याद नही किस कवि ने यह विचार प्रकट किया है; मगर उसका वह विचार मैं अपनी भाषा में यहां रख देता हूं।
“यह सही है कि पहाड़ों के जैसी ऊंची-ऊंची लहरें उछालने वाला समुद्र भयानक मालूम होता है। मगर उसका सारा पानी सूखकर यदि पात्र खाली हो जाय तो हजारों मील तक फैले हुई उसके गहरे गड्ढे कितने भयावने मालूम होगें, इसकी कल्पना भी करना कठिन है। यह सही है कि दुर्जन के पास संम्पत्ति के भंडार हों तो वह उनका दुरुपयोग करके लोगों को सतायेगा। मगर उसकी यह संपत्ति नष्ट होकर वह यदि भूखा कंगाल बन जाय, तो वह किस राक्षसी दुष्टता से बाज आयेगा? अच्छा ही है कि समुद्र पानी से भरपूर है, और दुर्जनों के पास उनकी दुष्टता की आग बुझाने के लिए पर्याप्त संपत्ति रहती है।”
जोग के प्रपात में से राजा और रुद्र के सूखे हुए प्रपातों को देखकर कवि की ऊपर बताई हुई उक्ति याद आने का यद्यपि कोई कारण नहीं था, फिर भी यह उक्ति याद आई जरूर।
सन् 1927 में जब पहले-पहल मैंने जोग का प्रपात देखा था, तब उसका वैभव सोलहों कला से प्रकट हुआ था। पानी का मुख्य प्रपात अपनी प्रचंड जलराशि के साथ 840 फुट नीचे कूदकर नीचे की घाटी में प्रपात के प्रवाह के ही द्वारा तैयार की हुई 150 फुट गहरे तालाब की गद्दी पर गिरता था। इस मुख्य प्रवाह की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए उसके दोनों ओर मोतियों की मालाओं के समान पानी की अनेक धाराएं अनेक ढंग से गिरती थीं। उसके दक्षिण की ओर टेढ़ी सीढ़ियों पर से कूदता-कूदता रुद्र अपना पानी, आधे से अधिक पतन के बाद, राजा के पानी में फेंक देता था। राजा की गर्जना प्रायः नीचे पहुंचने के बाद ही पैदा होती है। रुद्र का प्रपात रावण की तरह अपने जन्म के साथ ही चिल्लाने लगता है।
दोनों प्रपात अद्भुत तो हैं ही। किन्तु उस समय मुझे जो दृश्य अलौकिक लगा था वह था वीरभद्र की उछलती जटाओं का। यह दृश्य मैं फिर कभी नहीं देख पाया। किसी तस्वीर में भी वीरभद्र की उन जटाओं का चित्र नहीं आया है।
आखिरी प्रपात है पार्वती का उसे देखते ही मन में स्त्रीदाक्षिण्य पैदा होता है। दस साल के बाद जब मैंने फिर से जोग का दर्शन किया, तब राजा का स्रोत काफी क्षीण हो चुका था। वीरभद्र की जटाओं का मुंडन हो गया था। रुद्र की चिल्लाहट यद्यपि कम नहीं हुई थी, फिर भी उसका वह बड़ा ताल जोग के क्षीण प्रपात के साथ मिलता नहीं था। और पार्वती तो बिल्कुल कृषांगी तपस्विनी जैसी बन गयी थी।
किन्तु इन सब संकोचों को भुला दे ऐसी खूबी तो थी प्रपात की ठंडी भाप में से उत्पन्न होने वाले इन्द्रधनुषों के भ्रूविलास में यह शोभा जितनी ओर से देखने जाते उतनी ओर से इन्द्र धनुष अपने मुंह घुमाकर नया-नया सौंदर्य प्रकट करते थे।
फिर ठीक दस साल के बाद जोग का वही प्रपात देखने के लिए जब हम अबकी बार गये तब चार प्रपातों में से तीन तो बिलकुल सूख गये थे। रुद्र के अभाव में सर्वत्र श्मशान-शांति फैली हुई थी। राजा के सूख जाने से उसके पीछे की एक के नीचे एक दो बड़ी दरारे औरंगजेब द्वारा निकाली हुई संभाजी की आंखों जैसी भयावनी मालूम होती थीं। पार्वती तो मानों दक्ष के यज्ञ में जाकर भस्म हो गई थी और वीरभद्र ऐसा मालूम होता था मानो दक्ष का नाश करने के बाद कुछ शांत होकर अपने स्वामी के ससुर की मृत्यु पर नीरव आंसू ढाल रहा हो। इतनी खिन्नता तो शायद महाभारत के युद्ध के बाद कुरुक्षेत्र पर भी नहीं छाई होगी।
