एक वैज्ञानिक अनुमान के अनुसार हाल के वर्षों में पृथ्वी पर जंगल की आग की घटनाएँ बढ़ी हैं। ग्लोबल वार्मिंग के साथ इनके और भी बढ़ने की सम्भावनाएं हैं। आग के कारण दुनिया भर में जंगल से लगी हुई मानव बस्तियों के उजड़ने व आजीविका के नुकसान के अलावा वर्ष भर में लगभग 3,39,000 मानवों की मृत्यु हो जाती है। पारिस्थितिक तन्त्र में बदलाव आने के कारण कई पादप प्रजातियाँ क्षेत्र विशेष से विलुप्त होने लगती हैं, व नई उस क्षेत्र में कब्जा कर लेती हैं। इस प्रक्रिया में अग्नि से घृणा करने वाले (पायरोफोबिक) पौधों का स्थान अग्नि को सह सकने वाले (पायरोटालरेन्ट) व अग्नि को पसन्द करने वाले (पायरोफिलिक) पौधे ले लेते हैं। इस कारण कहीं-कहीं भूमि का अपक्षय व रेगिस्तानीकरण भी देखा गया है।
एक अनुमान के अनुसार लगभग 55 प्रतिशत वनाच्छादित भूमि हर वर्ष दावाग्नि की गोद में समा जाती है। इसमें सबसे ज्यादा नुकसान अफ्रीका व ओशियानियाँ देशों की आग से होता है। सबसे बड़े क्षेत्र में लगी आग के हिसाब से आस्ट्रेलिया शीर्ष पर है, तथा फिर अमेरिका, भारत व कनाडा आते हैं। वर्ष भर में सबसे ज्यादा बार लगी आग के हिसाब से अमेरिका, रूस, भारत व चीन क्रमशः शीर्ष पर हैं। जंगल की आग से उठा धुआँ पारिस्थितिक तंत्र को असर डालने वाले बड़े कारक के रूप में उभरा है जो कि ग्रीन हाउस की तरह का असर वातावरण में डालता है अर्थात आग से गर्मी बढ़ती है व गर्मी से आग। अग्नि विभीषिका की तीव्रता एवं बारम्बारता उस क्षेत्र में उगने वाले पौधों की प्रजातियों पर निर्भर करती है, भूआकृति व मौसम जैसे कि गर्मी, बारिश, वायु की दिशा व नमी इस पर सकारात्मक या नकारात्मक असर डालते हैं।
हिमालयी क्षेत्रों में साधारणतया लगभग 60 प्रतिशत आग जानबूझकर लगाई गई होती है, जबकि 40 प्रतिशत दुर्घटनावश लग जाती है। दावानल या दावाग्नि एक प्राकृतिक/स्वाभाविक अथवा मनुष्य प्रेरित आग हो सकती है, जो बच्चों, ग्वालों, घुमन्तू चरवाहों या लकड़हारों द्वारा माचिस की तीली, सिगरेट, बीड़ी आदि फेंकने से लगी हो सकती है या भोजन बनाने व रात्रि शिविर के कारण फैल सकती है। वन विभाग के ठेकेदारों द्वारा जायज अथवा नाजायज कारणों से, जंगल माफिया गिरोहों द्वारा जंगली जानवरों को पकड़ने व मारने हेतु, व्यक्ति विशेष की असावधानी अथवा दुर्भावना से लगाई गई हो सकती है।
चीड़ (पाइनस) वनों में 2 से 5 वर्ष के भीतर आग लग जाती है व इस तरह लगभग 11 प्रतिशत जंगल हर वर्ष जल जाते हैं। वनों की आग से निपटने के लिये अभी तक हमारे पास कोई प्रभावी तकनीकी या कारगर रणनीति नहीं है। हालाँकि वन विभाग द्वारा नियन्त्रित आग लगाकर भीषण अग्निकाण्ड को रोकने के उपाय जरूर किये जाते हैं। गर्मियों में लगातार कुछ दिनों तक तापमान अधिक रहने पर दावाग्नि का खतरा बढ़ जाता है।
