झील में झांकता मिथक

हिमाचल सुरम्य झीलों, नयनाभिराम पर्वतों-जंगलों और मंदिरों-मेलों का प्रदेश है। यहां के सिरमौर में रेणुका झील की सुंदरता निहारते बनती है। इस झील के किनारे बने मंदिरों और वहां हर साल लगने वाले मेले के जरिए हिमाचली लोक-संस्कृति की झलक मिलती है। वहां से लौट कर इस बारे में बता रही हैं जगन सिंह।

रेणुका झील परशुराम सरोवर के निकट ही है, पर वहां से दिखाई नहीं देती। झील के रास्ते में एक छोटी-सी लड़की भीगे चने और आटे की गोलिया बेच रही थी। हमने उससे कुछ चने और आटे की गोलियां खरीद कर सीढ़ियां ऊतरे और पानी से दो सीढ़िया ऊपर बैठ गए। सुरक्षा की दृष्टि से झील के किनारे तीन फुट ऊंची दीवार बनाई गई है। दीवार के साथ-साथ सड़क है। इस ओर दीवार के साथ कुछ ‘पैडल बोट’ बंधी हुई हैं। यहां यात्री आमतौर पर मेले के अवसर पर आते हैं। हिमाचल प्रदेश के सिरमौर क्षेत्र में स्थित रेणुका झील को स्थानीय लोग माता रेणुका का प्रतीक मान कर पूजते हैं। रेणुका हिमाचल प्रदेश की सबसे बड़ी प्राकृतिक झील है। यह बीस हेक्टेयर में फैली हुई है। इसकी चौड़ाई अधिक नहीं है, पर लंबाई इतनी अधिक है कि दूसरा किनारा दिखाई नहीं देता। जहां तक नजर जाती है, सुरमई नीला जल दिखाई देता है। लोक-मान्यता है कि ऋषिद जमदग्नि की पत्नी और परशुराम की माता रेणुका मृत्यु के बाद जल स्वरूप होकर झील बन गई थीं। इसलिए झील का आकार नारी शरीर की तरह है। श्रद्धालुओं को बताया जाता है कि परशुराम सरोवर की दिशा में माता रेणुका का सिर है, दूसरी ओर चरण हैं। पर मुझे वैसा कुछ दिखाई नहीं दिया। हां, झील बहुत सुंदर है। दो पहाड़ों के बीच में लेटी हुई विशाल झील के साथ आश्रमों की बड़ी-बड़ी इमारतें हैं दोनों ओर के पहाड़ों पर घना जंगल है। शांत और सुरम्य वातावरण मनमोहक है।

हम शिमला से सोलन होते हुए कुमारहट्टी आए और यहां से पहाड़ के पीछे नाहन रोड पर हो लिए। सोलन कुमारहट्टी बाइपास बनने के बाद कुमारहट्टी के तिराहे पर बड़ी-बड़ी इमारतें बन गई हैं और टैक्सियों का जमघट लगा रहता है। पहले नाहन रोड पर सूर्यास्त के बाद सन्नाटा हुआ करता था। कुमारहट्टी से रेणुका की दूरी अट्ठानबे किलोमीटर है। तिराहे से दस मिनट के अंतराल पर बस्ती खत्म हो गई। अब दाईं ओर पहाड़ी पर चीड़ का जंगल था, फिर सड़क के नीचे चीड़ के असंख्य पेड़ कतार बांधे खाई में उतर रहे थे। सड़क के किनारे दाईं ओर बोर्ड पर भोजपुर लिखा हुआ दिखाई दिया, पर बस्ती कहीं दिखाई नहीं दी। आगे भी यही हाल था। सड़क किनारे गांवों से सिर्फ नामपट्ट लगे हुए थे। गांव शायद नीचे कहीं थे।

नैना टिक्कड़ में सड़क के किनारे बस पड़ाव और एक चाय की दुकान दिखी। पहली बार कुछ लोग भी दिखे, पर बस्ती दिखाई नहीं दी। चीड़ के नयनाभिराम जंगल, सूनी सड़क और मस्त मौसम फर्राटे भरते सराहां पहुंचे। सराहां (पच्छाद) की बस्ती टेकड़ी के ऊपर थी। नीचे बस अड्डा था। एक पतली-सी सड़क ऊपर जा रही थी। उसी के सहारे ऊपर गए। पहले सीनियर सेकेंड्री स्कूल, फिर डाकबंगला, थाना, तहसील ऑफिस, बाजार और बस्ती। बाजार में एक तालाब था। उसके साथ खुली जगह थी। हलवाई की एक बड़ी-सी दुकान में चाय पी। पैदल बाजार का चक्कर लगाया। हर ओर चेहरे पर मैत्री भाव लिए हुए लोग थे।