पहली बार हम गये थे शिमोग-सागर के रास्ते से-गुजरात में आयी हुई बाढ़ के संकट के दिनों में। दूसरी बार गये इरादतन समुद्र के छोर से उलटे क्रम से –शरावती के पानी में ऊपर की ओर यात्रा करके। हमारे पूर्वजों ने कहा हैः ‘नदी मुखेनैवसमुद्रमाविशेत्।’ इस नसीहत से ठीक उल्टे हम शरावती-सागर-संगम से नाव में बैठकर प्रतीप क्रम से प्रपात की सीढ़ियों तक पहुंचें और वहां से पहाड़ की पगडंडी से ऊपर चढ़कर प्रपात के सिर पर जा पहुंचे थे। अबकी बार हमने तीसरा रास्ता लेकर यात्रा की। शिरसी से सिद्धापुर होकर हम प्रपात की बंबई वाली बाजू पर गये। वहां राजा के सिर पर विराजनेवाली एक बड़ी शिला पर लेटकर हमने नीचे का रोमहर्षण दृश्य देखा। आले के जैसी भयावनी दरार के सिर पर जाकर अंदर देखने से सारा बदन कांप उठता है। मन में यह संदेह पैदा हुए बिना नहीं रहता की यह शिला अपने ही भार से कहीं टूट तो नहीं जाएंगी?
इस शिला के बगल में उतनी ही बड़ी और उतनी ही भयावनी जगह पर दूसरी शिला है। उस पर प्राचीन काल में किसी राजा का लग्नमंडप खड़ा किया गया होगा। आज उस मंडप के चार स्तंभ जिस पर खड़े किये गये थे वह चार सुराखों वाला एक बड़ा चबूतरा उस शिला पर दिखाई देता है। भयावने प्रपात की दरार के किनारे मंडप खड़ा करके विवाह करने वाले राजा की काव्यमय वृत्ति की बलिहारी है! ऐसे शौकीन राजा के साथ जिसने शादी की उस राज कन्या को इस मंडप में बैठते समय कैसा अनुभव हुआ होगा! किसी ने बताया, ‘भीषण रस के रसिया उस राजा के नाम पर ही इस प्रपात का नाम राजा रखा गया है।’ मैंने मन में सोचा, ‘तब तो उससे शादी करने वाली राजकन्या का नाम हम नहीं जानते इस बात का फायदा उठाकर उसी को हम पार्वती क्यों न कहें? पर्वत की दरार के किनारे उसने शादी की; क्या इतना कारण उसे पार्वती कहने के लिए बस नहीं है?
ऐसा नहीं है कि पहाड़ों में आले की जैसी दरारें मैंने न देखी हों। मस्जिदों में भी दीवारों में गहराई साधकर उनके किनारे मेहराब बनाते हैं। किन्तु राजा के नीचे का आला तो कालपुरुष के मुंह से बड़ा और गहरा था। उसके भीतर जहां जगह मिले वहां पक्षी अपने घोंसले बनाते हैं और चुनकर लाये हुए अनाज के दानों का संग्रह करते हैं।
बम्बई की ओर से यानी उत्तर की ओर से जी भरकर देखने के बाद हम मोटर में बैठकर पूर्व की ओर गये। वहां दो नावों को बांधकर बनाये हुए बेड़े पर-जिसे यहां ‘जंगल’ कहते हैं-हमारी मोटर को चढ़ाकर हम शरावती नदी को पार करके दक्षिण के किनारे आ पहुंचे। वहां मैसूर सरकार की अतिथिशाला के पास के फिर एक बार सारी दरार का दृश्य देखा। बीस साल पहले यहीं से राजा, वीरभद्र और पार्वती-का देवदुर्लभ दृश्य देखा था। ऐसा नहीं था कि अबकि बार के सूखे दृश्य में काव्य न हो। एक के नीचे एक, दो बड़े आले 840 फुट के पतन को नाप रहे हैं। ऐसा दृश्य विधाता की इस विविध सृष्टि में हर कहीं देखने को थोड़े ही मिलने वाला है!
