जंगल से एकतरफा संवाद

Forest
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जब आस-पास शोर नहीं होता, तो डर क्यों लगता है? सन्नाटे और शांति में थोड़ा नहीं, वरन बुनियादी अंतर होता है। जिस तरह का शोर हमारे भीतर भरा हुआ है, वह हमें चेतना से दूर हटाता है। वह हमें शांति से डरने के लिए तैयार करता है। जंगल जो अहसास पैदा करता है वह भीतर बसी हिंसा की रचना होती है। शायद इसलिए क्योंकि तब हम केवल अपने साथ होते हैं। खुद को देखना और खुद से बात करना, खुद में झांकना डराता है। मैंने जो जंगल देखा, बिलकुल अनछुआ सा था। नेपाल में हिमालय के रिश्तेदार पहाड़ों पर बसे ये जंगल इस बात का भी प्रमाण हैं कि जब उन्हें जीने दिया जाता है तो वे कितने विशाल, भव्य और आभावान हो सकते हैं।

शुरू में उनकी सघनता से मेरा संघर्ष होता रहा। आखिरकार मैं उनके भीतर झांकने की कोशिश जो कर रहा था। जहां वो सूरज की रौशनी को प्रवेश नहीं करने दे रहे थे, मेरी नज़रों को भला कैसे भीतर जाने देते। फिर भी मैं चुपके से उनमें प्रवेश कर गया। पूरा न जा सका। टुकड़ों-टुकड़ों में गया। हर दरख्त अपने आप में एक पूरा जंगल, नहीं पूरा जीवन बना हुआ था। कोई पेड़ अकेला नहीं था। किसी पर छोटे पत्तों की बेलें चढ़ी हुई थीं, किसी पर बड़े पत्तों की बेलें।

जिनकी बड़ी डालें टूट गई थीं, वहाँ गड्ढे बन गए थे। उनमें किन्हीं दूसरी प्रजाति के पेड़ भी उग आए थे। किसी पेड़ ने उन्हें यह कहकर रोका नहीं कि मेरे शरीर पर मत उगो। उन्होंने यह भी नहीं कहा कि तुम्हारा रंग मुझ जैसा नहीं या तुम्हारी जाति कुछ और है। उनकी वरिष्ठता का अंदाज़ा मैने उन पर चढ़ी काई की मोटी परत से लगाया। यह काई पेड़ का श्रृंगार करती है। घोंघे, इल्लियां और मकड़ी उन्हें गुदगुदाते रहते हैं। वे पत्ते भी खा लेते हैं। पेड़ नये पत्ते पैदा कर देता। अक्सर मैंने देखा अधूरी खाकर छोड़ी गयी पत्तियों को, जो छोड़ दी गयीं थीं ठीक वैसे ही, जैसे हमारे बच्चे छोड़ देते हैं खाना।

जंगल का मतलब केवल शेर, चीते या भालू जैसे जानवर तक सीमित नहीं हो सकता। ये तो जंगल के छोटे से हिस्से हैं। घने जंगल की झाडियों में जंगली मुर्गों की अचानक हुई हलचल ने मुझे उतना ही चौंकाया था, जितना कोई और बड़ा जानवर चौंकाता। सैंकडों तरह के पंछी, कुकुरमुत्ते, मकड़ियां, इल्लियां, घोंघे, काई, घास, मिट्टी, पत्थर, पेड़-पौधे, जमीन से बाहर निकल आई जड़ें, ङींगुर, ऊंचाई और गहराई, टुकड़ों में धूप और कुछ टुकड़े छाँव, नमी के साथ टहलती हवा, सन्नाटे के बीच तेज ध्वनियां और वहां रहने वाले इंसान, ये सब मिल कर जो दुनिया बनाते हैं, वही तो जंगल है।

कहीं कोई सीमा रेखा नहीं दिखती। ठीक एक ही भू-बिंदु से दो अलग- अलग किस्म के पेड़ उगे और बढ़ते चले गए। कहीं कोई रियासत भी नहीं दिखती। उनके होने का अहसास दीखता है। यह समझ भी कि अकेले होना संभव ही नहीं, बल्कि असंभव है। आकार से कुछ भी तय नहीं होता वहां। मैंने छुआ अपनी नज़रों से इन अनछुए जंगलों को। स्पर्श इन्द्रीय से इन्हें पूरा महसूस कर पाना भी संभव नहीं है। घ्राण-इन्द्रीय अपनी आदत के मुताबिक कुछ हजारों गंध को खोज रही थी, पर पूरा जंगल एक गंध बन चुका था। कोई गंध दूसरी गंध को खत्म करने की साजिश करती नहीं मिली। मैं इन्हें अनछुए इसलिए कहता हूँ क्योंकि विकास नाम के राक्षस के हाथ अब तक यहां नहीं पंहुचे हैं।

