देश के शुष्क एवं अर्द्धशुष्क क्षेत्र में पाए जाने वाले जूलीफ्लोरा/विलायती बबूल के राजस्थान के मारवाड़ एवं गुजरात में सौराष्ट्र तथा कच्छ, भुज और आसपास के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले भूमिहीन एवं छोटे काश्तकारों के लिए अतिरिक्त आय का जरिया बनने से स्थानीय अर्थव्यवस्था के आधार को मजबूती मिलेगी। जूलीफ्लोरा पर अनुसंधान कर रहे अधिकारियों की माने तो इसकी फलियों के संग्रहण कार्य से एक करोड़ श्रमदिवस प्रति वर्ष सृजित हो सकते हैं। राष्ट्रीय कृषि नवोन्मेषी परियोजना के अंतर्गत लक्ष्य क्षेत्र के व्यक्तियों की आय में 68 प्रतिशत वृद्धि के साथ 56000 मानव कार्यदिवस का रोजगार प्रति वर्ष सृजित हो सकता है। एक समय बेकार समझा जाने वाला झाड़ीनुमा यह पेड़ बावलिया, गांडा बावल, अंग्रेजी बबूल इत्यादि नाम से भी जाना जाता था लेकिन अब यह राॅयल ट्री, मिरेकल ट्री एवं जूलीफ्लोरा के नाम से प्रसिद्ध हो रहा है तथा पर्यावरण संरक्षण एवं पारिस्थितिकी संतुलन के लिहाज से भी इस क्षेत्र के लिए अनुकूल माना जा रहा है। भारत में विलायती बबूल का पौधा 1877 में लेटिन अमेरिका से लाया गया था बाद में मारवाड़ स्टेट के तत्कालीन महाराजा उम्मेदसिंह ने 1913 में इसके बीजों का हवाई छिड़काव कराया। आज यह देश के अधिकांश क्षेत्रों में पाया जाता है।
राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान परिषद के जोधपुर स्थित संस्थान केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुंसधान संस्थान काजरी एवं राष्ट्रीय कृषि नवोन्मेशी परियोजना ने गत चार वर्षों में जूलीफ्लोरा पर अनुसंधान कर इसके महत्व को बढ़ा दिया है। अनुसंधान से पहले इसकी टहनियां ईंधन के रूप में जलाने, लकड़ी का कोयला बनाने और मोटा तना इमारती लकड़ी के उपयोग में लाया जाता था। वर्ष भर पेड़ से गिरने वाली पकी हुई फलियां भेड़-बकरी, गाय, ऊंट आदि स्थानीय पशु चरते थे लेकिन अब वैज्ञानिकों ने बबूल का मूल्य संवर्द्धन कर इसके महत्व को बढ़ा दिया है।
पिछले दिनों गुजरात के भुज में राष्ट्रीय कृषि नवोन्मेशी परियोजना के सौजन्य से काजरी ने तीन दिवसीय एक कार्यशाला का आयोजन करवाया जिसमें जूलीफ्लोरा के मूल्यसवंर्द्धन पर विस्तार से चर्चा हुई। कार्यशाला के आयोजन स्थल पर मूल्यसंवृद्धि उत्पाद-पशु-आहार एवं पेय पदार्थ जूलीकाॅफी आदि का प्रदर्शन भी किया गया।कच्छ के भुज में ग्रामीण जन इलाके के बबूल-बहुल क्षेत्र में पशुपालन के अलावा जूलीफ्लोरा से चारकोल निर्माण करते हैं। यह उनके लिए अतिरिक्त आय का साधन है। राजस्थान के जालोर, बाड़मेर, जोधपुर, पाली, नागौर आदि जिलों में ये पेड़ बहुतायत संख्या में हैं। जालोर जिले के सांचोर में एक उद्यमी ने 12 मेगावाट क्षमता का एक बिजली संयंत्र भी स्थापित किया है। काजरी के वैज्ञानिकों की माने तो देश में बबूल की फलियों के कुल उत्पादन का 50 प्रतिशत भी एकत्रित कर लिया जाए तो एक अनुमान के अनुसार लगभग पांच मिलियन टन फलियां प्रति वर्ष एकत्रित की जा सकती हैं। इन फलियों में पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन पाया जाता है। एक परिपक्व पेड़ से बीस से तीस किलो तक फलियां प्राप्त होती हैं।