मेरे मन में छाया हुआ विषाद मैंने पेड़ों पर नहीं देखा। दोनों आलों में गोल-गोल चक्कर काटने वाले पक्षी भी विषण्ण नहीं दिखाई देते थे। आकाश में तैरते हुए और प्रपात की दरार में ताकने वाले बादल भी गंभीर नहीं मालूम होते थे। फिर रिक्तता का यह दृश्य देखकर मैं ही इतना बेचैन क्यों होता हूं? क्या बीस साल पहले यहां देखी हुई जल-समृद्धि की याद आने से? या दस साल पहले उसमें देखे हुए इन्द्र धनुषों को याद करके? मगर वह जल-समृद्धि और वर्णसंकर का वह चमत्कार हमेशा के लिए थोड़े ही लुप्त हो गये हैं? हजारों साल से हर ग्रीष्मकाल में ऐसी ही रिक्तता देखने को मिलती होगी और हर वर्षाकाल में भारंगी सारी घाटी को जलमग्न कर देती होगी। यह क्रम तो चलता ही रहेगा। तब ‘तंत्र का परिदेवना’?
जोग के प्रपात के इस तीसरे दर्शन के बाद हमने यहां के इतिहास का नया अध्याय खोला।
बीस साल पहले मैंने सुना था कि ‘मैसूर सरकरा इस प्रपात के पानी से बिजली पैदा करना चाहती है। बम्बई सरकार और मैसूर सरकार के बीच इस सिलसिले में पत्रव्यवहार चल रहा है। अब तक ये दोनों सरकारें एकमत नहीं हो पाईं, इसलिए बिजली की वह योजना अमल में नहीं लाई गयी।’
उस समय मैंने मन में चाहा था कि ईश्वर करे ये दोनों सरकारें एकमत न होने पायें। मेरे मन में डर था कि बिजली पैदा करके यहां कल-कारखाने चलेंगे और देश की समृद्धि बढ़ाने के बहाने देश की गरीब जनता चूसी जायेगी। और इससे भी अधिक अकुलाहट तो यह थी कि यंत्र आने पर प्रपात टूट जायगा और प्रकृति का यह भव्य दर्शन हमेशा के लिए मिट जायेगा किन्तु सौभाग्य से मेरा यह डर सच्चा नहीं निकला।
इंजीनियर लोगों ने प्रपात से काफी ऊपर एक बांध-बांधकर जो पानी रोका गया है उसकी चार नहरों को एक दिशा में ले जाकर मैसूर की ओर, प्रपात से काफी दूर, टेकरी पर से नीचे छोड़ दिया गया है- प्रपात के रूप में नहीं, बल्कि टेढ़े उतरे हुए महाकाय चार नलों द्वारा पानी नल के द्वारा जहां पहुंचता है, वहां इस पानी की रफ्तार से चलने वाले यंत्र रखकर उनसे बीजली पैदा की जाती है। अब यहां इतनी बिजली पैदा होगी की मैसूर राज्य की भूख मिटाकर थोड़ी हैदराबाद राज्य को भी दी जायेगी। और बंबई सरकार की होन्नावर तालुके की सीमा पर से शरावती नदी गुजरती है। इसलिए कुछ हजार किलोवाट बिजली बम्बई सरकार को भी दी जायगी। न्यायतः इस बीजली पर सबसे पहला अधिकार है होन्नावर तालुके का और कारवार जिले का। किन्तु यह जिला औद्योगिक दृष्टि से विकसित नहीं है। इस कारण से यह तय हुआ है कि बिजली धारवाड़ जिले को दी जाय। इससे कारवार जिले के लोग नाराज हुए हैं। कारवार जिले की खनिज-संपत्ति और उद्भिज्ज-संपत्ति धारवाड़ जिले से कई गुना अधिक है। उसके पास समुद्र-किनारा होने से उसका व्यापार भी काफी बढ़ सकता है। कारवार जिले में काली, गंगावली, अघनाशिनी और शरावती- ये चार नदियां नोकानयन के लिए अनुकूल होने से इस जिले का उद्योगीकरण भी बहुत आसान है। किन्तु आज यह कहकर कि इस जिले में बड़े उद्योग नहीं है, उसको बिजली देने से इन्कार किया जाता है। और उसके पास बीजली न होने से वहां उद्योग नहीं बढ़ाये जा सकते, यह भी उसे सुना दिया जाता है!! तमिल भाषा की एक कहावत है कि ‘शादी नहीं होती इसलिए लड़की का पागलपन नहीं जाता, और पागलपन नहीं जाता इसलिए उसकी शादी नहीं होती’। ऐसी है यह स्थिति।