हर कोने में हर पगडंडी पर जंगल की एक ही सुगंध मिली। जब किसी पेड़ के करीब गए, तो कुछ नयी गंध का अहसास भी हुआ। उनके आकार भिन्न हैं, रूप भिन्न हैं, शायद चरित्र भी भिन्न हैं, पर उन्हें पता है कब वे एक स्वतंत्र अस्तित्व हैं, और कब एक पूरा जंगल, जिसमें कोई अस्तित्व स्वतंत्र नहीं होता। कोई विरोधाभास नहीं। लोग कहते हैं कि कुछ पेड़ जहरीले होते हैं, पर किसी को इन्होंने मारा नहीं। वाह! कितना अच्छा जहरीलापन है ये!

जो जी चुके थे अपनी उम्र, उन दरख्तों का संस्कार कीड़े, घोंघे, चीटियां, पानी और मिट्टी मिलकर कर रहे थे। हमारे यहां तो कई हजार पन्ने लिख कर यह बताया गया है कि हम पंचतत्वों से बने हैं और आखिर में उन्हीं में मिल जाएंगे। इस जंगल में तो यह यूं ही समझ आता है। होना और मिट जाना और फिर हो जाना कितनी आसानी से चलता रहता है। जंगल राज कोई हिंसक राज नहीं है; वह जीवन का एक चक्र है।

जंगल और नदी के रिश्ते यह बता रहे हैं कि वे संसार को बनाए रखना चाहते हैं। नदी अपने रास्ते से नहीं भटकती, जब तक कोई जंगल पर आक्रमण करके उनका विनाश नहीं कर देता है। जंगल केवल जमीन के ऊपर ही थोड़े होता है। जंगल जमीन के भीतर भी उतना ही घना और गहरा होता है। जड़ें जमीन के अंदर फैल कर मिट्टी को थाम लेती हैं। छोटे-छोटे कणों से मिट्टी को एक आधार बना देती हैं जड़ें और नदी में बह जाने से बचा लेती हैं। जंगल मूसलाधार और कभी-कभी कई दिनों तक होने वाली बारिश को भी थाम लेता।यहाँ पांच तरह के वन हैं। सदाबहार शंकुधारी वन, जिनके वृक्ष बहुत बड़े हैं और ये समुद्र तल से 1850 मीटर की ऊंचाई पर पहाड़ों में पाए जाते हैं। मिश्रित वन, इसमें चिलौं, कटुस और उत्तिस प्रजाति के पेड़ हैं, जो समुद्र तल से 1220 से 1850 मीटर की ऊंचाई पर पाए जाते हैं। ये अब खतरे में हैं, क्योंकि इन्हें मार कर लोग घरों में सजाने के लिए उपयोग में लाते है। तीसरे वन हैं - मानसून वाले, ये समुद्र तल से 712 से 1291 मीटर की ऊंचाई पर पाए जाते हैं। इनमें साल, सिमल, बार, पीपल सरीखे पेड़ हैं। चौथे वन हैं झड़ीदार वन, जिनमें छोटी पत्ती और फूलों वाले छोटे पेड़ होते हैं। पांचवे वन हैं जल धारा या नदी के करीबी वन। ये खास तौर पर नदियों या किन्हीं जल धाराओं के पास ही पाए जाते हैं। इस श्रेणियों में 31 तरह की प्रमुख प्रजातियां हैं। इनके अलावा 11 तरह की घास और खरपतवार भी है। 2 सेंटीमीटर से लेकर 80 फुट लंबे पेड़ों-वनस्पतियों के बीच यह जंगल बिल्कुल बराबरी में बंटा हुआ है।

मैं जंगल से संवाद कर पा रहा था, क्योंकि मैं किसी और से संवाद करना ही नहीं चाहता था। सब कुछ भूले बिना यह संवाद असंभव था। दिमाग से बिना कचरा हटाए यह महसूस कर पाना भी असंभव है कि जंगल निर्जीव नहीं होते हैं। जंगल सजीव होते हैं। तभी तो वह मुझमें कुछ चेतना भर पा रहे थे। बस छोटा सा अनुभव बांटना चाहता हूँ। इन पहाड़ों पर चढ़ते हुए फेंफडों का हर कोना धकर-धकर कर रहा था। अपनी सामान्य गति से कई गुना ज्यादा। जब भी हम कुछ पलों के लिए रुकते यही जंगल मुझे मेरी पूरी ऊर्जा तुरंत लौटा देता। जिस यात्रा के बाद हमें थक कर चूर हो जाना चाहिए, वह हमें कुछ ज्यादा सक्रिय कर रही थी।

