झील में डूबा अतीत, भविष्य अधर में

टिहरी झील
टिहरी झील

यूं तो नदियों के किनारे मानव सभ्यता जन्मी है, लेकिन टिहरी झील एक पूरी मानव सभ्यता को डुबो कर अस्तित्व में आई है। पानी के किनारे बसे लोगों को जीने के लिए, आजीविका के लिए, कहीं और जाने की जरूरत नहीं होती। लेकिन टिहरी झील के किनारे बसे सैकड़ों गांव के लोग कहते हैं कि हमें तो काला पानी की सजा हो गई है। उनके आजीविका के साधन नष्ट हो गए, खेत डूब गए, जंगल उजड़ गए। पशुओं को चारा तक उपलब्ध कराना मुश्किल है। वे विकास की प्रतीक उस झील को देखते हैं, जिसमें उनका अतीत नष्ट हो गया और वर्तमान खाली रह गया है।

बरसात के दिनों में जब मौसम खराब होता है, नाव के जरिए झील को पार करना डरावना है। एक पहाड़ उतरकर नाव तक पहुंचना होता है, फिर दूसरी ओर पहाड़ की चढ़ाई करनी होती है। बरसात में अस स्थिति की कल्पना कीजिए। इसीलिए गांव की महिलाएं एक सुर में कहती हैं जब से झील बनी, हमें तो काला पानी की सजा हो गई। ग्राम प्रधान दार्वी देवी के पति धनपाल सिंह बिष्ट कहते हैं कि जब लहरें चलती हैं तो नाव डगमगा जाती है। हमारी जान पर बन आती है। वैकल्पिक व्यवस्था के तौर पर इन गांवों को सड़क मार्ग से जोड़ने के लिए झूला पुल बनाया जाना था। लेकिन 15 वर्ष से अधिक समय गुजर गया, झूला पुल का निर्माण कार्य शुरू भी नहीं हुआ।

रौलाकोट तक पहुंचने के लिए नाव का सफर

टिहरी झील के चारों ओर बसे गांव की स्थिति को समझने के लिए मैं रौलाकोट गांव पहुंची। रौलाकोट के चार-पांच परिवारों को छोड़कर पूरे गांव को ही विस्थापित होना है। वर्ष 2000 में जब झील भरनी शुरू हुई थी, रौलाकोट गांव के घरों में दरारें आने लगीं। भू-धसांव के चलते यहां के अधिकांश घरों में दरारें हैं। जियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया ने अपनी सर्वेक्षण रिपोर्ट में पूरे गांव को विस्थापित करने की बात कही थी। तब से अब तक ये गांव विस्थापित नहीं हुआ है। 15 वर्षों से अधिक समय से ये गांव विस्थापन का इंतजार कर रहा है

पुरानी टिहरी तक का सफर तय करने के बाद, रौलाकोट गांव पहुंचने के लिए मुझे नाव से टिहरी झील पार करनी पड़ी। झील के पास ऐसे कई गांव हैं जहां पहुंचने के लिए दो विकल्प हैं। एक तो नाव के जरिए झील पार करना। दूसरा, कई घंटों का उल्टा सफर तय कर गांव तक पहुंचना। जैसे कि यहां के लोग कहते हैं कि झील ने दो घंटे का रास्ता दस घंटे का कर दिया। नाव से आने-जाने का वक्त मुकर्रर है। सुबह, दोपहर और शाम, दिन में तीन बार नाव झील में फेरी लगाती है। अब यदि रात में इन गांवों में किसी की तबीयत बिगड़ जाए या किसी गर्भवती महिला को प्रसव पीड़ा शुरू हो जाए तो उसे नाव के लिए सुबह तक का इंतजार करना पड़ेगा।  रौलाकोट गांव की बुजुर्ग महिला शांति देवी कहती हैं कि गांव में कई मौतें इलाज में देरी के कारण भी हुई हैं।