जूलीफ्लोरा पर अनुसंधान कर रहे अधिकारियों की माने तो फलियों के संग्रहण कार्य से एक करोड़ श्रम दिवस प्रति वर्ष सृजित हो सकते हैं। राष्ट्रीय कृषि नवोन्मेशी परियोजना के अंतर्गत लक्ष्य क्षेत्र के व्यक्तियों की आय में 68 प्रतिशत वृद्धि के साथ 56000 मानव कार्यदिवस का रोजगार प्रति वर्ष सृजित हो सकता है।
बबूल की फलियों का चूर्णयुक्त पशु आहार एवं संघनित पशुआहार बट्टिका के रूप में तैयार कर उपयोग में लिया जा सकता है। पशुओं को बांटे में मिलाकर खिलाने से आवश्यक पोषक तत्वों की पूर्ति होती है। काजरी के वैज्ञानिकों का दावा है कि एक ओर जहां यह आहार सस्ता पड़ता है वहीं दूसरी ओर इसके सेवन से पशुओं के दूध में 19 प्रतिशत वृद्धि होती है।
यह तो हुई पशुओं के लिए बबूल के इस्तेमाल की बात। काजरी ने इंसानों के लिए बिस्किट एवं पेय पदार्थ काॅफी भी ईजाद की है। बिस्किट के लिए गेहूं के आटे में 20 से 25 प्रतिशत बबूल की पकी सूखी फलियों का आटा मिलाकर साधारण बिस्किट की तरह बिस्किट बनाए जा सकते हैं। इससे बने बिस्किटों में प्रोटीन की मात्रा अधिक पायी जाती है। लेकिन सबसे बड़ी उपलब्धि जूलीफ्लोरा से पेय पदार्थ काॅफी बनाने की कही जा सकती है। जूलीकाॅफी बनाने का काम काजरी ने तो पूरा कर लिया है तथा कार्यशाला में प्रदर्शित भी कर दिया है। काजरी के प्रहलाद सिंह बताते हैं नेचुरल काॅफी और जूलीफ्लोरा के बीज से बनी काॅफी के स्वाद में कोई ज्यादा अंतर नहीं है।
हम लोग सुबह ड्यूटी पर आने के बाद जूलीकाॅफी का सेवन कर अपने कार्य में लग जाते हैं। काजरी के वैज्ञानिकों के मुताबिक सूखी हुई फलियों को थ्रेशर में डालकर पहले चूरा किया जाता है तथा इसके बाद फलियों में से प्राप्त बीजों के ऊपर का छिलका अलग कर बीजों का पाउडर बनाया जाता है। इस पाउडर को महीन छलनी से छानकर सिंकाई की जाती है। सिंकाई तब तक की जाती है जब तक उसका रंग व सुगंध काॅफी के समान नहीं हो जाता। ऐसा होने के बाद एक बार फिर इस पाउडर को पीसा जाता है। कड़वाहट को कम करने के लिए इसमें 30 फीसदी चिकौरी पाउडर मिलाया जाता है। इस तरह जूलीकाॅफी तैयार हो जाती है।
जूलीकाॅफी इंसानों के लिए कितनी लाभदायक होगी, इसकी अंतिम परीक्षण रिपोर्ट न्यूट्रीशन विभाग, हैदराबाद को देनी है। काजरी के प्रधान वैज्ञानिक जे.सी. तिवारी के अनुसार प्रथम रिपोर्ट सही पायी गयी है। अंतिम रिपोर्ट जल्दी ही मिलने वाली है। इसके मिलने के बाद जूलीकाॅफी को बाजार में उतारा जा सकता है। श्री तिवारी की माने तो जूलीकाॅफी प्राकृतिक काॅफी के मुकाबले बहुत ही किफायती होगी तथा इसका उत्पादन आर्थिक रूप से बहुत ही लाभप्रद होगा। ये उत्पाद वाणिज्यिक तौर पर बाजार में आने पर काजरी को भी बल मिलेगा।
मूल्यसंवर्द्धन से पहले और बाद में एक नजर डालें तो कुछ इस तरह है-विलायती बबूल के साधारण उपयोग से होने वाली आय काजरी के अनुसार फलियों को बेचने से प्राप्त आय दो रुपये प्रति किलोग्राम, जलाऊ लकड़ी को बेचने से प्राप्त आय दो रुपये प्रति किलोग्राम ,बबूल की लकड़ी/कच्ची सामग्री/विद्युत उत्पादन इकाई को, बेचने से प्राप्त आय हरी लकड़ी से 1.40 रुपये एवं सूखी से ।.60 रुपये किलोग्राम की दर से होती है। जबकि मूल्यसंवर्द्धन के पश्चात आय में जबर्दस्त अंतर पाया गया जो इस प्रकार है-
