संतोष के 16 खच्चर चलते हैं। उनके लिए घर में चने की 8 बोरियां रखी थी। संतोष के परिवार ने उसे ही उबाल कर भूखे यात्रियों को खिलाया। जो कंबल थे वो भी दिए, जहां तक हो सकता था लोगों को आश्रय भी दिया। केदार घाटी पर ही मुख्य ध्यान होने के कारण कहीं बद्रीनाथ, हेमकुंड साहिब के बारे में सोच भी नहीं था। ऐसे में परेशान लोगों मानसिक रूप से भी दबाव में थे। संतोष संयोगगवश नदी के इस पार ही था। देखा की लोग फंसे है तो वो किसी तरह जोशीमठ पहुंचा बीच में रास्ते टूटे हुए थे। पैदल ही जाना था। वहां उसने स्थानीय थाने में संपर्क किया और रस्से लेकर गोविंद घाट पहुंचा। सरकार ने खूब बदनामी कमाई, राजनेता हेलिकाप्टरों में घूमें, मुख्यमंत्री जी ने सरकारी योजनाओं के प्रचार के लिए पैसा दिया चैनलों पर आपदा ग्रस्त लोगों की व्यथा कथा दिखाई जाती रही। इस बीच बहुत सारे स्वयं स्फूर्त सेवा कर्मियों काम किया जिसकी चर्चा ज्यादा नहीं हुई। अपनी समस्याओं को भूलाकर केदारघाटी के त्रिजुगीनारायण गांव के लोगों ने लगातार अपने घरों से अनाज निकालकर खाना बनाकर यात्रियों को खाना खिलाया। इसी गांव के दर्शनलाल गैरालाजी तीन दिनों तक सोनगंगा पर लकड़ी गिरा कर और तार बांध कर लोगों को पार कराते रहे। गौरीगांव के युवाओं ने नालों पर पुल बांध कर लोगों को आर-पार कराया और ऐसे में दीपगांव-फाटॅा का 22 वर्षीय युवा श्री बुद्धि भट्ट पैर फिसलने के कारण नदी में बह गया। गुप्तकाशी में सरकार नहीं थी, ना कोई प्रचार था पर स्थानीय लोग जुटे थे खाना बनाकर खिलाने में ताकी केदार घाटी में बाबा के दर्शनों में आए इन आपदाग्रस्त लोगों को भूखे ना रहना पड़े। बदनामी न हो घाटी की। मंदाकिनीगंगा में स्थित केदारनाथजी के रास्ते में बर्बादी आई पर लोगों ने अपनी ओर से जिसकी जो हो सही मदद की।
अलकनंदागंगा में बद्रीनाथजी, हेमकुण्ड साहिब के यात्रामार्ग पर स्थित पाण्डुकेश्वर, जोशीमठ, पीपलकोटी, गोचर, श्रीनगर जैसे छोटे पहाड़ी शहरों में तो बराबर यात्रियों के लिए लंगर चले ही। जिससे जो बन पड़ा वो किया। सरकार से पहले उत्तराखंड के लोगों ने किया।
गोपेश्वर में महिलाओं की रसोई लगी थी जिसे किसी ए.नजी.ओ. ने नहीं चालू कराया था। बस गांव की महिलायें खाना बनाकर भूखे यात्रियों को खिलाना अपना फर्ज मान रही थी। अतिथ्य सत्कार उत्तराखंड की पंरपरा ही है। तो कोई आपदाग्रस्त यात्री भूखे क्यों रहे।
श्रीनगर में जीवीके कंपनी के बांध के कारण 250 परिवारों के घर जमींदोज़ हुए किंतु कंपनी ने आकर लोगों की मदद को झांका तक नहीं। शहर के लोग जरूर मदद में आगे आए। गंगोत्री से आने वाले यात्रियों को भी रास्ते के भटवाड़ी, आदि सड़क किनारे के गाँवों के लोगों ने जहां हो सका अपनी ओर से भोजन, कहीं बिस्कुट या जो कुछ बन पड़ा खिलाया।
