हिमालय, नीलगिरी और सह्याद्रि जैसे उत्तुंग पर्वत, गंगा, सिंधु, नर्मदा, ब्रह्मपुत्र जैसी सुदीर्घ नद-नदियां; और चिलका, वुलर तथा मंचर जैसे प्रसन्न सरोवर जिस देश में विराजते हों, उस देश में एकाध महान, भीषण और रोमांचकारी जलप्रपात न हो तो प्रकृति माता कृतार्थता का अनुभव भला किस प्रकार करे? दक्षिण भारत में कारवार जिले तथा मैसूर रिसायत की सीमा पर एक ऐसा प्रपात है, जो संसार में अद्वितीय या सर्वश्रेष्ठ पद का एक मात्र भोक्ता चाहे न हो, फिर भी ऐसे सर्वश्रेष्ठ प्रपातों में एक जरूर है। अंग्रेज लोग उसे ‘गिरसप्पा फॉल्स’ के नाम से पहचानते हैं। उसका स्वदेशी नाम है ‘जोग’।
लार्ड कर्जन जब भारत में आया तब जोग का प्रपात देखने के लिए वह इतना उत्सुक हुआ था कि इस देश में आने के बाद पहले मौके का फायदा उठाकर वह उसे देखने गया और उसके अद्भुत सौंदर्य से उसने अपनी आंखें ठंडी की। उसके बाद हमारे देश में इस प्रपात की प्रतिष्ठा बढ़ गई। जहां से लॉर्ड कर्जन ने प्रपात को देखकर अपने आपको कृतार्थ किया था, वहां मैसूर सरकार ने एक चबूतरा बनवाया है। उसको ‘कर्जन सीट’ कहते हैं।
प्रपात के पास ही मैसूर सरकार ने एक अतिथिशाला बनवाई है। उसके मेहमानों की सूची में प्रकृति-प्रेमी देशी-विदेशी यात्रियों ने समय-समय पर अपने आनंदोद्गार लिख रखे हैं। इन उद्गारों का ही एक संग्रह यदि प्रकाशित करें तो वह प्रकृति-काव्य की एक असाधारण मंजूषा हो। यह सारा काव्य उच्च कोटि का होता तो भी जोग के प्रत्यक्ष दर्शन से उसकी अपूर्णता ही सिद्ध होती और मुंह से यकायक उद्गार निकलतेः
एतावान् अस्य महिमा अतो ज्यायांश्च पूरुषः।
शरावती तो है एक छोटी सी नदी। फिर भी उसके तीन-तीन नाम क्यों रखे गये होंगे? प्रथम वह भारंगी या बारहगंगा के नाम से पहचानी जाती है। बीच के हिस्से में उसे शरावती कहते हैं। और जहां वह प्रौढ़ता से समुद्र में मिलती है वहां उसे बाल नदी कहते हैं! शरावती के प्रवाह ने यदि इस रोमांचकारी प्रपात का रूप धारण न किया होता तो भी उसने अपने प्राकृतिक सौंदर्य के द्वारा मनुष्यों का मन हरण किया ही होता। किन्तु तब वह हिन्दुस्तान की अनेक सुन्दर नदियों में से एक नदी ही मानी जाती। इस प्रपात के कारण छोटी सी शरावती भारत वर्ष की एक अद्वितीय सरिता बन गई है।
जोग के इस अलौकिक दृश्य का दर्शन करने के लिए राजा जी तथा दूसरे मित्रों के साथ मैं प्रथम गया था, उस समय के उस अद्भुत दृश्य के दर्शन से एक कुतूहल तृप्त हो ही रहा था कि इतने में मनुष्य-स्वभाव के अनुसार मन में कुतुहलजन्य एक नया संकल्प उठा कि इतनी ऊंचाई से कूदने के बाद यह नदी आगे कहां जाती होगी, वहां कैसी मालूम होती होगी और सरित्पति के साथ उसका किस तरह मिलन होता होगा, यह सब कभी न कभी जरूर देखना चाहिये। और हो सके तो बच्चा बन कर शरावती के वक्षस्थल पर (नौका) विहार करना चाहिये। अंतरात्मा की इस जिज्ञासा को सत्यसंकल्प ईश्वर ने आशीर्वाद दिया और एक तप (12 वर्ष) की अवधि पूरी होने के पहले ही जोग का दूसरी बार दर्शन करने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ। पहली बार हम ऊपर की ओर से प्रपात की तरफ गये थे। इस बार नदी के मुख की ओर से प्रवेश करके नाव में बैठकर हमने प्रतीप यात्रा की। और नाव जहां अटक गई वहां से तैलवाहन (मोटर) के सहारे घाट चढ़कर हम प्रपात के सिर पर पहुंचे।
वहां शरावती की उस अर्धचंद्राकार घाटी में चार प्रपात हैं। दाई ओर ‘राजा’ नामक प्रपात है, जो ऊपर से एकदम 960 फुट नीचे कूदता है। उसका ‘राजा’ नाम यथार्थ ही हैः उसकी जलराशि, उसका उन्माद और उसकी हिम्मत किसी जगदेक सम्राट् को शोभा दे सके ऐसी है। उसकी बाई ओर का महारुद्र के समान गर्जना करने वाला ‘रुद्र (Roarer) प्रपात’ राजा के चरणों पर जाकर गिरता है। रुद्र की घोर गर्जना आस-पास की टेकरियों तथा घाटी को मीलों तक निनादित करती है। उसकी ध्वनि को न तो मेघ-गंभीर कह सकते हैं, न सागर-गंभीर। क्योंकि मेघ-गर्जना आकाश-विद्रावी होने पर भी क्षणजीवी होती है और सागर की सनातन गर्जना को ज्वार-भाटे के अनुसार झूलना पड़ता है। रुद्र की ध्वनि अविरत, अखंड और धारावाही होती है। उस ध्वनि का उन्माद विलक्षण होता है।
