प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सोचते हैं कि योजना आयोग को खत्म किया जाना चाहिए। इस सोच के दो आधार हो सकते हैं। एक यह कि वे खुद राज्य के मुख्यमंत्री रहे हैं और उन्हें भली-भांति यह अंदाजा है कि योजना आयोग एक जवाबदेय और निष्पक्ष निकाय नहीं है। वह राज्यों और देश के व्यापक हितों को महत्त्व देने के बजाए पर्यावरण-जन-जैव विविधता विरोधी और असमानता पैदा करने वाली नीतियों को तेजी से आगे बढ़ा रहा है। दूसरा आधार यह कि वे नीतिगत निर्णय लेने के लिए योजना आयोग से भी ज्यादा केंद्रीयकृत व्यवस्था खड़ी करना चाहते हैं।
योजना आयोग के पदाधिकारी हमारे देश का 35 प्रतिशत बजट, जो कि लगभग पांच लाख करोड़ रुपये का होता है, की प्राथमिकताएं तय करते हैं। वहीं हमारे योजना आयोग को ज्ञान देने और प्राथमिकताएं तय करवाने में सबसे प्रभावशाली भूमिका विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष निभाते हैं, जिनका कार्यालय भी योजना आयोग के दफ्तर में होता है। देश की 67 प्रतिशत आबादी आर्थिक-सामाजिक-बहुआयामी गरीबी से प्रभावित है, परन्तु गरीबी की परिभाषा तय करने में भी संसद और संवैधानिक संस्थाओं की कोई भूमिका नहीं होती है। चर्चा है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार योजना आयोग को खत्म कर देगी। हो सकता है इसे पूरी तरह से खत्म न किया जाए, पर इसके दायरे को बहुत हद तक सीमित किया जा सकता है। यह एक सच्चाई है कि 15 मार्च 1950 को भारत सरकार के एक संकल्प प्रस्ताव के जरिये सलाह देने, शोध करने, मूल्यांकन के आधार पर अनुशंसाएं करने के लिए गठित योजना आयोग पिछले 64 सालों में देश की सबसे ताकतवर संस्था बन गया है।
योजना आयोग के कामों और जिम्मेदारियों का कोई जिक्र हमारे संविधान में नहीं है। इतना ही नहीं इतने सालों में यह भी सुनिश्चित नहीं किया गया है कि अन्य आयोगों की तरह इसकी जवाबदेहिता संसद के प्रति हो। वास्तव में सच यह है कि अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों, बड़े औद्योगिक घरानों और लोकहित को खारिज करते उदारवाद-निजीकरण के प्रति समर्पित कट्टर अर्थशास्त्रियों को आर्थिक सुधारों की नीतियां लागू करने के लिए भारत में एक ऐसी व्यवस्था की जरूरत रही है, जो आर्थिक नीतियों पर ‘निर्णय’ ले सके और उन पर संसद में चर्चा भी न हो।
वर्ष 2009 में योजना आयोग के भीतर अधोसंरचनात्मक विकास और सार्वजनिक-निजी भागीदारी पर एक सचिवालय गठित किया गया। यह सचिवालय बंदरगाह, रेल, सड़क, ऊर्जा, दूरसंचार और हवाई अड्डों में निजी क्षेत्र के प्रवेश के लिए जमीन तैयार करता है। सवाल यह है कि जब अहम निर्णय योजना आयोग के भीतर का यह सचिवालय ले रहा है, तो ऊर्जा मंत्रालय, रेल, परिवहन, दूरसंचार, या नागरिक उड्डयन मंत्रालय कितने स्वतंत्र रह गए हैं?