नेपाल का धौलागिरी अंचल, जो अन्नपूर्णा पर्वत का आधार है, प्रकृति और मानव समाज को समझने के लिए सबसे उम्दा विश्वविद्यालय है। जंगल ने अपने होने या नदी ने भी अपने होने के लिए कभी किसी बस्ती को नहीं उजाड़ा। हमें लगता है, नदी-पहाड-जंगल को मिटा कर ही हमारी उन्नति हो सकती है। क्या उन्हें मिटाए बिना हमारी बस्ती का बसे रहना संभव नहीं है? यह सोच ही रहा था कि बादलों का झुंड भी पहाड़ों से मिलने चला आया। कोई खेल खेल रहे थे शायद। हिमालयी पहाड़ों के हिमखंडों से निकल कर काली गण्डकी नदी अपनी पूरी तीव्रता से प्रवाहित हो रही है।

जंगल और नदी के रिश्ते यह बता रहे हैं कि वे संसार को बनाए रखना चाहते हैं। नदी अपने रास्ते से नहीं भटकती, जब तक कोई जंगल पर आक्रमण करके उनका विनाश नहीं कर देता है। जंगल केवल जमीन के ऊपर ही थोड़े होता है। जंगल जमीन के भीतर भी उतना ही घना और गहरा होता है। जड़ें जमीन के अंदर फैल कर मिट्टी को थाम लेती हैं। छोटे-छोटे कणों से मिट्टी को एक आधार बना देती हैं जड़ें और नदी में बह जाने से बचा लेती हैं। जंगल मूसलाधार और कभी-कभी कई दिनों तक होने वाली बारिश को भी थाम लेता।

.नेपाल के काठमांडू से पश्चिम दिशा में लगभग 275 किलोमीटर दूर एक छोटा सा शहर है बाग्लुंग। शहर का छोटा होना ही अच्छा है, पर यहां के जंगल और पहाड़ अभूतपूर्व। इतने ऊँचे पहाड़ कम से कम मैंने तो नहीं ही देखे हैं। बस एक बात और ये पहाड़ धौलागिरी हिमालय की श्रृंखला के पहाड़ हैं। विशालकाय! इस नगरपालिका की जनसंख्या कोई 30 हजार है। इसकी एक बसाहट तातापानी में 64 परिवार रहते हैं। ये दलित हैं। एक तरफ तो इस गांव में हर घर में बिजली है। ज्यादातर प्रसव अस्पताल में होते हैं। पानी तो उनके अपना ही है। बच्चों को सालाना छात्रवृत्ति भी मिल जाती है। छोटे बच्चों को पोषण भत्ता भी मिल जाता है; पर दूसरी तरफ इस दूरदराज पहाड़ी गांव के हर एक घर से एक व्यक्ति भारत, मलेशिया, कतर या दुबई में है। काम की तलाश में। ज्यादातर 3 या 4 साल में घर आते हैं; क्योंकि बस रोजगार नहीं है।

इस इलाके में दलित समुदाय और संगठनों ने हर ताकत के केंद्र को चुनौती दी और छुआछूत बंद करने के लिए मजबूर किया। कम से कम इस इलाके में तो कोई उनसे रिश्वत नहीं मांगता है। वे मानते हैं कि सत्ता में ऊपर अब भी ऊंची जाति के लोग बैठे हैं, वे दलितों को काम नहीं मिलने देते। उन्हें लगभग हर रोज 20-30 किलो वजन उठाना ही नहीं पड़ता, बल्कि उसके साथ पहाड़ भी चढ़ना पड़ता है। फिर भी यह पूछे जाने पर कि क्या वे पहाड़ छोड़ कर समतल में जाना चाहेंगे? जवाब होता है - नहीं, बिलकुल नहीं! नदी, जंगल और पहाड़ हमारे लिए चुनौती नहीं, बल्कि हमारी ताकत है। हमारे लिए तो चुनौती अपना खुद का समाज है जो शोषण और छुआछूत को सत्ता का माध्यम मानता है।