राजा और रुद्र को संसार में कहीं पर भी सम्राट की पदवी मिल सकती है। किन्तु जोग का सच्चा वैभव तो आकाश में विविध रूप से उड़ने वाली वीरभद्र (Rocket) की शुभ्र जल-जटाओं के कारण है। वीरभद्र का प्रपात हाथी के गंडस्थल जैसे एक विशाल शिलाखंड पर गिरते ही उसमें से बारूदखाने के तीरों जैसे फव्वारे ऊंचे और ऊंचे उड़ते ही चले जाते हैं। यह क्या शंकर का तांडव-नृत्य है? या महाकवि व्यास की प्रतिभा का नवनवोन्मेषशाली कल्पना-विलास है? या सूर्यबिंब के पृष्ठ भाग से बाहर पड़ने वाली सर्वसंहारकारी किन्तु कल्पनारम्य ज्वालायें हैं? या भूमाता की वात्सल्य-प्रेरित स्तन्यधाराओं के फव्वारे हैं? ऐसी-ऐसी अनेक कल्पनायें मन में उठती हैं। वीरभद्र सचमुच देखनेवालों की आंखों को पागल बना देता है।
वीरभद्र की बाईं ओर की कर्पूरगौरा, तन्वंगी और अनुदरी पर्वतकन्या पार्वती (Lady) अपने लावण्य से हमें आनंदित करती है।
चारों प्रपातों की मानो रक्षा करने के लिए ही उनके दोनों ओर दो प्रचंड पहाड़ खड़े हैं। ये संतरी खड़े-खड़े और क्या कर सकते हैं? प्रपातों की अखंड गर्जना को प्रतिक्षण प्रतिध्वनित करते रहना, उनके इंद्रधनुषों को धारण करना और विविध प्रकार की वनस्पति से अपनी देह को सजा कर पुलकित रहना यही उनकी अविरत प्रवृत्ति हो बैठी है।
अबकी बार जब हम गये तब गर्मी के दिन थे। भारंगी का पानी अच्छा खासा उतर गया था। वीरभद्र की जटायें कहीं भी नजर नहीं आती थीं। रुद्र की लंबी-लंबी उछल-कूद भी कम हो गई थी। पार्वती ने अब विरहिणी का वेश धारण कर लिया था। हमे उम्मीद थी कि कम से कम राजा का वैभव तो देखने लायक होगा ही। किन्तु विश्वजित यज्ञ के अंत में धन्यता अनुभव करने वाला कोई सम्राट जिस प्रकार अकिंचन बन जाता है और उस हालत में भी अपने वैभव को व्यक्त करता है, ठीक वही हालत ‘राजा’ की हो गई थी।
अबकी बार हम शरावती की दाईं ओर यानी उत्तर की ओर आ पहुंचे थे। अतिथिगृह में रुके बिना हम दौड़ते-दौड़ते सीधे ‘राजा’ प्रपात की बगल में जा खड़े हुए।
वहां एक ओर सख्त धूप थी और दूसरी ओर नीचे से उड़नेवाले तुषारों का ठंडा कोहरा था; इन दोनों के बीच फंसने से हमारी जो दशा हुई उसका वर्णन करना कठिन है। राजा के मुकुट जैसे शोभनेवाले गरम-गरम पत्थरों पर झुककर हमने नीचे घाटी में देखा। ऊपर से राजा की जो धारा नीचे गिरती थी वह ठेठ जमीन तक पहुंचती ही नहीं थी। किसी मन्दोमत्त हाथी सूंड़ के समान एक प्रचंड स्रोत ऊपर से नीचे गिरता हुआ दीख पड़ता था। नीचे गिरते-गिरते शतधा विदीर्ण होकर उसकी सहस्त्र धारायें बन जाती थीं, और आगे जाकर उन धाराओं के बड़े-बड़े जल बिंदु बन जाने के कारण वे मोती की मालाओं की तरह शोभा पानी लगती थीं। इन मोतियों का भी आगे जाकर चूर्ण बन गया और उसके बड़े-बड़े कण नजर आन लगे। अब नीचे और आगे जाना छोड़कर उन्होंने थोड़ा स्वच्छंद-विहार शुरू किया। ये बड़े कण भी छिन्न-भिन्न हो गये, उन्होंने सीकर-पुंज का रूप धारण किया और बादलों के समान विहार करने लगे। मगर प्रकृति-माता को इतने से ही संतोष नहीं हुआ। आगे जाकर इन बादलों से नीहारिकाओं का कोहरा बना और पवन की लहरों के साथ उड़कर वह सारी हवा को शीतल बनाने लगा। आश्चर्य की बात तो यह थी कि इतनी बड़ी जलधारा की एक बूंद भी जमीन तक पहुंच नहीं पाती थी। नीचे की जमीन गरम और ऊपर की ठंडी! इस स्थिति को देखकर मुझे राजाओं का बगैर किसी व्यवस्था का दान याद आया। प्रजाजनों को अकाल से पीड़ित देखकर हमारे राजा जब उदार हाथों से पैसे देने लगते हैं तब उनके जयनाद से सारा वायुमंडल गूंज उठता है। किन्तु बेचारी गरीब जनता के मुंह तक अन्न का एक दाना भी पहुंच नहीं पाता! बीच के अमले ही सब खा जाते हैं।
अलकेश्वर के दिल में भी ईर्ष्या उत्पन्न हो ऐसी यहां के इंद्र-धनुषों की शोभा थी। भेद केवल यह था कि ये इंद्र-धनुष स्थायी नहीं थे। पवन की तरंगें जैसे-जैसे दिशाएं बदलती जाती है, वैसे-वैसे ये सीकर-पुंज भी अपने स्थान बदलते जाते। इस कारण से पार्वती के इशारे से जिस तरह शंकर नाचने लगते हैं, उसी तरह ये इंद्र-धनुष भी इधर-उधर दौड़ते हुए नजर आते थे। क्षण में क्षीण हो, जाते तो दूसरे ही क्षण मयासुर के महल की शोभा धारण करते। कर्म के साथ जिस प्रकार उसका फल आता ही है, उसी प्रकार हरेक धनुष के साथ उसका प्रति-धनुष भी अपना वर्णक्रम ठीक उलटा करके हाजिर होता ही था। हमने स्थान बदला, इसलिए उन सुर धनुषों ने भी अपना स्थल बदला। सुरधनु और सुरधुनी का यह आह्लादजनक