मैं उम्मीद रखता हूं कि राज्य सरकार द्वारा यह अन्याय दूर होगा और कारवार जिले को शरावती की बिजली मिलेगी। इसके अलावा कारवार के पास उंचल्ली, मागोड़ जैसे दूसरे भी छोटे-बड़े तीन चार प्रपात हैं। शरावती की बिजली मिलने पर उसकी मदद से दूसरे प्रपातों पर भी जीन कसा जाएगा और कारवार जिले में बारिश की तरह बीजली की भी समृद्धि होगी। जहां चार नदियां पहाड़ की ऊंचाई से नीचे गिरती हैं वहां आज नहीं तो कल मनुष्य तिजारती बीजली पैदा करने ही वाला है।
मुझे संतोष हुआ केवल इसीलिए कि शरावती के पानी से बिजली तैयार करने पर भी जोग के प्रपात का प्राकृतिक स्वरूप तनिक भी खंडित होनेवाला नहीं है। बांध के कारण चाहे जितना पानी रोकने पर भी नदी के सामान्य प्रवाह में पानी कम नहीं होगा। बारिश का पानी भर देने के बाद हमेशा का प्रवाह हमेशा की ही तरह चलेगा। इसमें प्रवाह की दिशा, गति या पानी का जत्था-किसी बात में भी कमी नहीं आयेगी। उलटा, लाभ यह होगा कि गर्मी के दिनों में हजारों साल से जो प्रपात सूख जाता था वह किसी दिन चाहने पर बांध के खजाने में से पानी छोड़कर, चाहे जितने प्रचंड और तुफानी रूप में प्रत्यक्ष किया जा सकेगा, जिसे देखकर आकाश के गर्मी के उष्मपा देवता भी चकित हो जायेंगे।
बलिहारी हैं मानवी विज्ञान की!
अप्रैल, 1947
“यह सही है कि पहाड़ों के जैसी ऊंची-ऊंची लहरें उछालने वाला समुद्र भयानक मालूम होता है। मगर उसका सारा पानी सूखकर यदि पात्र खाली हो जाय तो हजारों मील तक फैले हुई उसके गहरे गड्ढे कितने भयावने मालूम होगें, इसकी कल्पना भी करना कठिन है। यह सही है कि दुर्जन के पास संम्पत्ति के भंडार हों तो वह उनका दुरुपयोग करके लोगों को सतायेगा। मगर उसकी यह संपत्ति नष्ट होकर वह यदि भूखा कंगाल बन जाय, तो वह किस राक्षसी दुष्टता से बाज आयेगा? अच्छा ही है कि समुद्र पानी से भरपूर है, और दुर्जनों के पास उनकी दुष्टता की आग बुझाने के लिए पर्याप्त संपत्ति रहती है।”
जोग के प्रपात में से राजा और रुद्र के सूखे हुए प्रपातों को देखकर कवि की ऊपर बताई हुई उक्ति याद आने का यद्यपि कोई कारण नहीं था, फिर भी यह उक्ति याद आई जरूर।
सन् 1927 में जब पहले-पहल मैंने जोग का प्रपात देखा था, तब उसका वैभव सोलहों कला से प्रकट हुआ था। पानी का मुख्य प्रपात अपनी प्रचंड जलराशि के साथ 840 फुट नीचे कूदकर नीचे की घाटी में प्रपात के प्रवाह के ही द्वारा तैयार की हुई 150 फुट गहरे तालाब की गद्दी पर गिरता था। इस मुख्य प्रवाह की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए उसके दोनों ओर मोतियों की मालाओं के समान पानी की अनेक धाराएं अनेक ढंग से गिरती थीं। उसके दक्षिण की ओर टेढ़ी सीढ़ियों पर से कूदता-कूदता रुद्र अपना पानी, आधे से अधिक पतन के बाद, राजा के पानी में फेंक देता था। राजा की गर्जना प्रायः नीचे पहुंचने के बाद ही पैदा होती है। रुद्र का प्रपात रावण की तरह अपने जन्म के साथ ही चिल्लाने लगता है।
