दिल्ली में अब भी इतनी झीलें, ताल-तलैये, पोखर, जोहड़ हैं कि इस शहर को ‘तालाबों और झीलों का शहर’ कहा जा सकता है। यह अलग बात है कि राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजक शहर होने के बावजूद यह पानी पर होने वाले खेलों का आयोजन कर पाने की स्थिति में नहीं है। इसके लिए हमें दूसरे राज्यों से मदद मांगने के लिए मजबूर होना पड़ा। इसका मुख्य कारण है कि हम अपने परंपरागत जल स्रोतों का संरक्षण कर पाने में सफल नहीं रहे। नए जल स्रोतों का विकास तो अभी हमारी सोच तक में नहीं है। चौंक गए न यह पढ़कर, यह जानकर। आप कहेंगे कि क्या मज़ाक करते हैं, दिल्ली और झीलों का शहर। इसे तो कंक्रीट का जंगल ही कहा जा सकता है। दिल्ली को ‘झीलों और नदियों का शहर’ का नाम देना एक मज़ाक नहीं है, वास्तव में यह शहर ऐसा है। आज भी इस शहर में इतनी झीलें, तालाब, ताल-तलैया, जोहड़ और पानी से भरे या पानी बचाकर रखने वाले ऐसे संसाधन बचे हुए हैं कि इसे यह नाम दिया कहा जा सकता है। यह सही है कि बचाव के प्रयासों और दावों के बीच साल-दर-साल इनकी संख्या घटती जा रही है या आकार छोटा होता जा रहा है। इनको जीवित रखने के लिए जरूरी है कि आस-पास का बरसाती पानी इन वाटर बॉडीज तक पहुंचने दिया जाए; लेकिन शहर के विकास की भूख ऐसा होने से रोकती है। दूसरों को जीवन देने वाले पानी के संरक्षक अपने जीवन की रक्षा के लिए अनुरोध करते-से दिखाई देते हैं।
दिल्ली में अब भी इतनी झीलें, ताल-तलैये, पोखर, जोहड़ हैं कि इस शहर को ‘तालाबों और झीलों का शहर’ कहा जा सकता है। यह अलग बात है कि राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजक शहर होने के बावजूद यह पानी पर होने वाले खेलों का आयोजन कर पाने की स्थिति में नहीं है। इसके लिए हमें दूसरे राज्यों से मदद मांगने के लिए मजबूर होना पड़ा। इसका मुख्य कारण है कि हम अपने परंपरागत जल स्रोतों का संरक्षण कर पाने में सफल नहीं रहे। नए जल स्रोतों का विकास तो अभी हमारी सोच तक में नहीं है। इस पुस्तक में दिल्ली को ‘नदियों और झीलों का शहर’ कहा गया है। निश्चय ही यह नामकरण आलोचना और आश्चर्य का विषय हो सकता है। लेकिन वास्तव में ऐसा है। सवाल इस ओर एक नजर डालने का है। कहां हैं दिल्ली की नदियां, झीलें और ताल-तलैया? हमें इस सवाल का जवाब तलाश करने के लिए दिल्ली की भौगोलिक स्थिति पर एक नजर डालनी होगी। रिज और यमुना राजधानी की दो सबसे महत्वपूर्ण प्राकृतिक विशेषताएँ हैं। इन दोनों विशेषताओं के प्रभावों का दिल्ली में पानी की स्थिति के बारे में जानने के लिए समझना बहुत जरूरी है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि दिल्ली की झीलों, नदियों, बांधों, हौज़ों, ताल-तलैया और कुओं तथा पानी के अन्य ज्ञात व अज्ञात स्रोतों पर इन दोनों प्राकृतिक क्षेत्रों को दूरगामी प्रभाव पड़ा है। वास्तविकता यह है कि दिल्ली के पानी के स्रोत इन दोनों प्राकृतिक संरचनाओं से सीधे जुड़े हुए हैं। तो आइए, पहले बात करते हैं दिल्ली के रिज की! रिज का दिल्ली की पानी की व्यवस्था से बहुत सीधा संबंध है। इसलिए दिल्ली में पानी की स्थिति को जानने-समझने के लिए रिज और उसकी स्थिति को समझना बहुत जरूरी है।
उत्तर-पश्चिमी और पश्चिमी दिल्ली के एक बड़े इलाके को ‘डाबर’ कहा जाता है। डाबर पहाड़ियों के पश्चिम में स्थित निचली सतह वाला ‘नदीथाला’ यानी बेसिन है। इस प्राकृतिक जलाशय में पहाड़ियों से बहने वाला पानी स्वतः भर जाता है। यह झील दिल्ली में पानी की समस्या के समाधान के लिए कितनी महत्वपूर्ण हो सकती है, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि अच्छी बरसात वाले वर्षों में इस झील में करीब 52 वर्ग किलोमीटर ज़मीन में पानी भर जाया करता था। इसका भराव क्षेत्र लगातार सिकुड़ता जा रहा है। यदि इस पानी को नजफगढ़ नाले के रास्ते नहीं बहने दिया जाए तो यह भराव क्षेत्र और भी बढ़ सकता है। दिल्ली और हरियाणा की सीमा के साथ लगने वाला यह इलाक़ा अपेक्षाकृत नीचा कहा जा सकता है। आमतौर पर बरसात के दिनों में इस इलाके में ‘साहिबी नदी’ का पानी भर जाया करता था। साहिबी नदी का पानी अलवर से गुड़गांव के रास्ते होकर इस झील तक पहुंचा करता थ। बरसात के दिनों में छावला और उसके आस-पास के गाँवों में मीलों दूर तक पानी भरे रहने के दृश्य को देखने वाले लोग आज भी हैं। वे याद करते हैं कि तब बरसात में यह इलाक़ा कितना खूबसूरत और बाद में हरा-भरा दिखा करता था। जैसे-जैसे सर्दी आती थी, इस इलाके में पानी का स्तर कम होता जाता था: क्योंकि नजफगढ़ ड्रेन के जरिए बहकर पानी यमुना की ओर निकलता जाता था। यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि तब नजफगढ़ नाले का नाम ‘नजफगढ़ झील एस्केप’ हुआ करता था। इसे नाला तो दिल्ली के विकास के साथ बना दिया गया है। जिस साल बारिश कम होती थी, उन सालों को छोड़ दिया जाए तो इस झील से पानी की निकासी के बावजूद बहलोलपुर, दाहरी और जौनापुर गाँवों के दक्षिण में हमेशा झील का पानी भरा रहता था ।
यह ड्रेन अब बरसाती पानी की निकासी की बजाए शहर की गंदगी को बहाने का माध्यम बन चुका है। यह नाला अपने आस-पास रहने वालों के लिए बीमारियों और सड़ांध का एक प्रमुख कारण है। यमुना को मैली करने का यह सबसे बड़ा कारण है। नजफगढ़ ड्रेन की मार्फत झील का अतिरिक्त पानी बहकर यमुना में जाता था। इस झील में भर जाने वाले बरसाती पानी की निकासी के लिए यह ड्रेन पर्याप्त साबित नहीं हो रहा था। पानी की निकासी की यह व्यवस्था होने के बाद भी इस झील के आस-पास के इलाके में पानी भरा रह जाता था। इसलिए एक सप्लीमेंटरी ड्रेन बनाकर इस पानी की निकासी के प्रबंध किए गए। इस तरह से बरसात के पानी को संरक्षित करके उसका उपयोग करने की बजाए उसे नदी में बहाने के नज़रिए से काम किए जाने के बावजूद यह झील आज भी यमुना के बाद दिल्ली की सबसे बड़ी वाटर बॉडी है। एक अनुमान के अनुसार इस झील में करीब 1,000 किलोमीटर के दायरे में होने वाली बरसात का पानी इकट्ठा होता था। 100 साल के अंतर में हमने इस झील को लगभग समाप्त हो जाने दिया है; लेकिन अब इसका जो हिस्सा बचा रह गया है, उसे संरक्षित किए जाने की आवश्यकता है। श्रीनगर की डल झील की चिंता करने वाले तो बहुत हैं, लेकिन दिल्ली की इस विशाल लेक को अपने बचाने वालों की प्रतीक्षा है। नजफगढ़ के नवाब हैं तो हैं, लेकिन अपने आंगन में क्या हो रहा है, इसका पता लगाने के लिए उनके पास समय कहां है? अब इस झील की ज़मीन पर सैकड़ों वैध और अवैध कॉलोनियां बन गई है और उभर रही हैं। दिल्ली और केंद्र की सरकारें इन कॉलोनियों को नियमित करने को बात करके वोट बैंक की राजनीति कर रही हैं; लेकिन इन बस्तियों में पीने के पानी की नियमित आपूर्ति कब और कैसे हो सकेगी, इसकी ओर उनका ध्यान नहीं है। पिछली शताब्दी के सातवें दशक में नियमित घोषित की गई 612 कॉलोनियों में तीन दशक के बाद आज भी पीने के पानी और सीवेज डिस्पोजल की व्यवस्था नहीं हो पाई है। अब जबकि करीब 1,600 कॉलोनियों को नियमित करने की प्रक्रिया चल रही है। देखना यह होगा कि इनमें जन सुविधाएँ क्या इसी शताब्दी में उपलब्ध हो पाएंगी?