खेल हम काफी देर तक विस्मय-विमुग्ध भाव से देखते ही रहे। जितना अधिक देखते उतनी दर्शन की पिपासा बढ़ती जाती। हमें मालूम था कि हम घंटे दो घंटे ही यहां पर रह सकेंगे। प्रतिक्षण हमारा समयरूपी पुण्य क्षीण होता जा रहा है, और थोड़ी ही देर में हमें मर्त्यलोक में वापस लौटना होगा, इस बात का हमें ख्याल था। स्वर्गलोभी देवता जिस विषाद के साथ स्वर्ग सुख का उपभोग करते हैं, पराक्रमी पुरुष अपने यौवन के उत्तरार्ध में अपने संकल्प की पूर्ति के लिए जितने अधीर बन जाते हैं, उतने ही विषाद से और उतने ही अधीर बनकर हम सब उस गंधर्व-नगरी का आंख, कान, नाक और सारी त्वचा से सेवन करने लगे और साथ-साथ हमारी कल्पनाओं द्वारा उसी आनंद को शतगुणित करके उसका उपभोग करने लगे।
एक दिन पहले हम तीन नावें लेकर निकले थे। बीच की नाव में स्त्रियां और बालक थे और हम पुरुष लोग दोनों ओर की दोनों नाव में बैठे थे। रात का समय था। ऊपर आकाश में चांद हंस रहा था। उसका वह काव्य लड़कियों ने हृदय में ग्रहण कर लिया और वहां से वह उनके आलापों के रूप में बाहर आने लगा। हरेक लड़कोने अपना प्यारा गीत नदी की सतह पर तैरता छोड़ दिया। वह नाद कानों पर पड़ते ही किनारे पर के नारियल और सुपारी के पेड़ रोमांचित हो उठे और अपने उन्नत सिर कुछ झुकाकर उन आलापों का वे पान करने लगे। थक जाने तक लड़कियों ने गीत गाये। फिर वे सो गई। चांद अस्त हुआ। सर्वत्र अंधकार का साम्राज्य प्रस्थापित हुआ। और अनंत सितारे आसपास की टेकरियों को अनिमेष दृष्टि से देखने लगे। यह कहना मुश्किल था कि आसपास की नीरव शांति जाग रही थी या वह भी निद्रा में पड़ी थी।
जब-जब हम नींद में से जग जाते तब-तब कभी पतवार की आवाज, कभी खलासियों के बांस के साथ कुश्ती खेलते हुए पानी की आवाज, और कभी खलासियों के एक-दूसरे को पुकारने की तीक्ष्ण आवाज सुनाई देती। आखिर पौ फटी। पंछियो ने अपना कलरव शुरू किया। मेरे मन में आयाः बीच की नाव में सोयी हुई कोयलें भी यदि जाग जायें तो कितना अच्छा हो! मेरे गद्य निमंत्रण का उन्होंने आलापों से ही उत्तर दिया। वृक्षों ने भी रात के समय सुने हुए आलापों को याद करके, एक-दूसरे-को यह बताने के लिए कि ‘यही तो रात का संगीत है’ अपने सिर हिलाने शुरू किये। रात का जलविहार सचमुच सात्त्विक, शांतिमय और यौवनमय था।
उषःकाल का जलविहार भी उतना ही सात्त्विक, शांतिमय और यौवन-प्रसन्न था, जब कि प्रपात का यहां का दर्शन तो अद्भुत-भीषण और रोम-हर्षण था। अब उन लड़कियों के चेहरों पर प्रातःकाल की मुग्ध प्रसन्नता नहीं रही थी। इतने अद्भुत दृश्य का सर्जन किस प्रकार हुआ होगा? सचमुच हम पृथ्वीतल पर हैं या स्वप्नसृष्टि में? इसका विस्मय उनके चेहरों पर स्पष्ट रूप से नजर आता था। वे एक-दूसरे की आंखों की ओर देखकर अपना विस्मय बढ़ाती जा रही थीं और उनके इस विस्मय को देखकर हमें इस प्रकार का गर्व मालूम होता था, मानों हम ही इस काव्यमय सृष्टि के विधाता हों।
भोजन का समय हो चुका था। नौकाएं छोड़कर हम एक गांव के नजदीक आ पहुंचे। वहां चावल कूटने की एक चक्की थी। भक् भक् भक् करती हुई यह चक्की गरीब लोगों की शांति, उनका स्वास्थ्य उनकी आजीविका को और भी कूटपीट कर नष्ट कर रही थी। हमने अघाकर खाना खाया और हमारे इंतजार में खड़े तैल वाहन मे हम आरूढ़ हुए।
पेट्रोल के एक डिब्बे में थोड़ा सा तेल बाकी था। हमारा सारथी उसी में पानी भरकर ले आया और मोटर में डाला। पानी गरम हुआ और तेल का धुंआ पानी में मिला। फिर क्या पूछना था? कदम-कदम पर मोटर रूकरने लगी, चिल्लाने लगी; शिकायत करने लगी और बदबू छोड़ने लगी। हम भी ऊब गये, गुस्से में आये, आग बबूला हुए और अंत में यह देखकर कि अब कोई इलाज ही नहीं है, ठंडे पड़ गये। बंगला भाषा की एक काहवत का मुझे स्मरण हो आयाः ‘जले तेले मिश खाये ना’। बड़ी मुश्किल से, किसी न किसी तरह जब हम पानी वाली जगह पर आ पहुंचे तब पुराने विप्लवी पानी को निकालकर हमने उसमें शुद्ध सज्जन पानी भर लिया उसके बाद हमारा रास्ता बिलकुल आसान हो गया।