कभी-कभी जंगली जानवरों द्वारा परेशान करने पर अथवा जनहानि के कारण या जंगलों की सीमा को जंगल के अन्दर धकेलने के लिये भी ग्रामीणों द्वारा आग लगा दी जाती है, इस आग को बुझाने में स्वाभाविक रूप से ग्रामीण सहयोग नहीं करते। ग्रामीणों को जंगलात उत्पादों से दूर रखने की नीति के कारण भी आग बुझाने में ग्रामीण सक्रिय भूमिका नहीं निभाते। इस आग के धराग्नि रूप से छोटे-छोटे पेड़ पौधे, घास फूस आदि भस्म होते हैं तथा छत्राग्नि रूप से बहुत कम समय में वनाच्छादित भूमि से पूरे के पूरे जंगल साफ हो जाते हैं। जंगल की आग, दावाग्नि या दावानल के फायदे व नुकसान दोनों हैं।
उत्तराखण्ड हिमालय व हिमाचल प्रदेश के चीड़ (पाइनस) आच्छादित पहाड़ों में साधारणतया धराग्नि ही दृष्टिगोचर होती है। यह अग्नि जमीन पर पड़ी व देर से सड़ने वाली चीड़ की पत्तियों (पिरूल), टहनियों एवं अन्य कार्बनिक पदार्थों को भस्म करके पौधे के लिये पौष्टिक उर्वरक तत्वों में विघटित कर देती है। कम आग में जरूरी बीज जिन्दा रह जाते हैं। जमीन पर पड़े इन सुसुप्त बीजों से उचित उर्वरकों की उपस्थिति में मानसून के समय नये पौधे लहलहाते हैं, अनावश्यक फैलने वाली घास (वीड), बीमारियों व कीड़े मकोड़ों के जल मरने के कारण, नये पौधों को सूर्य की रोशनी व पानी पहुँचता रहता है व नये आने वाले वर्षों में ज्वलनशील पदार्थ कम होने के कारण नई आग का खतरा भी कम हो जाता है।
यदि कई वर्षो तक जंगल में आग न लगे तो अधिक शुष्क पदार्थ जंगलों में जमा हो जाता है इससे छत्राग्नि का खतरा कई गुना बढ़ जाता है । यह अग्नि भारी मात्रा में वनों का विनाश करती है। कभी-कभी यह विनाश इतना बड़ा होता है कि इसका आकलन भी सम्भव नहीं होता। वनस्पति विहीन क्षेत्रों से मूसलाधार वर्षा के समय बड़े वेग से उर्वरक मृदा बह जाती है। मृदा की हानि किसी भी क्षेत्र के लिये अपूर्णीय क्षति है, क्योंकि हम जानते हैं कि एक सेन्टीमीटर मृदा बनने में लगभग 500 से 1000 वर्ष लग जाते हैं।
हमारे वन क्षेत्रों में कौन सी प्रजाति के पेड़ हैं इसका हमारे पारिस्थितिक तन्त्र व समाज पर गम्भीर प्रभाव होता है। शिवालिक, हिमाचल एवं हिमाद्रि पर्वत मालाएँ जोकि हिमालय का अभिन्न अंग है, में हिमाचल या मध्य हिमालयी क्षेत्र सबसे महत्त्वपूर्ण हैं। मध्य हिमालय के ग्रामीण घास, चारा, जलावन की लकड़ी, भेषज तत्वों एवं अन्य उपयोगी उप उत्पादों के लिये जंगल पर निर्भर होते हैं। इस क्षेत्र में अपेक्षाकृत ऊँचाई में गहरी उर्वरक एवं उत्तम नमी वाली मिट्टी में बाँज अर्थात क्वेरकस की प्रजातियाँ पायी जाती हैं। यह वृक्ष ग्रामीणों के लिये परम हितकारी है, क्योंकि इसकी