जरूरत है बिहार के वेटलैंड्स यानी आर्द्रभूमियों के संरक्षण की

जरूरत है बिहार के आर्द्रभूमियों के संरक्षण की
जरूरत है बिहार के आर्द्रभूमियों के संरक्षण की

मानव विकास की अंधी दौड़ में इस जीवन के लिए उपयोगी प्राकृतिक कारकों (Natural Life Supporting Devices)  जैसे वनों, नदियों, जलाशयों आदि को ही नष्ट करने पर आतुर दिखता है। बेलगाम बढ़ती जनसंख्या तथा लचर सरकारी तंत्रों के कारण आज हमारे सारे जलाशय या तो सूख रहे हैं या आने वाले समय में सूखने के कगार पर खड़े हैं। बिहार भी इन सबसे अछूता नहीं है। वर्तमान समय में बिहार के कई विश्व-प्रसिद्ध वेटलैंड्स, झील तथा नदियों पर खतरों के बादल आज और भी घने हो गए हैं तथा इनको लीलने के लिए तत्पर दिखते हैं।

‘‘नदी निर्झर और नाले; इन वनों ने गोद पाले’’

सच ही कहा है जिसने भी कि जहां वन होंगे वहीं जीवन भी दृष्टिगोचर होगा। ऐसी बात नहीं है कि जहां वन नहीं है, वहां जीवन नहीं होगा। वरन् कहने का तात्पर्य यह है कि वन अपने आँचल में जीवनोपयोगी तमाम संसाधन समेटे हुए है। जहां एक तरफ तो वनों के अंदर असंख्य पोखरें तथा सरोवर में भांति-भांति के जीव निवास करते हैं, वहीं दूसरी ओर वनों के पाँव पखारती नदियाँ, पेड़-पौधों को जीवन का आधार प्रदान करती हैं। मेरा गृह राज्य बिहार इस मामले में बड़ा भाग्यशाली रहा है कि इसे प्राचीन काल से प्रकृति का सानिध्य तथा आशीर्वाद प्राप्त होता आ रहा है।

एक तरफ तो यहां कई विश्व प्रसिद्ध वन्य-जीव, अभ्यारण्य हैं, वहीं दूसरी तरफ यहां कई विश्व-प्रसिद्ध वेटलैंड्स हैं। जिनका न सिर्फ अंतर्राष्ट्रीय महत्व है वरन् इनमें से कई तो विश्व-प्रसिद्ध पक्षी अभ्यारण्य हैं। जिनमें शीतकाल में पृथ्वी के उत्तरी गहन हिम आच्छादित भागों जैसे अंटार्कटिक, साइबेरिया आदि से उड़कर आए प्रवासी पक्षी कुछ समयातंरालों के लिए ही सही, इन जलाशयों को अपना रैन-बसेरा बनाते हैं। अतः बिहार के परिप्रेक्ष्य में यह कहना है किः-

‘‘धरा के तीन अधिपति; भूमि, जल एवं वनस्पति’’