दोनों प्रपात अद्भुत तो हैं ही। किन्तु उस समय मुझे जो दृश्य अलौकिक लगा था वह था वीरभद्र की उछलती जटाओं का। यह दृश्य मैं फिर कभी नहीं देख पाया। किसी तस्वीर में भी वीरभद्र की उन जटाओं का चित्र नहीं आया है।
आखिरी प्रपात है पार्वती का उसे देखते ही मन में स्त्रीदाक्षिण्य पैदा होता है। दस साल के बाद जब मैंने फिर से जोग का दर्शन किया, तब राजा का स्रोत काफी क्षीण हो चुका था। वीरभद्र की जटाओं का मुंडन हो गया था। रुद्र की चिल्लाहट यद्यपि कम नहीं हुई थी, फिर भी उसका वह बड़ा ताल जोग के क्षीण प्रपात के साथ मिलता नहीं था। और पार्वती तो बिल्कुल कृषांगी तपस्विनी जैसी बन गयी थी।
किन्तु इन सब संकोचों को भुला दे ऐसी खूबी तो थी प्रपात की ठंडी भाप में से उत्पन्न होने वाले इन्द्रधनुषों के भ्रूविलास में यह शोभा जितनी ओर से देखने जाते उतनी ओर से इन्द्र धनुष अपने मुंह घुमाकर नया-नया सौंदर्य प्रकट करते थे।
फिर ठीक दस साल के बाद जोग का वही प्रपात देखने के लिए जब हम अबकी बार गये तब चार प्रपातों में से तीन तो बिलकुल सूख गये थे। रुद्र के अभाव में सर्वत्र श्मशान-शांति फैली हुई थी। राजा के सूख जाने से उसके पीछे की एक के नीचे एक दो बड़ी दरारे औरंगजेब द्वारा निकाली हुई संभाजी की आंखों जैसी भयावनी मालूम होती थीं। पार्वती तो मानों दक्ष के यज्ञ में जाकर भस्म हो गई थी और वीरभद्र ऐसा मालूम होता था मानो दक्ष का नाश करने के बाद कुछ शांत होकर अपने स्वामी के ससुर की मृत्यु पर नीरव आंसू ढाल रहा हो। इतनी खिन्नता तो शायद महाभारत के युद्ध के बाद कुरुक्षेत्र पर भी नहीं छाई होगी।
पहली बार हम गये थे शिमोग-सागर के रास्ते से-गुजरात में आयी हुई बाढ़ के संकट के दिनों में। दूसरी बार गये इरादतन समुद्र के छोर से उलटे क्रम से –शरावती के पानी में ऊपर की ओर यात्रा करके। हमारे पूर्वजों ने कहा हैः ‘नदी मुखेनैवसमुद्रमाविशेत्।’ इस नसीहत से ठीक उल्टे हम शरावती-सागर-संगम से नाव में बैठकर प्रतीप क्रम से प्रपात की सीढ़ियों तक पहुंचें और वहां से पहाड़ की पगडंडी से ऊपर चढ़कर प्रपात के सिर पर जा पहुंचे थे। अबकी बार हमने तीसरा रास्ता लेकर यात्रा की। शिरसी से सिद्धापुर होकर हम प्रपात की बंबई वाली बाजू पर गये। वहां राजा के सिर पर विराजनेवाली एक बड़ी शिला पर लेटकर हमने नीचे का रोमहर्षण दृश्य देखा। आले के जैसी भयावनी दरार के सिर पर जाकर अंदर देखने से सारा बदन कांप उठता है। मन में यह संदेह पैदा हुए बिना नहीं रहता की यह शिला अपने ही भार से कहीं टूट तो नहीं जाएंगी?
