“गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वती।
नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेSस्मिन सन्निधं कुरू।।”
अनंतनाग के चश्मे के ऊपरी भाग की पहाड़ी पूरी तरह से नंगी हो चुकी है। यह क्रम रह-रह कर वुलर लेक तक चला गया है। घाटी के बीच में सड़क के दोनों ओर चिनार के विशाल वृक्ष एवं खेतों और बाड़ों में फलों के पेड़ों के साथ-साथ विलो और पोपलस की सघनता बनी हुई है। इसके साथ ही शहतूत के पेड़ भी दिखाई दे जाते हैं। अनंतनाग से पामपुर के बीच जगह-जगह खोमचों में बैट बनते हुए दिखाई दिए तथा बिक्री के लिए भी सजाए गए हैं।
देश की जलनिधि के प्रति गौरव और सम्मान प्रकट करने वाली ये पंक्तियां न जाने कब और किस प्रसंग में मुझे याद हो गई थीं। चार दशक पूर्व मैंने अपने गांव की बैतरणी में न जाने कितनी बार यह श्लोक दुहराया होगा। इसका उच्चारण करते हुए हाथ एकाएक जुड़ जाते हैं। बैतरणी में सुंदर कटुआ पत्थरों से निर्मित तीन पुराने धारे हैं। इन धाराओं को गंगा, यमुना और सरस्वती के नाम से जाना जाता है। इन तीन धाराओं के आगे कटुआ पत्थरों से निर्मित एक तालाब है, जिसमें मछलियों को मारने के बजाय उन्हें चुग्गा देने की परंपरा है। इसी तालाब में गंगा, यमुना और सरस्वती जल धाराएं समाहित होती हैं। किंतु आधुनिकता की दौड़ के नाम पर अब इसे सीमेंट से पोत कर विकृत कर दिया गया है। अब न वह शुद्ध जल दिखाई देता है और न मछलियां ही।उत्तराखंड में ही कई बैतरणियां है और गंगा, यमुना के जल धारे भी। यह प्रचलन क्यों हुआ? किसने किया?
दरअसल देश को लंबाई, चौड़ाई में समझने के बजाय, इन गंगाओं के जल प्रवाह को समझना बेहतर है। इसलिए इसकी अनेकानेक जलधाराओं को जानना भी जरूरी है। आदिकाल से कई सभ्यताओं को इन्होंने जन्म दिया और पोषित किया। समाप्त भी किया। आज भी करोड़ों करोड़ लोगों की आर्थिकी एवं अस्तित्व इनके साथ जुड़े हुए हैं।
हमारी गंगा और गोदावरी की यात्रा में एक बात बहुत साफ तौर पर समझ में आई थी कि पेड़ों और जंगलों का इनके जलग्रहण क्षेत्रों की मिट्टी को रोके रखने में किस प्रकार का जोड़ है। लेकिन ठंडे रेगिस्तानी प्रदेश से प्रवाहित होने वाली सिंधु और उसकी अनेक छोटे-बड़ी धाराओं, उपधाराओं के बौखलाने, उससे होने वाली क्षति की जानकारी इस वर्ष के समाचार माध्यमों से हुई थी। इसको देखने की जिज्ञासा बढ़ती चली गई थी।
ये धाराएं भारत उपमहाद्वीप की हृदय रेखाएं हैं। ये तब भी समझ में कम आती थीं। इसी को समझने के बहाने हमने पिछले वर्ष से गंगा-गोदावरी के एक छोटे से भाग की यात्रा की थी। इसी क्रम में सिंधु नदी की यात्रा पर भी हम निकल पड़े। सिंधु नदी की यात्रा पर चलने के लिए एक दर्जन युवाओं ने इच्छा जाहिर की। पर अपने सीमित साधनों को देखते हुए हम कम से कम व्यक्तियों को साथ ले जाना चाहते थे।
