जनजातियों और पारम्परिक वनवासियों के वन अधिकारों को लागू करने में ग्राम सभा की भूमिका

संसद में 13 दिसम्बर, 2005 को अनुसूचित जनजाति (वन अधिकारों को मान्यता) विधेयक 2005, जिसे फिर अनुसूचित जनजाति और अन्य पारम्परिक वनवासी (वन अधिकारों को मान्यता) कानून, 2006 का नाम दिया गया, को पेश किया गया। इस कानून को 18 दिसम्बर, 2006 को संसद ने पारित कर दिया। राष्ट्रपति ने 29 दिसम्बर को इस विधेयक को मंजूरी दी और यह कानून प्रभावी हो गया। यह कानून अपने-आप में महत्त्वपूर्ण है। इसमें भविष्य में भारत के वनों की देख-रेख के लिए उसके निहितार्थ, साथ ही औपनिवेशिक और उसके बाद के समय में आदिवासियों और वनवासियों के साथ हुए अन्याय को खत्म करने के प्रावधान किए गए हैं।

सरकार वन पारिस्थितिकी प्रणाली को मजबूत और व्यावहारिक बनाए रखने के लिए पारम्परिक वनवासियों के प्रति सजग है। सरकार ने इसे भी मान्यता दी है कि आदिवासियों के अधिकारों और पर्यावरण के एजेण्डा को मिलाने के बाद अनुसूचित जनजातियों और अन्य वनवासियों की वन पारिस्थतिकी को बचाए रखने में अहम भूमिका है। वर्तमान कानून का एक अहम पहलू यह है कि देश के विभिन्न भागों के वन क्षेत्रों में या उसके आसपास रहने वाले आदिवासी समुदायों की भलाई को लेकर उनके कानूनी अधिकारों के लिए शुरू में इसे आदिवासी मामले मन्त्रालय ने आगे बढ़ाया। उल्लेखनीय है कि यह कानून वन अधिकारों की पहचान और इस बहुमूल्य प्राकृतिक सम्पदा के प्रबन्धन में पंचायती राज व्यवस्था के अन्तर्गत सबसे निचले स्तर की जनतान्त्रिक संस्था, ग्राम सभा की प्रमुख भूमिका प्रदान करता है। इसमें गाँव के सभी वयस्क नागरिक शामिल होंगे और महिलाओं की समग्र और अबाधित भागीदारी होगी। जिन राज्यों में पंचायतें नहीं हैं, वहाँ यह भूमिका पद, टोला तथा अन्य पारम्परिक ग्रामीण संस्थाएँ अथवा चुनी हुई ग्राम समितियाँ अदा करेंगी।

इस कानून के साथ वन संरक्षकों और आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ने वालों और उनके बीच चले व्यापक अभियान का इतिहास जुड़ा है। इस कानून को पारित कराने से पहले संयुक्त संसदीय समिति और बाद में मन्त्रियों के समूह की मंजूरी लेनी पड़ी। लम्बी चर्चा-परिचर्चा, राजनीतिक हस्तक्षेप, नौकरशाहों की व्याख्या और आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करने वालों तथा वन्य-जीवों के हित से जुड़े समूहों की जोड़-तोड़ के बाद अन्ततः एक जनवरी, 2008 को यह कानून अधिसूचित कर दिया गया।

इस कानून में आदिवासियों और वनवासियों को उनके कब्ज़े वाली वन-भूमि पर खेती करने का अधिकार, उसका मालिकाना हक देने, संग्रहण, छोटे-मोटे वन उत्पाद का इस्तेमाल करने और उसको बेचने, वन में मवेशियों को चराने जैसे पारम्परिक काम करने का अधिकार दिया गया। कई पीढ़ियों से आदिवासी वन-भूमि में रह रहे हैं और खेती करने के साथ जलावन की लकड़ियाँ, फल, शहद, पत्ते इत्यादि एकत्र करते रहे हैं। लेकिन उनके पास वन-भूमि का मालिकाना हक दिखाने के लिए कोई कानूनी दस्तावेज नहीं होता है। वन संरक्षण कानून बनने तक इन आदिवासियों को अतिक्रमण करने वाले या गैर-कानूनी ढंग से कब्ज़ा करने वालों के रूप में देखा जाता था। इस कानून का मकसद आदिवासियों और वनवासियों को मौजूदा अन्याय से मुक्ति दिलाना और उनके पारम्परिक वन अधिकारों को कानूनी मान्यता प्रदान करना है।

