चला,
सदियों से सदियां जुड़ती थीं।।
अब साहित्य हमारा व्याकुल है,
आंखो की तुलना झील नहीं।
अधरों की तुलना कमल नहीं,
नयनों की तुलना मीन नहीं।।
जाड़े की तुलना हंस नहीं,
बिन सीपी मोती वंश नहीं।
साहित्य हमारा क्या लिखे,
तुलना को है जब अंश नहीं।
सारस खेतों में रोता है,
पोखर बिन नींद न सोता है।
पूरा परिवार तनाव ग्रसित
मानव तो मात्र श्रोता है।।
बगुले भी कौ-कौं करते हैं,
मानव से मन-मन कहते हैं।
पीडा़ मेरी तुम सुन सकते,
कैसे मेरे बच्चे रोते हैं।।
मेरी ममता आहें भरती,
आंखो से आंसू झरते हैं।
जब कोई ताल सूखता है,
कितने जल जीवन मरते हैं।।
झीलें तो खुदवा सकते हो,
जीवन वापस नहीं आते हैं।
अरबों खरबों की दुनिया है,
हजारो साल नष्ट हो जाते हैं।।
जब कोई झील सूखती है,
तब दुनियां एक उजड़ती है।।
मेरी ममता सिसकी भरती है,
बगुला से बगुली कहती है।।
अपने नसीब में नहीं रहा,
यहां का अब दाना पानी।
चल उड़ चल रे बगले
अब यह झील हुई बेगानी।।
बगुलों के ये व्याकुल जोड़े,
उड़के भी कहीं ना जायेंगे।
जहां जहां भी ये जायेंगे।
ऐसा ही दृश्य ये पायेंगें।।
दो, तीन, सैकड़ों क्या गिनती,
तालाब, नदी, पोखर सूखे।
बन गये कई मंजिल महल,
फिरते सारस रोते भूखे।।
नाड़ी की नाड़ी रुक बैठी,
नरकुल के कुल यहां नष्ट हुए।
पटेरा, बन्सा, नागर मोथा
बिन सबके हमको कष्ट हुए।।
जन्तु जगत और पादपगण,
कर के व्यथित चले मन को।
ये बैठ रो रहे आपस में,
तड़प तड़प कोसें जन को।।
कोई तो आज बताए इन्हें
बेचारे जायें तो कहां जायें।
वेदनापूर्ण इन घडि़यों में,
जब आप ही ढांढस बंधवायें।।
उप वन संरक्षक, एस.सी.यादव
संकलन और टाइपिंग – नीलम श्रीवास्तव
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Post By: pankajbagwan