श्रीनगर के कुछ भागों में कर्फ्यू लगा है। यह जानकारी मुझे दिल्ली में मिल चुकी थी। इसलिए काफी उधेड़बुन में था कि हमारे सहयात्री कहां मिलेगें, किंतु मेरे पहुंचने से पूर्व वे जैनत रिजवी के यहां पहुंच गए थे। पता चला कि वे जम्मू से 22 अगस्त 1988 दिन के एक बजे चले थे। रात के एक बजे श्रीनगर पहुंचे। डल के किनारे एक शिकारा को साठ रुपया देकर रात गुजारी और सुबह होते ही जैनत जी को ढूंढ़ निकाला और वहां जा धमके। अब श्रीनगर में हम छह लोग हो गए थे। मेरे अलावा शेखर पाठक, रघुबीर चंद, ललित पंत, ओम प्रकाश भट्ट तथा अरुण नेगी शामिल थे।
नाग वन सुंदर पहाड़ है, हरा-भरा है। वृक्षों की सघनता से जमीन पर नजर नहीं पड़ती है। पहाड़ की तलहटी ढालदार है। इसी के सामने एक चौरस समतल मैदान है। इसके ऊपरी भाग में अष्टभूजि का तालाब बनाया गया है जिसका तल 54 फुट गहरा है और नीचे धातु निर्मित है। इसी तालाब के नीचे लगभग 480 गैलन पानी प्रति सेकंड निकलता है। जो आगे चलकर दरिया-ए-झेलम के नाम से प्रख्यात है।
श्रीनगर से एक सौ दस किलोमीटर दूर बेणीनाग में यह चश्मा है, जो दरिया-ए-झेलम का उद्गम माना जाता है। बशीर अहमद खान ने जानकारी दी कि यह अष्टभुजि कुंड जहांगीर के जमाने में बना था। हैदरअली इसका इंजीनियर था। इसकी मरम्मत बाद में महाराजा रणजीत सिंह ने भी कारवाई थी। आज भी इसके रख-रखाव और साफ-सफाई पर ध्यान रखा जाता है और बहुत सारी मछलियां भी इसमें तैरती रहती हैं। इस अष्टभुजि घेरे को पार कर झेलम सजी हुई नहर द्वारा मुगल उद्यान में प्रवेश करती है। अलग-अलग रूपों के फूलों से सजे इस उद्यान में विशाल चिनार के वृक्ष झेलम के स्वागत में खड़े हैं। फिर मुगल उद्यान की परिधि के बाहर दरिया-ए-झेलम मुक्त होकर अपनी धाराओं को छलछलाती हुई मन चाहे मोड़ लेती है।
झेलम नदी की कृपा पर कश्मीर घाटी की हरियाली टिकी हुई है। यह वहां की हृदय रेखा है। इसलिए झेलम के उद्गम स्थल बेणीनाम से हमने सिंधु यात्रा का आरंभ किया। हम 25 अगस्त को चश्मेशाही से चले, रास्ते में पामपुर होते हुए बनिहाल के नीचे से होते हुए बेणीनाग पहुँचे। बेणीनाग के ऊपरी भाग में स्थित नागवन के तल में यह चश्मा है। इसके पिछवाड़े खूब घना जंगल है। जो तार-बाड़ से घिरा है। जंगल में कैल, फर, बइलू और चीड़ के पेड़ों की सघनता है। गांव वाले बताते हैं कि इस जंगल को जंगलात वालों ने पिछले 15 सालों से सुरक्षित किया है। इस वर्ष से इसकी विशेष रूप से सुरक्षा की जा रही है। अब इस वन में पत्ते भी नहीं तोड़े जा सकते,जिससे की इस जंगल की हरियाली कायम रह सके। बशीर अहमद खान बताते हैं कि उनके गांव वालों को चूल्हा जलाने के लिए वन विभाग ने डिपो खोल रखा है। डिपो में 7.50 रु. मन लकड़ी उपलब्ध हो जाती है। इसलिए यह वन पूरी