इस कानून के अनुसार, किस वन संसाधन पर किसका अधिकार होगा, यह तय करने में ग्राम सभा की मुख्य भूमिका होगी। ग्राम सभा को इस कानून के अधिकार क्षेत्र के भीतर व्यक्तिगत या सामुदायिक वन अधिकार या दोनों तय करने की प्रक्रिया आरम्भ करने का अधिकार दिया गया है। इन वन अधिकारों में भूमि के स्वामित्व, वहाँ रहने, लकड़ी के अलावा अन्य वन्य उत्पाद इकट्ठा करने, उनका इस्तेमाल करने अथवा बेचने का अधिकार, पट्टे अथवा अनुदान में प्राप्त वन-भूमि पर मालिकाना हक हासिल करने, बस्तियों और वन्य ग्रामों को राजस्व ग्राम में बदलने का अधिकार और वन क्षेत्रों से हटाए जाने की स्थिति में समुचित पुनर्वास का अधिकार शामिल हैं। उल्लेखनीय रूप से इस कानून में वनवासियों और ग्राम सभाओं को जैव विविधता तथा सांस्कृतिक बहुलता सम्बन्धी सामुदायिक वन सम्पदा के संरक्षण, पुनर्वधन, संवर्धन और प्रबन्धन के अधिकार और इससे जुड़ी जिम्मेदारी भी सौंपी गई है। ग्राम सभा दावों को प्राप्त करेंगे और उनकी पुष्टि करेंगे, क्षेत्र का नक्शा तैयार करेंगे और फिर एक प्रस्ताव पारित कर उसकी एक प्रति उपमण्डल स्तर की समिति को देंगे।

ऐसे लोगों के लिए, जो ग्राम सभा के प्रस्ताव से सन्तुष्ट नहीं हैं उनके लिए उपमण्डल स्तर की समिति बनाई गई है, जिसमें वे 60 दिन के भीतर अपील कर सकते हैं, अगर वे उससे भी सन्तुष्ट नहीं होते हैं तो जिला स्तरीय समिति के पास जा सकेंगे जिसका वन अधिकार के रिकॉर्ड के बारे में फैसला अन्तिम और बाध्यकारी होगा। वन अधिकार की पहचान करने और उन्हें प्रदान करने की प्रक्रिया की निगरानी के लिए एक राज्य स्तरीय निगरानी समिति का प्रावधान भी है। विभिन्न समितियों में राज्य सरकारों के राजस्व, वन और आदिवासी मामलों के विभागों के अधिकारी तथा पंचायत संस्थाओं के तीन सदस्य शामिल हैं। इनमें दो अनुसूचित जाति के सदस्य एवं कम से कम एक महिला होगी। वन अधिकार समिति का गठन ग्राम सभा करेगी। इसके सदस्यों की संख्या 10 से कम और 15 से ज्यादा नहीं होगी। इसका चुनाव ग्राम सभा अपनी पहली बैठक में करेगी और उसके कम से कम एक-तिहाई सदस्य अनुसूचित जनजाति के होंगे और उसमें महिलाओं की संख्या एक-तिहाई से कम नहीं होनी चाहिए।

वन अधिकार समिति एक अध्यक्ष और एक सचिव का चुनाव करेगी तथा इसकी सूचना उपमण्डल स्तर की समिति को देगी। समिति की अहम भूमिका और जिम्मेदारी ग्राम सभा की मदद करनी होगी। उसका काम दावों को एक निश्चित फॉर्म पर प्राप्त करना, प्राप्ति-पत्र देना और ऐसे दावों के समर्थन के लिए सबूत जुटाना होगा। वह सभी आवेदनों के लिए लिखित तौर पर प्राप्ति-पत्र देगी तथा नक्शों के साथ दावों और सबूतों का रिकॉर्ड तैयार करेगी। यह वन अधिकारों पर दावेदारों की एक सूची भी तैयार करेगी।