बरसों से चर्चा चल रही है कि गिरसप्पा के प्रपात से बिजली पैदा की जाय या नहीं। शरावती के पानी को एक ओर से मोड़कर बड़े-बड़े नलों द्वारा नीचे उतारकर वहां उसकी मदद से यदि बिजली पैदा की जा सके, तो सारी मैसूर रियासत को सस्ते दाम में बिजली दी जा सकेगी। इतना ही नहीं, बल्कि उत्तर और दक्षिण कानड़ा जिलों को भी दी जा सकेगी। इससे लोगों को बड़ा फायदा होगा। किन्तु इससे वह अद्भुतरम्य प्राकृतिक दृश्य हमेशा के लिए नष्ट हो जाएगा। इन दो बातों में से कौन सी अधिक इष्ट है, इसका अब तक कोई निर्णय नहीं हो सका है। हजारों- नहीं, लाखों लोगों को पेटभर अन्न मिलेगा। सैंकड़ों विज्ञानवेत्ता नव युवकों को अपनी योग्यता सिद्ध करने का मौका मिलेगा। हजारों जानवरों की पीड़ा दूर होगी। एक स्थान पर इस तरह का कारखाना सफल हो सका तो भारत के सब प्रपातों का ऐसा ही उपयोग किया जा सकेगा और देश को एक महान शक्ति का हमेशा के लिए लाभ मिल जायगा। तब क्या केवल एक भीषरम्य दृश्य के लोभ से हम इन अनेक हितकर बातों को छोड़ दें? कला के शौक की भी कोई सीमा है या नहीं? अपनी रानी के मनोविनोद के लिए अपनी राजधानी रोम को जला डालने वाले नीरों की सुलतानी वृत्ति में और इस प्रकार की कला-भक्ति में तत्त्वतः क्या फर्क है?
इस प्रश्न के उत्तर में जो कुछ कहा जाता है उसका जिक्र करने से पहले थोड़े से विषयांतर की आवश्यकता है। यूरोप में जब महायूद्ध छिड़ गया और लाखों नौजवान तोपों तथा बंदूकों के शिकार हुए, तब साहित्य-शिरोमणि रोमां रोलां की भूतदया द्रवीभूत हुई और अन्य लोगों के समान, खुद उन्होंने भी इन घायल लोगों की सेवा का कुछ प्रबंध किया। किन्तु जब उभय पक्ष के शत्रुओं ने एक-दुसरे की कलापूर्ण इमारतों पर बम-वर्षा शुरू की तब उनकी कलात्मा पुण्य प्रकोप से सुलग उठी और उन्होंने बुलंद आवाज से सारे यूरोप को चेतावनी दीः ‘ऐ कमबख्तो, तुम्हें एक-दूसरे को मार डालना हो तो मार डालो; इस संसार से तुम्हें बिल्कुल नष्ट हो जाना हो तो नष्ट हो जाओ। किन्तु ये कलाकृतियां तो आत्मा की अभिव्यक्ति करने वाली अमर कृतियां है। उन्हीं के द्वारा समस्त मानव-जाति की आत्मा अपने आपकों व्यक्त करती है-और कुछ नहीं तो कम-से-कम इनका तो नाश न करो!!’
रोमां रोलांकी आर्षवाणी यूरोप की आत्मा ने सुनी और युध्यमान पक्षों ने कला कृतियों का संहार बंद कर दिया। अब सवाल यह है कि क्या कलाकृतियां सचमुच मानव की आत्मा की अभिव्यक्ति की द्योतक या प्रेरक हैं? या उच्च अभिरुचि के आवरण के पीछे रही हुई विलासिता की ही साधन-सामग्री है।?
कला को जिसने सचमुच पहचाना है वह फौरन बता देगा कि कला और विलासिता के बीच जमीन आसमान का फर्क है और सच्ची कलाकृति के द्वारा जो निरतिशय आनन्द होता है वह सोयी हुई आत्मा को सचमुच जागृत करता ही है। करोड़ों वॉल्ट की विद्युतशक्ति पैदा करके लाखों लोगों की आजीविका का प्रबंध करना कोई साधारण बात नहीं है। किन्तु असंख्य लोगों को कला के द्वारा जो आनंद या संस्कारिता प्राप्त होती है वह तो उनकी आत्मा को पोषण देने वाली चीज है।
और जोग कोई मानवकृत कलाकृति नहीं है। उलटे, वह तो कलाकारों को भव्यता और सभ्यता की एक ही साथ शिक्षा और दीक्षा देने वाली प्रकृति माता की अलौकिक विभूति है। उसे नष्ट करना नास्तिक विद्रोह के समान है। उसे नष्ट करने से पहले हमें सहस्त्र बार सोचना होगा। जोग का प्रपात वर्तमान युग की ही संपत्ति नहीं है। हमारे अनेक ऋषि-पूर्वजों ने उसेक पास बैठकर ईश्वर का ध्यान किया होगा और भविष्य में हमारे वंशजों के वंशज उसका दर्शन करके अपने जीवन की अज्ञात वृत्तियों और शक्तियों का साक्षात्कार करेंगे।
उपयुक्ततावाद का सहारा लेकर ‘अल्पस्य हेतोः बहु हातुम् इच्छन्’ जैसे जड़ हम न बनें। इस प्रपात को सुरक्षित रखकर उससे कोई लाभ उठाया जा सकता हो तो भले उठायें। मानव-बुद्धि के लिए यह बात असंभव नहीं होनी चाहिये। किन्तु इस तांडवयोग के दर्शन से मनुष्य-जाति को वंचित करने का धर्मतः किसी को हक नहीं है। मंदिर में हम मूर्ति की स्थापना करते हैं उसी तरह प्रकृति ने भी विराट् स्वरूप की भव्य प्रतिमाओं की यहां, हमारे सामने, स्थापना की है। यहां केवल दर्शन, ध्यान और उपासना के लिए आना चाहिये और हृदय में यदि कुछ सामर्थ्य हो तो इनके साथ तदाकार हो जाना चाहिये। यही हमारा अधिकार है।
मई 1938
लार्ड कर्जन जब भारत में आया तब जोग का प्रपात देखने के लिए वह इतना उत्सुक हुआ था कि इस देश में आने के बाद पहले मौके का फायदा उठाकर वह उसे देखने गया और उसके अद्भुत सौंदर्य से उसने अपनी आंखें ठंडी की। उसके बाद हमारे देश में इस प्रपात की प्रतिष्ठा बढ़ गई। जहां से लॉर्ड कर्जन ने प्रपात को देखकर अपने आपको कृतार्थ किया था, वहां मैसूर सरकार ने एक चबूतरा बनवाया है। उसको ‘कर्जन सीट’ कहते हैं।