तरह से सुरक्षित हो गया है। वे यह जानकारी भी देते हैं कि पीर पंजाब के निचले भाग में स्थित कुल वन आज से 20 साल पहले घना था किन्तु इन दो दशकों में पूरा नष्ट हो गया है। अब फिर से सामाजिक वानिकी के अंतर्गत पौधों का रोपण किया गया है। बशीर अहमद खान बताते हैं कि होकर नाला में बाढ़ आती रहती है। पिछले महीने भी बाढ़ आयी, जिसमें मकान जमीन तबाह हुई। इसी तरह सांदन नदी में बाढ़ बहुत आती है, किन्तु दरिया-ए-झेलम के उद्गम वाले इस क्षेत्र में बाढ़ नहीं आती है। झेलम के चश्मे में फरवरी से अप्रैल तक पानी बढ़ जाता है।
बेणीनाग से आगे झेलम के दोनों ओर लैला-मजनू-विलो की सघन वृक्षावली है। बीच-बीच में सैलाब के बाद का फैलाव एवं रोखड़ भी दिखाई दे रहे हैं। आस-पास की पहाड़ियों पर छितरे हुए पेड़ भी दिखाई दे जाते हैं। भूक्षरण काफी तेजी से हो रहा है। आज थोड़ी सी वर्षा के बाद हमने देखा कि झेलम का रूप चश्मे के स्वच्छ जल से भिन्न गहरा मटमैला हो गया है। उसमें साद ही साद बह रहा है। अब तक उसमें दो सहायक धाराएं मिल चुकी हैं।
जनसंख्या एवं पर्यटन के विस्तार का यहां के जंगलों पर स्पष्ट दुष्प्रभाव नहीं दिखाई देता है। प्रकृति का सहज सौंदर्य और भव्य एकांत लुप्त हो रहा है। उसके स्थान पर कृत्रिम सौंदर्य और स्वार्थों का अनवरत संघर्ष आरंभ हो गया है। यहां पर गंदगी की भरमार को नकारा नहीं जा सकता है। सिंधु नदी की दायीं ओर की मिट्टी वाहनों के कारण खुरच गई है। जाड़ों में तो इससे आगे यातायात बंद हो जाता है। किंतु जब तक खुला रहा है तब तक प्रतिदिन एक हजार से अधिक कारों और बसों को तो रुकना ही पड़ता है।
अनंतनाग का चश्मा भी संवार कर रखा गया है। ऊपरी भाग में रघुनाथ जी का मंदिर है। पेड़ों का झुरमुट भी। यहां मंदिर में साधुओं की चहल-पहल भी दिखाई देती है। अनंतनाग के चश्मे के ऊपरी भाग की पहाड़ी पूरी तरह से नंगी हो चुकी है। यह क्रम रह-रह कर वुलर लेक तक चला गया है। घाटी के बीच में सड़क के दोनों ओर चिनार के विशाल वृक्ष एवं खेतों और बाड़ों में फलों के पेड़ों के साथ-साथ विलो और पोपलस की सघनता बनी हुई है। इसके साथ ही शहतूत के पेड़ भी दिखाई दे जाते हैं। अनंतनाग से पामपुर के बीच जगह-जगह खोमचों में बैट बनते हुए दिखाई दिए तथा बिक्री के लिए भी सजाए गए हैं।डल में साद के तेजी से भरने से सैलाब के विस्तार से सभी चिंतित हैं। श्रीनगर घाटी में हरियाली तो अपने और शहरों के मुकाबले अधिक है। मकानों के चारों ओर पेड़ लगाना अब परंपरा सी हो गई है। श्री नगर में मकानों तथा भोजन को गर्म रखने के लिए साढ़े तीन लाख क्विंटल जलावन प्रतिवर्ष वन विभाग रियायती मूल्य पर देता है। इस समय प्रति क्विंटल 16.90 रुपया जलावन मिलता है। इसके अतिरिक्त 50000 क्विंटल कोयले की भी आवश्यकता पड़ती है जबकि श्रीनगर की आधी जनसंख्या गैस, बिजली तथा मिट्टी तेल उपयोग करती है।