चारकोल 15 रुपये प्रति किलोग्राम, इमारती लकड़ी एक हजार रुपये प्रति वर्ग मीटर, मवेशियों के लिए चारा 650 रुपये प्रति बैग/पचास किलो/का पशुआहार बट्टिका 25 रुपये प्रति नग, 1 संधनित चारा बट्टिका 11 रुपये प्रति किलोग्राम एवं जूली काॅफी प्रति 50 ग्राम चालीस रुपये की।
जूलीफ्लोरा के जानकारों एवं विशेषज्ञों के अनुसंधान पर गौर कर मूल्यसंवर्द्धन किया जाए तो राजस्थान एवं गुजरात के वन क्षेत्रों में करीब तीस लाख हेक्टेयर पर जूलीफ्लोरा के पेड़ खड़े हैं और यह पेड़ ग्रामीणों की जीवनरेखा बन सकते हैं।
(पसूका से साभार)
राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान परिषद के जोधपुर स्थित संस्थान केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुंसधान संस्थान काजरी एवं राष्ट्रीय कृषि नवोन्मेशी परियोजना ने गत चार वर्षों में जूलीफ्लोरा पर अनुसंधान कर इसके महत्व को बढ़ा दिया है। अनुसंधान से पहले इसकी टहनियां ईंधन के रूप में जलाने, लकड़ी का कोयला बनाने और मोटा तना इमारती लकड़ी के उपयोग में लाया जाता था। वर्ष भर पेड़ से गिरने वाली पकी हुई फलियां भेड़-बकरी, गाय, ऊंट आदि स्थानीय पशु चरते थे लेकिन अब वैज्ञानिकों ने बबूल का मूल्य संवर्द्धन कर इसके महत्व को बढ़ा दिया है।
पिछले दिनों गुजरात के भुज में राष्ट्रीय कृषि नवोन्मेशी परियोजना के सौजन्य से काजरी ने तीन दिवसीय एक कार्यशाला का आयोजन करवाया जिसमें जूलीफ्लोरा के मूल्यसवंर्द्धन पर विस्तार से चर्चा हुई। कार्यशाला के आयोजन स्थल पर मूल्यसंवृद्धि उत्पाद-पशु-आहार एवं पेय पदार्थ जूलीकाॅफी आदि का प्रदर्शन भी किया गया।कच्छ के भुज में ग्रामीण जन इलाके के बबूल-बहुल क्षेत्र में पशुपालन के अलावा जूलीफ्लोरा से चारकोल निर्माण करते हैं। यह उनके लिए अतिरिक्त आय का साधन है। राजस्थान के जालोर, बाड़मेर, जोधपुर, पाली, नागौर आदि जिलों में ये पेड़ बहुतायत संख्या में हैं। जालोर जिले के सांचोर में एक उद्यमी ने 12 मेगावाट क्षमता का एक बिजली संयंत्र भी स्थापित किया है। काजरी के वैज्ञानिकों की माने तो देश में बबूल की फलियों के कुल उत्पादन का 50 प्रतिशत भी एकत्रित कर लिया जाए तो एक अनुमान के अनुसार लगभग पांच मिलियन टन फलियां प्रति वर्ष एकत्रित की जा सकती हैं। इन फलियों में पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन पाया जाता है। एक परिपक्व पेड़ से बीस से तीस किलो तक फलियां प्राप्त होती हैं।
जूलीफ्लोरा पर अनुसंधान कर रहे अधिकारियों की माने तो फलियों के संग्रहण कार्य से एक करोड़ श्रम दिवस प्रति वर्ष सृजित हो सकते हैं। राष्ट्रीय कृषि नवोन्मेशी परियोजना के अंतर्गत लक्ष्य क्षेत्र के व्यक्तियों की आय में 68 प्रतिशत वृद्धि के साथ 56000 मानव कार्यदिवस का रोजगार प्रति वर्ष सृजित हो सकता है।
बबूल की फलियों का चूर्णयुक्त पशु आहार एवं संघनित पशुआहार बट्टिका के रूप में तैयार कर उपयोग में लिया जा सकता है। पशुओं को बांटे में मिलाकर खिलाने से आवश्यक पोषक तत्वों की पूर्ति होती है। काजरी के वैज्ञानिकों का दावा है कि एक ओर जहां यह आहार सस्ता पड़ता है वहीं दूसरी ओर इसके सेवन से पशुओं के दूध में 19 प्रतिशत वृद्धि होती है।
