जन सहयोग से निर्मित पहला जल पिरामिड

ग्रामीण आबादियों को पेयजल उपलब्ध कराने में भू-जल की अहम भूमिका होती है। अधिकांश गाँवों में जल का स्थानीय स्रोत, यदि भरोसेमन्द नहीं है, तो कम से कम उसका मौसम के अनुसार इस्तेमाल किया जाता है। जनसंख्या वृद्धि और लोगों की उच्चाकांक्षाओं के कारण ग्रामीण जलापूर्ति के लिए स्वीकार्य गुणवत्ता वाला ऐसा जल, जिसके उपचार की न्यूनतम आवश्यकता हो और जो कम लागत पर उपलब्ध हो, की माँग निरन्तर बढ़ती जा रही है। गुजरात, जिसे बार-बार सूखे का प्रकोप सहना पड़ता है, में भू-जल विकास का विशेष महत्व है।

जल पिरामिड के द्वारा ग्रामीणों के लिए न केवल शुद्ध जल उपलब्ध कराया जा सकता है, बल्कि नमक की बिक्री कर आमदनी भी की जा सकती हैहकीकत यह है कि गुजरात उन राज्यों में आता है जहाँ भू-जल की गुणवत्ता से जुड़ी सर्वाधिक गम्भीर समस्या का सामना करना पड़ता है। फ्लोराइड, नाइट्रेट और खारेपन का उच्च स्तर, भू-जल को पीने के अयोग्य बनाने में काफी हद तक उत्तरदायी है। गुजरात की तटीय सीमा 1,600 किलोमीटर की है, जो देश में सबसे लम्बी है और जो देश की कुल तटीय सीमा (समुद्री सीमा) का कुल एक तिहाई है। इसमें से 1,100 किलोमीटर से अधिक सौराष्ट्र और कच्छ में है। तटवर्ती क्षेत्रों का शहरीकरण और औद्योगिक विकास में हमेशा ही महत्वपूर्ण स्थान रहा है। छोटे और बड़े बन्दरगाहों के विकास के कारण इस प्रवृत्ति में और वृद्धि हुई है। तटवर्ती क्षेत्रों में विकास का दबाव इसलिए जारी रहेगा। नीची सतह वाले तटवर्ती क्षेत्र कृषि उत्पादन के भी प्रमुख क्षेत्र माने जाते हैं।

गुजरात के पानी में खारेपन की समस्या का पहली बार पता उस समय चला जब साठ के दशक के अन्तिम और सत्तर के दशक के प्रारम्भिक वर्षों में किसानों द्वारा तटवर्ती क्षेत्रों में तेल पम्पों के इस्तेमाल से भारी मात्रा में पानी निकालना शुरू हुआ। तटीय क्षेत्रों में ताजे पानी और समुद्री जल के बीच प्राकृतिक जलविज्ञान सम्बन्धी सन्तुलन में आई बाधा से समस्याओं में इजाफा हुआ है। तटीय क्षेत्रों के जलीय निकायों में ताजा पानी आमतौर पर भारी खारे पानी के ऊपर-ऊपर बहता है। ताजे़ पानी के दबाव में आई कोई भी कमी, जैसेकि ज्यादा निकासी से होने वाली कमी, से समुद्री जल का खिंचाव ऊपर की ओर होने लगता है, जिससे जल निकाय का अधिकांश जल खारा हो जाता है।

ज्वार के दौरान भी समुद्री जल, नदियों, चश्मों, नालों आदि के जरिये जमीन में समा जाता है। इससे भी भू-जल की गुणवत्ता प्रभावित होती है। इस समस्या का नतीजा वह हुआ है कि इस क्षेत्र में पेयजल की भारी किल्लत हो गई है। वर्ष 2004 में हुए आवासीय बसाहट सर्वेक्षण में पता चला है कि पूरे राज्य में 2,508 गावों में समुद्री जल के भू-जल में मिलने से पानी खारा हो गया है। यह मुख्यतः ज्वार (उच्च लहरों) के साथ बह कर आए पानी के कारण हुआ है। इन प्रभावित गाँवों में से 950 सौराष्ट्र में हैं और 170 कच्छ में।

पेयजल में सन्दूषित तत्वों के अत्यधिक मिश्रण से शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ता है और फ्लोरोसिस उच्च रक्तदाब तथा गुर्दे की पथरी जैसे अनेक रोगों का सामना करना पड़ता है। अत्यधिक फ्लोराइड और खारेपन की समस्या पुरानी है और इससे लोगों, विशेषकर महिलाओं में, अल्पायु में ही कमजोरी और बुढ़ापे की जो समस्याएँ आती हैं, उसे आमतौर पर बढ़ती आयु से जुड़ी समस्याएँ बताकर बहला दिया जाता है। शायद ही कभी इन्हें पेयजल से जुड़ी समस्या माना जाता हो।