इसमें कहीं भी अतिशयोक्ति के लक्षण दृष्टिगोचर नहीं होते क्योंकि इस प्रदेश में भूमि, जल एवं वनस्पतियों की भरमार है। ‘जियो और जीने दो’ के अंतर्गत ‘जल ही जीवन है’ और पर्यावरण संतुलन में पृथ्वी के सतही जल की भी अहम भूमिका है। पृथ्वी भू-भाग जल के ऊपर स्थित है। यदि जल स्तर स्थान विशेष पर अधिक नीचे हो जाता है तो सारे जीव-जंतुओं का जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। अतः प्राकृतिक संरक्षण हेतु ताल-तलैया, पोखरों, झीलों एवं नदियों का संरक्षण परमावश्यक है। क्योंकि इनके माध्यम से जल स्तर संतुलित रहता है तथा इनसे जीवन की बागडोर भी बनी रहती है। परन्तु बहुत ही खेद की बात है कि मानव विकास की अंधी दौड़ में इस जीवन के लिए उपयोगी प्राकृतिक कारकों जैसे वनों, नदियों, जलाशयों आदि को ही नष्ट करने पर आतुर दिखता है। बे-लगाम बढ़ती जनसंख्या तथा लचर सरकारी तंत्रों के कारण आज हमारे सारे जलाशय या तो सूख रहे हैं या आने वाले समय में सूखने के कगार पर खड़े हैं। मेरा गृह राज्य बिहार भी इन सबसे अछूता नहीं है। वर्तमान समय में बिहार के कई विश्व-प्रसिद्ध वेटलैंड्स, झील तथा नदियों पर खतरों के बादल आज और भी घने हो गए हैं तथा इनको लीलने के लिए तत्पर दिखते हैं। इसी संदर्भ में आइये, हम बिहार के कुछ ऐसी ही वेटलैंड्स की चर्चा करते हैं, जो वर्तमान परिदृश्य में उपेक्षाओं के दंश के शिकार हैंः-

1. प्रवासी पक्षियों का कुदरती मसकन है जगतपुर की झील

भागलपुर जिला के अंतर्गत भागलपुर नवगाछिया मुख्य मार्ग (एन.एच 31) से सटा लगभग 1 वर्ग किलोमीटर में फैली है जगतपुर झील। स्थानीय पक्षियों के अलावा पक्षियों की कई दुर्लभ (Endangered) एवं संकट-ग्रस्त (Near Extinct)  प्रजातियों को यहां आसानी से देखा जा सकता है। यह झील गंगा नदी से एक छोटी सी नहर द्वारा जुड़ी है जिसके परिणामस्वरूप इस झील का पानी सालों भर कमोबेश एक समान ही रहता है। गर्मियों में हालांकि इसका जल स्तर कुछ घट जाता है तथा इसके क्षेत्रफल में भी व्यापक कमी आ जाती है पर वर्षा ऋतु के आगमन होते ही यह झील अपने पुराने स्वरूप में आ जाती है। यह झील वास्तव में एक अनोखी झील है। एक तरफ तो घास के हरे-भरे मैदान इसे चारों ओर से घेरे हुए हैं, वहीं दूसरी तरफ यह जल से प्लावित दल-दलों से घिरी हुई है। यूँ तो इस झील में पक्षियों की पुकार तथा चहचहाट सालों भर गूंजती ही रहती है परन्तु सर्दियों में इस झील का परिदृश्य कुछ ज्यादा ही निखर जाता है। सर्दियों में मुख्यतः नवम्बर माह से लेकर मार्च के अंत तक यह रंग बिरंगे विदेशी मेहमानों तथा स्थानीय पक्षियों का कदुरती बसरा बन जाता है। सर्दियों के उन्मेषकाल शुरू होते ही यह झील पूर्वी बिहार में प्रवासी पक्षियों का एक मुख्य पड़ाव बन जाती है। जहां शरद ऋतु में लगभग 50 से भी अधिक प्रजातियों के पक्षियों का एक साथ अध्ययन संभव है। बर्ड वाचिंग या पक्षी अवलोकन के दृष्टिकोण से यह एक अनुकूल स्थल है। शांत और संतुलित, आहारयुक्त वातावरण तथा अपनी परिष्कृत एवं प्रचुर जैवविविधता के कारण ही यह झील प्रवासी पक्षियों का अस्थाई मसकन बन जाती है। कहने को तो उत्तरी बिहार के लगभग तमाम छोटे-बड़े जलाशय शरद ऋतु में प्रवासी पक्षियों की कलरव स्थली बन जाते हैं। और जगतपुर झील की एक खास विशेषता रही है इसका अपना एक प्राकृतिक परिवश है जो परिदों को बहुत भाता है। अतः यहां पक्षियों के झुण्डों का बड़े ही नजदीक से अध्ययन किया जा सकता है। झील के चारों ओर से घिरी घनी झाड़ियां तथा ऊँचे-ऊँचे उगे हुए मनमोहक पुष्पाछादित वृक्षों के झुंड एक अलग ही मंजर परिलक्षित करते हैं तथा परिंदों के छिपने तथा आरामगाह के साधन भी बनते हैं। परंतु खेद की बात है कि विगत कुछ वर्षों से यह झील भी सरकारी उपेक्षा का दंश सहने को मजबूर है। दिनों-दिन यह शिकारियों के लिए आरामगाह बनती जा रही है। वृक्षों की कटाई के कारण भी यहां से परिंदे अपना मुंह मोड़ना शुरू कर चुके हैं। यदि यही हाल रहा तो हो सकता है यह झील एक दिन इतिहास के पन्नों में दर्ज हो जाएगी।