जिन वनवासियों को इस कानून के लागू होने से पहले गैर-कानूनी तरीके से हटाया गया था, अथवा जिनका समुचित पुनर्वास नहीं किया गया था, वे भी समुचित पुनर्वास के हकदार होंगे। पुनर्वास के अधिकार में वैकल्पिक भूमि का अधिकार भी शामिल है। वह दावा करने वालों और वन विभाग को सूचित करने के बाद दावों की पुष्टि करेगी। इसके तहत वह मौके पर मुआयना करेगी और दावों एवं सबूतों की प्रकृति एवं मात्रा का सत्यापन करेगी तथा दावेदारों और गवाहों से सबूत या रिकॉर्ड हासिल करने का काम करेगी; उसे सुनिश्चित करना होगा कि चरवाहों और घुमन्तू जाति के दावों का दावा करने वालों के प्रतिनिधियों की मौजूदगी में सत्यापन हो गया हो; आदिम जनजाति समूहों या पूर्व कृषक समुदायों के दावों का उचित सत्यापन सुनिश्चित करना; मान्य भूमि संकेतों के साथ प्रत्येक दावे के क्षेत्र को दर्शाने वाला मानचित्र तैयार करना, दावों के निष्कर्षों को रिकॉर्ड करना और उसे ग्राम सभा के सामने प्रस्तुत करना; पड़ोस के गाँवों के साथ विवादित दावों में संयुक्त बैठक आयोजित करना; सामुदायिक वन अधिकारों के लिए ग्राम सभा की ओर से दावों को तैयार करना होगा।

जिन वनवासियों को इस कानून के लागू होने से पहले गैर-कानूनी तरीके से हटाया गया था, अथवा जिनका समुचित पुनर्वास नहीं किया गया था, वे भी समुचित पुनर्वास के हकदार होंगे। पुनर्वास के अधिकार में वैकल्पिक भूमि का अधिकार भी शामिल है। इस कानून में केन्द्र सरकार से यह अपेक्षा भी शामिल है कि वह स्कूल, दवाखाना, आंगनवाड़ी उचित मूल्य की दुकानों, बिजली तथा दूर-संचार लाइनों, पेयजल पाइपलाइनों, जल-सम्भरण संरचनाओं व्यावसायिक प्रशिक्षण केन्द्रों, सामुदायिक केन्द्रों, सड़कों आदि जैसे सामाजिक और विकास कार्यों के लिए जरूरी वन-भूमि के आवण्टन की व्यवस्थ करे।

इस प्रकार यह कानून केवल वन अधिकार ही प्रदान नहीं करता, वरन वनवासियों के सम्मानजनक जीवन के लिए आवश्यक व्यक्तिगत और सामुदायिक जरूरियातों की पूर्ति के लिए ढाँचा भी उपलब्ध कराता है।

इस कानून में वन अधिकारों के अभिलेखन और अधिकारों की पहचान व प्रदाय के लिए अनुकरणीय प्रविधिगत संरचना भी उपलब्ध कराता है। ग्राम सभा और पारम्परिक ग्राम्य संस्थाएँ वन अधिकारों की पहचान में प्रमुख भूमिका का निर्वाह करेंगे। गाँव के सभी वयस्कों और महिलाओं की इसमें अबाधिक व पूर्ण भागीदारी होगी। इसके अतिरिक्त राज्य सरकारें अनुमण्डल, जिला और राज्य स्तर पर समितियों का गठन करेंगी।

ग्राम पंचायत निर्धारित तिथि पर ग्राम सभा की बैठक बुलाएगी और वन अधिकार समिति का गठन सुनिश्चित करेगी। जिला पंचायत उपयुक्त वर्गों से ब्लॉक/तहसील स्तर की पंचायत के तीन सदस्यों को उपमण्डल स्तर की समिति के लिए मनोनीत करेगी। वह जिला स्तर की समिति के लिए उपयुक्त वर्ग से जिला पंचायत के तीन सदस्य मनोनीत करेगी।

उपमण्डल स्तर की समिति का गठन राज्य सरकार द्वारा किया जाएगा। इसमें एक उपमण्डलीय अधिकारी, वन अधिकारी, जिला पंचायत द्वारा मनोनीत ब्लॉक/तहसील स्तर की पंचायतों के तीन सदस्य और उपमण्डल के आदिवासी कल्याण विभाग का एक अधिकारी होगा।

उपमण्डल स्तर की समिति की मुख्य भूमिका और जिम्मेदारी हर ग्राम सभा को उसकी जिम्मेदारियों के बारे में सूचित करने के साथ-साथ वन अधिकार पानेवालों और अन्य को वन्य-जीव संरक्षण और वन तथा पेड़-पौधों एवं जीव-जन्तुओं के प्रति उनकी जिम्मेदारियों से अवगत कराया जाएगा। वह ग्राम सभा/वन अधिकारी समिति को वन एवं राजस्व मानचित्र और मतदाता सूची उपलब्ध कराएगा।