15 वर्ष बीते नहीं बना झूला पुल

बरसात के दिनों में जब मौसम खराब होता है, नाव के जरिए झील को पार करना डरावना है। एक पहाड़ उतरकर नाव तक पहुंचना होता है, फिर दूसरी ओर पहाड़ की चढ़ाई करनी होती है। बरसात में अस स्थिति की कल्पना कीजिए। इसीलिए गांव की महिलाएं एक सुर में कहती हैं जब से झील बनी, हमें तो काला पानी की सजा हो गई। ग्राम प्रधान दार्वी देवी के पति धनपाल सिंह बिष्ट कहते हैं कि जब लहरें चलती हैं तो नाव डगमगा जाती है। हमारी जान पर बन आती है। वैकल्पिक व्यवस्था के तौर पर इन गांवों को सड़क मार्ग से जोड़ने के लिए झूला पुल बनाया जाना था। लेकिन 15 वर्ष से अधिक समय गुजर गया, झूला पुल का निर्माण कार्य शुरू भी नहीं हुआ। 

गांव की प्रधान दार्वी देवी कहती हैं कि हम हड़ताल करके थक गए, नई टिहरी के चक्कर लगा लगाकर थक गए। नई टिहरी में बने पुनर्वास निदेशालय से हमें यही जवाब मिलता है कि जमीन की कोई व्यवस्था नहीं हो पाई है।

 झील ने छीनी ग्रामीणों की आजीविका

विस्थापन को लेकर लंबी लड़ाई लड़ रहे टिहरी भूमि विस्थापन संगठन के संरक्षक महिपाल सिंह नेगी कहते हैं कि टिहरी झील ने गांवों के लोगों की आजीविका भी छीन ली है। उनके खेत झील में डूब गए हैं। उनके बाजार झील में डूब गए हैं। जंगल नहीं बचे, तो पशुपालन मुश्किल है। इन गांवों के लोग बस किसी तरह समय काट रहे हैं। उनके पास करने के लिए कोई काम भी नहीं बचा। जब हम रौलाकोट गांव में थे, तो वहां की कुछ महिलाएं मनरेगा के तहत पत्थर तोड़ने के काम में लगी हुई थीं।

 42 वर्ग किलोमीटर के दायरे में बनी टिहरी झील का जलस्तर वर्ष 2010 में आरएल 830 मीटर से अधिक बढ़ने पर झील से लगे गांवों में भू-धंसाव शुरू हुआ। उसके बाद जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की टीम ने क्षेत्र का निरीक्षण किया। जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने भिलंगना और भागीरथी घाटी के किनारे बसे 45 गांवों का निरीक्षण किया और 17 गांवों के 415 परिवारों के विस्थापन की संस्तुति की। जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने अपने अध्ययन में ये भी कहा कि झील का जलस्तर बढ़ने पर इन क्षेत्रों पर दबाव बढ़ेगा और पहाड़ियां अस्थिर होंगी, जिससे भू-स्खलन का खतरा बढ़ेगा। 

उत्तराखंड सरकार ने इन परिवारों को हरिद्वार, ऋषिकेश और देहरादून के पास बसाने का फैसला किया। जबकि टीएचडीसी का मानना था कि उन परिवारों को टिहरी में बसाया जाना जाना चाहिए। टीएचडीसी मानती है कि हरिद्वार या देहरादून में पुनर्वास के लिए 10 से 15 फीसदी तक अधिक लागत अधिक आयेगी। आएगी