प्रपात के पास ही मैसूर सरकार ने एक अतिथिशाला बनवाई है। उसके मेहमानों की सूची में प्रकृति-प्रेमी देशी-विदेशी यात्रियों ने समय-समय पर अपने आनंदोद्गार लिख रखे हैं। इन उद्गारों का ही एक संग्रह यदि प्रकाशित करें तो वह प्रकृति-काव्य की एक असाधारण मंजूषा हो। यह सारा काव्य उच्च कोटि का होता तो भी जोग के प्रत्यक्ष दर्शन से उसकी अपूर्णता ही सिद्ध होती और मुंह से यकायक उद्गार निकलतेः
एतावान् अस्य महिमा अतो ज्यायांश्च पूरुषः।
शरावती तो है एक छोटी सी नदी। फिर भी उसके तीन-तीन नाम क्यों रखे गये होंगे? प्रथम वह भारंगी या बारहगंगा के नाम से पहचानी जाती है। बीच के हिस्से में उसे शरावती कहते हैं। और जहां वह प्रौढ़ता से समुद्र में मिलती है वहां उसे बाल नदी कहते हैं! शरावती के प्रवाह ने यदि इस रोमांचकारी प्रपात का रूप धारण न किया होता तो भी उसने अपने प्राकृतिक सौंदर्य के द्वारा मनुष्यों का मन हरण किया ही होता। किन्तु तब वह हिन्दुस्तान की अनेक सुन्दर नदियों में से एक नदी ही मानी जाती। इस प्रपात के कारण छोटी सी शरावती भारत वर्ष की एक अद्वितीय सरिता बन गई है।
जोग के इस अलौकिक दृश्य का दर्शन करने के लिए राजा जी तथा दूसरे मित्रों के साथ मैं प्रथम गया था, उस समय के उस अद्भुत दृश्य के दर्शन से एक कुतूहल तृप्त हो ही रहा था कि इतने में मनुष्य-स्वभाव के अनुसार मन में कुतुहलजन्य एक नया संकल्प उठा कि इतनी ऊंचाई से कूदने के बाद यह नदी आगे कहां जाती होगी, वहां कैसी मालूम होती होगी और सरित्पति के साथ उसका किस तरह मिलन होता होगा, यह सब कभी न कभी जरूर देखना चाहिये। और हो सके तो बच्चा बन कर शरावती के वक्षस्थल पर (नौका) विहार करना चाहिये। अंतरात्मा की इस जिज्ञासा को सत्यसंकल्प ईश्वर ने आशीर्वाद दिया और एक तप (12 वर्ष) की अवधि पूरी होने के पहले ही जोग का दूसरी बार दर्शन करने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ। पहली बार हम ऊपर की ओर से प्रपात की तरफ गये थे। इस बार नदी के मुख की ओर से प्रवेश करके नाव में बैठकर हमने प्रतीप यात्रा की। और नाव जहां अटक गई वहां से तैलवाहन (मोटर) के सहारे घाट चढ़कर हम प्रपात के सिर पर पहुंचे।
वहां शरावती की उस अर्धचंद्राकार घाटी में चार प्रपात हैं। दाई ओर ‘राजा’ नामक प्रपात है, जो ऊपर से एकदम 960 फुट नीचे कूदता है। उसका ‘राजा’ नाम यथार्थ ही हैः उसकी जलराशि, उसका उन्माद और उसकी हिम्मत किसी जगदेक सम्राट् को शोभा दे सके ऐसी है। उसकी बाई ओर का महारुद्र के समान गर्जना करने वाला ‘रुद्र (Roarer) प्रपात’ राजा के चरणों पर जाकर गिरता है। रुद्र की घोर गर्जना आस-पास की टेकरियों तथा घाटी को मीलों तक निनादित करती है। उसकी ध्वनि को न तो मेघ-गंभीर कह सकते हैं, न सागर-गंभीर। क्योंकि मेघ-गर्जना आकाश-विद्रावी होने पर भी क्षणजीवी होती है और सागर की सनातन गर्जना को ज्वार-भाटे के अनुसार झूलना पड़ता है। रुद्र की ध्वनि अविरत, अखंड और धारावाही होती है। उस ध्वनि का उन्माद विलक्षण होता है।
राजा और रुद्र को संसार में कहीं पर भी सम्राट की पदवी मिल सकती है। किन्तु जोग का सच्चा वैभव तो आकाश में विविध रूप से उड़ने वाली वीरभद्र (Rocket) की शुभ्र जल-जटाओं के कारण है। वीरभद्र का प्रपात हाथी के गंडस्थल जैसे एक विशाल शिलाखंड पर गिरते ही उसमें से बारूदखाने के तीरों जैसे फव्वारे ऊंचे और ऊंचे उड़ते ही चले जाते हैं। यह क्या शंकर का तांडव-नृत्य है? या महाकवि व्यास की प्रतिभा का नवनवोन्मेषशाली कल्पना-विलास है? या सूर्यबिंब के पृष्ठ भाग से बाहर पड़ने वाली सर्वसंहारकारी किन्तु कल्पनारम्य ज्वालायें हैं? या भूमाता की वात्सल्य-प्रेरित स्तन्यधाराओं के फव्वारे हैं? ऐसी-ऐसी अनेक कल्पनायें मन में उठती हैं। वीरभद्र सचमुच देखनेवालों की आंखों को पागल बना देता है।
वीरभद्र की बाईं ओर की कर्पूरगौरा, तन्वंगी और अनुदरी पर्वतकन्या पार्वती (Lady) अपने लावण्य से हमें आनंदित करती है।