पिरामिड पॉलीथिलीन का बना होता है। गुम्बद का शीर्ष भाग सफेद रंग का होता है, जो गर्मी को बाहर नहीं जाने देता, जबकि नीचे का हिस्सा काले रंग का होता है, जो गर्मी को सोख लेता है।गुजरात सरकार राज्य के सभी गाँवों में पेयजल सुरक्षा प्रदान करने के प्रति कृतसंकल्प है। इसमें ग्रामीण समुदायों को पर्याप्त, नियमित और सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराना शामिल है। सरकार ने इस दिशा में अनेक कदम उठाए हैं। इन प्रयासों में राज्यव्यापी पेयजल ग्रिड बना कर भू-जल स्रोतों के स्थान पर सतही जल स्रोतों का अपनाना शामिल है। योजना पूरा हो जाने पर राज्य की तीन चौथाई जनसंख्या की पेयजल समस्या का समाधान हो सकेगा। इस ग्रिड के माध्यम से अब तक 50 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या को सुरक्षित पेयजल मिलने लगा है। इसी के साथ-साथ चेकडैम, ग्राम और कृषि तालाब, पोखर, तटबन्ध और छतों पर निर्मित संग्राहक जैसे- वर्षा जल संचय के लिए आवश्यक ढाँचों की संरचना भी की जा रही है ताकि वर्षा के जल को रोक कर इकट्ठा किया जा सके और फिर लोगों के स्थानीय जल स्रोतों में संवर्धन के लिए भू-जल को रिचार्ज किया जा सके। इससे लोगों को दोहरी पेयजल आपूर्ति प्रणाली मिल सकेगी।

इधर, इस क्षेत्र में एक और महत्वपूर्ण परिवर्तन आया है। सरकार नियन्त्रित, प्रदाय-आधारित, केन्द्रीकृत कार्यक्रमों के स्थान पर अब समुदाय प्रबन्धित विकेन्द्रित ग्राम निर्मित ऐसी जलापूर्ति प्रणाली को अपनाया जा रहा है, जो समुदाय की माँग पर आधारित होती है। कुल लागत भी पूरा ग्राम समुदाय ही वहन करता है और यदि प्रणाली के संगठन एवं प्रबन्धन (ओ एण्ड एम) का कार्य भी उसके जिम्मे है तो समूची प्रणाली का उत्तरदायित्व भी ग्राम समुदाय ही उठाता है। जलापूर्ति प्रणालियों के विकेन्द्रीकरण को सरल बनाने और समय-समय पर इसके आकलन के लिए गुजरात सरकार ने 2002 में जल एवं स्वच्छता प्रबन्धन संगठन (वाटर एण्ड सैनिटेशन मैनेजमेण्ट ऑर्गनाइजेशन- वास्मो) का गठन किया। राज्य में कार्यरत 70 गैर-सरकारी संगठनों के साथ मिलकर वास्मो अब तक 13,000 गाँवों को विकेन्द्रित व्यवस्था के अधीन ला चुका है।

एक और महत्वपूर्ण पहलू पानी की गुणवत्ता के बारे में जागरुकता लाना है। पानी के गुणवत्ता का मामला स्वच्छता और स्वास्थ्य सम्बन्धी मुद्दों के साथ-साथ जल सुरक्षा में जन-भागीदारी से भी जुड़ा है। यदि जागरुकता का विस्तार से विशेषकर जल प्रबन्धन, व्यक्तिगत स्वच्छता और साफ-सफाई के बारे में, व्यावहारिक बदलाव लाने और कीटाणु जनित सन्दूषण रोकने में मदद मिलती है तो रासायनिक सन्दूषण और पानी की अन्तर्निहित गुणवत्ता की समस्याओं को दूर करने के लिए प्रायः प्रौद्योगिकी हस्तक्षेप की आवश्यकता होती है। राज्य सरकार का प्रयास इन प्रौद्योगिक हस्तक्षेपों की शुरुआत विक्रेताओं के साथ वार्ता और ऐसी लोक-निज भागीदारी प्रादर्शों का विकास करने का रहा है जो सुविधाजनक हो और आसानी से इस्तेमाल की जा सकें, ताकि पेयजल की गुणवत्ता की समस्याओं का निराकरण हो सके।