 टीएचडीसी ने अध्यादेश को दी चुनौती

टिहरी से विधायक धन सिंह नेगी बताते हैं कि कि वर्ष 2013 में राज्य सरकार को कोलैट्रल डैमेज पाॅलिसी लेकर आई। जिसके तहत टिहरी झील के पास बसे गांवों में जलभराव के चलते जो भी नुकसान होगा, उसका हर वर्ष मूल्यांकन किया जाएगा, इसी आधार पर उनके विस्थापन का फैसला लिया जाएगा। टिहरी विधायक कहते हैं कि सरकार की इस नीति को टीएचडीसी ने अदालत में चुनौती दी है। टीएचडीसी का कहना है कि उनके साथ हुई बैठक में सरकार ने जो फैसला लिया था, उसे शासनादेश के जरिए बदल दिया गया। टीएचडीसी ने वर्ष 2013 में विस्थापन को लेकर सरकार के अध्यादेश पर आपत्ति जताई और उसे कोर्ट में चुनौती दे दी। विधायक धन सिंह नेगी का कहना है कि फिलहाल इन 415 परिवारों के विस्थापन के लिए ऋषिकेश के पास 106 हेक्टेयर भूमि का चयन किया गया है और इसका प्रस्ताव केंद्र सरकार के पास भेजा गया है। इसकी ऑनलाइन प्रक्रिया चल रही है।

अदालत के फेर में अधर में लटका मामला

टिहरी बांध से प्रभावितों के विस्थापन की अदालती लड़ाई लड़ रहे माटू जन संगठन के विमल भाई बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने फरवरी 2016 में राज्य सरकार और टीएचडीसी के मुकदमे पर सुनवाई के दौरान कहा था कि पुनर्वास राज्य सरकार का मामला है, इसलिए हाईकोर्ट जाइए। विमल भाई कहते हैं कि वे हाईकोर्ट में इस मामले को ले जाने की तैयारी कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि वर्ष 2017 में राज्य सरकार और केन्द्र ने समझौता किया था। जिसके तहत टिहरी बांध में जलस्तर आरएल 825 मीटर से कम रखेंगे। सुरेश भाई के मुताबिक इस फैसले का मतलब था झील में पानी नहीं बढ़ाएंगे और इस तरह पूनर्वास से बच जाएंगे।

झील का जलस्तर बढ़ने से बड़ी समस्याएं

लेकिन अक्टूबर 2018 में राज्य सरकार ने झील को आरएल 835 मीटर तक पूरा भरने का नोटिफिकेशन जारी कर दिया। माटू संगठन के विमल भाई कहते हैं कि कुंभ के दौरान पानी कम न हो इसलिए ये फैसला लिया गया। जाहिर तौर पर ये वोट के लिहाज से लिया गया फैसला था। लेकिन ये नहीं सोचा गया कि इससे झील के किनारे बसे लोगों का क्या होगा?

टिहरी झील विस्थापितांे के लिए सुप्रीम कोर्ट तक गये विमल भाई कहते हैं कि जिन लोगों को विस्थापित किया गया, वो भी बस नाम भर का ही था। मकान के बदले मकान दे दिया, जमीन के बदले जमीन। लेकिन स्कूल नहीं दिया, अस्पताल नहीं दिया, सड़क नहीं दी, तो क्या इसे विस्थापन कहेंगे।

टीएचडीसी प्रभावितों को नहीं दे रहा हक

विमल भाई बताते हैं कि टिहरी बांध विस्थापितों को 12 प्रतिशत बिजली देने का वादा किया गया था। इसके साथ ही तत्कालीन केंद्रीय उर्जा मंत्री सुशील शिंदे बांध के उद्घाटन के समय एक प्रतिशत एक्स्ट्रा बिजली देने की घोषणा की थी। फिर एक नीति बनाई गई कि ये एक प्रतिशत बिजली का पैसा लोकल एरिया डेवलपमेंट फंड के नाम से दिया जाएगा ताकि प्रभावित क्षेत्र में लोगों की आजीविका के साधन विकसित किए जा सके।