बाढ़ नियंत्रण की विभिन्न योजनाओं को लागू किए जाने के बाद इस इलाके में बाढ़ की स्थिति में कुछ हद तक नियंत्रण हुआ है। इसका दूसरा पहलू यह है कि बरसाती पानी के इकट्ठा होने के दिल्ली को प्रकृति द्वारा दिए गए वरदान के प्रभाव को लगातार कम किया जाता रहा है। पानी को रोककर सका इस्तेमाल करने की बजाए उसे बहाकर बर्बाद कर देने के इन मानवीय प्रयासों के बावजूद अभी भी नजफगढ़ झील का इलाक़ा इतना बचा हुआ है, जहां पानी भरा देखा जा सकता है। वर्ष 2010 में दिल्ली में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स दौरान इस झील के एक हिस्से में नौका दौड़ जैसे खेलों का आयोजन करने की योजना थी। दिल्ली- हरियाणा सीमा पर धुर तक फैली नजफगढ़ झील राजधानी का सबसे बड़ा ‘लो लाइंग एरिया’ है। तश्तरी की तरह दिखने वाली यह झील 900 वर्ग किलोमीटर से अधिक इलाके में फैली हुई थी। इसका अधिकतर हिस्सा दिल्ली में नजफगढ़ और हरियाणा में गुड़गांव तक फैला हुआ था। गुड़गांव जिले के तालाबों का अतिरिक्त पानी भी इस झील में पहुंच जाया करता था। झील की सामान्य जल से पूर्ण सतह समुद्र-तल से 690 फीट की ऊंचाई पर थी। जब जल सतह तक जमा हो जाता है तो लगभग 7,500 एकड़ में पानी भर जाता था। लेकिन भारी वर्षा के बाद झील अपने पानी का निकास शीघ्रता से नहीं कर पाती थी, क्योंकि नजफगढ़ ड्रेन की क्षमता सीमित थी। इसलिए आस-पास के इलाकों में पानी भर जाया करता था। 19 और 20 जुलाई 1958 को मध्य रात्रि में हुई भारी वर्षा के कारण इस झील का जल-स्तर समुद्र तल से 692.4 फीट तक पहुंच गया था, जिसके फलस्वरूप 14,440 एकड़ ज़मीन में पानी भर गया था। 1912 के गजेटियर में इस बात का उल्लेख मिलता है कि इस झील के कारण एक बार बाढ़ का विस्तार 207 वर्ग किलोमीटर तक हो गया था, लेकिन अब इसका इतना विस्तार नहीं होता। जिस वर्ष बरसात कम होती है, झील सिकुड़ जाती है। अब इस ज़मीन पर नई-नई कॉलोनियां कटती जा रही हैं। तब उसके सिरों पर उपलब्ध ज़मीन में खेती कर पाना संभव हो जाता था। इस झील के पानी को निकालने के लिए ही नजफगढ़ ड्रेन बनाई गई थी।
दिल्ली में कुल मिलाकर करीब 800 जगहें ऐसी हैं, जिनमें कि पानी भरा रहता है। इसमें झीलों, तालाबों, जोहड़ों, ताल-तलैयों को शामिल किया गया है। इनमें प्राकृतिक और मानव निर्मित दोनों ही प्रकार के जल स्रोतों को शामिल किया गया था। दिल्ली सरकार के अपने आंकड़े 500 से भी अधिक जगहों पर झीलों, तालाबों, ताल-तलैयों आदि की पुष्टि करते हैं। दिल्ली सरकार और उसकी एजेंसियों ने अक्तूबर 2001 में दिल्ली की ताल-तलैयों और अन्य उन जगहों का सर्वेक्षण किया था, जिनमें किसी-न-किसी रूप में पानी भरा हुआ था। इस सर्वेक्षण के दौरान शहरी और ग्रामीण दोनों इलाकों के जल स्रोतों को शामिल किया गया था। इस योजना के तहत ‘वाटरबॉडी’ शब्द का इस्तेमाल करके उसके समाज से जुड़ाव को ही समाप्त कर दिया गया। इस सर्वेक्षण के दौरान पाया गया कि उस समय तक राजधानी में 507 जलस्रोत बचे हुए थे। तालाबों और झीलों के परंपरागत नाम उन्हें आस-पास के लोगों से जोड़ते थे। उनके पारिवारिक सामाजिक व सांस्कृतिक संबंधों के प्रतीक थे। वाटरबॉडी बन जाने के बाद उनके परिवार और समाज से संबंधों को जैसे काट दिया गया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि अब इनकी देखभाल और संरक्षण का विचार ही समाप्त होता जा रहा है। एक अनुमान है कि राजधानी के तालाबों में 95 प्रतिशत पानी रह ही नहीं गया है या बरा-ए-नाम ही रह गया है। उनका आकार साल-दर-साल घटता जा रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि इन जल स्रोतों को आज की दिल्लीवालों के साथ हर तरह से जोड़ा जाए, तभी उनके संरक्षण की योजनाएं सफल हो पाएंगी। इन तालाबों और ताल-तलैयों का पानी इस प्रकार का है कि उनके आस-पास रहने वालों के लिए यह एक बड़ी समस्या है तो वे इसे बचाने के लिए क्यों काम करें? उनकी रुचि तो इस बात की है कि इसे किस तरह से समाप्त किया जाए, जिससे उनकी समस्या कम हो।
इस अध्ययन के दौरान इस बात की जानकारी सामने आई कि नजफगढ़ ब्लॉक में सबसे ज्यादा 218 तालाब हैं। इस इलाके में द्वारका उपनगर और नया अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट बनाए जाने के बाद से आबादी सबसे तेजी से बढ़ रही है। आने वाले समय में इस क्षेत्र का और भी तेजी से विकास होने जा रहा है। इस क्षेत्र में आज भी पानी की आपूर्ति एक बड़ी समस्या है। आने वाले समय में स्थिति के और बिगड़ने की आशा है, क्योंकि अभी तक यह तय नहीं हो पाया है कि इस आबादी के लिए पानी कहां से लाया जाएगा? वर्तमान स्थिति को देखते हुए कहा जा सकता है कि इस इलाके में पानी की मांग की आपूर्ति करने के लिए ज़मीन के अंदर के ही पानी का इस्तेमाल किए जाने की मजबूरी होगी। इस इलाके का पानी पहले ही खारा और कसैला है। इस इलाके में ज़मीन के अंदर पानी का स्तर लगातार गिरता जा जा रहा है। यदि इसे रिचार्ज करने के लिए बड़े पैमाने पर काम नहीं किया गया तो वह दिन बहुत दूर नहीं है, जब यहां से ज़मीन के अंदर से पानी निकाल पाना संभव ही नहीं रह जाएगा। इस स्थिति से निपटने में इस क्षेत्र की नजफगढ़ झील और इन तालाबों की महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी। इसलिए इन्हें विकास के दौर में संरक्षित किए जाने की नितांत आवश्यकता है। यह वह इलाक़ा भी है, जहां पिछले एक दशक में दिल्ली की सबसे ज्यादा अवैध कॉलोनियों का निर्माण हुआ है। अब इन कॉलोनियों को नियमित करने की कार्यवाही की जा रही है। इन बस्तियों में पीने के पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए अब तक कोई ठोस योजना तक तैयार नहीं की जा सकी है। दिल्ली जल बोर्ड और डी.