शायद बादलों को भी अपने काम का अहसास है। मेरा मन एक सवाल पूछ रहा था। जब हम अपनी दुनिया से निराश हो जाते हैं तो नदी-पहाड़ों-जंगल की त्रिकोणी दुनिया में ही क्यों आना चाहते हैं? ऐसा यहां क्या होता है जो निराशा को मिटा देता है? कुछ तो है, जिसे मैं हवा में, हजारों ङींगुरों की एक साथ निकल रही चीं की न खत्म होने वाली धुन में, पहाड़ी झरनों में, पहाड़ों पर चढ़ते समय खुलते फेफड़ों में महसूस कर सकता हूं। बाग्लुंग के तातापानी मोहल्ले तक पंहुचने के लिए हमने डेढ़ घंटे की फेंफड़ा खड्काऊ चढ़ाई चढ़ी। मन में यह सवाल लेकर हम चढ़े कि कितनी कठिन जीवन है यहाँ के लोगों का? इनके आस-पास कुछ नहीं है। हर छोटी-मोटी जरूरत के लिए पहाड़ चढ़ना-उतरना पड़ता हैं इन्हें।

हमारे शहर या बस्ती में जो सडांध फैली है वह कहां से आती है? क्या हमारे व्यवहार और सोच से! यहाँ हमें वही रंग एक अलग अहसास क्यों देते हैं, वे जिन्दा क्यों लगते हैं; हमारी जिंदगी के रंग मर चुके हैं! अच्छे जीवन से हमारा आशय क्या है; प्रतिस्पर्धा, विद्वेष और भाव हिंसा? ये मेरे सवाल थे खुद से!65 घरों की यह बस्ती पहाड़ से नीचे क्यों नहीं उतर आती? इस सवाल का जवाब 60 साल की चूरा कुमारी किसान (यहाँ रहने वाली एक दलित महिला) देती हैं - कई पीड़ा नहीं है। जैसे कुछ लोग सपाट सड़क पर चलते हैं, वैसे ही हम पहाड़ पर और जंगल में चढ़ते हैं। हमारे रिश्ते केवल आपस में ही नहीं हैं, (जंगल और पहाड़ की तरफ देखते हुए कहती हैं) इनसे भी तो हैं। पिछले कई सालों में एक भी महिला की मातृत्व मृत्यु नहीं हुई, कोई बच्चा कुपोषण से नहीं मरा, एक भी बलात्कार नहीं हुआ। बच्चे स्कूल जाते हैं। हमें दुख ये पहाड़ नहीं देते, अपना समाज देता है। जब काम-काज नहीं मिलता तो दूसरे शहर पलायन करना पड़ा। हर घर से कोई न कोई कतर, मलेशिया, जापान या भारत में जाकर काम कर रहा है। यहाँ जातिगत भेद-भाव हमारे लिए चुनौती पैदा करता है, जंगल या पहाड़ नहीं।

हमें तो यहीं अच्छा लगता है बस। यहां के लगभग 7 हज़ार युवा पलायन कर चुके हैं, क्योंकि सामाजिक भेद-भाव ने उनके स्थानीय अवसर छीन लिए। उन्हें यहां काम मिल सकता था। इसी बदहाली के पलायन की स्थिति को अब सरकारें अवसर के रूप में पका रही हैं, ताकि इसे आधार बना कर यहां विकास के नाम पर बड़ी परियोजनाएं लाई जा सकें। उनके नज़र पहाड़ों के बीच की त्रिशूली और काली गण्डकी नदी पर है। जंगल अब भी बचा हुआ है, शायद इसलिए क्योंकि ऊंचे पहाड़ों तक पंहुचना अब भी थोड़ा कठिन है या फिर शायद इसलिए क्योंकि लोग इन्हें अपना आराध्य मानते हैं या यह भी हो सकता है कि इन पर अभी लुटेरों की नज़र न पड़ी हो!

पत्ते, डालियाँ, घांस, टूटे तने, सब कुछ भारी मात्रा में जमीन पर गिरे पड़े थे। पानी भी बरसता ही रहा था। यानी उनके सड़ने (यह शब्द एक मनोवृत्ति का परिचायक है) के लिए माकूल व्यवस्था थी, पर वहाँ सड़ाध क्यों नहीं थी? वहाँ तो कोई कचरा (यह शब्द हमारे व्यवहार की कुछ परिणतियों का परिचायक है) उठाने और सुगंध छिड़कने भी नहीं आता। इन सैंकडों किलोमीटर के पहाड़ी जंगलों में तो केवल सड़ाध ही होना चाहिए थी, पर लोग तो यहाँ खुशबु की तलाश में आते हैं और उसे पाते भी हैं। तो हमारे शहर या बस्ती में जो सडांध फैली है वह कहां से आती है? क्या हमारे व्यवहार और सोच से! यहाँ हमें वही रंग एक अलग अहसास क्यों देते हैं, वे जिन्दा क्यों लगते हैं; हमारी जिंदगी के रंग मर चुके हैं! अच्छे जीवन से हमारा आशय क्या है; प्रतिस्पर्धा, विद्वेष और भाव हिंसा? ये मेरे सवाल थे खुद से!
 

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