इसके साथ ही बांध बनने के बाद 10 साल तक 100 यूनिट बिजली मुफ्त देने का वादा किया गया था। लेकिन टिहरी बांध विस्थापितों को इसमें से कुछ भी नहीं मिला।  एनवायरमेंट और रिहैबिलिटेशन पर बनी हनुमंत राव कमेटी ने विस्थापितों के लिए की गई सिफारिशों में निःशुल्क बिजली कनेक्शन की बात कही थी, निःशुल्क पानी की बात कही थी। ये वादा भी पूरा नहीं हुआ। इसके बाद वर्ष 2001 जनवरी में केंद्र सरकार का ऑफिस मेमोरेंडम कहता है कि पुनर्वास के लिए जब-जब पैसों की जरूरत पड़ेगी, टीएचडीसी वो पैसा देगी। लेकिन टिहरी में पुनर्वास कार्यालय को टीएचडीसी से कोई पैसा नहीं मिलता।

विकास के नाम पर ग्रामीणों से छल

विमल भाई कहते हैं कि विकास के नाम पर बनी टिहरी बांध ने उसके निवासियों को ठगा है। टीएचडीसी बांध बनाकर अपने वादे भूल गया। टिहरी झील के आसपास के लोग बेहद अमानवीय हालात में जीवन जी रहे हैं ये बात राज्य मानवाधिकार संगठन भी कह चुका है।

रौलाकोट गांव के लोग अपने मकानों के दरार दिखाते हुए यही बातें कह रहे थे। हम तो कहीं के नहीं रहे। सरकार हमें भूल गई। ग्राम प्रधान दार्वी देवी कहती हैं कि निःशुल्क बिजली आज तक नहीं मिली। झील की वजह से वे पहाड़ी टापू पर दुनिया से अलग-थलग जीवन जी रहे हैं। रौलाकोट की तरह ही सैलाकोट, नाकोट , सयांशु, धौलाकोट, कांगसाली, जलवाल, चांठी, गरोलिया, खोला और नौताढ़ जैसे कई गांव हैं जो पुनर्वास का इंतजार कर रहे हैं। इस सवाल पर कि इन गांवों का पुनर्वास कब तक होगा, राज्य के कैबिनेट मंत्री प्रकाश पंत कहते हैं कि जब-जब जैस-जैसे संसाधन जुटते जा रहे है हम व्यवस्था करते जा रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे। उन्होंने बताया कि पहले चरण में जिन परिवारों का तत्काल विस्थापन किया जाना था उसके लिए वर्ष 2018 में धनराशि दे दी गई थी। उन्होंने बताया कि राज्य सरकार को विस्थापन के लिए जमीन उपलब्ध कराना है और बाकी खर्च टीएचडीसी को करना है।

कैबिनेट मंत्री प्रकाश पंत की अध्यक्षता में बनी कमेटी ने 3 मार्च को टिहरी बांध से विस्थापित करीब 10 हजार लोगों के पानी-सीवर के पुराने सारे बिल माफ कर दिए हैं। जो करीब 70 करोड रुपए का है। यह भी कहा गया है कि विस्थापितों से भविष्य में ये बिल वसूला जाए या नहीं, इसके परीक्षण के लिए एक और कमेटी बनाई जा रही है। त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार का ये चुनावी फैसला माना जा रहा है। फिर ये सवाल भी है कि जिन लोगों ने बिल जमा किए क्या उनके पैसे वापस किए जाएंगे? उत्तराखंड को टिहरी डैम से उत्पादित 12 प्रतिशत बिजली हर वर्ष निःशुल्क मिलती है। टिहरी भूमि विस्थापन संगठन के संरक्षक महिपाल सिंह नेगी कहते हैं कि गाइडलाइंस के मुताबिक इसका पैसा उन्हें प्रभावित लोगों पर खर्च करना चाहिए। वे सवाल करते हैं कि टीएचडीसी से ज्यादा जिम्मेदारी राज्य सरकार की है। महिपाल कहते हैं यहां के सांसद माला राजलक्ष्मी शाह ने विस्थापितों के संघर्ष में किसी स्तर पर कोई साथ नहीं दिया। चूंकि आबादी के रूप में प्रभावित लोगों की संख्या कम है, इसलिए वोट बैंक के रूप में भी वे मजबूत नहीं है। इसीलिए सरकार उनकी सुनवाई नहीं कर रही है।
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं)

 

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