विपरीत परासरण (रिवर्स ऑस्मोसिस- आरओ) एक ऐसी तकनीक है जो अवांछित रासायनिक घटकों के सान्द्रण को स्वीकार्य स्तर तक लाने के साथ-साथ कीटाणुजनित अशुद्धियों को भी दूर कर सकती है। पिछले दशक के दौरान आरओ तकनीक में जबर्दस्त सुधार हुआ है और अत्यन्त छोटे से लेकर अति उच्च क्षमता वाले संयन्त्र बाजार में उपलब्ध हैं। ये मशीनें विभिन्न गुणवत्ता मानकों के अनुसार पानी की अशुद्धियों को दूर करने में सक्षम है। वास्मो के समक्ष एक बड़ी चुनौती आरओ संयन्त्र के विभिन्न कलपुर्जों के मानकीकरण की भी जो कि उच्च गुणवत्ता के कार्यश्रम उत्पाद के लिए अनिवार्य हैं। विस्तृत विचार-विमर्श और तमाम प्रक्रियाओं के अध्ययन के बाद वास्मो ने दो आरओ विक्रेताओं के साथ 400 गाँवों में बीओटी आधार पर आरओ संयन्त्र लगाने के बारे में समझौता किया है।

शिर्वा गाँव के लिए सुरक्षित जल


कच्छ जिले के माण्डवी ताल्लुका से 7 किलोमीटर पर स्थित शिर्वा गाँव में मिले-जुले समुदायों के 471 परिवार हैं। अनेक वर्षों तक यह गाँव गुजरात जलापूर्ति एवं मल-जल बोर्ड (जीडब्ल्यूएसएसबी) द्वारा निर्मित और प्रबन्धित बोर वेल पर अपनी पानी की आवश्यकता के लिए निर्भर था। वर्ष 2001 में आए भूकम्प में यह प्रणाली बुरी तरह से टूट-फूट गई थी। भूकम्प प्रभावित क्षेत्रों (ईआरआर) में वास्मो के समुदाय प्रबन्धित जलापूर्ति प्रणालियों के कार्यक्रम के तहत, गाँव (शिर्वा) भी, सरकारी संकल्पानुसार प्रतिनिधिक पानी समिति गठित कर शामिल हो गया। समुदाय से अंशदान एकत्रित करने में शुरुआती झटके के बाद पानी समिति को जलापूर्ति प्रणाली के निर्माण में सफलता मिल गई। इस प्रणाली में ईएसआर (क्षमता 1,00,000 लीटर) पम्प (जलाशय, क्षमता 1,00,000 लीटर), वितरण लाइन, पम्प, विद्युत कनेक्शन, मरम्मत और धोबी घाटों, मवेशियों के लिए कुण्ड या नाद और तालाब को गहरा करने का कार्य शामिल था।

परन्तु बोरवेल के पानी की गुणवत्ता पीने लायक नहीं थी और टीडीएस का स्तर 3,500 पीपीएम (भाग प्रति दस लाख) तक था। नतीजतन, गाँव के लोग गुर्दे की पथरी, बदहजमी और अन्य अदर रोगों से पीड़ित थे। इस समस्या के समाधान के लिए गाँव के दो तालाबों को और गहरा किया गया ताकि बोरवेल को रिचार्ज किया जा सके। इससे टीटीएस के स्तर में कमी तो आई, परन्तु पानी फिर भी पीने योग्य नहीं था और सारा समुदाय निराश हो गया।

इसी बीच, ग्रामीण समुदायों के लिए गाँवों में ही आरओ संयन्त्र लगाने के लिए वास्मो की विभिन्न आरओ विक्रेताओं से बातचीत जारी थी। गाँव वालों के सामने जब यह विकल्प रखा गया तो उन्होंने उसे हाथों-हाथ लिया। कारण कि वे लोग लम्बे समय से कष्ट सहते आ रहे थे। औसतन 5 एलपीसीडी की माँग को पूरा करने के लिए गाँव में 1,250 लीटर की क्षमता वाला आरओ संयन्त्र लगाया गया। सरकार ने कुल लागत के 90 प्रतिशत का अंशदान किया, जबकि समुदाय ने 10 प्रतिशत का योगदान किया। पानी समिति ने ओ एण्ड एम (संगठन एवं प्रबन्धन) का दायित्व लिया। आरओ संयन्त्र से पानी का टीडीएस घट कर 450-500 पीपीएम रह गया। आरओ संयन्त्र के प्रबन्धन और पानी के दैनिक वितरण के लिए अलग से एक समिति बनाई गई है। पानी के 100 लीटर से अधिक मात्रा के लिए 30 पैसे प्रति लीटर का प्रभार वसूला जाता है जबकि 100 लीटर से कम के लिए 40 पैसे प्रति लीटर की दर है। पानी का वितरण, पानी समिति के लिए आय का साधन बन गया है।