वर्ष 2011 की स्थिति में 6.84 लाख करोड़ रुपये की निजी भागीदारी के काम इसके तहत शुरू करवाए जा चुके थे। आकलन है कि आज इस निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी 11 लाख करोड़ रुपये से ऊपर हो चुकी है। योजना आयोग संसद से दूर, किंतु यह विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के ज्यादा करीब रहने वाली संस्था रही है।
वास्तव में शासन के मौजूदा तौर-तरीकों ने संविधान और लोकतंत्र को तथाकथित आर्थिक विकास और पूंजी के केंद्रीयकरण की मंशा के सामने गुलाम बना दिया है।
समाज क्या चाहता है? समाज की मूल जरूरतें क्या हैं? और स्थाई विकास के लिए देश को कौन से मूल्यों को अपनाना चाहिए? ये सभी प्रश्न अब विकास विरोधी और देश के खिलाफ माने जाने लगे हैं। स्वतंत्रता के उपरान्त मान्यता यह थी कि राष्ट्र और समाज के हितों की रक्षा, विकास, समाज में समानता लाने के लिए संविधान की भावना के मुताबिक हमारी संसद निर्णायक भूमिका निभाएगी। इसी तारतम्य में भारतीय चुनाव आयोग, कंट्रोलर ऑडिटर जनरल (सीएजी) सरीखी संस्थाओं की बुनियाद रखी गयी। ये अपने आप में स्वायत्त संस्थाएं हैं और इनकी जवाबदेहिता संसद के प्रति है।
जब योजना आयोग बना था, तब यह तय किया गया था कि यह आयोग देश में मानव, भौतिक, पूंजीगत और तकनीकी संसाधनों का मूल्यांकन करेगा। साथ ही प्राकृतिक संसाधनों को प्रभावी और संतुलित करने की योजना बनाएगा; परन्तु योजना आयोग ने प्राकृतिक संसाधनों के जबरदस्त शोषण की योजनाएं बनायीं।
आयोग ने कभी यह विचार नहीं किया कि हमें अगली पीढ़ी के हकों और हितों को ध्यान में रखना होगा। एक तरफ तो संविधान सरकार को कई जिम्मेदारियां देता है, परन्तु आर्थिक सुधारों की नीतियां यह मानती हैं कि सरकार की भूमिका लगभग नगण्य हो। उत्पादन, भंडारण, बिक्री और सेवा-योजनाओं का क्रियान्वयन निजी क्षेत्र करें। नियमन के लिए नियामक आयोग बने जो संसद और विधानसभाओं के प्रति जवाबदेय नहीं होते। तब सरकार कहां है? नई सरकार भी यही कहती है कि कम सरकार और ज्यादा शासन! मतलब यह कि भले ही योजना आयोग को सीमित या खत्म कर दिया जाए, परन्तु सरकार में सलाहकार और केंद्रीयकृत समितियों की चलने वाली है, जिनका नियंत्रण प्रधानमंत्री कार्यालय के हाथ में होगा।
देश के लिए पंचवर्षीय योजनाएं बनाने का काम भी योजना आयोग करता है। इन योजनाओं को बनाने में संसद की सीधी भूमिका नहीं होती, न ही अब इन योजनाओं पर संसद में चर्चा होती है। योजना आयोग के पदाधिकारी हमारे देश का 35 प्रतिशत बजट, जो कि लगभग पांच लाख करोड़ रुपये का होता है, की प्राथमिकताएं तय करते हैं। वहीं हमारे योजना आयोग को ज्ञान देने और प्राथमिकताएं तय करवाने में सबसे प्रभावशाली भूमिका विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष निभाते हैं, जिनका कार्यालय भी योजना आयोग के दफ्तर में होता है। इस देश में गरीबी रेखा के नीचे कौन और कितने लोग होंगे? यह भी योजना आयोग तय करता है। देश की 67 प्रतिशत आबादी आर्थिक-सामाजिक-बहुआयामी गरीबी से प्रभावित है, परन्तु गरीबी की परिभाषा तय करने में भी संसद और संवैधानिक संस्थाओं की कोई भूमिका नहीं होती है।
योजना आयोग के विशेषज्ञों ने तय कर दिया कि गांव में 22 और शहरों में 28 रुपये से कम खर्च करने वाला ही गरीब है, बस इसी परिभाषा को अंतिम माना जायेगा। इसी प्रकार यदि हम पूरे देश में छाई आधार कार्ड की बहार को देखें तो उसके पीछे से झांकता वह भारतीय विशेष पहचान प्राधिकरण है, जिसके अस्तित्व को ही संसद की स्थाई समिति ने खारिज किया था; उसके बाद भी यह प्राधिकरण अरबों रुपये का बजट रखे मुंह चिढ़ा रहा है।