इस शिला के बगल में उतनी ही बड़ी और उतनी ही भयावनी जगह पर दूसरी शिला है। उस पर प्राचीन काल में किसी राजा का लग्नमंडप खड़ा किया गया होगा। आज उस मंडप के चार स्तंभ जिस पर खड़े किये गये थे वह चार सुराखों वाला एक बड़ा चबूतरा उस शिला पर दिखाई देता है। भयावने प्रपात की दरार के किनारे मंडप खड़ा करके विवाह करने वाले राजा की काव्यमय वृत्ति की बलिहारी है! ऐसे शौकीन राजा के साथ जिसने शादी की उस राज कन्या को इस मंडप में बैठते समय कैसा अनुभव हुआ होगा! किसी ने बताया, ‘भीषण रस के रसिया उस राजा के नाम पर ही इस प्रपात का नाम राजा रखा गया है।’ मैंने मन में सोचा, ‘तब तो उससे शादी करने वाली राजकन्या का नाम हम नहीं जानते इस बात का फायदा उठाकर उसी को हम पार्वती क्यों न कहें? पर्वत की दरार के किनारे उसने शादी की; क्या इतना कारण उसे पार्वती कहने के लिए बस नहीं है?
ऐसा नहीं है कि पहाड़ों में आले की जैसी दरारें मैंने न देखी हों। मस्जिदों में भी दीवारों में गहराई साधकर उनके किनारे मेहराब बनाते हैं। किन्तु राजा के नीचे का आला तो कालपुरुष के मुंह से बड़ा और गहरा था। उसके भीतर जहां जगह मिले वहां पक्षी अपने घोंसले बनाते हैं और चुनकर लाये हुए अनाज के दानों का संग्रह करते हैं।
बम्बई की ओर से यानी उत्तर की ओर से जी भरकर देखने के बाद हम मोटर में बैठकर पूर्व की ओर गये। वहां दो नावों को बांधकर बनाये हुए बेड़े पर-जिसे यहां ‘जंगल’ कहते हैं-हमारी मोटर को चढ़ाकर हम शरावती नदी को पार करके दक्षिण के किनारे आ पहुंचे। वहां मैसूर सरकार की अतिथिशाला के पास के फिर एक बार सारी दरार का दृश्य देखा। बीस साल पहले यहीं से राजा, वीरभद्र और पार्वती-का देवदुर्लभ दृश्य देखा था। ऐसा नहीं था कि अबकि बार के सूखे दृश्य में काव्य न हो। एक के नीचे एक, दो बड़े आले 840 फुट के पतन को नाप रहे हैं। ऐसा दृश्य विधाता की इस विविध सृष्टि में हर कहीं देखने को थोड़े ही मिलने वाला है!
मेरे मन में छाया हुआ विषाद मैंने पेड़ों पर नहीं देखा। दोनों आलों में गोल-गोल चक्कर काटने वाले पक्षी भी विषण्ण नहीं दिखाई देते थे। आकाश में तैरते हुए और प्रपात की दरार में ताकने वाले बादल भी गंभीर नहीं मालूम होते थे। फिर रिक्तता का यह दृश्य देखकर मैं ही इतना बेचैन क्यों होता हूं? क्या बीस साल पहले यहां देखी हुई जल-समृद्धि की याद आने से? या दस साल पहले उसमें देखे हुए इन्द्र धनुषों को याद करके? मगर वह जल-समृद्धि और वर्णसंकर का वह चमत्कार हमेशा के लिए थोड़े ही लुप्त हो गये हैं? हजारों साल से हर ग्रीष्मकाल में ऐसी ही रिक्तता देखने को मिलती होगी और हर वर्षाकाल में भारंगी सारी घाटी को जलमग्न कर देती होगी। यह क्रम तो चलता ही रहेगा। तब ‘तंत्र का परिदेवना’?