डी.ए. दोनों पानी की आपूर्ति के लिए एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराकर अपना पल्ला झाड़ चुके हैं। नजफगढ़ ब्लॉक के बाद तालाबों की संख्या के आधार पर कंझावला बल्कि का नंबर आता है। यहां पर 104 तालाब होने की पुष्टि की गई है। अलीपुर ब्लॉक में 75 और महरौली ब्लॉक में 43 तालाब होने के आंकड़े मिले हैं। सिटी ब्लॉक में 28 और यमुनापार के शाहदरा ब्लॉक में इस सर्वेक्षण के दौरान 28 तालाबों का पता चला था।
पूर्वी दिल्ली में शाहदरा ब्लॉक के तहत आने वाली संजय गांधी झील का दायरा 1,70,000 वर्गमीटर से भी अधिक है। बिहारीपुर में 22,000 वर्गमीटर में फैला हुआ एक तालाब पाया गया। पूर्वी दिल्ली में पुराने जमाने में बावड़ियां बनाए जाने का उल्लेख मिलता है, लेकिन अब उनमें से एक का भी पता नहीं चल पाता है। झील के नाम से एक पूरा इलाक़ा बसा हुआ है, लेकिन वहां पर अब झील जैसा कुछ नहीं दिखता। अब तो झील का नाम ही रह गया है। शायद कभी यहां कहीं पर झील रही हो। भौगोलिक दृष्टि से यह पूरा-का-पूरा इलाक़ा यमुना और हिंडन नदियों का रिवर बेड है। इस इलाके में बाढ़ आने का सिलसिला बहुत पुराना नहीं है। पिछली शताब्दी के सातवें, आठवें और नौवें दशक तक इस इलाके में अक्सर बरसाती पानी भर जाता था। दिल्ली सरकार के रिकॉर्ड बताते हैं कि ऐसा भी हुआ है कि हिंडन और यमुना का पानी कई बार बाढ़ के दौरान मिल जाता था। ‘झील’ कहे जाने वाले इलाके में अक्सर पानी भरा रहा करता था और धान की खेती की जा सकती थी। संजय झील का आकार साल-दर-साल वास्तव में कम होता जा रहा है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि यहां भी पानी का स्तर गिर रहा है और कुएँ सूखते जा रहे हैं। इस झील के संरक्षण के लिए स्थानीय निवासियों और स्कूली बच्चों ने पहल की है, लेकिन उसके लिए बहुत कुछ किए जाने की आवश्यकता है। अनेक नामी-गिरामी कहे जाने वाले कुएँ तो अब मिलते तक नहीं हैं। कृष्णा नगर में लाल कुआं नाम की एक जगह तो है, लेकिन कुआं कहां हैं, इसके जानने वाले कुछ ही मिलते हैं। अधिकतर लोग लाल कुआं के बारे में पूछने पर इसी नाम की एक बस्ती का ठिकाना बता देते हैं। यही स्थिति तुगलकाबाद से होकर फरीदाबाद की ओर आने वाली सड़क के आस-पास की है। यहां पर भी लाल कुआं के नाम पर एक मोड़ और बस्ती की पहचान की जाती है, लेकिन जिस लाल कुएं के नाम पर इस इलाके का नाम पड़ गया है, वह कहां है, अब शायद ही कोई जानता हो। आज की पुरानी दिल्ली में भी एक इलाके का नाम लाल कुआं हैं, जहां कभी किन्नरों की बस्ती हुआ करती थी; लेकिन यह कुआं भी बस नाम का ही रह गया है।
हौज़ खास का दायरा 80,000 वर्गमीटर का है। योगमाया के मंदिर के पास के तालाब को तो अब तालाब कहना ही ठीक नहीं होगा क्योंकि उसकी ज़मीन पर कब्ज़ा करके निर्माण किए जा चुके हैं। मादीपुर पार्क में बनी झील ही 25,000 वर्गमीटर में फैली हुई है। जहांगीरपुरी मार्श यानी जहां अक्सर भरा रहता है, में 7,40,000 वर्गमीटर में पानी भरा पाया गया तो भलस्वां जहांगीर पुरी में 8,000 वर्गमीटर में पानी वाला तालाब मिला। धौला कुआं के पास एक तालाब में 15,000 वर्गमीटर दायरे का तालाब देखा गया। रिंग रोड पर नारायणा के पास मायापुरी तालाब 20,000 वर्गमीटर के दायरे में दिखाई दिया। हालांकि गंदगी-कूड़ा और मलबा भरते जाने के कारण अब इसकी लंबाई-चौड़ाई दिनोंदिन कम होती जा रही हैं। यही हालत रही तो एफ.सी.आई. गोदाम के पास रिंग रोड के किनारे एक तालाब होता तो था, जैसी स्थिति आने में अब ज्यादा दिन नहीं लगेंगे। तिहाड़ झील 10,000 वर्गमीटर में फैली है तो मॉडल टाउन की नैनी झील 21,000 वर्गमीटर के दायरे में थी, लेकिन अब यह सिमटती जा रही है। खिड़की के पास सतपुला में 1,500 वर्गमीटर में पानी भरा रहता है। इस पानी को बेहद पवित्र माना जाता था और नवजात शिशु को ले जाकर स्नान कराया जाता था। ऐसा माना जाता था कि इसमें स्नान करने वालों को किसी प्रकार की बीमारी नहीं होगी। अब तो पुल ही नाम का रह गया है। यहां साफ पानी की बजाय सीवेज का गंदा पानी बहता है, जिसमें नहाने का कोई सवाल ही नहीं उठता। सैकड़ों साल पुराने इस ऐतिहासिक पुल का तो संरक्षण दिल्ली की हैरिटेज के लिए जरूरी है। इसके अलावा विजय घाट, शांति वन, पुराना किला, इंदिरा गांधी स्टेडियम के पास दिल्ली सरकार के मुख्यालय ‘प्लेयर्स बिल्डिंग’ में खासी बड़ी झीलें हैं। ‘प्लेयर्स बिल्डिंग’ की झील में बत्तखें तो तैरती दिखाई देती हैं, लेकिन इस झील में उलटी पड़ी नाव जल संरक्षण और संवर्धन के प्रति हमारी सोच की कहानी कहती लगती है।