2. प्रदूषण एवं संदूषण की शिकार भागलपुर की विश्वप्रसिद्ध विक्रमशिला गैंगेटिक डाॅल्फिन सेन्चुरी

भागलपुर के कहलगांव से लेकर सुलतानगंज तक के मध्यस्थ स्थित गंगा का अविरल प्रवाह विक्रमशिला गैंगेटिक डाॅल्फिन सेंचुरी के नाम से सारी दुनिया में प्रसिद्ध है। एक तरफ सुलतानगंज जहां हिंदुओं की धार्मिक आस्था का मुख्य केन्द्र बिंदु है वहीं सावन के पवित्र महीने में सारी दुनिया से हिन्दू सुलतानगंज में उत्तरवाहिणी गंगा में पवित्र स्नान कर वहां स्थित बाबा अजगैबीनाथ की पूजा का पवित्र गंगाजल को लेकर देवघर स्थित बारह ज्योर्तिलिंगों में प्रमुख बाबाधाम की पवित्र यात्रा शुरू करते हैं। दूसरी ओर यह स्थान विक्रमशिला गांगेय डाॅल्फिन सेंचुरी का प्रवेश द्वार भी है। यह सेंचुरी पूरी दुनिया में गांगेय डाॅल्फिनों की एकमात्र प्रजनन स्थली के रूप में मशहूर है तथा विश्व में मौजूद चार बड़े अभ्यारण्य में से एक है। यहां फिलहाल 250 के आस-पास डाॅल्फिनें निवास कर रही हैं। राष्ट्रीय जल-जीव घोषित यह डाॅल्फिन दुर्लभ मानी जाती है। गांगेय डाॅल्फिन जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘सोंस’ कहा जाता है, संपूर्ण दक्षिण एशिया में पाई जाने वाली मीठे पानी की डाॅल्फिनों की चार प्रजातियों में से एक है। डाॅल्फिनों की अन्य तीन प्रजातियाँ हैं- उड़ीसा की महानदी में पाई जाने वाली ईरावदी डाॅल्फिन, सिंधु नदी में पाई जाने वाली इंडस रीवर डाॅल्फिन तथा चीन की यांग्तजे-कयांग नदी में पाई जाने वाली यांग्तजे-क्यांग डाॅल्फिन। पर बड़ी अफसोस की बात है कि सन् 2007 के बाद यांग्तजे-क्यांग डाॅल्फिनों को देखने की रिपोर्ट आनी बंद हो गई है, ऐसी आशंका है कि ये अब विलुप्त ही हो चुकी हैं। साथ ही साथ अन्य मीठे पानी की डाॅल्फिनों का भी हाल कुछ अलहेदा नहीं कहा जा सकता है। अतः इन डाॅल्फिनों के संरक्षण तथा संवर्धन की माली ज़रूरतों को मद्देनज़र रखते हुए बिहार सरकार ने कहलगांव से लेकर सुलतानगंज तक की लगभग 50 किमी गंगा के क्षेत्र को