इस परिदृश्य में भारत के नये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सोचते हैं कि योजना आयोग को खत्म किया जाना चाहिए तो इस सोच के दो आधार हो सकते हैं। एक तो यह कि वे खुद राज्य के मुख्यमंत्री रहे हैं और उन्हें भली-भांति यह अंदाजा है कि योजना आयोग एक जवाबदेय और निष्पक्ष निकाय नहीं है। वह राज्यों और देश के व्यापक हितों को महत्त्व देने के बजाए पर्यावरण-जन-जैव विविधता विरोधी और असमानता पैदा करने वाली नीतियों को तेजी से आगे बढ़ा रहा है। दूसरा आधार यह कि वे नीतिगत निर्णय लेने के लिए योजना आयोग से भी ज्यादा केंद्रीयकृत व्यवस्था खड़ी करना चाहते हैं। नई सरकार की अब तक की कार्यशैली से यही अनुमान लगाया जा सकता है।
संभवत: यह पहली बार हुआ है कि प्रधानमंत्री ने अलग-अलग मंत्रालयों के सचिवों से उनके मंत्रियों की अनुपस्थिति में सीधे कार्यकारी सम्बन्ध स्थापित किये हों। यहां तक कि मंत्रियों के निजी स्टाफ तक की नियुक्ति पर उनका एकाधिकार है। ऐसा लगता है कि नीतियों, वार्षिक कार्ययोजनाओं और पंचवर्षीय योजनाओं को बनाने का काम प्रधानमंत्री के निजी नियंत्रण में होगा।
बेहतर होगा कि केंद्र स्पष्ट कारण दे कि योजना आयोग का दायरा सीमित किया जाना क्यों जरूरी है? साथ ही हर विभाग को अपने कार्यक्षेत्र और जिम्मेदारियों से संबंधित योजनाएं बनाने और उनके पक्ष में तर्क करने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए। यह जरूरी है कि सरकार के कार्यक्रमों और योजनाओं का स्वतंत्र मूल्यांकन हो। वहीं पंचवर्षीय योजनाएं बनाने का काम अब भी योजना आयोग ही करे तो बेहतर होगा, बस तरीकों में बुनियादी बदलाव की जरूरत है।
संविधान में स्पष्ट है कि कौन से विषय राज्य और कौन से केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में हैं। कौन से विषय स्थानीय निकायों तथा राज्य और केंद्र दोनों के कार्यक्षेत्र में हैं। इसी सिद्धांत के आधार पर योजनाएं बननी चाहिए। क्या इस दृष्टिकोण से सरकार योजना आयोग के बारे में निर्णय करेगी?
(लेखक विकास संवाद भोपाल से संबद्ध हैं।)
योजना आयोग के पदाधिकारी हमारे देश का 35 प्रतिशत बजट, जो कि लगभग पांच लाख करोड़ रुपये का होता है, की प्राथमिकताएं तय करते हैं। वहीं हमारे योजना आयोग को ज्ञान देने और प्राथमिकताएं तय करवाने में सबसे प्रभावशाली भूमिका विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष निभाते हैं, जिनका कार्यालय भी योजना आयोग के दफ्तर में होता है। देश की 67 प्रतिशत आबादी आर्थिक-सामाजिक-बहुआयामी गरीबी से प्रभावित है, परन्तु गरीबी की परिभाषा तय करने में भी संसद और संवैधानिक संस्थाओं की कोई भूमिका नहीं होती है। चर्चा है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार योजना आयोग को खत्म कर देगी। हो सकता है इसे पूरी तरह से खत्म न किया जाए, पर इसके दायरे को बहुत हद तक सीमित किया जा सकता है। यह एक सच्चाई है कि 15 मार्च 1950 को भारत सरकार के एक संकल्प प्रस्ताव के जरिये सलाह देने, शोध करने, मूल्यांकन के आधार पर अनुशंसाएं करने के लिए गठित योजना आयोग पिछले 64 सालों में देश की सबसे ताकतवर संस्था बन गया है।
योजना आयोग के कामों और जिम्मेदारियों का कोई जिक्र हमारे संविधान में नहीं है। इतना ही नहीं इतने सालों में यह भी सुनिश्चित नहीं किया गया है कि अन्य आयोगों की तरह इसकी जवाबदेहिता संसद के प्रति हो। वास्तव में सच यह है कि अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों, बड़े औद्योगिक घरानों और लोकहित को खारिज करते उदारवाद-निजीकरण के प्रति समर्पित कट्टर अर्थशास्त्रियों को आर्थिक सुधारों की नीतियां लागू करने के लिए भारत में एक ऐसी व्यवस्था की जरूरत रही है, जो आर्थिक नीतियों पर ‘निर्णय’ ले सके और उन पर संसद में चर्चा भी न हो।
वर्ष 2009 में योजना आयोग के भीतर अधोसंरचनात्मक विकास और सार्वजनिक-निजी भागीदारी पर एक सचिवालय गठित किया गया। यह सचिवालय बंदरगाह, रेल, सड़क, ऊर्जा, दूरसंचार और हवाई अड्डों में निजी क्षेत्र के प्रवेश के लिए जमीन तैयार करता है। सवाल यह है कि जब अहम निर्णय योजना आयोग के भीतर का यह सचिवालय ले रहा है, तो ऊर्जा मंत्रालय, रेल, परिवहन, दूरसंचार, या नागरिक उड्डयन मंत्रालय कितने स्वतंत्र रह गए हैं?