चारों प्रपातों की मानो रक्षा करने के लिए ही उनके दोनों ओर दो प्रचंड पहाड़ खड़े हैं। ये संतरी खड़े-खड़े और क्या कर सकते हैं? प्रपातों की अखंड गर्जना को प्रतिक्षण प्रतिध्वनित करते रहना, उनके इंद्रधनुषों को धारण करना और विविध प्रकार की वनस्पति से अपनी देह को सजा कर पुलकित रहना यही उनकी अविरत प्रवृत्ति हो बैठी है।
अबकी बार जब हम गये तब गर्मी के दिन थे। भारंगी का पानी अच्छा खासा उतर गया था। वीरभद्र की जटायें कहीं भी नजर नहीं आती थीं। रुद्र की लंबी-लंबी उछल-कूद भी कम हो गई थी। पार्वती ने अब विरहिणी का वेश धारण कर लिया था। हमे उम्मीद थी कि कम से कम राजा का वैभव तो देखने लायक होगा ही। किन्तु विश्वजित यज्ञ के अंत में धन्यता अनुभव करने वाला कोई सम्राट जिस प्रकार अकिंचन बन जाता है और उस हालत में भी अपने वैभव को व्यक्त करता है, ठीक वही हालत ‘राजा’ की हो गई थी।
अबकी बार हम शरावती की दाईं ओर यानी उत्तर की ओर आ पहुंचे थे। अतिथिगृह में रुके बिना हम दौड़ते-दौड़ते सीधे ‘राजा’ प्रपात की बगल में जा खड़े हुए।
वहां एक ओर सख्त धूप थी और दूसरी ओर नीचे से उड़नेवाले तुषारों का ठंडा कोहरा था; इन दोनों के बीच फंसने से हमारी जो दशा हुई उसका वर्णन करना कठिन है। राजा के मुकुट जैसे शोभनेवाले गरम-गरम पत्थरों पर झुककर हमने नीचे घाटी में देखा। ऊपर से राजा की जो धारा नीचे गिरती थी वह ठेठ जमीन तक पहुंचती ही नहीं थी। किसी मन्दोमत्त हाथी सूंड़ के समान एक प्रचंड स्रोत ऊपर से नीचे गिरता हुआ दीख पड़ता था। नीचे गिरते-गिरते शतधा विदीर्ण होकर उसकी सहस्त्र धारायें बन जाती थीं, और आगे जाकर उन धाराओं के बड़े-बड़े जल बिंदु बन जाने के कारण वे मोती की मालाओं की तरह शोभा पानी लगती थीं। इन मोतियों का भी आगे जाकर चूर्ण बन गया और उसके बड़े-बड़े कण नजर आन लगे। अब नीचे और आगे जाना छोड़कर उन्होंने थोड़ा स्वच्छंद-विहार शुरू किया। ये बड़े कण भी छिन्न-भिन्न हो गये, उन्होंने सीकर-पुंज का रूप धारण किया और बादलों के समान विहार करने लगे। मगर प्रकृति-माता को इतने से ही संतोष नहीं हुआ। आगे जाकर इन बादलों से नीहारिकाओं का कोहरा बना और पवन की लहरों के साथ उड़कर वह सारी हवा को शीतल बनाने लगा। आश्चर्य की बात तो यह थी कि इतनी बड़ी जलधारा की एक बूंद भी जमीन तक पहुंच नहीं पाती थी। नीचे की जमीन गरम और ऊपर की ठंडी! इस स्थिति को देखकर मुझे राजाओं का बगैर किसी व्यवस्था का दान याद आया। प्रजाजनों को अकाल से पीड़ित देखकर हमारे राजा जब उदार हाथों से पैसे देने लगते हैं तब उनके जयनाद से सारा वायुमंडल गूंज उठता है। किन्तु बेचारी गरीब जनता के मुंह तक अन्न का एक दाना भी पहुंच नहीं पाता! बीच के अमले ही सब खा जाते हैं।
अलकेश्वर के दिल में भी ईर्ष्या उत्पन्न हो ऐसी यहां के इंद्र-धनुषों की शोभा थी। भेद केवल यह था कि ये इंद्र-धनुष स्थायी नहीं थे। पवन की तरंगें जैसे-जैसे दिशाएं बदलती जाती है, वैसे-वैसे ये सीकर-पुंज भी अपने स्थान बदलते जाते। इस कारण से पार्वती के इशारे से जिस तरह शंकर नाचने लगते हैं, उसी तरह ये इंद्र-धनुष भी इधर-उधर दौड़ते हुए नजर आते थे। क्षण में क्षीण हो, जाते तो दूसरे ही क्षण मयासुर के महल की शोभा धारण करते। कर्म के साथ जिस प्रकार उसका फल आता ही है, उसी प्रकार हरेक धनुष के साथ उसका प्रति-धनुष भी अपना वर्णक्रम ठीक उलटा करके हाजिर होता ही था। हमने स्थान बदला, इसलिए उन सुर धनुषों ने भी अपना स्थल बदला। सुरधनु और सुरधुनी का यह आह्लादजनक खेल हम काफी देर तक विस्मय-विमुग्ध भाव से देखते ही रहे। जितना अधिक देखते उतनी दर्शन की पिपासा बढ़ती जाती। हमें मालूम था कि हम घंटे दो घंटे ही यहां पर रह सकेंगे। प्रतिक्षण हमारा समयरूपी पुण्य क्षीण होता जा रहा है, और थोड़ी ही देर में हमें मर्त्यलोक में वापस लौटना होगा, इस बात का हमें ख्याल था। स्वर्गलोभी देवता जिस विषाद के साथ स्वर्ग सुख का उपभोग करते हैं, पराक्रमी पुरुष अपने यौवन के उत्तरार्ध में अपने संकल्प की पूर्ति के लिए जितने अधीर बन जाते हैं, उतने ही विषाद से और उतने ही अधीर बनकर हम सब उस गंधर्व-नगरी का आंख, कान, नाक और सारी त्वचा से सेवन करने लगे और साथ-साथ हमारी कल्पनाओं द्वारा उसी आनंद को शतगुणित करके उसका उपभोग करने लगे।