परन्तु आरओ तकनीक में एक खराबी है। इससे काफी पानी बेकार हो जाता है और उसका निस्तार वास्मो और गाँव के लिए एक बड़ी समस्या बन गई। प्रतिदिन करीब 3,000 लीटर पानी का इस्तेमाल पीने के लिए होता है जबकि करीब उतना ही पानी बेकार हो जाता है। और तो और, चूँकि आरओ संयन्त्र गाँव के बीचोबीच लगा हुआ है, बेकार पानी के निस्तारण के लिए कोई उचित स्थान भी नहीं है। इस व्यर्थ पानी में टीडीएस का स्तर 7,000 पीपीएम तक होता है, अतः यह पानी पशुओं के लिए भी अनुपयोगी है और न ही इसे रिचार्ज किया जा सकता है अथवा घर के अन्य कामों में इस्तेमाल किया जा सकता है।

जल पिरामिड मार्गदर्शी परियोजना


आरओ संयन्त्र से बेकार पानी का समुचित निस्तारण वास्मो और जलापूर्ति विभाग के लिए चिन्ता का विषय रहा है। समुचित समाधान के लिए अनेक प्रयास भी किए गए। लगभग उसी समय, हॉलैण्ड की कम्पनी एक्वा एरो वाटर सिस्टम्स (एएडब्ल्यूएस) ने जल पिरामिड के इस्तेमाल से पानी के शुद्धीकरण की एक अभिनव विधि को लेकर गुजरात सरकार से सम्पर्क किया। इस परियोजना के बारे में जब शिर्वा गाँव के लोगों और पानी समिति से सम्पर्क किया गया, उन्होंने इससे गहरी रुचि दिखाई और इस कार्य को सम्भालने के प्रति विश्वास दिखाया।

हॉलैण्ड के इंजीनियरों के एक समूह द्वारा अन्वेषित जल पिरामिड तकनीक में आसवित जल के उत्पादन के विभिन्न तरीके बताए गए हैं। इससे गाँव के लिए व्यापार के नये अवसरों का मार्ग भी खुला है। तकनीक के आविष्कारक, हॉलैण्ड के एक्वा एरो वाटर सिस्टम्स के मार्टिन नीरजे बड़े सरल शब्दों में जल पिरामिड प्रणाली की व्याख्या करते हुए इसे एक ऐसा गुब्बारा बताते हैं, जो सौर ऊर्जा से खारे पानी का खारापन खींच कर उसे आसवित जल में बदल देता है।

जल पिरामिड की समग्र प्रक्रिया सरल भी है और जटिल भी। प्रक्रिया के विभिन्न चरणों का विवरण इस प्रकार है :

आरओ संयन्त्र से व्यर्थ पानी का संग्रहण


आरओ संयन्त्र से निकले व्यर्थ पानी को एक ही स्थान पर यानी जल पिरामिड के पास रखी सिण्टैक्स टंकियों में इकट्ठा किया जाता है। आपस में जुड़ी 5 हजार लीटर समूह की 6 टंकियों में करीब 30,000 लीटर पानी इकट्ठा किया जाता है। सभी टंकियों को सफेद रंग से रंगा गया है ताकि ताप से बचाव हो सके। एक बिन्दू से पानी पिरामिड में डाला जाता है।

पिरामिड


पिरामिड पॉलीथिलीन का बना होता है। गुम्बद का शीर्ष भाग सफेद रंग का होता है, जो गर्मी को बाहर नहीं जाने देता, जबकि नीचे का हिस्सा काले रंग का होता है, जो गर्मी को सोख लेता है। इस पदार्थ की प्रकृति सूर्य के प्रकाश को सोख लेने की है (मूलतः यह ताप का सुचालक है) और यह पदार्थ असंक्षारक और पर्यावरण के अनुकूल है।

पिरामिड को 24 वोल्ट की चार्जेबल बैटरी से चलने वाले एक साधारण पम्प से हवा भरकर आधे घण्टे में खड़ा किया जा सकता है। पिरामिड के बाहरी भाग को सहारे के लिए जमीन में गड़े सीमेण्ट के खम्भों से प्लास्टिक की रस्सियों से बाँध दिया जाता है। ऐसा एहतियात के तौर पर किया जाता है ताकि तेज आन्धी और भारी बारिश, जैसी प्राकृतिक आपदाओं से इस पर कोई प्रभाव न पड़े। उसके अन्दर निचले भाग (तल) में थर्मोकोल की चादरें बिछी हुई होती हैं, जिनको प्लास्टिक की चादरों से ढक दिया जाता है ताकि ताप उसमें से प्रवेश न कर सके। प्रारम्भ में, पिरामिड खड़ा करते समय, उसमें करीब 30 हजार लीटर पानी भरा जाता है और यह पानी गुम्बद के नीचे के हिस्से में बना रहेगा।

