राज्य में वन की आग का मुख्य कारण जंगलों में बिखरी टनों सूखी पत्तियों, झाड़ियों, सूखी घास, काला बांस, गाजर घास, सूखे डंठल का सम्यक निस्तारण नहीं किया जाना माना जाता है। वहीं वनों में या उनके आस-पास खेतों से प्राप्त फसलों के अपशिष्ट, गन्ने की खोई, भूसा, दाल के छिलके, धान की भूसी सहित तमाम ऐसे पदार्थ हैं जो कि अनुपयोगी कचरे के रूप में जंगलों में फैले रहते हैं, उनसे भी जंगल की आग की आशंका सदैव बनी रहती है। आग की घटनाएं राज्य में केवल गर्मियों में ही नहीं होती। शीतकाल में भी शिकारी वन्यजीवों से बचाव के लिए लोग पहाड़ी क्षेत्रों में आग लगा देते हैं।
उत्तराखंड में जंगल की आग का प्रकोप साल दर साल बढ़ता ही जा रहा है। राज्य सरकार की इस आग को रोकने की घोषणाएं बेमानी साबित हो रही हैं। वन संपदा को आग से बचाने के लिए समय-समय पर कई अभियान चलाए जाते रहे हैं फिर भी वन की आग हर वर्ष उत्तराखंड के वनों की अकूत संपदा का नाश करती है। देश में वनों का प्रतिशत कुल क्षेत्रफल के मुकाबले 33 फीसदी अनिवार्य घोषित करने वाली वर्ष 1988 की वननीति के बाद भी वनों के खत्म होने की मुख्य वजह बनी वन की आग का प्रकोप जारी है। देश में 6,75,538 वर्गकिलोमीटर में जंगल होने के दावे होते रहे हैं। यह देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 20.55 प्रतिशत ही है। इनको और फैलाने और 45 हजार प्रकार की वनस्पतियों को बचाए रखने की चुनौती सरकार के सामने है। इसे जंगल की आग कठिन से कठिनतर बना रही है। हालात यह है कि अभी गर्मी ठीक से शुरू भी नहीं हुई है और उत्तराखंड के कई वनों में आग का प्रकोप कहर बरपाने लगा है। वन महकमे के हाथ-पांव फूलते नजर आ रहे हैं। इस आग से वन्यजीवों की कई दुर्लभ प्रजातियों के खत्म होने का संकट भी सिर उठा रहा है।वृक्षों की अवैध कटाई सहित आग से जलते वृक्षों की समस्या विश्वव्यापी है। उत्तराखंड में भी इसने खूब कहर बरपाया है। इस समस्या के समाधान के लिए देवभूमि प्रशासन को खास ध्यान देना होगा। उत्तराखंड के जंगल में तस्करों द्वारा लगाई जा रही आग भी प्रशासन के लिए परेशानी का सबब बनी हुई है। वहीं ग्रामीण भी अच्छी घास उगाने के लिए आग लगाने की धारणा में आकर खेतों में आग लगा देते हैं। यह आग कभी भी अनियंत्रित होकर वन, वन्यजीव व पर्यावरण को खासा नुकसान पहुंचाते हैं। एक अनुमान के मुताबिक देवभूमि में प्रतिवर्ष प्रतिव्यक्ति सात पेड़ों का उपयोग होता है, वहीं बांध निर्माण के कारण 25 लाख पेड़ डूब जाते हैं। नए अध्ययनों से यह बात भी सामने आई है कि शहरीकरण कारण फैलता कंक्रीट का जंगल और तमाम विकास परियोजनाओं के कारण वनों के विनाश में दानवीय बढ़ोतरी आई है। अनुमानतः विभिन्न विकास परियोजनाओं एवं सड़क निर्माण व पेयजल लाइन बिछाने आदि के कारण प्रतिवर्ष सैकड़ों हेक्टेयर वन राज्य में नष्ट हो रहे हैं।
राज्य में वन की आग का मुख्य कारण जंगलों में बिखरी टनों सूखी पत्तियों, झाड़ियों, सूखी घास, काला बांस, गाजर घास, सूखे डंठल का सम्यक निस्तारण नहीं किया जाना माना जाता है। वहीं वनों में या उनके आस-पास खेतों से प्राप्त फसलों के अपशिष्ट, गन्ने की खोई, भूसा, दाल के छिलके, धान की भूसी सहित तमाम ऐसे पदार्थ हैं जो कि अनुपयोगी कचरे के रूप में जंगलों में फैले रहते हैं, उनसे भी जंगल की आग की आशंका सदैव बनी रहती है। जंगल की आग वायुमंडल में नाहक ऊष्मा ही जाया करती बल्कि प्रदूषण का भी कारण बन जाती है। जबकि पर्यावरणविद् लगातार सरकार को सलाह देते रहे हैं कि जंगलों में उपलब्ध हजारों टन ऐसे कूड़े-करकट का उपयोग ऑर्गेनिक खाद बनाने के लिए किया जाना चाहिए। फिर इसके उपयोग से देश की लगभग 15 करोड़ हेक्टेयर बंजर भूमि को भी खेती के लायक बनाया जा सकता है। साथ ही इन्हें तापीय विद्युत ऊर्जा के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है। उत्तराखंड के चीड़ के वनों को आग से बचाने की पहल अब तक नहीं हुई है। प्रशासन अब तक इसका कोई वैज्ञानिक तरीका तक नहीं ढूंढ सकी है।