पत्तियाँ जानवरों का चारा है, लकड़ियाँ उत्तम जलावन सामग्री हैं, जो काफी देर तक जलती हैं एवं ठोस कोयले में परिर्वतित होती हैं। बाँज के जंगलों की जलधारण क्षमता उत्तम कोटि की होती है, इस तरह से पहाड़ों की जलवायु में नमी एवं पानी के स्रोतों में ठन्डे मीठे पेयजल की उपलब्धता हेतु ये अनुकूल वातावरण तैयार करते हैं। बाँज के जंगलों के आस-पास ठन्डे जल के स्रोत इसीलिए पाये जाते हैं।
मध्य हिमालय में अनियन्त्रित दावाग्नि की समस्या के कारण बाँज के जंगल चीड़ के जंगलों में परिवर्तित होते जा रहे हैं। दावाग्नि के कारण भूमि पर मृदा का ह्रास हो जाने पर भूमि के पोषक तत्व कम हो जाते हैं। भूमि की आर्द्रता एवं जलधारण क्षमता कम होने से बाँज का पुनर्उद्भव असम्भव हो जाता है। इस समय यहाँ पर अग्नि पर आधारित पारिस्थितिकी तन्त्र का अभिन्न अवयव चीड़ उत्पन्न होने लगता है। चीड़ की जलधारण क्षमता कम होने के कारण भूमि का जलस्तर नीचे चला जाता है। स्रोत सूख जाते हैं एवं तेज वर्षा के समय पहाड़ों में भूमि कटाव व मैदानों में बाढ़ की समस्याएं जन्म लेती हैं। चीड़ के पौधे एवं पत्तियों को जानवर नहीं खाते, इस तरह तन्त्र में लकड़ी व चारे की कमी तो हो जाती है, परन्तु वन विभाग के कर्मचारियों को बहुत आराम हो जाता है।
वन विभाग की दृष्टि में चीड़ से लीसा, इमारती लकड़ी एवं कागज बनाया जा सकता है। अल्प वर्षा वाले इलाकों व चट्टानी क्षेत्रों में भी यह तेजी से वृद्धि कर सकता है इसलिए वनस्पतिहीन क्षेत्रों को हरा भरा करने में यह मददगार है। देहरादून, मसूरी की पहाड़ियाँ इसका ज्वलंत उदाहरण है।
जंगल की आग की कहानी उत्तराखण्ड हिमाचल क्षेत्र में वस्तुतः चीड़ व बाँज की लड़ाई की कहानी है। हमें मानव व पहाड़ों के स्वार्थ को ध्यान में रखते हुए हर हाल में बाँज को ही जिताना होगा ताकि आने वाला समय नदियों, पेड़ों, सुरम्य घाटियों, ठंडी बयारों व ठन्डे प्रस्फुटित झरनों का रहे ।
स्थानीय निवासियों, ग्रामीणों एवं विद्यार्थियों को जंगल की आग के फायदे नुकसान समझाते हुए अग्नि रेखाओं का महत्व समझाना होगा। उनके फायदे के हिसाब से कायदे गढ़ने होंगे। वन संवर्धन हेतु चौड़ी पत्ती के पेड़ जैसे-खड़िक, तुन, भीमल, बाज, शीशम, सिरिस इत्यादि का रोपण करना होगा। आज 1 से 1.5 मिलियन वर्ष पूर्व खोजी गई अग्नि को एक बहुमूल्य पारिस्थितिक तन्त्र विकसित करने में प्रयोग करना होगा, जैव विविधता बढ़ाने में सहायक विवेकपूर्वक लगायी गई नियन्त्रित अग्नि हमारे हितों का संवर्धन करेगी।
सम्पर्क
सुरेश चन्द्र जोशी, कौमुदी जोशी
जी. बी. पी. आई. एच. इ. डी., श्रीनगर, गढ़वाल, जी. एस. आई., भुवनेश्वर, उड़ीसा
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