कंझावाला ब्लॉक के रानी खेड़ा, गढ़ी रिठालां, सओधा, सुल्तानपुर-डबास और किराड़ी सुलेमान नगर में बने तालाबों का क्षेत्रफल 10 से 15,000 वर्गमीटर के बीच गया। इस ब्लॉक के तहत आने वाली ज़मीन के शहरीकरण के बाद बसे अवंतिका, रोहिणी, रिठाला और पश्चिम विहार में 15,000 से 20,000 वर्गमीटर के आकार के तालाब हैं। अलीपुर ब्लॉक के सन्नोठ, भलस्वां, शाहाबाद डेरी सहित अनेक इलाकों में 15,000 वर्गमीटर से अधिक के तालाब पाए गए। इस ब्लॉक के धीरपुर में तो एक तालाब का क्षेत्रफल 50,000 वर्गमीटर से भी अधिक का पाया गया। महरौली ब्लॉक के तहत आने वाले बहुचर्चित सैनिक फार्म में तो एक तालाब का आकार 1,00,000 वर्गमीटर का मिला। इसी क्षेत्र के लाल कुआं में 25,000 वर्गमीटर का तालाब है, जबकि ऐतिहासिक हौज़ शम्शी का आकार 20,000 वर्गमीटर से अधिक का आंका गया है। जे.एन.यू. और आई.आई.टी. के अंदर दस से 15,000 वर्गमीटर में फैले तालाब देखे जा सकते हैं। श्याम नगर झील का दायरा 21,000 वर्गमीटर का है जबकि ‘नेशनल साइंस फोरम’ के पास बने तालाब का आकार 10,000 वर्गमीटर से भी अधिक का नापा गया। ये तालाब साल-दल-साल छोटे तो होते जा ही रहे हैं, साथ ही वे अपनी उपयोगिता भी खोते जा रहे हैं। इसका कारण यह है कि इनमें बरसाती पानी इकट्ठा होने के कैचमेंट एरिया में निर्माण कार्य का होते जाना। दिल्ली में सरकारी और शामिलात की ज़मीन पर अवैध कब्जा करके कॉलोनाइजेशन एक नियोजित उद्योग और व्यापार बन चुका है। गाहे-बगाहे अदालती आदेशों पर इनके खिलाफ कार्रवाई की रस्म-अदायगी की जाती है और फिर बात आई-गई हो जाती है और फिर निर्माण कार्य शुरू हो जाते हैं और उनके संरक्षण के लिए केंद्र और दिल्ली सरकार नियम-कानून बनाती है। इस प्रकार एक और इनके रोकने के लिए कार्रवाई की जाती है और दूसरी ओर उन्हें संरक्षण दिया जाता है।
इस सर्वेक्षण के दौरान इस बात का भी हिसाब-किताब तैयार किया गया था किस जल स्रोत का मालिकाना हक किस सरकारी संगठन के नियंत्रण में है। ऐसा किया जाना इसलिए जरूरी समझा गया था, जिससे कि इस बात को साफ किया जा सके कि किसके रख-रखाव और संरक्षण की ज़िम्मेदारी किस संगठन की है। दिल्ली में ज़मीन के मालिकाना हक के बारे में रिकॉर्ड में साफ जानकारी नहीं होने के कारण बड़े कारण बड़े पैमाने पर सरकारी ज़मीन पर अवैध कब्ज़े कर लिए गए हैं। उनमें कॉलोनियां बसा दी गई हैं या अन्य प्रकार के निर्माण हो गए हैं। ज़मीन के मालिकाना हक की पुख्ता और स्पष्ट व्यवस्था नहीं होने के कारण सरकारी एजेंसियों के अधिकारी इस ज़िम्मेदारी से अपने आपको साफ बचा जाते रहे हैं। इस दौरान इस बात की भी नाप-जोख की गई थी कि हर जल स्रोत कुल कितनी ज़मीन पर है और उसमें कितनी ज़मीन पर पानी भरा हुआ है। इस सर्वेक्षण के दौरान पता चला कि दिल्ली के ग्रामीण इलाकों में अभी भी 192 ऐसे तालाब हैं, जिनका क्षेत्रफल 4,000 वर्गमीटर से कम है। 186 ऐसे तालाबों का पता चला है जिनका कि क्षेत्रफल 4,000 से 10,000 वर्गमीटर पाया गया। 84 तालाब तो ऐसे पाए गए, जिनका आकार 10,000 वर्ग मीटर से भी अधिक था। 46 ऐसे तालाब पाए गए, जिनमें उस समय पानी नहीं था। दिल्ली सरकार ने इन तालाबों की ज़मीन को विकास की योजनाओं को लागू करने के लिए अधिग्रहण किए जाने की प्रक्रिया चला रही थी। दिल्ली सरकार अब सभी प्रकार के रिकॉर्ड डिजिटल रखने की एक योजना पर काम कर रही है। इसके तहत उपग्रहों से दिल्ली के विभिन्न प्रकार की तसवीरें लेकर उनका विश्लेषण और उपयोग करने की व्यवस्था की जा रही है। लेकिन रिकॉर्ड रखने से कुछ खास होने वाला नहीं है। इन प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की जिनकी ज़िम्मेदारी है, उन्हें कर्तव्यबोध होना चाहिए और निजी लाभ की बजाय आज और आनेवाले कल के जनहित के आधार पर इनके संरक्षण के लिए काम करना चाहिए।
इस बैठक में यह भी तय किया गया कि जिस सरकारी संगठन की ज़मीन पर वाटर बॉडी है, उसके संरक्षण का काम वही संगठन करेगा। वाटर बॉडी के संरक्षण का अर्थ यह होगा कि उसके कैचमेंट एरिया को संरक्षित रखा जाएगा। वाटर बॉडी का कैचमेंट एरिया उसे कहा जाता है, जिस सारे क्षेत्र का बरसाती पानी उस ताल-तलैया, पोखर, जोहड़ आदि में आकर इकट्ठा होता है। इस वाटर बॉडी के किनारों और उसके आस-पास की ज़मीन को हरा-भरा करना भी संरक्षण के दायरे में लाया गया। वाटर बॉडी के पानी की किस्म को वर्तमान स्तर पर बनाए रखने और उसमें सुधार लाने के लिए कदम उठाए जाएंगे। वाटर बॉडीज को आस-पास की नहर या बरसाती पानी की निकासी के नालों से जोड़ने की संभावनाओं का पता लगाया जाएगा, जिससे कि वाटर बॉडी में पानी का स्तर बढ़ाया जा सके। इनमें से अधिकतर फैसले वास्तव में कागज़ों और फाइलों में उलझे हुए हैं। जहां उन्हें लागू किया गया है, वै वास्तव में फ़िज़ूलखर्ची साबित हो रहे हैं; क्योंकि तालाबों और जोहड़ों का विकास इस तरह से किया जा रहा है कि वे देखने में तो अच्छे लगें, लेकिन यह ध्यान नहीं रखा जा रहा है कि बरसात का पानी उन तक वास्तव में पहुंचेगा कैसे। कैचमेंट एरिया पर पहले ही निर्माण कार्य किया जा चुका है या इस तरह से किया जा रहा है कि पानी पहुंच पाना संभव नहीं हो पाएगा।
कहां हैं झीलें, ताल-तलैया और जोहड़