मुश्किल यह है कि आग की घटनाएं राज्य में केवल गर्मियों में ही नहीं होती। शीतकाल में भी शिकारी वन्यजीवों से बचाव के लिए पहाड़ी क्षेत्रों में आग लगा देते हैं। यह एक ऐसी समस्या है जिससे मुक्ति के लिए सरकार को चौकसी बरतनी होगी, लोगों को जागरुक करना होगा। इसके साथ ही वनों, खेतों एवं खुले मैदानों में पड़े कचरों, अनुपयोगी झाड़ियों एवं खेतों से प्राप्त फसलों के अपशिष्ट का वैज्ञानिक तरीके से उपयोग वनों की आग से मुक्ति पाई जा सकती है। उत्तराखंड के जंगलों में वर्ष 2004 में 9,800 हेक्टेयर वन-क्षेत्र जलकर राख हो गया था। 2005 में 3,600 हेक्टेयर वन-क्षेत्र आग की भेंट चढ़ गया कि 2006 में 2,700 हेक्टेयर वनक्षेत्र को आग लील गई। 2008 में 2,600 हेक्टेयर वन क्षेत्र आग से स्वाहा हो गया। 2009 में इस विनाशलीला में इजाफा हुआ और 4,115 हेक्टेयर वन जल कर राख हो गया। 2010 व 2011 में भी सैकड़ों हेक्टेयर वन क्षेत्र आग की चपेट में आया।
2012 के इन दिनों भी वनाग्नि का सिलसिला शुरू हो चला है। वनाग्नि से नुकसान मात्र सिविल वन, पंचायती वन या आरक्षित वनों तक ही सीमित नहीं है। नेशनल पार्कों में भी वनाग्नि से भीषण नुकसान का खतरा हमेशा रहा है। वन महकमे के अधिकारी इस समस्या को सदियों पुरानी समस्या कहकर इससे पिंड छुड़ाते नजर आते हैं। जंगल की आग का कारण सामाजिक विज्ञानी सरकार की नीतियों को मानते हैं। उनका तर्क है कि ग्रामीणों के परंपरागत वनाधिकारों को वन-कानूनों के जरिए बेदखल किए जाने से भी यह स्थिति सामने आई है। तापमान वृद्धि का वनों की आग से सीधा संबंध बनता है। वन विभाग इसके लिए गर्मियों में बाकायदा जिलेवार क्रू स्टेशन स्थापित कर वाचटावर एवं अन्य तमाम इंतजामों से इस पर नियंत्रण रखने की कोशिश करने में जुटे होने का दावा करती है लेकिन नतीजा फिर भी सिफर ही दिखता है। रुद्रप्रयाग के जंगलों में पिछले हफ्ते लगी आग ने विभाग की अनदेखी फिर उजागर की है।
वनाग्नि जैव विविधता को भी गहरे स्तर पर प्रभावित करती है। जंगली जीवों पर आग के कारण सूख गए जलीय स्रोतों का सीधा प्रभाव पड़ता है। साथ ही आग से बचने और पानी की तलाश में भटकते हुए वे इंसानी आबादी की तरफ आ जाते हैं या तो वे ग्रामीणों के क्रोध, नहीं तो शिकारियों की गोलियों का निशाना बनते हैं। आग सूअर, भालू जैसे वन्यजीवों सहित सरीसृपों जैसे प्राणियों के प्राकृतिक आवास भी खत्म कर डालती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि आग के कारण हिमालयी मोनाल, काले भालू जैसे जीवों का अस्तित्व ही नष्ट हो चुका है और कई अन्य जीवों के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। जंगल की आग के प्रति लोगों को जागरुक करने के लिए वन विभाग संगोष्ठियों सहित अन्याय आयोजनों पर करोड़ों रुपए खर्च करता रहा है। अग्नि सुरक्षा सप्ताह मनाने के दौरान भी जन-सहभागिता बढ़ाने की खानापूरी विभाग करता रहा है। 2009 में जंगल की दहकती आग बुझाने की कोशिशों में पौड़ी के पास आठ ग्रामीणों की मौत हो गई थी लेकिन सरकार उनके परिजनों को घोषणा के बावजूद नौकरी देने के लिए सालों चक्कर लगवाती रही। गर्मी का मौसम शुरू होते ही वन विभाग कंट्रोल फायरिंग से वनों की आग पर नियंत्रण का अभियान चलाता रहा है तथापि आग की घटनाएं साल दर साल जारी हैं। इन पर नियंत्रण को लेकर विभागीय सुस्ती जारी है। अब आने वाले दिनों में आग के प्रकोप में वृद्धि की आशंका से राज्य के ग्रामीण चिंतित हैं, क्योंकि वे ही जंगलों के इर्द-गिर्द ज्यादा हैं।
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