सराहां से छब्बीस किलोमीटर आगे बनेठी में हमे रुकना था। सड़क के साथ एक ऊंची टेकड़ी पर, चीड़ के घने जंगल के किनारे वन विभाग का डाकबंगला था। बनेठी से रेणुका तक पैंतीस किलोमीटर की लगातार उतराई है। तीखी उतराई पर आठ किलोमीटर आगे दो सड़के हैं, जहां से रेणुका के लिए सड़क अलग होती है। रेणुका रोड पर उतराई धीमी थी। घरों के दो-तीन समूह पार करने के बाद सन्नाटा गहरा हो गया। अब जंगल था, पहाड़ थे, कम गहरी खाइयां थीं और हम इतराते हुए चल रहे थे जैसे सड़क सिर्फ हमारे लिए बनाई गई हो। शायद इसी भावना के वशीभूत होकर ट्रकचालक अपने वाहन के पीछे लिखवा लेते हैं- रोड का राजा।

चालीस मिनट के बाद सामने से दो पिकअप आती हुई दिखीं। थोड़ा आगे सड़क की दाईं ओर एक झरना, विशाल लाल चट्टानों से उलझता, नीचे आता दिखाई दिया। सड़क के दूसरी ओर रेन शेल्टर था, जिस पर उस स्थान का नाम लिखा हुआ था- बड़ोलिया। नीचे नदी का चौड़ा पाट था, जिसमें चट्टानें गिरी हुई थीं। नदी की धारा कहीं दिखाई नहीं दे रही थी। झरने का पानी भी जाने कहां अलोप हो जा रहा था। मैं झरने के उत्स की तलाश में ऊपर देख रही थी कि नीचे की तरफ आते एक साधु दिखाई दिए।

जब वे नीचे आए तो मैंने पूछा, ‘महात्मा जी, यहां कोई नदी है?’
‘हां है, गिरि नदी।’
‘दिखाई नहीं दे रही।’
‘पुल पार करेंगे तो दिखाई देगी।’ कह कर वे आगे बढ़ गए।

पुल के दूसरे छोर पर वह दिखी। लगा कि सोलन से राजगढ़ जाते समय जिस गिरि नदी को देखा था, उसमें इससे अधिक जल था। अक्टूबर का अतिंम सप्ताह था। आकाश में घने बादल थे, फिर भी गरमी बहुत थी। हमारे आसपास अब ऊष्ण कटिबंधीय पेड़ और झाड़ियां थीं- कचनार, बकायन, शीशम, नीला गुलमुहर, कढ़ीपत्ता, बॉटल ब्रश, यहां तक की ढांक भी। गरम पहाड़ के वृक्ष टुन्नी और बिहुल भी थे। ददाहू पहुंचने तक धूप निकल आईं। रात ददाहू के डाकबंगले में बिताई थी।

ददाहू गिरि नदी के दाए किनार पर बसा है। यह रेणुका की उप-तहसील है। गिरी नदी का पाट यहां काफी चौड़ा है- एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ तक। गांव की बस्ती काफी है। तीन किलोमीटर के फासले पर वशिष्ठ आश्रम है। शिरुमाइला गांव में सरकारी फल संतति एवं प्रदर्शन उद्यान है।

रात में हल्की बूंदाबांदी हुई थी। सुबह आसमान में बादल थे। हम पूरी तैयारी के साथ रेणुका की ओर चल पड़े। ददाहू से रेणुका की दूरी दो किलोमीटर है। घने जंगलों की शोभा निहारते हुए चल रहे थे। रेणुका पहुंचे। गांव के बीच से निकल कर परशुराम ताल आए। ताल के किनारे मंदिर है। और उसके साथ लगी हुई पार्किंग।

परशुराम विष्णु के दश अवतारों में से छठे अवतार माने जाते हैं। सिरमौर में उनकी भूमिका ग्राम देवता की है। वे मोक्ष प्रदान करने वाले देवता नहीं, बल्कि लोगों के सुख-दुख में भाग लेने वाले रक्षक और समृद्धि प्रदान करने वाले हैं। यहां परशुराम की कथा में विष्णु कहीं नहीं आते।