श्रीनगर के सामने की पहाड़ी की हालत चिंताजनक है। वृक्षावली न होने से मिट्टी बह गई है। इन नंगी पहाड़ियों के बारे में कहा जाता है इनका ढाल वृक्षों के लिए उपयुक्त नहीं है। यह बात उत्तराखंड में भी अक्सर सुनने को मिलती है लेकिन ऐसे उदाहरण हैं कि इन ढालों में भी वनस्पति उग आई है। मनुष्य ने प्रयत्न किया तो प्रकृति ने सहयोग दिया। यह बात रंगील में देखने को मिलती है। जहां पर भूमि संरक्षण प्रभाग ने नंगी खड़ी पहाड़ी पर एक विकासमान जंगल खड़ा कर दिया है, जिसका घेरा बढ़ता जा रहा है। यहां मिट्टी की क्षमता को देखते हुए मिट्टी में नमी व कोमलता लाने वाले वृक्षों का रोपण किया गया है। यहां मिट्टी में सुधार होने से नीचे से बहुत घास आ गई है। मिट्टी के रंग में बदलाव आ रहा है।
मानसबल और वुलर लेक में वन विभाग द्वारा नंगी पहाड़ी पर किया गया सफल वृक्षारोपण इस बात का साक्षी है कि ढालवाली धारणा बदल सकती है। मानसबल में पर्यटन गृह के आसपास इस प्रकार की हरियाली भी है, यदि उसका विस्तार किया होता तो यहां पर भी साद की समस्या न बढ़ती। यहां भी तालाब के किनारे जंगली झाड़ एवं कमलपत्र भरे पड़े हैं।
बड़े-बूढ़े बताते हैं कि वुलर लेक का दिनों-दिन विस्तार हो रहा है। अब थोड़ी-सी भी बारिश आती है तो आसपास के गांव डूब क्षेत्र में आ जाते हैं। एक पुराने रेंज अधिकारी बता रहे थे कि पिछले दस-पंद्रह वर्षों में ही वुलर लेक की गहराई समाप्त होती जाएगी, तो बारिश का पानी अन्यत्र फैलेगा ही।
एक वन अधिकारी बताते हैं कि वर्ष 1979-80 में वनों का सबसे ज्यादा विनाश हुआ है। राजनीतिज्ञों की शह पर ठेकेदारों के दबाव में आकर बिना सोचे समझे भारी वन विनाश हुआ। एक किनारे से कटान शुरू होता है तो पहाड़ी के दूसरे हिस्से तक किसी न किसी बहाने जारी रहता है। ऐसे क्षेत्र में वनस्पति को फिर से सिर उठाने में दिक्कत होती है। स्योपुरा से श्रीनगर तक राजमार्ग के आसपास की छोटी-छोटी पहाड़ी और टीले हरियाली से लाद दिए गए हैं। सेब, बादाम, अखरोट, दिमो, पोपूलस और मलबरी की बहुतायत है। खेतों की चारदीवारी को भी पेड़ों से बांध दिया है। राजमार्ग के आसपास कहीं-कहीं चिनार की पंक्ति भी खड़ी है। चिनार तो अधिकांश सम्पूर्णता लिए है। यह हमें खंडित नहीं दिखाई दिए। कंगन के आगे इसका जलागम पहाड़ी है, जहां पर अभी जंगल दिखाई देते हैं। यहां मनुष्य के अविवेक की कहानी भी समझ में आती है। इस इलाके में फिर से वृक्षारोपण का कार्य शुरू किया गया है।
घाटी की जैसी सघन बस्तियां अब इधर नहीं दिखाई देती है। पहाड़ों पर यत्र-तत्र हिमस्खलन से सघन वनों के बीच नाले बने हैं जो जाड़ों के हिमपात के बाद की याद दिलाते हें। जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं सिंधु कहीं-कहीं पर धारा भी बदल देती है।