दिल्ली के कालकाजी क्षेत्र में रहने वाले एक सज्जन बताते हैं कि कैसे वो केदारघाटी में बचकर लौट रहे थे, बुरी दशा थी और कही किसी जगह पर कोई बच्चा मिला जिसने कुछ खाने को दिया साथ में कुछ कपड़े भी दिए। ना उस बच्चे का नाम मालूम ना गांव का, पर वो कैसे भूल सकते हैं उस जीवनदाता को? आज उत्तराखंड के गाँवों में विपदा है। केदार घाटी ही नहीं हर नदी, नाले, गाड़ और गदेरों ने पूरी तरह से अपनी सत्ता का अहसास कराया है। किनारे के मकानों तक को तोड़ा या समाप्त किया है। पर लोगों ने इसको झेला। अब पुर्ननिर्माण की बात हो रही है। काम भी चालू है। लोगों को सामान दिया भी गया है खूब संस्थाओं ने लोगों ने सहदय रूप से पानी से लेकर अनाज, कपड़ा, बर्तन सब दिया पर पीड़ा के कठिन समय में उत्तराखंडियों ने जो तीर्थयात्रियों व पर्यटकों की सेवा की रास्ता दिखाया, खाना खिलाया, गर्म कपड़े दिए, सोने को जगह दी उसका मूल्य इसलिए नहीं है चूंकि गाँवों में फिर खाने का नहीं बचा। हम कैसे भूल सकते हैं गौरी गांव के युवा बुद्धि भट्ट को।
अलकनंदा नदी पर जोशीमठ से आगे गोविंदघाट के ठीक सामने जहां से हेमकुंड साहिब का रास्ता जाता है वहीं संतोष राणा का परिवार रहता है। 16-17 जून, 2013 को विष्णुप्रयाग बांध के कारण आई तेज़ बाढ़ ने अलकनंदा का पुल बहा दिया था। हजारों सिख यात्री पहाड़ी पर फंसे थे व ठंड वर्षा चालू थी। संतोष के 16 खच्चर चलते हैं। उनके लिए घर में चने की 8 बोरियां रखी थी। संतोष के परिवार ने उसे ही उबाल कर भूखे यात्रियों को खिलाया। जो कंबल थे वो भी दिए, जहां तक हो सकता था लोगों को आश्रय भी दिया। केदार घाटी पर ही मुख्य ध्यान होने के कारण कहीं बद्रीनाथ, हेमकुंड साहिब के बारे में सोच भी नहीं था। ऐसे में परेशान लोगों मानसिक रूप से भी दबाव में थे। संतोष संयोगगवश नदी के इस पार ही था। देखा की लोग फंसे है तो वो किसी तरह जोशीमठ पहुंचा बीच में रास्ते टूटे हुए थे। पैदल ही जाना था। वहां उसने स्थानीय थाने में संपर्क किया और रस्से लेकर गोविंद घाट पहुंचा। आई.टी.बी.पी. वालों की एक रस्सी पहले से पार तक तो थी पर बचाव कार्य नहीं शुरू हुआ था। संतोष ने विमलेश पंवार और तेजेन्द्र चौहान आदि के साथ रस्सी दूसरी तरफ डाली और काम शुरू कर दिया। एक तरफ पुलना-भयूदंर गांव को लीलने के बाद लक्ष्मण गंगा भयानक रूप से आ रही और सामने अलकनंदागंगा उफन रही थी। गोविंद घाट पर गुरूद्वारे की धर्मशाला का बड़ा हिस्सा और अन्य लगभग 25 होटल दुकान-मकान बह जाने के बाद का दृश्य भयानक हो गया था। गोविंदघाट से ऊपर जाने की सड़क गायब थी। संतोष के परिवार वाले भी फंसे थे। खेत बह चुके थे, पानी मकान के पास था। रस्से लगने के हपले दिन लगभग 250 यात्रियों को नदी पार कराई गई दूसरे दिन आई.टी.बी.पी. के जवान भी आ गए और आगे की कमान उन्होंने संभाली। तब उसने अपने परिवार को पार कराया।