दिल्ली में अब भी इतनी झीलें, ताल-तलैये, पोखर, जोहड़ हैं कि इस शहर को ‘तालाबों और झीलों का शहर’ कहा जा सकता है। यह अलग बात है कि राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजक शहर होने के बावजूद यह पानी पर होने वाले खेलों का आयोजन कर पाने की स्थिति में नहीं है। इसके लिए हमें दूसरे राज्यों से मदद मांगने के लिए मजबूर होना पड़ा। इसका मुख्य कारण है कि हम अपने परंपरागत जल स्रोतों का संरक्षण कर पाने में सफल नहीं रहे। नए जल स्रोतों का विकास तो अभी हमारी सोच तक में नहीं है। इस पुस्तक में दिल्ली को ‘नदियों और झीलों का शहर’ कहा गया है। निश्चय ही यह नामकरण आलोचना और आश्चर्य का विषय हो सकता है। लेकिन वास्तव में ऐसा है। सवाल इस ओर एक नजर डालने का है। कहां हैं दिल्ली की नदियां, झीलें और ताल-तलैया? हमें इस सवाल का जवाब तलाश करने के लिए दिल्ली की भौगोलिक स्थिति पर एक नजर डालनी होगी। रिज और यमुना राजधानी की दो सबसे महत्वपूर्ण प्राकृतिक विशेषताएँ हैं। इन दोनों विशेषताओं के प्रभावों का दिल्ली में पानी की स्थिति के बारे में जानने के लिए समझना बहुत जरूरी है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि दिल्ली की झीलों, नदियों, बांधों, हौज़ों, ताल-तलैया और कुओं तथा पानी के अन्य ज्ञात व अज्ञात स्रोतों पर इन दोनों प्राकृतिक क्षेत्रों को दूरगामी प्रभाव पड़ा है। वास्तविकता यह है कि दिल्ली के पानी के स्रोत इन दोनों प्राकृतिक संरचनाओं से सीधे जुड़े हुए हैं। तो आइए, पहले बात करते हैं दिल्ली के रिज की! रिज का दिल्ली की पानी की व्यवस्था से बहुत सीधा संबंध है। इसलिए दिल्ली में पानी की स्थिति को जानने-समझने के लिए रिज और उसकी स्थिति को समझना बहुत जरूरी है।
डाबर
उत्तर-पश्चिमी और पश्चिमी दिल्ली के एक बड़े इलाके को ‘डाबर’ कहा जाता है। डाबर पहाड़ियों के पश्चिम में स्थित निचली सतह वाला ‘नदीथाला’ यानी बेसिन है। इस प्राकृतिक जलाशय में पहाड़ियों से बहने वाला पानी स्वतः भर जाता है। यह झील दिल्ली में पानी की समस्या के समाधान के लिए कितनी महत्वपूर्ण हो सकती है, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि अच्छी बरसात वाले वर्षों में इस झील में करीब 52 वर्ग किलोमीटर ज़मीन में पानी भर जाया करता था। इसका भराव क्षेत्र लगातार सिकुड़ता जा रहा है। यदि इस पानी को नजफगढ़ नाले के रास्ते नहीं बहने दिया जाए तो यह भराव क्षेत्र और भी बढ़ सकता है। दिल्ली और हरियाणा की सीमा के साथ लगने वाला यह इलाक़ा अपेक्षाकृत नीचा कहा जा सकता है। आमतौर पर बरसात के दिनों में इस इलाके में ‘साहिबी नदी’ का पानी भर जाया करता था। साहिबी नदी का पानी अलवर से गुड़गांव के रास्ते होकर इस झील तक पहुंचा करता थ। बरसात के दिनों में छावला और उसके आस-पास के गाँवों में मीलों दूर तक पानी भरे रहने के दृश्य को देखने वाले लोग आज भी हैं। वे याद करते हैं कि तब बरसात में यह इलाक़ा कितना खूबसूरत और बाद में हरा-भरा दिखा करता था। जैसे-जैसे सर्दी आती थी, इस इलाके में पानी का स्तर कम होता जाता था: क्योंकि नजफगढ़ ड्रेन के जरिए बहकर पानी यमुना की ओर निकलता जाता था। यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि तब नजफगढ़ नाले का नाम ‘नजफगढ़ झील एस्केप’ हुआ करता था। इसे नाला तो दिल्ली के विकास के साथ बना दिया गया है। जिस साल बारिश कम होती थी, उन सालों को छोड़ दिया जाए तो इस झील से पानी की निकासी के बावजूद बहलोलपुर, दाहरी और जौनापुर गाँवों के दक्षिण में हमेशा झील का पानी भरा रहता था ।
यमुना के बाद सबसे बड़ी वाटर बॉडी नजफगढ़ झील
यह ड्रेन अब बरसाती पानी की निकासी की बजाए शहर की गंदगी को बहाने का माध्यम बन चुका है। यह नाला अपने आस-पास रहने वालों के लिए बीमारियों और सड़ांध का एक प्रमुख कारण है। यमुना को मैली करने का यह सबसे बड़ा कारण है। नजफगढ़ ड्रेन की मार्फत झील का अतिरिक्त पानी बहकर यमुना में जाता था। इस झील में भर जाने वाले बरसाती पानी की निकासी के लिए यह ड्रेन पर्याप्त साबित नहीं हो रहा था। पानी की निकासी की यह व्यवस्था होने के बाद भी इस झील के आस-पास के इलाके में पानी भरा रह जाता था। इसलिए एक सप्लीमेंटरी ड्रेन बनाकर इस पानी की निकासी के प्रबंध किए गए। इस तरह से बरसात के पानी को संरक्षित करके उसका उपयोग करने की बजाए उसे नदी में बहाने के नज़रिए से काम किए जाने के बावजूद यह झील आज भी यमुना के बाद दिल्ली की सबसे बड़ी वाटर बॉडी है। एक अनुमान के अनुसार इस झील में करीब 1,000 किलोमीटर के दायरे में होने वाली बरसात का पानी इकट्ठा होता था। 100 साल के अंतर में हमने इस झील को लगभग समाप्त हो जाने दिया है; लेकिन अब इसका जो हिस्सा बचा रह गया है, उसे संरक्षित किए जाने की आवश्यकता है। श्रीनगर की डल झील की चिंता करने वाले तो बहुत हैं, लेकिन दिल्ली की इस विशाल लेक को अपने बचाने वालों की प्रतीक्षा है। नजफगढ़ के नवाब हैं तो हैं, लेकिन अपने आंगन में क्या हो रहा है, इसका पता लगाने के लिए उनके पास समय कहां है? अब इस झील की ज़मीन पर सैकड़ों वैध और अवैध कॉलोनियां बन गई है और उभर रही हैं। दिल्ली और केंद्र की सरकारें इन कॉलोनियों को नियमित करने को बात करके वोट बैंक की राजनीति कर रही हैं; लेकिन इन बस्तियों में पीने के पानी की नियमित आपूर्ति कब और कैसे हो सकेगी, इसकी ओर उनका ध्यान नहीं है। पिछली शताब्दी के सातवें दशक में नियमित घोषित की गई 612 कॉलोनियों में तीन दशक के बाद आज भी पीने के पानी और सीवेज डिस्पोजल की व्यवस्था नहीं हो पाई है। अब जबकि करीब 1,600 कॉलोनियों को नियमित करने की प्रक्रिया चल रही है। देखना यह होगा कि इनमें जन सुविधाएँ क्या इसी शताब्दी में उपलब्ध हो पाएंगी?