सोनमर्ग का पर्यटन की दृष्टि से काफी विस्तार हो गया है। ढालदार लंबाई चौड़ाई में फैला हुआ यह मार्ग मैदान प्राकृतिक दृष्टि से अनुपम है। जनसंख्या एवं पर्यटन के विस्तार का यहां के जंगलों पर स्पष्ट दुष्प्रभाव नहीं दिखाई देता है। प्रकृति का सहज सौंदर्य और भव्य एकांत लुप्त हो रहा है। उसके स्थान पर कृत्रिम सौंदर्य और स्वार्थों का अनवरत संघर्ष आरंभ हो गया है। यहां पर गंदगी की भरमार को नकारा नहीं जा सकता है। सिंधु नदी की दायीं ओर की मिट्टी वाहनों के कारण खुरच गई है। जाड़ों में तो इससे आगे यातायात बंद हो जाता है। किंतु जब तक खुला रहा है तब तक प्रतिदिन एक हजार से अधिक कारों और बसों को तो रुकना ही पड़ता है। यद्यपि अब लेह के लिए मनाली से भी सीधा रास्ता खुल गया है। कारगिल जाने के लिए जोजिला-पास पार करना पड़ता है।
यहां एकतरफा यातायात का नियंत्रण सेना वाले ही करते हैं। पहले कारों एवं छोटे वाहनों को फिर बस एवं अंत में ट्रक भेजे जाते हैं। आखिरी वाहन को चार छह घंटे इंतजार करना पड़ता है। ऊपर के मोड़ से मिट्टी पत्थर गिरता है तो वह एक हजार मीटर नीचे सिन्द में पहुंच जाता है। इस बीच दूसरे मोड़ के पास से मोटर सड़क खुदती दिखी। ऐसा लगा कि यह सड़क इसी के लिए बाईपास बनाया जा रहा है। जाड़ों में यहां पर अत्यधिक बर्फ गिरती है, जिससे सड़क पूरी तरह से बर्फ से आच्छादित हो जाती है एवं हिमस्खलन होता रहता है। फिर बर्फ पिघलने के बाद नये सिरे से सड़क का निर्माण करना पड़ता है। कई बार हिमस्खलन से दुर्घटना के समाचार मिलते रहते हैं। ऊपरी भाग में या तो बर्फ एवं ग्लेशियर दिखाई देते हैं या ये पहाड़ बर्फ से झुलसे हुए काले रंग के दिखाई देते हैं। सिंद नदी की धारा यहां से बहुत पतली है। यह नदी का रूप तब धारण करती है जब इसमें पंचतरणी की ओर से आने वाला जल भी समाहित हो जाता है।
जोजिला के लिए 2 किलोमीटर सड़क सीधे और चौड़ी मिल जाती है। इसके निचले भाग में बर्फ का ढेर बारहो मास रहता है। इसी से रिस कर सिन्द की धारा प्रवाहित होती है। इसके आसपास कहीं-कहीं वृक्षों की पंक्ति दिखाई देती है। जिसमें मुख्य रूप से भोजपत्र हैं। थोड़ी ही दूर बाद 3990 मीटर की ऊंचाई पर जोजिला पास आ जाता है। इसके दोनों ओर ही पहाड़ियां खड़ी हैं। यहां से दो पनढाल हैं। एक तो सिन्द नदी का जो सोनमर्ग होते हुए बांदीपोर के पास झेलम में मिल जाती है। दूसरे ढाल के तरफ से द्रास नदी निकलती है जो आगे कारगिल में सिंधु नदी में मिल जाती है। ऊंचाई पर यह दर्रा तीन किलोमीटर अधिक दोनों और फैला हुआ है। यहां पर भेड़-बकरियों के झुंड यत्र-तत्र दिखाई देते हैं। यहां से एक ग्लेशियर तो बहुत करीब दिखता है।
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