मृदु मुस्कान के साथ बोलने वाला संतोष उत्तराखंड का गौरव है। साहस, धैर्य और समझदारी का सुंदर परिचय संतोष व साथियों ने दिया। जहां पार्टियों के नेताओं के मुस्कुराते चेहरे छपे पोस्टर राहत सामग्री पर जा रहे थे। देहरादून हवाई अड्डे पर टीडीपी और कांग्रेस के नेता वहां पहुंचे यात्रियों को अपने अपने हवाई जहाज में ले जाने का झगड़ा हो रहा था। वहां आम उत्तराखंडियों की संस्कृति को बताना भी जरुरी है। बाहरी तत्वों के द्वारा की गई कुछ गलत घटनाओं के कारण अखबारों में यह खबरें आई की आपदा के दौरान लूटपाट हुई, इन सबकी राज्य के बाहर के अखबारों में खूब चर्चा हुई इसलिए गांव-गांव में जो स्वंय स्फूर्त कार्य हुए उनको सामने लाना जरुरी है। आज उत्तराखंड के गाँवों में विपदा है।
अलकनंदागंगा में बद्रीनाथजी, हेमकुण्ड साहिब के यात्रामार्ग पर स्थित पाण्डुकेश्वर, जोशीमठ, पीपलकोटी, गोचर, श्रीनगर जैसे छोटे पहाड़ी शहरों में तो बराबर यात्रियों के लिए लंगर चले ही। जिससे जो बन पड़ा वो किया। सरकार से पहले उत्तराखंड के लोगों ने किया।
गोपेश्वर में महिलाओं की रसोई लगी थी जिसे किसी ए.नजी.ओ. ने नहीं चालू कराया था। बस गांव की महिलायें खाना बनाकर भूखे यात्रियों को खिलाना अपना फर्ज मान रही थी। अतिथ्य सत्कार उत्तराखंड की पंरपरा ही है। तो कोई आपदाग्रस्त यात्री भूखे क्यों रहे।
श्रीनगर में जीवीके कंपनी के बांध के कारण 250 परिवारों के घर जमींदोज़ हुए किंतु कंपनी ने आकर लोगों की मदद को झांका तक नहीं। शहर के लोग जरूर मदद में आगे आए। गंगोत्री से आने वाले यात्रियों को भी रास्ते के भटवाड़ी, आदि सड़क किनारे के गाँवों के लोगों ने जहां हो सका अपनी ओर से भोजन, कहीं बिस्कुट या जो कुछ बन पड़ा खिलाया।
दिल्ली के कालकाजी क्षेत्र में रहने वाले एक सज्जन बताते हैं कि कैसे वो केदारघाटी में बचकर लौट रहे थे, बुरी दशा थी और कही किसी जगह पर कोई बच्चा मिला जिसने कुछ खाने को दिया साथ में कुछ कपड़े भी दिए। ना उस बच्चे का नाम मालूम ना गांव का, पर वो कैसे भूल सकते हैं उस जीवनदाता को? आज उत्तराखंड के गाँवों में विपदा है। केदार घाटी ही नहीं हर नदी, नाले, गाड़ और गदेरों ने पूरी तरह से अपनी सत्ता का अहसास कराया है। किनारे के मकानों तक को तोड़ा या समाप्त किया है। पर लोगों ने इसको झेला। अब पुर्ननिर्माण की बात हो रही है। काम भी चालू है। लोगों को सामान दिया भी गया है खूब संस्थाओं ने लोगों ने सहदय रूप से पानी से लेकर अनाज, कपड़ा, बर्तन सब दिया पर पीड़ा के कठिन समय में उत्तराखंडियों ने जो तीर्थयात्रियों व पर्यटकों की सेवा की रास्ता दिखाया, खाना खिलाया, गर्म कपड़े दिए, सोने को जगह दी उसका मूल्य इसलिए नहीं है चूंकि गाँवों में फिर खाने का नहीं बचा। हम कैसे भूल सकते हैं गौरी गांव के युवा बुद्धि भट्ट को।