बाढ़ नियंत्रण बनाम जल संरक्षण और जल संवर्धन
बाढ़ नियंत्रण की विभिन्न योजनाओं को लागू किए जाने के बाद इस इलाके में बाढ़ की स्थिति में कुछ हद तक नियंत्रण हुआ है। इसका दूसरा पहलू यह है कि बरसाती पानी के इकट्ठा होने के दिल्ली को प्रकृति द्वारा दिए गए वरदान के प्रभाव को लगातार कम किया जाता रहा है। पानी को रोककर सका इस्तेमाल करने की बजाए उसे बहाकर बर्बाद कर देने के इन मानवीय प्रयासों के बावजूद अभी भी नजफगढ़ झील का इलाक़ा इतना बचा हुआ है, जहां पानी भरा देखा जा सकता है। वर्ष 2010 में दिल्ली में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स दौरान इस झील के एक हिस्से में नौका दौड़ जैसे खेलों का आयोजन करने की योजना थी। दिल्ली- हरियाणा सीमा पर धुर तक फैली नजफगढ़ झील राजधानी का सबसे बड़ा ‘लो लाइंग एरिया’ है। तश्तरी की तरह दिखने वाली यह झील 900 वर्ग किलोमीटर से अधिक इलाके में फैली हुई थी। इसका अधिकतर हिस्सा दिल्ली में नजफगढ़ और हरियाणा में गुड़गांव तक फैला हुआ था। गुड़गांव जिले के तालाबों का अतिरिक्त पानी भी इस झील में पहुंच जाया करता था। झील की सामान्य जल से पूर्ण सतह समुद्र-तल से 690 फीट की ऊंचाई पर थी। जब जल सतह तक जमा हो जाता है तो लगभग 7,500 एकड़ में पानी भर जाता था। लेकिन भारी वर्षा के बाद झील अपने पानी का निकास शीघ्रता से नहीं कर पाती थी, क्योंकि नजफगढ़ ड्रेन की क्षमता सीमित थी। इसलिए आस-पास के इलाकों में पानी भर जाया करता था। 19 और 20 जुलाई 1958 को मध्य रात्रि में हुई भारी वर्षा के कारण इस झील का जल-स्तर समुद्र तल से 692.4 फीट तक पहुंच गया था, जिसके फलस्वरूप 14,440 एकड़ ज़मीन में पानी भर गया था। 1912 के गजेटियर में इस बात का उल्लेख मिलता है कि इस झील के कारण एक बार बाढ़ का विस्तार 207 वर्ग किलोमीटर तक हो गया था, लेकिन अब इसका इतना विस्तार नहीं होता। जिस वर्ष बरसात कम होती है, झील सिकुड़ जाती है। अब इस ज़मीन पर नई-नई कॉलोनियां कटती जा रही हैं। तब उसके सिरों पर उपलब्ध ज़मीन में खेती कर पाना संभव हो जाता था। इस झील के पानी को निकालने के लिए ही नजफगढ़ ड्रेन बनाई गई थी।
कितने ताल-तलैये और जोहड़
दिल्ली में कुल मिलाकर करीब 800 जगहें ऐसी हैं, जिनमें कि पानी भरा रहता है। इसमें झीलों, तालाबों, जोहड़ों, ताल-तलैयों को शामिल किया गया है। इनमें प्राकृतिक और मानव निर्मित दोनों ही प्रकार के जल स्रोतों को शामिल किया गया था। दिल्ली सरकार के अपने आंकड़े 500 से भी अधिक जगहों पर झीलों, तालाबों, ताल-तलैयों आदि की पुष्टि करते हैं। दिल्ली सरकार और उसकी एजेंसियों ने अक्तूबर 2001 में दिल्ली की ताल-तलैयों और अन्य उन जगहों का सर्वेक्षण किया था, जिनमें किसी-न-किसी रूप में पानी भरा हुआ था। इस सर्वेक्षण के दौरान शहरी और ग्रामीण दोनों इलाकों के जल स्रोतों को शामिल किया गया था। इस योजना के तहत ‘वाटरबॉडी’ शब्द का इस्तेमाल करके उसके समाज से जुड़ाव को ही समाप्त कर दिया गया। इस सर्वेक्षण के दौरान पाया गया कि उस समय तक राजधानी में 507 जलस्रोत बचे हुए थे। तालाबों और झीलों के परंपरागत नाम उन्हें आस-पास के लोगों से जोड़ते थे। उनके पारिवारिक सामाजिक व सांस्कृतिक संबंधों के प्रतीक थे। वाटरबॉडी बन जाने के बाद उनके परिवार और समाज से संबंधों को जैसे काट दिया गया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि अब इनकी देखभाल और संरक्षण का विचार ही समाप्त होता जा रहा है। एक अनुमान है कि राजधानी के तालाबों में 95 प्रतिशत पानी रह ही नहीं गया है या बरा-ए-नाम ही रह गया है। उनका आकार साल-दर-साल घटता जा रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि इन जल स्रोतों को आज की दिल्लीवालों के साथ हर तरह से जोड़ा जाए, तभी उनके संरक्षण की योजनाएं सफल हो पाएंगी। इन तालाबों और ताल-तलैयों का पानी इस प्रकार का है कि उनके आस-पास रहने वालों के लिए यह एक बड़ी समस्या है तो वे इसे बचाने के लिए क्यों काम करें? उनकी रुचि तो इस बात की है कि इसे किस तरह से समाप्त किया जाए, जिससे उनकी समस्या कम हो।
किसके तालाब और किसकी ताल-तलैयां
दिल्ली में ज़मीन के मालिकाना हक के नज़रिए से देखा जाए तो सबसे ज्यादा तालाब ऐसी ज़मीन पर हैं, जिस पर दिल्ली सरकार का नियंत्रण है। दिल्ली सरकार उसके विकास विभाग और सिंचाई व बाढ़ नियंत्रण विभाग के अधीन आने वाली ज़मीन पर कुल मिलकार 370 तालाब पाए गए। दिल्ली नगर निगम के अधीन आने वाली ज़मीन पर 11 तालाबों का पता चला है। डी.डी.ए. के नियंत्रण वाली ज़मीन पर 67 तालाब हैं। केंद्र सरकार क तहत काम करने वाली सी.पी.डब्ल्यू.डी. के अधीन 6 तालाब आते हैं। 8 अन्य तालाबों की ज़िम्मेदारी दिल्ली जल बोर्ड, रेलवे, जे.एन.यू. और उत्तर प्रदेश सरकार के सिंचाई विभाग की है। यहां यह जानना जरूरी है कि अभी भी केंद्र-शासित प्रदेश दिल्ली में बहुत सी ज़मीन ऐसी है जिस पर उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब सहित अन्य राज्यों का नियंत्रण है। इसलिए तालाब उत्तर प्रदेश सरकार के अधीन आने वाली ज़मीन पर होने से कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। क्षेत्रफल की दृष्टि से देखा जाए तो दिल्ली का सबसे बड़ा तालाब पालम में है, जो 30,000 वर्गमीटर ज़मीन पर फैला हुआ नापा गया है। पालम में ही ‘दादाजी के हौज़’ के नाम से पहचाने जाने वाले तालाब का क्षेत्रफल 15,400 वर्गमीटर आंका गया है। इसी प्रकार कापसहेड़ा में बने तालाब का क्षेत्रफल 22,720 वर्गमीटर पाया गया है। इस सर्वेक्षण के दौरान धिचाऊं कलां में बने एक तालाब का क्षेत्रफल करीब 18,000 वर्गमीटर पाया गया। नजफगढ़ झील का क्षेत्रफल साल-दर-साल कम होता जा रहा है। इसके बावजूद इस सर्वेक्षण के दौरान इस झील का क्षेत्रफल 18,000 वर्गमीटर आंका गया।सबसे ज्यादा तालाब नजफगढ़ क्षेत्र में