यह तो हुई पशुओं के लिए बबूल के इस्तेमाल की बात। काजरी ने इंसानों के लिए बिस्किट एवं पेय पदार्थ काॅफी भी ईजाद की है। बिस्किट के लिए गेहूं के आटे में 20 से 25 प्रतिशत बबूल की पकी सूखी फलियों का आटा मिलाकर साधारण बिस्किट की तरह बिस्किट बनाए जा सकते हैं। इससे बने बिस्किटों में प्रोटीन की मात्रा अधिक पायी जाती है। लेकिन सबसे बड़ी उपलब्धि जूलीफ्लोरा से पेय पदार्थ काॅफी बनाने की कही जा सकती है। जूलीकाॅफी बनाने का काम काजरी ने तो पूरा कर लिया है तथा कार्यशाला में प्रदर्शित भी कर दिया है। काजरी के प्रहलाद सिंह बताते हैं नेचुरल काॅफी और जूलीफ्लोरा के बीज से बनी काॅफी के स्वाद में कोई ज्यादा अंतर नहीं है।
हम लोग सुबह ड्यूटी पर आने के बाद जूलीकाॅफी का सेवन कर अपने कार्य में लग जाते हैं। काजरी के वैज्ञानिकों के मुताबिक सूखी हुई फलियों को थ्रेशर में डालकर पहले चूरा किया जाता है तथा इसके बाद फलियों में से प्राप्त बीजों के ऊपर का छिलका अलग कर बीजों का पाउडर बनाया जाता है। इस पाउडर को महीन छलनी से छानकर सिंकाई की जाती है। सिंकाई तब तक की जाती है जब तक उसका रंग व सुगंध काॅफी के समान नहीं हो जाता। ऐसा होने के बाद एक बार फिर इस पाउडर को पीसा जाता है। कड़वाहट को कम करने के लिए इसमें 30 फीसदी चिकौरी पाउडर मिलाया जाता है। इस तरह जूलीकाॅफी तैयार हो जाती है।
जूलीकाॅफी इंसानों के लिए कितनी लाभदायक होगी, इसकी अंतिम परीक्षण रिपोर्ट न्यूट्रीशन विभाग, हैदराबाद को देनी है। काजरी के प्रधान वैज्ञानिक जे.सी. तिवारी के अनुसार प्रथम रिपोर्ट सही पायी गयी है। अंतिम रिपोर्ट जल्दी ही मिलने वाली है। इसके मिलने के बाद जूलीकाॅफी को बाजार में उतारा जा सकता है। श्री तिवारी की माने तो जूलीकाॅफी प्राकृतिक काॅफी के मुकाबले बहुत ही किफायती होगी तथा इसका उत्पादन आर्थिक रूप से बहुत ही लाभप्रद होगा। ये उत्पाद वाणिज्यिक तौर पर बाजार में आने पर काजरी को भी बल मिलेगा।
विलायती बबूल का आर्थिक मूल्यांकन
मूल्यसंवर्द्धन से पहले और बाद में एक नजर डालें तो कुछ इस तरह है-विलायती बबूल के साधारण उपयोग से होने वाली आय काजरी के अनुसार फलियों को बेचने से प्राप्त आय दो रुपये प्रति किलोग्राम, जलाऊ लकड़ी को बेचने से प्राप्त आय दो रुपये प्रति किलोग्राम ,बबूल की लकड़ी/कच्ची सामग्री/विद्युत उत्पादन इकाई को, बेचने से प्राप्त आय हरी लकड़ी से 1.40 रुपये एवं सूखी से ।.60 रुपये किलोग्राम की दर से होती है। जबकि मूल्यसंवर्द्धन के पश्चात आय में जबर्दस्त अंतर पाया गया जो इस प्रकार है-
चारकोल 15 रुपये प्रति किलोग्राम, इमारती लकड़ी एक हजार रुपये प्रति वर्ग मीटर, मवेशियों के लिए चारा 650 रुपये प्रति बैग/पचास किलो/का पशुआहार बट्टिका 25 रुपये प्रति नग, 1 संधनित चारा बट्टिका 11 रुपये प्रति किलोग्राम एवं जूली काॅफी प्रति 50 ग्राम चालीस रुपये की।
जूलीफ्लोरा के जानकारों एवं विशेषज्ञों के अनुसंधान पर गौर कर मूल्यसंवर्द्धन किया जाए तो राजस्थान एवं गुजरात के वन क्षेत्रों में करीब तीस लाख हेक्टेयर पर जूलीफ्लोरा के पेड़ खड़े हैं और यह पेड़ ग्रामीणों की जीवनरेखा बन सकते हैं।
(पसूका से साभार)
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