वर्ष 2011 की स्थिति में 6.84 लाख करोड़ रुपये की निजी भागीदारी के काम इसके तहत शुरू करवाए जा चुके थे। आकलन है कि आज इस निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी 11 लाख करोड़ रुपये से ऊपर हो चुकी है। योजना आयोग संसद से दूर, किंतु यह विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के ज्यादा करीब रहने वाली संस्था रही है।
वास्तव में शासन के मौजूदा तौर-तरीकों ने संविधान और लोकतंत्र को तथाकथित आर्थिक विकास और पूंजी के केंद्रीयकरण की मंशा के सामने गुलाम बना दिया है।
समाज क्या चाहता है? समाज की मूल जरूरतें क्या हैं? और स्थाई विकास के लिए देश को कौन से मूल्यों को अपनाना चाहिए? ये सभी प्रश्न अब विकास विरोधी और देश के खिलाफ माने जाने लगे हैं। स्वतंत्रता के उपरान्त मान्यता यह थी कि राष्ट्र और समाज के हितों की रक्षा, विकास, समाज में समानता लाने के लिए संविधान की भावना के मुताबिक हमारी संसद निर्णायक भूमिका निभाएगी। इसी तारतम्य में भारतीय चुनाव आयोग, कंट्रोलर ऑडिटर जनरल (सीएजी) सरीखी संस्थाओं की बुनियाद रखी गयी। ये अपने आप में स्वायत्त संस्थाएं हैं और इनकी जवाबदेहिता संसद के प्रति है।
जब योजना आयोग बना था, तब यह तय किया गया था कि यह आयोग देश में मानव, भौतिक, पूंजीगत और तकनीकी संसाधनों का मूल्यांकन करेगा। साथ ही प्राकृतिक संसाधनों को प्रभावी और संतुलित करने की योजना बनाएगा; परन्तु योजना आयोग ने प्राकृतिक संसाधनों के जबरदस्त शोषण की योजनाएं बनायीं।
आयोग ने कभी यह विचार नहीं किया कि हमें अगली पीढ़ी के हकों और हितों को ध्यान में रखना होगा। एक तरफ तो संविधान सरकार को कई जिम्मेदारियां देता है, परन्तु आर्थिक सुधारों की नीतियां यह मानती हैं कि सरकार की भूमिका लगभग नगण्य हो। उत्पादन, भंडारण, बिक्री और सेवा-योजनाओं का क्रियान्वयन निजी क्षेत्र करें। नियमन के लिए नियामक आयोग बने जो संसद और विधानसभाओं के प्रति जवाबदेय नहीं होते। तब सरकार कहां है? नई सरकार भी यही कहती है कि कम सरकार और ज्यादा शासन! मतलब यह कि भले ही योजना आयोग को सीमित या खत्म कर दिया जाए, परन्तु सरकार में सलाहकार और केंद्रीयकृत समितियों की चलने वाली है, जिनका नियंत्रण प्रधानमंत्री कार्यालय के हाथ में होगा।
देश के लिए पंचवर्षीय योजनाएं बनाने का काम भी योजना आयोग करता है। इन योजनाओं को बनाने में संसद की सीधी भूमिका नहीं होती, न ही अब इन योजनाओं पर संसद में चर्चा होती है। योजना आयोग के पदाधिकारी हमारे देश का 35 प्रतिशत बजट, जो कि लगभग पांच लाख करोड़ रुपये का होता है, की प्राथमिकताएं तय करते हैं। वहीं हमारे योजना आयोग को ज्ञान देने और प्राथमिकताएं तय करवाने में सबसे प्रभावशाली भूमिका विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष निभाते हैं, जिनका कार्यालय भी योजना आयोग के दफ्तर में होता है। इस देश में गरीबी रेखा के नीचे कौन और कितने लोग होंगे? यह भी योजना आयोग तय करता है। देश की 67 प्रतिशत आबादी आर्थिक-सामाजिक-बहुआयामी गरीबी से प्रभावित है, परन्तु गरीबी की परिभाषा तय करने में भी संसद और संवैधानिक संस्थाओं की कोई भूमिका नहीं होती है।