इस अध्ययन के दौरान इस बात की जानकारी सामने आई कि नजफगढ़ ब्लॉक में सबसे ज्यादा 218 तालाब हैं। इस इलाके में द्वारका उपनगर और नया अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट बनाए जाने के बाद से आबादी सबसे तेजी से बढ़ रही है। आने वाले समय में इस क्षेत्र का और भी तेजी से विकास होने जा रहा है। इस क्षेत्र में आज भी पानी की आपूर्ति एक बड़ी समस्या है। आने वाले समय में स्थिति के और बिगड़ने की आशा है, क्योंकि अभी तक यह तय नहीं हो पाया है कि इस आबादी के लिए पानी कहां से लाया जाएगा? वर्तमान स्थिति को देखते हुए कहा जा सकता है कि इस इलाके में पानी की मांग की आपूर्ति करने के लिए ज़मीन के अंदर के ही पानी का इस्तेमाल किए जाने की मजबूरी होगी। इस इलाके का पानी पहले ही खारा और कसैला है। इस इलाके में ज़मीन के अंदर पानी का स्तर लगातार गिरता जा जा रहा है। यदि इसे रिचार्ज करने के लिए बड़े पैमाने पर काम नहीं किया गया तो वह दिन बहुत दूर नहीं है, जब यहां से ज़मीन के अंदर से पानी निकाल पाना संभव ही नहीं रह जाएगा। इस स्थिति से निपटने में इस क्षेत्र की नजफगढ़ झील और इन तालाबों की महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी। इसलिए इन्हें विकास के दौर में संरक्षित किए जाने की नितांत आवश्यकता है। यह वह इलाक़ा भी है, जहां पिछले एक दशक में दिल्ली की सबसे ज्यादा अवैध कॉलोनियों का निर्माण हुआ है। अब इन कॉलोनियों को नियमित करने की कार्यवाही की जा रही है। इन बस्तियों में पीने के पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए अब तक कोई ठोस योजना तक तैयार नहीं की जा सकी है। दिल्ली जल बोर्ड और डी.डी.ए. दोनों पानी की आपूर्ति के लिए एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराकर अपना पल्ला झाड़ चुके हैं। नजफगढ़ ब्लॉक के बाद तालाबों की संख्या के आधार पर कंझावला बल्कि का नंबर आता है। यहां पर 104 तालाब होने की पुष्टि की गई है। अलीपुर ब्लॉक में 75 और महरौली ब्लॉक में 43 तालाब होने के आंकड़े मिले हैं। सिटी ब्लॉक में 28 और यमुनापार के शाहदरा ब्लॉक में इस सर्वेक्षण के दौरान 28 तालाबों का पता चला था।
यमुना पार के ताल-तलैये और झीलें
पूर्वी दिल्ली में शाहदरा ब्लॉक के तहत आने वाली संजय गांधी झील का दायरा 1,70,000 वर्गमीटर से भी अधिक है। बिहारीपुर में 22,000 वर्गमीटर में फैला हुआ एक तालाब पाया गया। पूर्वी दिल्ली में पुराने जमाने में बावड़ियां बनाए जाने का उल्लेख मिलता है, लेकिन अब उनमें से एक का भी पता नहीं चल पाता है। झील के नाम से एक पूरा इलाक़ा बसा हुआ है, लेकिन वहां पर अब झील जैसा कुछ नहीं दिखता। अब तो झील का नाम ही रह गया है। शायद कभी यहां कहीं पर झील रही हो। भौगोलिक दृष्टि से यह पूरा-का-पूरा इलाक़ा यमुना और हिंडन नदियों का रिवर बेड है। इस इलाके में बाढ़ आने का सिलसिला बहुत पुराना नहीं है। पिछली शताब्दी के सातवें, आठवें और नौवें दशक तक इस इलाके में अक्सर बरसाती पानी भर जाता था। दिल्ली सरकार के रिकॉर्ड बताते हैं कि ऐसा भी हुआ है कि हिंडन और यमुना का पानी कई बार बाढ़ के दौरान मिल जाता था। ‘झील’ कहे जाने वाले इलाके में अक्सर पानी भरा रहा करता था और धान की खेती की जा सकती थी। संजय झील का आकार साल-दर-साल वास्तव में कम होता जा रहा है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि यहां भी पानी का स्तर गिर रहा है और कुएँ सूखते जा रहे हैं। इस झील के संरक्षण के लिए स्थानीय निवासियों और स्कूली बच्चों ने पहल की है, लेकिन उसके लिए बहुत कुछ किए जाने की आवश्यकता है। अनेक नामी-गिरामी कहे जाने वाले कुएँ तो अब मिलते तक नहीं हैं। कृष्णा नगर में लाल कुआं नाम की एक जगह तो है, लेकिन कुआं कहां हैं, इसके जानने वाले कुछ ही मिलते हैं। अधिकतर लोग लाल कुआं के बारे में पूछने पर इसी नाम की एक बस्ती का ठिकाना बता देते हैं। यही स्थिति तुगलकाबाद से होकर फरीदाबाद की ओर आने वाली सड़क के आस-पास की है। यहां पर भी लाल कुआं के नाम पर एक मोड़ और बस्ती की पहचान की जाती है, लेकिन जिस लाल कुएं के नाम पर इस इलाके का नाम पड़ गया है, वह कहां है, अब शायद ही कोई जानता हो। आज की पुरानी दिल्ली में भी एक इलाके का नाम लाल कुआं हैं, जहां कभी किन्नरों की बस्ती हुआ करती थी; लेकिन यह कुआं भी बस नाम का ही रह गया है।
दक्षिणी दिल्ली के तालाब
हौज़ खास का दायरा 80,000 वर्गमीटर का है। योगमाया के मंदिर के पास के तालाब को तो अब तालाब कहना ही ठीक नहीं होगा क्योंकि उसकी ज़मीन पर कब्ज़ा करके निर्माण किए जा चुके हैं। मादीपुर पार्क में बनी झील ही 25,000 वर्गमीटर में फैली हुई है। जहांगीरपुरी मार्श यानी जहां अक्सर भरा रहता है, में 7,40,000 वर्गमीटर में पानी भरा पाया गया तो भलस्वां जहांगीर पुरी में 8,000 वर्गमीटर में पानी वाला तालाब मिला। धौला कुआं के पास एक तालाब में 15,000 वर्गमीटर दायरे का तालाब देखा गया। रिंग रोड पर नारायणा के पास मायापुरी तालाब 20,000 वर्गमीटर के दायरे में दिखाई दिया। हालांकि गंदगी-कूड़ा और मलबा भरते जाने के कारण अब इसकी लंबाई-चौड़ाई दिनोंदिन कम होती जा रही हैं। यही हालत रही तो एफ.सी.आई. गोदाम के पास रिंग रोड के किनारे एक तालाब होता तो था, जैसी स्थिति आने में अब ज्यादा दिन नहीं लगेंगे। तिहाड़ झील 10,000 वर्गमीटर में फैली है तो मॉडल टाउन की नैनी झील 21,000 वर्गमीटर के दायरे में थी, लेकिन अब यह सिमटती जा रही है। खिड़की के पास सतपुला में 1,500 वर्गमीटर में पानी भरा रहता है। इस पानी को बेहद पवित्र माना जाता था और नवजात शिशु को ले जाकर स्नान कराया जाता था। ऐसा माना जाता था कि इसमें स्नान करने वालों को किसी प्रकार की बीमारी नहीं होगी। अब तो पुल ही नाम का रह गया है। यहां साफ पानी की बजाय सीवेज का गंदा पानी बहता है, जिसमें नहाने का कोई सवाल ही नहीं उठता। सैकड़ों साल पुराने इस ऐतिहासिक पुल का तो संरक्षण दिल्ली की हैरिटेज के लिए जरूरी है। इसके अलावा विजय घाट, शांति वन, पुराना किला, इंदिरा गांधी स्टेडियम के पास दिल्ली सरकार के मुख्यालय ‘प्लेयर्स बिल्डिंग’ में खासी बड़ी झीलें हैं। ‘प्लेयर्स बिल्डिंग’ की झील में बत्तखें तो तैरती दिखाई देती हैं, लेकिन इस झील में उलटी पड़ी नाव जल संरक्षण और संवर्धन के प्रति हमारी सोच की कहानी कहती लगती है।