वह कानून और नियमों के तहत यह निर्धारित उद्देश्यों और प्रक्रियाओं के बारे में वनवासियों के बीच जागरुकता पैदा करेगा। वह दावा करने वालों के लिए दावों का विवरण मुफ्त में एवं आसानी से उपलब्ध कराएगा जैसा कि नियमों के अनुलग्नक-आई (फार्म ए और बी) में व्यवस्था है। यह सुनिश्चित करेगा कि ग्राम सभा की बैठकें स्वतन्त्र और निष्पक्ष एवं अपेक्षित उपस्थिति के साथ हों। वह सम्बद्ध ग्राम सभाओं के सभी प्रस्तावों का मिलान करेगा।

यह ग्राम सभाओं द्वारा उपलब्ध कराए गए मानचित्रों और विवरणों का एक ब्योरा बनाएगा। दावों की प्रामाणिकता को जाँचने के लिए प्रस्तावों और मानचित्रों की जाँच-पड़ताल करेगा। वन अधिकारों की प्रकृति और स्वरूप पर ग्राम सभाओं के बीच उत्पन्न विवाद की सुनवाई करेगा और उस पर फैसला सुनाएगा। वह सरकारी एजेंसियों, ग्राम सभाओं के प्रस्तावों पर असन्तोष समेत व्यक्तियों की याचिकाओं की सुनवाई करेगा।

वह अन्तरमण्डलीय दावों के लिए अन्य उपमण्डल स्तर की समितियों के साथ तालमेल करेगा। वह सरकारी रिकॉर्डों के मिलान के बाद प्रस्तावित वन अधिकारों के रिकॉर्ड का ब्लॉक और तहसीलवार मसौदा तैयार करेगा। वह उपमण्डल अधिकारी के माध्यम से प्रस्तावित वन अधिकारों के रिकॉर्ड के मसौदे के साथ दावों को अन्तिम निर्णय के लिए जिला स्तर की समिति के पास भेजेगा। अगर कोई याचिका ग्राम सभा के प्रस्तावों के खिलाफ होगी तो वह उसे भी स्वीकार करेगा और सार्वजनिक स्थल पर नोटिस चिपकाने के साथ लिखित में सुनवाई के लिए तारीख तय करेगा। वह ग्राम सभा के प्रस्ताव पर उसके सन्दर्भों के साथ विचार और यथोचित निर्णय करेगा।

जिला स्तर की समिति राज्य सरकार द्वारा गठित की जाएगी। इसमें जिला कलेक्टर, डीएफओ/उप वन संरक्षक, जिला पंचायत द्वारा मनोनीति जिला पंचायतों के तीन सदस्य और जिले के आदिवासी कल्याण विभाग का प्रभारी अधिकारी सदस्य होगा। इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका और जिम्मेदारी ग्राम सभा/ वन अधिकार समिति को वन एवं राजस्व मानचित्र और मतदाता सूची मुहैया करानी होगी।

यह जाँच-पड़ताल करेगा कि क्या सभी दावे, खासतौर से मूल आदिवासी जातियों, चरवाहों और घुमन्तू जातियों की सारी याचिकाएँ कानूनसम्मत हैं या नहीं। वह उपमण्डल स्तर की समिति द्वारा वन अधिकारों के बारे में तैयार याचिकाओं और रिकॉर्डों पर विचार करने के बाद उन्हें अन्तिम मंजूरी देगा। वह उपमण्डल स्तर की समिति के निर्णय से असन्तुष्ट व्यक्तियों की याचिकाओं पर सुनवाई करेगा। वह अन्तर जिला दावों के सम्बन्ध में अन्य जिलों के साथ तालमेल करेगा।

वह अधिकार के रिकॉर्ड समेत सम्बद्ध सरकारी रिकॉर्ड में वन अधिकारों को सम्मिलित करने का निर्देश जारी करेगा। वह वन अधिकारों के रिकॉर्ड का प्रकाशन सुनिश्चित करेगा ताकि उसे अन्तिम रूप दिया जा सके। वह यह निश्चित करेगा कि दावा करने वाले व्यक्ति और ग्राम सभा को कानून के तहत, जिसका नियमों के अनुलग्नक दो और तीन में उल्लेख है, वन अधिकारों के रिकॉर्ड और शीर्षक की एक प्रमाणित प्रति अलग-अलग उपलब्ध कराई जाए।