हर दृष्टि से डाॅल्फिनों के संरक्षण के लिए मुफीद माना है। अतः इसलिए इसे अभ्यारण्य घोषित किया गया है। यह अभ्यारण्य अपने आप में अनोखा है। एक तरफ जहां इन गांगेय डाॅल्फिनों को स्वच्छंद कलरव करते हुए देखा जा सकता है। वहीं दूसरी ओर शीत ऋतु में यह क्षेत्र प्रवासी पक्षियों का एक मुख्य बसेरा बन जाता है। लगभग 100 से अधिक प्रजातियों के परिंदों का यहां अध्ययन एवं अवलोकन संभव है। परिंदों में विशेष रूप से कई प्रकार की माईग्रेटरी बत्तखों जैसे, पिटेलडक, पोचार्ड, सुर्खव, मलार्ड, गडबाल आदि विशेष रूप से पाए जाते हैं। वहीं स्थानीय पक्षियों में विसलिंग टील, अधंगा, हेरान, चम्मच, चोंचा, पनकौआ, डार्टर, किंगफिशर, चील, बाज इत्यादि की भारी संख्या को यहां आसानी से देखा जा सकता है। बात सिर्फ यहीं खत्म नहीं होती है। डाॅल्फिनों तथा पक्षियों के अलावा उदबिलावों तथा कई जातियों के कछुओं का भी यह एक सुरक्षित घर साबित हो रहा है। हर साल सर्दियों में स्थानीय लोगों के अलावा, शोधार्थियों, विद्यार्थियों तथा पक्षी-प्रेमियों का भारी जमावड़ा इस अभ्यारण्य में अध्ययन हेतु नावों पर विचरते हुए देखा जा सकता है। अतः इस बात की कहीं से भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह अभ्यारण्य संपूर्ण बिहार के लिए गौरव का प्रतीक है तथा इसकी पहचान स्वरूप है। परन्तु दुःख की बात है कि कमजोर सरकारी तंत्र, सुरक्षा चूक व जागरूकता के अभाव के कारण विगत वर्षों के दौरान इस परिक्षेत्र में डाॅल्फिनें फज़ा की भेंट चढ़ जाती हैं। इस अभ्यारण्य के डाॅल्फिनों की मौत की वजह मछुआरों  द्वारा लगाए जाने वाले जाल, डाॅल्फिनों को लेकर मछुआरों के बीच माजूद भ्रातियाँ सहित कुछ हद तक गश्ती में कमी भी रही है। सनद रहे भागलपुर स्थित स्थानीय एन.जी.ओ. मंदार नेचर क्लब (जिसमें लेखक भी शामिल हैं) द्वारा विगत 20 वर्षों से न सिर्फ डाॅल्फिनों स्थानीय एवं माईग्रेटरी पक्षियों के संरक्षण हेतु विस्तृत कार्यक्रमों का आयोजन हर साल किया जाता रहा है।  

