लक्ष्मी आश्रम की बसंती बहन का नाम कौशानी, अल्मोड़ा, उत्तरांचल में जाना पहचाना है। जाने भी क्यों नहीं जब उनकी प्रेरणा से इस वक़्त कौशानी और अल्मोड़ा के आस-पास के गांवों में लगभग 200 महिला मंगल दल चल रहे हैं। प्रत्येक दल में 10-15 महिलाएं हैं। यह महिलाएं गांव में सुरक्षा प्रहरी की तरह काम करती हैं। हर गलत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने से लेकर हर सही कार्य के साथ खड़े होने का काम। महिला मंगल दल स्वयं सेवी महिलाओं का अपना छोटा संगठन है, जिसके सदस्यों ने तय किया है कि वह कोसी नदी को बचाएंगी, कच्ची लकड़ी जंगल से नहीं काटेंगी और अपनी नज़र के सामने पेड़ कटने भी नहीं देंगी। चौड़ी पत्ती वाले पेड़ों को सूखने से पहले नहीं कटने देंगी, आग से जंगल की रक्षा करेंगी। जब महिला मंगल दल का यह प्रयोग शुरू हुआ तो बात दूसरे गांवों तक पहुंची। अब धीरे-धीरे दूसरे गांवों की महिलाएं भी इस आंदोलन से जुड़ने लगी हैं। महिला मंगल दल ने अपने जिम्मे एक और काम लिया, छापेमारी का। अपने गांव में जब महिलाओं को पता चलता था कि किसी महिला ने जंगल से लकड़ी काटकर अपना घर भरा है, फ़ौरन मंगल दल का छापेमार दस्ता इसके घर पहुंच जाता और इसके बाद वह लकड़ी ज़ब्त की जाती थी। धीरे-धीरे गांवों के लोगों ने इस आंदोलन के महत्व को समझा और इसका परिणाम यह हुआ कि बसंती बहन का यह आंदोलन इस समय पहाड़ के लगभग 200 से भी अधिक गांवों में स्वेच्छा पूर्वक चल रहा है। इन मंगल दलों की शुरुआत पहाड़ों में पानी की कमी के साथ हुईं। इस क्षेत्र में 365 नौले-धारे थीं, धीरे-धीरे सब सुखने लगीं। जंगल कट गए। अल्मोड़ा में बहने वाली नदी कोसी का पानी सूखने लगा।
पहाड़ की अधिकांश महिलाएं पूरे दिन लकड़ी काटती और ज़रूरत से अधिक लकड़ी लाकर घर भरती थीं, जिसका परिणाम यह होता कि बाद में बची हुई लक़िडयों को सड़ जाने की वजह से फेंकना पडता था। बसंती बहन ने गांव की महिलाओं को समझाना शुरू किया- यदि इसी तरह जंगल कटता रहा तो 10 सालों में यह कोसी सुख जायेगी पानी के बिना खेती नहीं होगी। फिर जीवन कितना कठिन होगा, इस बात की कल्पना करो? कई महिलाओं ने आकर खुद बसंती बहन के सामने क़ुबूल किया कि जंगल से पानी और खेत का क्या संबंध है, यह इन्हें पता ही नहीं था, ना ही किसी ने उन्हें बताया था। पहाड़ पर जंगल काटने की होड़ थी, इसलिए वे भी होड़ में शामिल हो गईं। महिलाओं के इस समर्थन के बाद 15 महिलाओं को लेकर मंगल दल की शुरुआत हुई। पहली मंगल दल की महिलाओं ने इस तरह इस समय कोसी के जल में खड़े होकर संकल्प लिया- कोसी जीवन दायिनी है, हम इसको बचाएंगे।
अब गांवों में महिलाओं ने महिला मंगल दल के नाम पर अपना स्वयं सहायता समूह भी बना लिया है, जिसके माध्यम से वे 10-10 रुपए प्रत्येक माह प्रति महिला इकट्ठा करती हैं और ज़रूरत के समय पर इकट्ठे धन से ज़रूरतमंद महिला की आर्थिक मदद भी करती हैं। बसंती बहन की बात करें तो वह चरमा (दिगरा) पीथौरागढ़ की रहने वाली हैं। उनकी शादी 12-13 साल की छोटी उम्र में कर दी गई थी।
2-3 साल बाद पति की मौत हो गई। बाल विधवा का जीवन जीना चुनौतिपूर्ण था। इस समय पिता ने साथ दिया। वे बसंती बहन की दूसरी शादी के लिए तैयार नहीं हुए। उनका मानना था कि पहली शादी समाज के दबाव में आकर उन्होंने कर दी, जिसकी सज़ा मिल चुकी है। अब जब तक उनकी बेटी अपने पांव पर खड़ी नहीं हो जाती, वे इसकी शादी नहीं करेंगे। इसी बीच बसंती बहन का लक्ष्मी आश्रम की गतिविधियों के साथ जुड़ाव हुआ और उन्होंने आश्रम के साथ काम करना शुरू किया। एक बार जब सामाजिक जीवन में इनका प्रवेश हो गया फिर वह इसी नए जीवन की होकर रह गईं। पिताजी ने सेवा के काम में बेटी को लगा देखकर कहा- जिस दिन तेरी शादी की थी, इस दिन तू मेरी बेटी थी। अब लक्ष्मी आश्रम में आकर तू मेरा बेटा हो गई है।
बसंती बहन ने बातचीत के दौरान कहा कि सेवा के काम में मेहनताना नहीं, लोगों का प्रेम, स्नेह, आशीर्वाद मिलता है। एक बात और बसंती बहन ने 34 साल की उम्र में अपनी पढ़ाई एक बार फिर शुरू की और मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। वास्तव में बसंती बहन जैसी महिलाएं महिला सशक्तिकरण की जीती-जागती मिसाल हैं।
पहाड़ की अधिकांश महिलाएं पूरे दिन लकड़ी काटतीं और ज़रूरत से अधिक लकड़ी लाकर घर भरती थीं, जिसका परिणाम यह होता कि बाद में बची हुई लक़िडयों को सड़ जाने की वजह से फेंकना प़डता था। बसंती बहन ने गांव की महिलाओं को समझाना शुरू किया। यदि इसी तरह जंगल कटता रहा तो 10 सालों में यह कोसी सूख जाएगी। पानी के बिना खेती नहीं होगी। फिर जीवन कितना कठिन होगा, इस बात की कल्पना करो?