रेणुका में चार मंदिर हैं- परशुराम मंदिर, परशु रामेश्वर मंदिर, माता रेणुका मंदिर और दशावतार मंदिर। दशावतार मंदिर बाद का है। रेणुका मंदिर मे देवी की तीन प्रतिमाएं तीन रूपों को दर्शाती हैं। बीच में लाल साड़ी पहने माता रेणुका के सिर पर मुकुट है। उनके एक ओर राजकुमारी रेणुका और दूसरी ओर साध्वी रेणुका की।

परशुराम मंदिर में शिवपूजा में लीन परशुराम की सुंदर प्रतिमा है। शिवलिंग पंचमुखी है और उस पर नाग लिपटा हुआ है। दाईं ओर नंदी विराजमान हैं। प्राचीन परशुराम मंदिर में दर्शन को गए। घंटे की आवाज सुनी तो पुजारी जी आ गए। उन्होंने परशुराम और रेणुका माता के बारे में स्थानीय रंग में रंगी अनेक कहानियां सुनाईं।

परशुराम मंदिर और दशावतार मंदिर के बीच में एक चट्टान है। कहा जाता है कि परशुराम ने बाल्यकाल में उस पर बैठ कर तपस्या की थी। चट्टान के पास हवनकुंड है। पास में त्रिशूल जमीन में गड़ा हुआ है, उस पर एक छोटा-सा धनुष टंगा हुआ है।

रेणुका झील परशुराम सरोवर के निकट ही है, पर वहां से दिखाई नहीं देती। झील के रास्ते में एक छोटी-सी लड़की भीगे चने और आटे की गोलिया बेच रही थी। हमने उससे कुछ चने और आटे की गोलियां खरीद कर सीढ़ियां ऊतरे और पानी से दो सीढ़िया ऊपर बैठ गए। सुरक्षा की दृष्टि से झील के किनारे तीन फुट ऊंची दीवार बनाई गई है। दीवार के साथ-साथ सड़क है। इस ओर दीवार के साथ कुछ ‘पैडल बोट’ बंधी हुई हैं। यहां यात्री आमतौर पर मेले के अवसर पर आते हैं। इसलिए इन दिनों यहां कम ही लोग दिखाई दे रहे थे। हमने पानी में आटे की गोलियां फेंकी तो मछलियां उछल-कूद करने लगीं।

रेणुका झील के किनारे दो आश्रम हैं- आदि उदासीन बड़ा अखाड़ा निर्वाण आश्रम और स्वामी दयानंद भारती द्वारा स्थापित दशनाम संन्यास आश्रम। ये आश्रम संस्कृत विद्यालय भी चलाते हैं। आश्रम और निर्जन स्थान एक-दूसरे के पूरक मालूम होते हैं। झील के साथ वाले पहाड़ पर अभ्यारण्य बनाया गया है, जहां पशु-पक्षी निर्भय विचरण करते हैं। नवंबर के महीने में रेणुका झील के किनारे सिरमौर का सबसे बड़ा मेला लगता है। उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब से भी लोग मेला देखने आते हैं।

रेणुका का विकास बोर्ड मेले का प्रबंध करता है। मेला शुरू होने से कई दिन पहले दुकानदारों को अस्थाई स्टाल लगाने के लिए स्थान आबंटित कर दिया जाता है। सिरमौर के मेले में देवी-देवताओं को आने के लिए निमंत्रण-पत्र भेजा जाता है। परशुराम समेत सारे देवी-देवता पालकियों में बैठ कर बाजे-गाजे और झंडे के साथ आते हैं सबसे अधिक सम्मान जंबू के परशुराम को मिलता है। दिवाली के बाद दशमी के दिन उसके नेतृत्व में शोभायात्रा निकाली जाती है।

लोक मान्यता है कि दशमी के दिन परशुराम माता रेणुका के दर्शन करने आते हैं और डेढ़ दिन ठहरते हैं। मेले में आए श्रद्धालु और दुकानदार चढ़ावा चढ़ाते हैं। दुकानदार अपने सामान में से भी कुछ वस्तुएं देवता को भेंटश्वरूप चढ़ाते हैं। रात को नाच-गाना और सरकार द्वारा प्रायोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। इस मेले में अदरक, सोंठ, हल्दी, लकड़ी के बर्तन, खेती के औजार, बीज, रंग-बिरंगे कपड़े, नकली आभूषण, श्रृंगार सामग्री बहुत बिकती है। तीसरे दिन मेला बिखर जाता है।

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