जोग के प्रपात के इस तीसरे दर्शन के बाद हमने यहां के इतिहास का नया अध्याय खोला।
बीस साल पहले मैंने सुना था कि ‘मैसूर सरकरा इस प्रपात के पानी से बिजली पैदा करना चाहती है। बम्बई सरकार और मैसूर सरकार के बीच इस सिलसिले में पत्रव्यवहार चल रहा है। अब तक ये दोनों सरकारें एकमत नहीं हो पाईं, इसलिए बिजली की वह योजना अमल में नहीं लाई गयी।’
उस समय मैंने मन में चाहा था कि ईश्वर करे ये दोनों सरकारें एकमत न होने पायें। मेरे मन में डर था कि बिजली पैदा करके यहां कल-कारखाने चलेंगे और देश की समृद्धि बढ़ाने के बहाने देश की गरीब जनता चूसी जायेगी। और इससे भी अधिक अकुलाहट तो यह थी कि यंत्र आने पर प्रपात टूट जायगा और प्रकृति का यह भव्य दर्शन हमेशा के लिए मिट जायेगा किन्तु सौभाग्य से मेरा यह डर सच्चा नहीं निकला।
इंजीनियर लोगों ने प्रपात से काफी ऊपर एक बांध-बांधकर जो पानी रोका गया है उसकी चार नहरों को एक दिशा में ले जाकर मैसूर की ओर, प्रपात से काफी दूर, टेकरी पर से नीचे छोड़ दिया गया है- प्रपात के रूप में नहीं, बल्कि टेढ़े उतरे हुए महाकाय चार नलों द्वारा पानी नल के द्वारा जहां पहुंचता है, वहां इस पानी की रफ्तार से चलने वाले यंत्र रखकर उनसे बीजली पैदा की जाती है। अब यहां इतनी बिजली पैदा होगी की मैसूर राज्य की भूख मिटाकर थोड़ी हैदराबाद राज्य को भी दी जायेगी। और बंबई सरकार की होन्नावर तालुके की सीमा पर से शरावती नदी गुजरती है। इसलिए कुछ हजार किलोवाट बिजली बम्बई सरकार को भी दी जायगी। न्यायतः इस बीजली पर सबसे पहला अधिकार है होन्नावर तालुके का और कारवार जिले का। किन्तु यह जिला औद्योगिक दृष्टि से विकसित नहीं है। इस कारण से यह तय हुआ है कि बिजली धारवाड़ जिले को दी जाय। इससे कारवार जिले के लोग नाराज हुए हैं। कारवार जिले की खनिज-संपत्ति और उद्भिज्ज-संपत्ति धारवाड़ जिले से कई गुना अधिक है। उसके पास समुद्र-किनारा होने से उसका व्यापार भी काफी बढ़ सकता है। कारवार जिले में काली, गंगावली, अघनाशिनी और शरावती- ये चार नदियां नोकानयन के लिए अनुकूल होने से इस जिले का उद्योगीकरण भी बहुत आसान है। किन्तु आज यह कहकर कि इस जिले में बड़े उद्योग नहीं है, उसको बिजली देने से इन्कार किया जाता है। और उसके पास बीजली न होने से वहां उद्योग नहीं बढ़ाये जा सकते, यह भी उसे सुना दिया जाता है!! तमिल भाषा की एक कहावत है कि ‘शादी नहीं होती इसलिए लड़की का पागलपन नहीं जाता, और पागलपन नहीं जाता इसलिए उसकी शादी नहीं होती’। ऐसी है यह स्थिति।
मैं उम्मीद रखता हूं कि राज्य सरकार द्वारा यह अन्याय दूर होगा और कारवार जिले को शरावती की बिजली मिलेगी। इसके अलावा कारवार के पास उंचल्ली, मागोड़ जैसे दूसरे भी छोटे-बड़े तीन चार प्रपात हैं। शरावती की बिजली मिलने पर उसकी मदद से दूसरे प्रपातों पर भी जीन कसा जाएगा और कारवार जिले में बारिश की तरह बीजली की भी समृद्धि होगी। जहां चार नदियां पहाड़ की ऊंचाई से नीचे गिरती हैं वहां आज नहीं तो कल मनुष्य तिजारती बीजली पैदा करने ही वाला है।
मुझे संतोष हुआ केवल इसीलिए कि शरावती के पानी से बिजली तैयार करने पर भी जोग के प्रपात का प्राकृतिक स्वरूप तनिक भी खंडित होनेवाला नहीं है। बांध के कारण चाहे जितना पानी रोकने पर भी नदी के सामान्य प्रवाह में पानी कम नहीं होगा। बारिश का पानी भर देने के बाद हमेशा का प्रवाह हमेशा की ही तरह चलेगा। इसमें प्रवाह की दिशा, गति या पानी का जत्था-किसी बात में भी कमी नहीं आयेगी। उलटा, लाभ यह होगा कि गर्मी के दिनों में हजारों साल से जो प्रपात सूख जाता था वह किसी दिन चाहने पर बांध के खजाने में से पानी छोड़कर, चाहे जितने प्रचंड और तुफानी रूप में प्रत्यक्ष किया जा सकेगा, जिसे देखकर आकाश के गर्मी के उष्मपा देवता भी चकित हो जायेंगे।
बलिहारी हैं मानवी विज्ञान की!
अप्रैल, 1947
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