पश्चिमी दिल्ली के तालाब, जहां आज भी पानी बचाना संभव
कंझावाला ब्लॉक के रानी खेड़ा, गढ़ी रिठालां, सओधा, सुल्तानपुर-डबास और किराड़ी सुलेमान नगर में बने तालाबों का क्षेत्रफल 10 से 15,000 वर्गमीटर के बीच गया। इस ब्लॉक के तहत आने वाली ज़मीन के शहरीकरण के बाद बसे अवंतिका, रोहिणी, रिठाला और पश्चिम विहार में 15,000 से 20,000 वर्गमीटर के आकार के तालाब हैं। अलीपुर ब्लॉक के सन्नोठ, भलस्वां, शाहाबाद डेरी सहित अनेक इलाकों में 15,000 वर्गमीटर से अधिक के तालाब पाए गए। इस ब्लॉक के धीरपुर में तो एक तालाब का क्षेत्रफल 50,000 वर्गमीटर से भी अधिक का पाया गया। महरौली ब्लॉक के तहत आने वाले बहुचर्चित सैनिक फार्म में तो एक तालाब का आकार 1,00,000 वर्गमीटर का मिला। इसी क्षेत्र के लाल कुआं में 25,000 वर्गमीटर का तालाब है, जबकि ऐतिहासिक हौज़ शम्शी का आकार 20,000 वर्गमीटर से अधिक का आंका गया है। जे.एन.यू. और आई.आई.टी. के अंदर दस से 15,000 वर्गमीटर में फैले तालाब देखे जा सकते हैं। श्याम नगर झील का दायरा 21,000 वर्गमीटर का है जबकि ‘नेशनल साइंस फोरम’ के पास बने तालाब का आकार 10,000 वर्गमीटर से भी अधिक का नापा गया। ये तालाब साल-दल-साल छोटे तो होते जा ही रहे हैं, साथ ही वे अपनी उपयोगिता भी खोते जा रहे हैं। इसका कारण यह है कि इनमें बरसाती पानी इकट्ठा होने के कैचमेंट एरिया में निर्माण कार्य का होते जाना। दिल्ली में सरकारी और शामिलात की ज़मीन पर अवैध कब्जा करके कॉलोनाइजेशन एक नियोजित उद्योग और व्यापार बन चुका है। गाहे-बगाहे अदालती आदेशों पर इनके खिलाफ कार्रवाई की रस्म-अदायगी की जाती है और फिर बात आई-गई हो जाती है और फिर निर्माण कार्य शुरू हो जाते हैं और उनके संरक्षण के लिए केंद्र और दिल्ली सरकार नियम-कानून बनाती है। इस प्रकार एक और इनके रोकने के लिए कार्रवाई की जाती है और दूसरी ओर उन्हें संरक्षण दिया जाता है।
ज़मीन के मालिकाना हक के रिकार्ड में खामियां
इस सर्वेक्षण के दौरान इस बात का भी हिसाब-किताब तैयार किया गया था किस जल स्रोत का मालिकाना हक किस सरकारी संगठन के नियंत्रण में है। ऐसा किया जाना इसलिए जरूरी समझा गया था, जिससे कि इस बात को साफ किया जा सके कि किसके रख-रखाव और संरक्षण की ज़िम्मेदारी किस संगठन की है। दिल्ली में ज़मीन के मालिकाना हक के बारे में रिकॉर्ड में साफ जानकारी नहीं होने के कारण बड़े कारण बड़े पैमाने पर सरकारी ज़मीन पर अवैध कब्ज़े कर लिए गए हैं। उनमें कॉलोनियां बसा दी गई हैं या अन्य प्रकार के निर्माण हो गए हैं। ज़मीन के मालिकाना हक की पुख्ता और स्पष्ट व्यवस्था नहीं होने के कारण सरकारी एजेंसियों के अधिकारी इस ज़िम्मेदारी से अपने आपको साफ बचा जाते रहे हैं। इस दौरान इस बात की भी नाप-जोख की गई थी कि हर जल स्रोत कुल कितनी ज़मीन पर है और उसमें कितनी ज़मीन पर पानी भरा हुआ है। इस सर्वेक्षण के दौरान पता चला कि दिल्ली के ग्रामीण इलाकों में अभी भी 192 ऐसे तालाब हैं, जिनका क्षेत्रफल 4,000 वर्गमीटर से कम है। 186 ऐसे तालाबों का पता चला है जिनका कि क्षेत्रफल 4,000 से 10,000 वर्गमीटर पाया गया। 84 तालाब तो ऐसे पाए गए, जिनका आकार 10,000 वर्ग मीटर से भी अधिक था। 46 ऐसे तालाब पाए गए, जिनमें उस समय पानी नहीं था। दिल्ली सरकार ने इन तालाबों की ज़मीन को विकास की योजनाओं को लागू करने के लिए अधिग्रहण किए जाने की प्रक्रिया चला रही थी। दिल्ली सरकार अब सभी प्रकार के रिकॉर्ड डिजिटल रखने की एक योजना पर काम कर रही है। इसके तहत उपग्रहों से दिल्ली के विभिन्न प्रकार की तसवीरें लेकर उनका विश्लेषण और उपयोग करने की व्यवस्था की जा रही है। लेकिन रिकॉर्ड रखने से कुछ खास होने वाला नहीं है। इन प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की जिनकी ज़िम्मेदारी है, उन्हें कर्तव्यबोध होना चाहिए और निजी लाभ की बजाय आज और आनेवाले कल के जनहित के आधार पर इनके संरक्षण के लिए काम करना चाहिए।
जिसकी ज़मीन वही जल संरक्षक
इस बैठक में यह भी तय किया गया कि जिस सरकारी संगठन की ज़मीन पर वाटर बॉडी है, उसके संरक्षण का काम वही संगठन करेगा। वाटर बॉडी के संरक्षण का अर्थ यह होगा कि उसके कैचमेंट एरिया को संरक्षित रखा जाएगा। वाटर बॉडी का कैचमेंट एरिया उसे कहा जाता है, जिस सारे क्षेत्र का बरसाती पानी उस ताल-तलैया, पोखर, जोहड़ आदि में आकर इकट्ठा होता है। इस वाटर बॉडी के किनारों और उसके आस-पास की ज़मीन को हरा-भरा करना भी संरक्षण के दायरे में लाया गया। वाटर बॉडी के पानी की किस्म को वर्तमान स्तर पर बनाए रखने और उसमें सुधार लाने के लिए कदम उठाए जाएंगे। वाटर बॉडीज को आस-पास की नहर या बरसाती पानी की निकासी के नालों से जोड़ने की संभावनाओं का पता लगाया जाएगा, जिससे कि वाटर बॉडी में पानी का स्तर बढ़ाया जा सके। इनमें से अधिकतर फैसले वास्तव में कागज़ों और फाइलों में उलझे हुए हैं। जहां उन्हें लागू किया गया है, वै वास्तव में फ़िज़ूलखर्ची साबित हो रहे हैं; क्योंकि तालाबों और जोहड़ों का विकास इस तरह से किया जा रहा है कि वे देखने में तो अच्छे लगें, लेकिन यह ध्यान नहीं रखा जा रहा है कि बरसात का पानी उन तक वास्तव में पहुंचेगा कैसे। कैचमेंट एरिया पर पहले ही निर्माण कार्य किया जा चुका है या इस तरह से किया जा रहा है कि पानी पहुंच पाना संभव नहीं हो पाएगा।
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