जंगल की लकड़ियों की अंधाधुन कटाई और पशुओं को खिलाने के लिए लाई जाने वाली पत्तियों की वजह से पहाड़ नंगे होते चले गए। धीरे-धीरे पीने के पानी की भी किल्लत होने लगी। वर्ष 2003 में स्थिति इतनी गंभीर हो गई कि यहां पानी पर पुलिस का पहरा बिठा दिया गया, जिस वजह से किसानों को खेतों की सिंचाई के लिए भी पानी नहीं मिला। ऐसी स्थिति से बचाव के लिए आवश्यक था कि कटे हुए पेड़ फिर से लगाए जाएं। इसके लिए बसंती बहन ने प्रयास प्रारंभ किए। शुरू में इनकी बात कोई सुनने को तैयार नहीं था। जब उन्होंने पेड़ के महत्व को समझाने के लिए घर के बड़े-बुजुर्गों से बात करनी शुरू की तो परिणाम निराश करने वाले थे। कई जगह तो यह भी कहने से बुजुर्ग नहीं चुके कि यहां की महिलाएं डीएम की भी बात नहीं सुनेंगी। वह भी आकर कहेगा इसके बावजूद भी लकड़ी काटेंगी। बसंती बहन ने फिर महिलाओं से सीधी बात करनी शुरू की, उन्होंने कहा कि लकड़ी जंगल से लाओ, लेकिन इतनी ही लेकर आओ जितने की ज़रूरत है।पहाड़ की अधिकांश महिलाएं पूरे दिन लकड़ी काटती और ज़रूरत से अधिक लकड़ी लाकर घर भरती थीं, जिसका परिणाम यह होता कि बाद में बची हुई लक़िडयों को सड़ जाने की वजह से फेंकना पडता था। बसंती बहन ने गांव की महिलाओं को समझाना शुरू किया- यदि इसी तरह जंगल कटता रहा तो 10 सालों में यह कोसी सुख जायेगी पानी के बिना खेती नहीं होगी। फिर जीवन कितना कठिन होगा, इस बात की कल्पना करो? कई महिलाओं ने आकर खुद बसंती बहन के सामने क़ुबूल किया कि जंगल से पानी और खेत का क्या संबंध है, यह इन्हें पता ही नहीं था, ना ही किसी ने उन्हें बताया था। पहाड़ पर जंगल काटने की होड़ थी, इसलिए वे भी होड़ में शामिल हो गईं। महिलाओं के इस समर्थन के बाद 15 महिलाओं को लेकर मंगल दल की शुरुआत हुई। पहली मंगल दल की महिलाओं ने इस तरह इस समय कोसी के जल में खड़े होकर संकल्प लिया- कोसी जीवन दायिनी है, हम इसको बचाएंगे।
अब गांवों में महिलाओं ने महिला मंगल दल के नाम पर अपना स्वयं सहायता समूह भी बना लिया है, जिसके माध्यम से वे 10-10 रुपए प्रत्येक माह प्रति महिला इकट्ठा करती हैं और ज़रूरत के समय पर इकट्ठे धन से ज़रूरतमंद महिला की आर्थिक मदद भी करती हैं। बसंती बहन की बात करें तो वह चरमा (दिगरा) पीथौरागढ़ की रहने वाली हैं। उनकी शादी 12-13 साल की छोटी उम्र में कर दी गई थी।
2-3 साल बाद पति की मौत हो गई। बाल विधवा का जीवन जीना चुनौतिपूर्ण था। इस समय पिता ने साथ दिया। वे बसंती बहन की दूसरी शादी के लिए तैयार नहीं हुए। उनका मानना था कि पहली शादी समाज के दबाव में आकर उन्होंने कर दी, जिसकी सज़ा मिल चुकी है। अब जब तक उनकी बेटी अपने पांव पर खड़ी नहीं हो जाती, वे इसकी शादी नहीं करेंगे। इसी बीच बसंती बहन का लक्ष्मी आश्रम की गतिविधियों के साथ जुड़ाव हुआ और उन्होंने आश्रम के साथ काम करना शुरू किया। एक बार जब सामाजिक जीवन में इनका प्रवेश हो गया फिर वह इसी नए जीवन की होकर रह गईं। पिताजी ने सेवा के काम में बेटी को लगा देखकर कहा- जिस दिन तेरी शादी की थी, इस दिन तू मेरी बेटी थी। अब लक्ष्मी आश्रम में आकर तू मेरा बेटा हो गई है।
बसंती बहन ने बातचीत के दौरान कहा कि सेवा के काम में मेहनताना नहीं, लोगों का प्रेम, स्नेह, आशीर्वाद मिलता है। एक बात और बसंती बहन ने 34 साल की उम्र में अपनी पढ़ाई एक बार फिर शुरू की और मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। वास्तव में बसंती बहन जैसी महिलाएं महिला सशक्तिकरण की जीती-जागती मिसाल हैं।
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