नियमों के तहत राज्य सरकार को राज्य स्तरीय निगरानी समिति और जिला और उपमण्डल स्तर पर समितियों का गठन करना होगा। कानून की धारा 6(1) में ग्राम सभाओं को व्यक्तियों/सामुदायिक वन अधिकारों की प्रकृति और मात्रा को तय करने का अधिकार दिया गया है। इस सम्बन्ध में ग्राम पंचायतों को ग्राम सभाओं की बैठकें आयोजित करनी होगी और उनमें वन अधिकार समिति के सदस्यों का चुनाव कराना होगा। वन अधिकार समिति निर्धारित स्वरूप में किए गए दावों को प्राप्त करेगी और दावा करने वाले को प्राप्ति-पत्र देगी। वे दावों की पुष्टि करेगी और ग्राम सभा के सामने अपने निष्कर्षों को रखेगी।

ग्राम सभाओं को प्रत्येक दावों के लिए प्रस्ताव पारित करना होगा और आगे की कार्रवाई के लिए उपमण्डल स्तर की समिति के पास भेजना होगा। उपमण्डल स्तर की समिति को यह सुनिश्चित करना होगा कि ग्राम सभा को उनकी भूमिका और जिम्मेदारियों का पता हो, दावा करने के लिए फॉर्म आसानी से उपलब्ध हो, ग्राम सभा की बैठकें अपेक्षित कोरम के साथ स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष ढंग से हों। जिला स्तर की समितियों को स्वीकृति के दावों पर अन्तिम रूप से विचार करना होगा और अधिकार के रिकॉर्ड में स्वीकृत दावों का प्रकाशन करने के अलावा दावा करने वाले को उसकी प्रतियाँ उपलब्ध करानी होंगी।

यह कानून केवल वन अधिकार ही प्रदान नहीं करता, वरन वनवासियों के सम्मानजनक जीवन के लिए आवश्यक व्यक्तिगत और सामुदायिक जरूरियातों की पूर्ति के लिए ढाँचा भी उपलब्ध कराता है।प्रधानमन्त्री ने 8 जनवरी, 2008 को लिखे अपने पत्र में अनुसूचित जनजाति एवं अन्य वनवासी (वन अधिकारों को मान्यता) कानून एवं नियमों को तेजी से लागू करने पर बल देते हुए कहा कि 'इसे लागू करने की जिम्मेवारी राज्य सरकारों की है। कानून के तहत उन्हें समितियाँ बनानी है जो दावों का निपटारा करेगी और भूमि आवण्टन के अधिकार सुनिश्चित करेगी। इस प्रकार राज्य स्तर की निगरानी समितियाँ, जिला स्तर की समितियाँ और जिले से निचले स्तर की समितियाँ जल्द से जल्द गठित की जानी चाहिए ताकि वे अपना काम शुरू कर सकें। इस बारे में स्पष्ट जानकारी दी जानी चाहिए ताकि इस कानून के प्रावधानों और नियमों के बारे में अच्छी तरह जानकारी मिल सके और इस तरह की सार्वजनिक सूचना देने से इसे लागू करने में पारदर्शिता और जवाबदेही तय हो सकेगी। पंचायती राज मन्त्रालय एक निर्धारित तिथि पर देश भर में ग्राम सभाएँ आयोजित करने के लिए आपको अलग से पत्र लिखेगा ताकि ग्राम सभा और पंचायतों के सदस्यों को इस कानून के बारे में विस्तार से जानकारी दी जा सके, जिन्हें इसके क्रियान्वयन से अहम भूमिका निभानी है।'

जैसा प्रधानमन्त्री ने प्रस्ताव किया है, देश भर में सभी राज्यों को 28 फरवरी, 2008 को ग्राम सभाएँ आयोजित करनी होगी और इन बैठकों में ग्राम सभाओं और वन अधिकार समितियों को कानून के प्रावधानों और नियमों के साथ-साथ उनकी खुद की भूमिका एवं जिम्मेदारियों के बारे में बताया जाना चाहिए। इससे पहले ग्राम पंचायतों और उपमण्डल एवं जिला स्तर की समितियों के सदस्यों को समूची प्रक्रिया और उनकी भूमिका एवं जिम्मेदारियों को अवश्य समझ लेना होगा। ग्राम सभा की प्रस्तावित बैठक से काफी पहले उपमण्डल स्तर की समिति के सदस्यों एवं प्रधानों और अन्य प्रतिनिधियों को इस उद्देश्य के लिए अवश्य प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।

वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन के लिए तैयारियों का काम शुरू किया जा चुका है और अधिकतर राज्यों ने आश्वासन दिया है कि 28 फरवरी से ग्राम सभा की बैठकें बुलाने का काम शुरू कर दिया जाएगा और अगले महीने के मध्य तक इसे पूरा कर लिया जाएगा। अनुसूचित जनजाति एवं अन्य वनवासियों (वन अधिकारों को मान्यता) कानून, 2006 के क्रियान्वयन के लिए राज्यों और मन्त्रालयों के वास्ते कार्य बिन्दुओं को प्रधानमन्त्री के प्रमुख सचिव की अध्यक्षता में 21 जनवरी, 2008 को प्रधानमन्त्री कार्यालय में हुई बैठक में मंजूरी दे दी गई। पंचायती राज मन्त्रालय के प्रमुख कार्य बिन्दु इस प्रकार हैं : जागरुकता और प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भागीदारी राज्यों द्वारा निश्चित की जाए, एक निर्धारित तिथि पर देश भर में सभी ग्राम सभाओं की बैठक आयोजित की जाए, पात्रता के लिए मान्य अनुसूचित जनजाति और अन्य पारम्परिक वनवासियों से दावे आमन्त्रित करने के लिए ग्राम सभाओं को निर्देश जारी किए जाए, ग्राम सभाओं को नियमों के प्रावधानों में प्रदत अधिकारों के तहत काम करने को कहा जाए, अदालत में दायर याचिकाओं के मामले में तुरन्त फैसले की व्यवस्था की जाए।

कुल मिलाकर सरकार वन पारिस्थितिकी प्रणाली को मजबूत और व्यावहारिक बनाए रखने के लिए पारम्परिक वनवासियों के प्रति सजग है। सरकार ने इसे भी मान्यता दी है कि आदिवासियों के अधिकारों और पर्यावरण के एजेण्डा को मिलाने के बाद अनुसूचित जनजातियों और अन्य वनवासियों की वन पारिस्थतिकी को बचाए रखने में अहम भूमिका है। यह भी दिलचस्प है कि इस कानून के जरिये सरकार भारत की तीव्र विकास दर को बनाए रखने और एक आर्थिक शक्ति के रूप में उभरने की उम्मीद कर रही है ताकि विकास में हुए असन्तुलन को दूर किया जा सके और वह प्रगति में पिछड़ गए कमजोर लोगों के उत्थान के प्रति सजग हो सके। जब माओवादियों का खतरा समस्त मध्य भारत में बना हुआ है, लोग इसकी त्रासदी झेल रहे हैं, यह कानून सरकार को बिना भेदभाव के और कानून सम्मत तरीके से अपना एजेण्डा लागू करने की इजाजत देता है। वन अधिकार कानून के प्रावधान और इसके तहत बनाए गए नियम पेसा कानून से मेल खाते हैं और इस कानून को उसकी भावनाओं के अनुरूप लागू करने की जरूरत है।

इसमें सन्देह नहीं है कि ग्राम सभा को दावों की प्रक्रिया आरम्भ करने की बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गई है और यह जरूरी है कि इस उद्देश्य के लिए उपमण्डलीय समितियों के सदस्यों, प्रधानों और अन्य पीआरआई प्रतिनिधियों को प्रशिक्षण देने और जागरूक बनाने के लिए यथोचित कदम उठाए जाने चाहिए। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है हर स्तर पर समयबद्ध कार्य योजना बनाई गई है। नियमों के तहत समय-सीमा के भीतर जिम्मेदाराना तरीके से काम करने के लिए वन अधिकार समितियों और ग्राम सभाओं को दावों, विवाद के निपटारे, दस्तावेज इत्यादि से निपटने के प्रावधानों को समझने के लिए भरपूर सहयोग की जरूरत है। इन सभी मुद्दों को प्राथमिकता के आधार पर निपटाने की जरूरत है।

(लेखक केन्द्रीय पंचायती राज मन्त्री हैं। लेख पंचायती राज मन्त्रालय में सीनियर कंसल्टेण्ट डॉ. नुपूर तिवारी द्वारा उपलब्ध कराए गए तथ्यों पर आधारित है)

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