3. लुप्त होने के कगार पर विश्व प्रसिद्ध काँवर ताल पक्षी-अभ्यारण्य

बिहार में स्थित बेगूसराय शहर से 20 किमी. उत्तर बेगूसराय-गरहपुरा मार्ग में अवस्थित कांवर-लेक बर्ड सेंचुरी जिसे स्थानीय भाषा में काँवरताल कहा जाता है। सारे दक्षिण एशिया में मीठे पानी की सबसे बड़ी झील है। 63 वर्ग किमी. तथा 7400 हेक्टेयर भूमि में फैली यह झील बिहार सरकार की है। यह झील बड़ी गंडक नदी तथा बागमती नदियों के समपार्शव में स्थित एक चाप झील है। इसकी उपयोगिता तथा विस्तार को गौर करते हुए सन् 1986 में इसे प्रोटेक्टेड एरिया घोषित किया गया। 1989 में इसे बर्ड सेंचुरी घोषित किया गया तथा 2005 में इसे बिहार की एक प्रमुख रामसर साईट घोषित किया गया। काँवर झील के अनुकूल मौसम, पर्याप्त सुरक्षा व प्रचुर मात्रा में आहार की उपलब्धता, शीत-काल के दौरान प्रवासी व स्थानीय पक्षियों की गतिविधियों के कलरव तथा क्रीड़ास्थली का प्रमुख केन्द्र बन जाती है। इस सरोवर का एक अनूठा जल-चक्र तथा जीवन-चक्र है। ग्रीष्मकाल आते ही इस झील का अधिकांश भाग सूखने लगता है तथा इसमें मौजूद जीवन समाप्ति की ओर आ जाता है। वहीं वर्षा-काल का पटाक्षेप होते ही इस मृतप्रायः सरोवर में जिंदगी एक बार फिर से पुष्पित एवं पल्लवित होनी शुरू हो जाती है। इस झील में विभिन्न स्तरों वाले गहरे पानी, उथले पानी, सतही एवं दल-दली किनारों पर जीवन अपने कई रूपों में दृष्तिगोचर होने लगता है। वर्षा में बाह्य जल प्रणालियों से इसमें जल भराव, अनुकूल तापमान तथा वातावरण की तारतम्यता के कारण झील के आस-पास न केवल हरियाली लौटने लगती है वरन् तरह-तरह के सूक्ष्म जीवों जलीय वनस्पतियों,  छाटी-बड़ी मछलियों तथा कीट-पतंगों की संख्या कभी असामान्य रूप से बढ़ने लगती है। शीत-काल में यह झील प्रवासी पक्षियों की भी एक प्रमुख आरामगाह के रूप में प्रसिद्ध है। कई स्थानीय पक्षियों के अलावा यहां वैसे पक्षी भी आसानी से दृष्टिगोचर हो जाते हैं जो आई.यू.सी.एन की संकट-ग्रस्त सूची में शामिल हैं। पक्षियों की 100 से भी अधिक प्रजातियों के अलावा यहां मछलियों की 41 प्रजातियाँ भी पाई जाती हैं। इस सरोवर क्षेत्र में लगभग 50 प्रकार की पृष्ठीय वनस्पतियों की प्रजातियाँ भी मिलती हैं, जिनमें प्रमुख हैं प्रोसोफिल जलीफ्लोरा, प्रोसोविस साल्वेडीरा, टेमरिंक्स आदि। जबकि जलीय वनस्पतियों में हाइडिंला, सावेरस, आइकोर्निया आदि प्रमुख हैं। सरोवर पानी मे भी लगभग 40 तरह के शैवाल पैदा होते हैं, जो जलीय पक्षियों का प्रमुख भोजन हैं। इसके आस-पास के क्षेत्रों में नीम, शीशम, साल, खिजदी, गुलमोहर, बाँस आदि के वृक्ष भी बहुतायत में मिलते हैं, जो फ़िजा में एक अलग किस्म की प्रमाद को जन्म देते हैं।