अलकनंदा नदी पर जोशीमठ से आगे गोविंदघाट के ठीक सामने जहां से हेमकुंड साहिब का रास्ता जाता है वहीं संतोष राणा का परिवार रहता है। 16-17 जून, 2013 को विष्णुप्रयाग बांध के कारण आई तेज़ बाढ़ ने अलकनंदा का पुल बहा दिया था। हजारों सिख यात्री पहाड़ी पर फंसे थे व ठंड वर्षा चालू थी। संतोष के 16 खच्चर चलते हैं। उनके लिए घर में चने की 8 बोरियां रखी थी। संतोष के परिवार ने उसे ही उबाल कर भूखे यात्रियों को खिलाया। जो कंबल थे वो भी दिए, जहां तक हो सकता था लोगों को आश्रय भी दिया। केदार घाटी पर ही मुख्य ध्यान होने के कारण कहीं बद्रीनाथ, हेमकुंड साहिब के बारे में सोच भी नहीं था। ऐसे में परेशान लोगों मानसिक रूप से भी दबाव में थे। संतोष संयोगगवश नदी के इस पार ही था। देखा की लोग फंसे है तो वो किसी तरह जोशीमठ पहुंचा बीच में रास्ते टूटे हुए थे। पैदल ही जाना था। वहां उसने स्थानीय थाने में संपर्क किया और रस्से लेकर गोविंद घाट पहुंचा। आई.टी.बी.पी. वालों की एक रस्सी पहले से पार तक तो थी पर बचाव कार्य नहीं शुरू हुआ था। संतोष ने विमलेश पंवार और तेजेन्द्र चौहान आदि के साथ रस्सी दूसरी तरफ डाली और काम शुरू कर दिया। एक तरफ पुलना-भयूदंर गांव को लीलने के बाद लक्ष्मण गंगा भयानक रूप से आ रही और सामने अलकनंदागंगा उफन रही थी। गोविंद घाट पर गुरूद्वारे की धर्मशाला का बड़ा हिस्सा और अन्य लगभग 25 होटल दुकान-मकान बह जाने के बाद का दृश्य भयानक हो गया था। गोविंदघाट से ऊपर जाने की सड़क गायब थी। संतोष के परिवार वाले भी फंसे थे। खेत बह चुके थे, पानी मकान के पास था। रस्से लगने के हपले दिन लगभग 250 यात्रियों को नदी पार कराई गई दूसरे दिन आई.टी.बी.पी. के जवान भी आ गए और आगे की कमान उन्होंने संभाली। तब उसने अपने परिवार को पार कराया।
मृदु मुस्कान के साथ बोलने वाला संतोष उत्तराखंड का गौरव है। साहस, धैर्य और समझदारी का सुंदर परिचय संतोष व साथियों ने दिया। जहां पार्टियों के नेताओं के मुस्कुराते चेहरे छपे पोस्टर राहत सामग्री पर जा रहे थे। देहरादून हवाई अड्डे पर टीडीपी और कांग्रेस के नेता वहां पहुंचे यात्रियों को अपने अपने हवाई जहाज में ले जाने का झगड़ा हो रहा था। वहां आम उत्तराखंडियों की संस्कृति को बताना भी जरुरी है। बाहरी तत्वों के द्वारा की गई कुछ गलत घटनाओं के कारण अखबारों में यह खबरें आई की आपदा के दौरान लूटपाट हुई, इन सबकी राज्य के बाहर के अखबारों में खूब चर्चा हुई इसलिए गांव-गांव में जो स्वंय स्फूर्त कार्य हुए उनको सामने लाना जरुरी है। आज उत्तराखंड के गाँवों में विपदा है।
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