एक दिन पहले हम तीन नावें लेकर निकले थे। बीच की नाव में स्त्रियां और बालक थे और हम पुरुष लोग दोनों ओर की दोनों नाव में बैठे थे। रात का समय था। ऊपर आकाश में चांद हंस रहा था। उसका वह काव्य लड़कियों ने हृदय में ग्रहण कर लिया और वहां से वह उनके आलापों के रूप में बाहर आने लगा। हरेक लड़कोने अपना प्यारा गीत नदी की सतह पर तैरता छोड़ दिया। वह नाद कानों पर पड़ते ही किनारे पर के नारियल और सुपारी के पेड़ रोमांचित हो उठे और अपने उन्नत सिर कुछ झुकाकर उन आलापों का वे पान करने लगे। थक जाने तक लड़कियों ने गीत गाये। फिर वे सो गई। चांद अस्त हुआ। सर्वत्र अंधकार का साम्राज्य प्रस्थापित हुआ। और अनंत सितारे आसपास की टेकरियों को अनिमेष दृष्टि से देखने लगे। यह कहना मुश्किल था कि आसपास की नीरव शांति जाग रही थी या वह भी निद्रा में पड़ी थी।
जब-जब हम नींद में से जग जाते तब-तब कभी पतवार की आवाज, कभी खलासियों के बांस के साथ कुश्ती खेलते हुए पानी की आवाज, और कभी खलासियों के एक-दूसरे को पुकारने की तीक्ष्ण आवाज सुनाई देती। आखिर पौ फटी। पंछियो ने अपना कलरव शुरू किया। मेरे मन में आयाः बीच की नाव में सोयी हुई कोयलें भी यदि जाग जायें तो कितना अच्छा हो! मेरे गद्य निमंत्रण का उन्होंने आलापों से ही उत्तर दिया। वृक्षों ने भी रात के समय सुने हुए आलापों को याद करके, एक-दूसरे-को यह बताने के लिए कि ‘यही तो रात का संगीत है’ अपने सिर हिलाने शुरू किये। रात का जलविहार सचमुच सात्त्विक, शांतिमय और यौवनमय था।
उषःकाल का जलविहार भी उतना ही सात्त्विक, शांतिमय और यौवन-प्रसन्न था, जब कि प्रपात का यहां का दर्शन तो अद्भुत-भीषण और रोम-हर्षण था। अब उन लड़कियों के चेहरों पर प्रातःकाल की मुग्ध प्रसन्नता नहीं रही थी। इतने अद्भुत दृश्य का सर्जन किस प्रकार हुआ होगा? सचमुच हम पृथ्वीतल पर हैं या स्वप्नसृष्टि में? इसका विस्मय उनके चेहरों पर स्पष्ट रूप से नजर आता था। वे एक-दूसरे की आंखों की ओर देखकर अपना विस्मय बढ़ाती जा रही थीं और उनके इस विस्मय को देखकर हमें इस प्रकार का गर्व मालूम होता था, मानों हम ही इस काव्यमय सृष्टि के विधाता हों।
भोजन का समय हो चुका था। नौकाएं छोड़कर हम एक गांव के नजदीक आ पहुंचे। वहां चावल कूटने की एक चक्की थी। भक् भक् भक् करती हुई यह चक्की गरीब लोगों की शांति, उनका स्वास्थ्य उनकी आजीविका को और भी कूटपीट कर नष्ट कर रही थी। हमने अघाकर खाना खाया और हमारे इंतजार में खड़े तैल वाहन मे हम आरूढ़ हुए।
पेट्रोल के एक डिब्बे में थोड़ा सा तेल बाकी था। हमारा सारथी उसी में पानी भरकर ले आया और मोटर में डाला। पानी गरम हुआ और तेल का धुंआ पानी में मिला। फिर क्या पूछना था? कदम-कदम पर मोटर रूकरने लगी, चिल्लाने लगी; शिकायत करने लगी और बदबू छोड़ने लगी। हम भी ऊब गये, गुस्से में आये, आग बबूला हुए और अंत में यह देखकर कि अब कोई इलाज ही नहीं है, ठंडे पड़ गये। बंगला भाषा की एक काहवत का मुझे स्मरण हो आयाः ‘जले तेले मिश खाये ना’। बड़ी मुश्किल से, किसी न किसी तरह जब हम पानी वाली जगह पर आ पहुंचे तब पुराने विप्लवी पानी को निकालकर हमने उसमें शुद्ध सज्जन पानी भर लिया उसके बाद हमारा रास्ता बिलकुल आसान हो गया।
बरसों से चर्चा चल रही है कि गिरसप्पा के प्रपात से बिजली पैदा की जाय या नहीं। शरावती के पानी को एक ओर से मोड़कर बड़े-बड़े नलों द्वारा नीचे उतारकर वहां उसकी मदद से यदि बिजली पैदा की जा सके, तो सारी मैसूर रियासत को सस्ते दाम में बिजली दी जा सकेगी। इतना ही नहीं, बल्कि उत्तर और दक्षिण कानड़ा जिलों को भी दी जा सकेगी। इससे लोगों को बड़ा फायदा होगा। किन्तु इससे वह अद्भुतरम्य प्राकृतिक दृश्य हमेशा के लिए नष्ट हो जाएगा। इन दो बातों में से कौन सी अधिक इष्ट है, इसका अब तक कोई निर्णय नहीं हो सका है। हजारों- नहीं, लाखों लोगों को पेटभर अन्न मिलेगा। सैंकड़ों विज्ञानवेत्ता नव युवकों को अपनी योग्यता सिद्ध करने का मौका मिलेगा। हजारों जानवरों की पीड़ा दूर होगी। एक स्थान पर इस तरह का कारखाना सफल हो सका तो भारत के सब प्रपातों का ऐसा ही उपयोग किया जा सकेगा और देश को एक महान शक्ति का हमेशा के लिए लाभ मिल जायगा। तब क्या केवल एक भीषरम्य दृश्य के लोभ से हम इन अनेक हितकर बातों को छोड़ दें? कला के शौक की भी कोई सीमा है या नहीं? अपनी रानी के मनोविनोद के लिए अपनी राजधानी रोम को जला डालने वाले नीरों की सुलतानी वृत्ति में और इस प्रकार की कला-भक्ति में तत्त्वतः क्या फर्क है?