योजना आयोग के विशेषज्ञों ने तय कर दिया कि गांव में 22 और शहरों में 28 रुपये से कम खर्च करने वाला ही गरीब है, बस इसी परिभाषा को अंतिम माना जायेगा। इसी प्रकार यदि हम पूरे देश में छाई आधार कार्ड की बहार को देखें तो उसके पीछे से झांकता वह भारतीय विशेष पहचान प्राधिकरण है, जिसके अस्तित्व को ही संसद की स्थाई समिति ने खारिज किया था; उसके बाद भी यह प्राधिकरण अरबों रुपये का बजट रखे मुंह चिढ़ा रहा है।
इस परिदृश्य में भारत के नये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सोचते हैं कि योजना आयोग को खत्म किया जाना चाहिए तो इस सोच के दो आधार हो सकते हैं। एक तो यह कि वे खुद राज्य के मुख्यमंत्री रहे हैं और उन्हें भली-भांति यह अंदाजा है कि योजना आयोग एक जवाबदेय और निष्पक्ष निकाय नहीं है। वह राज्यों और देश के व्यापक हितों को महत्त्व देने के बजाए पर्यावरण-जन-जैव विविधता विरोधी और असमानता पैदा करने वाली नीतियों को तेजी से आगे बढ़ा रहा है। दूसरा आधार यह कि वे नीतिगत निर्णय लेने के लिए योजना आयोग से भी ज्यादा केंद्रीयकृत व्यवस्था खड़ी करना चाहते हैं। नई सरकार की अब तक की कार्यशैली से यही अनुमान लगाया जा सकता है।
संभवत: यह पहली बार हुआ है कि प्रधानमंत्री ने अलग-अलग मंत्रालयों के सचिवों से उनके मंत्रियों की अनुपस्थिति में सीधे कार्यकारी सम्बन्ध स्थापित किये हों। यहां तक कि मंत्रियों के निजी स्टाफ तक की नियुक्ति पर उनका एकाधिकार है। ऐसा लगता है कि नीतियों, वार्षिक कार्ययोजनाओं और पंचवर्षीय योजनाओं को बनाने का काम प्रधानमंत्री के निजी नियंत्रण में होगा।
बेहतर होगा कि केंद्र स्पष्ट कारण दे कि योजना आयोग का दायरा सीमित किया जाना क्यों जरूरी है? साथ ही हर विभाग को अपने कार्यक्षेत्र और जिम्मेदारियों से संबंधित योजनाएं बनाने और उनके पक्ष में तर्क करने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए। यह जरूरी है कि सरकार के कार्यक्रमों और योजनाओं का स्वतंत्र मूल्यांकन हो। वहीं पंचवर्षीय योजनाएं बनाने का काम अब भी योजना आयोग ही करे तो बेहतर होगा, बस तरीकों में बुनियादी बदलाव की जरूरत है।
संविधान में स्पष्ट है कि कौन से विषय राज्य और कौन से केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में हैं। कौन से विषय स्थानीय निकायों तथा राज्य और केंद्र दोनों के कार्यक्षेत्र में हैं। इसी सिद्धांत के आधार पर योजनाएं बननी चाहिए। क्या इस दृष्टिकोण से सरकार योजना आयोग के बारे में निर्णय करेगी?
(लेखक विकास संवाद भोपाल से संबद्ध हैं।)
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