4. प्रवासी पक्षियों का एक प्रमुख आश्रय स्थल बरौनी रिफाईनरी इकोलाॅजिकल पार्क

बिहार में स्थित बेगूसराय शहर से मात्र 8 किमी. दूर स्थित बरौनी रिफ़ाइनरी इकाॅलोजिकल पार्क या इंडियन आयल काॅरपोरेशन लिमिटेड द्वारा 1964 में स्थापित मानव निर्मित झीलों का एक समूह है जो शीत काल में प्रवासी पक्षियों की एक प्रमुख आरामगाह बन जाती है। लगभग 75 एकड़ में फैली तथा मोकामा ताल, काँवर झील तथा गंगा नदी के सन्निकट स्थित यह झील बिहार के प्रमुख वेटलैंड्स में से एक है। सनद रहे कि मोकामा ताल तथा काँवर झील बिहार के प्रमुख रामसर साईट तथा इंपोर्टेड बर्ड एरियाज़ साइटों में से एक हैं। इस झील के चारों ओर मानव द्वारा निर्मित जंगल तथा चारों ओर बड़ी-बड़ी चारदीवारी से घिरे होने के कारण यह पार्क पूर्णतः सुरक्षित वेटलैंड्स में एक प्रमुख स्थान रखती है तथा यही कारण है कि प्रवासी पक्षी इसकी ओर चुंबकीय रूप से आकर्षित हो जाते हैं। पार्क के अंदर अप्राकृतिक रूप से निमिर्त हर्बल गार्डन, जंतु बिहार, जल बिहार, कला बिहार, प्रभात बिहार आदि न सिर्फ पक्षियों की कई किस्मों को आकर्षित करते हैं, वरन् इनमें कई स्तनपाई जीवों जैसे लोमड़ी, नेवला, माॅनीटर लिजार्ड आदि भी प्रमुख रूप से पाए जाते हैं। पार्क में पाए जाने वाले प्रमुख वृक्ष जैसे अर्जुन, सेमल, पीपल, बबूल, आम, आदि पक्षियों को पूर्ण सुरक्षा एवं प्रजनन हेतु मुकम्मल स्थान मुहैया कराते हैं। पार्क के अन्दर की हरियाली एवं चहुँओर पक्षियों का कलरव एक अलग समां बयान करती है। और इसे देखकर ऐसा लगता है मानो प्रकृति यहां सुकून के गीत गाती है।

उपसंहार

यहां मैने बिहार के कुछ ऐसे चुनिंदा तथा प्रसिद्ध वेटलैंड्स की चर्चा की जो बिहार को विश्व के मानचित्र में लाने हेतु महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। परन्तु बात सिर्फ यहीं खत्म नहीं होती है वस्तुतः बिहार में और भी ऐसे कई वेटलैंड्स हैं जो बिहार के इकोलाॅजी में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं; जैसे- नागा-नकटी पक्षी अभ्यारण्य, कुसेस्वर स्थान, कटिहार जिले की गोगाबित वर्ड सेंचुरी, उत्तरी बिहार स्थित विश्व प्रसिद्ध वाल्मीकि टाइगर रिजर्व इत्यादि। बहुत ही दुख तथा खेद की बात है कि हमारी जीवन नैया को पार लगाने वाले इन जलाशयों का आज हमारी कुकृत्यों के कारण अस्तित्व ही खतरे में पड़ता जा रहा है। कभी जीवन के विभिन्न अवयवों से पोषित, पुष्पित तथा पल्लवित होते ये जलाशय असमय ही काल के ग्रास में समाते चले जा रहे हैं। अंधाधुंध विकास, शिकार, कमजोर तथा निष्प्रभावी सरकारी तंत्र, मानवों द्वारा प्रकृति का दोहन तथा प्रकृति-प्रदत्त चीजों को अनदेखी करने की भूल इन वेटलैंडस का एक दिन नामो-निशान मिटा देंगी। आज नदियां अपने तटों समेत उद्धार को आकुल व व्याकुल हैं। नगरों की झीलें तथा गांव के पोखर अपने ऐतिहासिक एवं सांसकृतिक मूल्यों को पुनः प्राप्त करना चाहते हैं। वनों की शीतलता तथा सुषमा का चुंबक प्रभावहीन होता जा रहा है। हमें यह याद रखना होगा कि यदि हम प्रकृति का ध्यान रखेंगे तो वह हमारा भी ध्यान रखेगी।

 

लेखक पर्यावरणविद एवं युवा पक्षी वैज्ञानिक हैं। मंदार नेचर क्लब, भागलपुर, बिहार से जुड़े हुए हैं। मो.न. 09050944061 ईमेल: mnc_rahul2003@ rediffmail.com 

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