इस प्रश्न के उत्तर में जो कुछ कहा जाता है उसका जिक्र करने से पहले थोड़े से विषयांतर की आवश्यकता है। यूरोप में जब महायूद्ध छिड़ गया और लाखों नौजवान तोपों तथा बंदूकों के शिकार हुए, तब साहित्य-शिरोमणि रोमां रोलां की भूतदया द्रवीभूत हुई और अन्य लोगों के समान, खुद उन्होंने भी इन घायल लोगों की सेवा का कुछ प्रबंध किया। किन्तु जब उभय पक्ष के शत्रुओं ने एक-दुसरे की कलापूर्ण इमारतों पर बम-वर्षा शुरू की तब उनकी कलात्मा पुण्य प्रकोप से सुलग उठी और उन्होंने बुलंद आवाज से सारे यूरोप को चेतावनी दीः ‘ऐ कमबख्तो, तुम्हें एक-दूसरे को मार डालना हो तो मार डालो; इस संसार से तुम्हें बिल्कुल नष्ट हो जाना हो तो नष्ट हो जाओ। किन्तु ये कलाकृतियां तो आत्मा की अभिव्यक्ति करने वाली अमर कृतियां है। उन्हीं के द्वारा समस्त मानव-जाति की आत्मा अपने आपकों व्यक्त करती है-और कुछ नहीं तो कम-से-कम इनका तो नाश न करो!!’
रोमां रोलांकी आर्षवाणी यूरोप की आत्मा ने सुनी और युध्यमान पक्षों ने कला कृतियों का संहार बंद कर दिया। अब सवाल यह है कि क्या कलाकृतियां सचमुच मानव की आत्मा की अभिव्यक्ति की द्योतक या प्रेरक हैं? या उच्च अभिरुचि के आवरण के पीछे रही हुई विलासिता की ही साधन-सामग्री है।?
कला को जिसने सचमुच पहचाना है वह फौरन बता देगा कि कला और विलासिता के बीच जमीन आसमान का फर्क है और सच्ची कलाकृति के द्वारा जो निरतिशय आनन्द होता है वह सोयी हुई आत्मा को सचमुच जागृत करता ही है। करोड़ों वॉल्ट की विद्युतशक्ति पैदा करके लाखों लोगों की आजीविका का प्रबंध करना कोई साधारण बात नहीं है। किन्तु असंख्य लोगों को कला के द्वारा जो आनंद या संस्कारिता प्राप्त होती है वह तो उनकी आत्मा को पोषण देने वाली चीज है।
और जोग कोई मानवकृत कलाकृति नहीं है। उलटे, वह तो कलाकारों को भव्यता और सभ्यता की एक ही साथ शिक्षा और दीक्षा देने वाली प्रकृति माता की अलौकिक विभूति है। उसे नष्ट करना नास्तिक विद्रोह के समान है। उसे नष्ट करने से पहले हमें सहस्त्र बार सोचना होगा। जोग का प्रपात वर्तमान युग की ही संपत्ति नहीं है। हमारे अनेक ऋषि-पूर्वजों ने उसेक पास बैठकर ईश्वर का ध्यान किया होगा और भविष्य में हमारे वंशजों के वंशज उसका दर्शन करके अपने जीवन की अज्ञात वृत्तियों और शक्तियों का साक्षात्कार करेंगे।
उपयुक्ततावाद का सहारा लेकर ‘अल्पस्य हेतोः बहु हातुम् इच्छन्’ जैसे जड़ हम न बनें। इस प्रपात को सुरक्षित रखकर उससे कोई लाभ उठाया जा सकता हो तो भले उठायें। मानव-बुद्धि के लिए यह बात असंभव नहीं होनी चाहिये। किन्तु इस तांडवयोग के दर्शन से मनुष्य-जाति को वंचित करने का धर्मतः किसी को हक नहीं है। मंदिर में हम मूर्ति की स्थापना करते हैं उसी तरह प्रकृति ने भी विराट् स्वरूप की भव्य प्रतिमाओं की यहां, हमारे सामने, स्थापना की है। यहां केवल दर्शन, ध्यान और उपासना के लिए आना चाहिये और हृदय में यदि कुछ सामर्थ्य हो तो इनके साथ तदाकार हो जाना चाहिये। यही हमारा अधिकार है।
मई 1938
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