पिरामिड के फर्श पर भरा कच्चा पानी (आरओ संयन्त्र से निकला बेकार पानी) सौर ऊर्जा से भाप बन कर उड़ जाता है। पिरामिड के भीतर का तापमान जाड़ों में 55 डिग्री सेल्सियस तक रहता है जबकि गर्मियों में यह बढ़कर 70 डिग्री सेल्सियस तक ऊँचा जा सकता है। चक्राकार रूप में एक नाली पिरामिड के आन्तरिक भाग के साथ बनाई जाती है। जब भाप भरा पानी पिरामिड के आन्तरिक हिस्से की ओर द्रवित होकर आता है, वह नाली में रिसने लगता है और एक संग्रह चैम्बर में एकत्र हो जाता है। इस तरह शून्य टीडीएस वाले आसवित जल की प्राप्ति होती है। औसतन प्रति 3,000 लीटर कच्चे पानी से 1,000 लीटर आसवित जल प्राप्त होता है। पाँच हजार लीटर की क्षमता की दो टंकियाँ आसवित जल को भरने के लिए बनाई गई हैं। शेष पानी अगले चैम्बर में चला जाता है।

वाष्पीकरण तालाब


पिरामिड से बचा हुआ पानी इस तालाब में आकर इकट्ठा हो जाता है। प्रतिदिन करीब 2,000 लीटर पानी इसमें जमा हो जाता है, जो वाष्प बनकर नमक बनाने का काम करता है। इस तालाब के निचले हिस्से में काला ऊनी कपड़ा बिछा हुआ होता है, जो कि एक प्लास्टिक चादर से ढंका होता है ताकि अधिकतम ऊष्मा को सोख सके और वाष्पीकरण की प्राकृतिक प्रक्रिया में तेजी आ सके।

वर्षा जल तालाब


शिर्वा के जल पिरामिड का आधार 650 एम2 है और उसकी ऊँचाई 9 मीटर है। फलस्वरूप, वर्षा ऋतु में जल संचयन के लिए इसमें पर्याप्त स्थान उपलब्ध होता है। इस पानी को भी पिरामिड के बाहर बनी नालियों के जरिये टंकी में एकत्रित किया जा सकता है। शिर्वा में, 3 लाख लीटर क्षमता वाले तालाब में वर्षा जल संचय किया जाएगा। तालाब में प्लास्टिक चादरों की दो सतहों के बीच अति नियन्त्रित स्थितियों में वर्षा जल का संचयन होता है। इससे वर्षा जल को पर्यावरणीय और आसपास के अन्य प्रदूषण से बचाने में मदद मिलती है।

भावी रणनीतियाँ


1. स्थानीय बाजार में आसवित जल के विक्रय का उचित माध्यम स्थापित करना (यह पानी औषधीय कार्यों, बैटरियों में और अति नियन्त्रित वातावरण में इंजेक्शन लगाने के काम आ सकता है)।
2. आरओ पानी की दरों में कमी लाकर, स्थानीय बाजारों में विक्रय की व्यवस्था कर, सरकारी कार्यालयों, गैर-सरकारी संगठनों और बाजार के अन्य क्षेत्रों से सम्पर्क कर आरओ संयन्त्र की क्षमता का अधिकतम उपयोग।
3. पिरामिड के सह-उत्पादों के समुचित उपयोग के लिए ग्रामीण समुदाय में जागरुकता फैलाना।
4. जल पिरामिड प्रणाली की समूची कार्यवाही, संचालन और सन्धारण के लिए उचित नेटवर्क की स्थापना।

जल पिरामिड अभिनव ढंग से तैयार की गई पर्यावरण हितैषी संरचना है जिसमें सूर्य की ऊर्जा का उपयोग गन्दे (मटमैले) और प्रदूषित पानी के वाष्पीकरण और फिर उसके द्रवीकरण से उच्च गुणवत्ता का पेयजल प्राप्त करने के लिए किया जाता है। वर्तमान में इसे उपयुक्त प्रौद्योगिकी कहा जा सकता है। यह एक ऐसी तकनीक है जिसमें ऊर्जा की खपत काफी कम होती है (इसमें केवल सौर ऊर्जा का इस्तेमाल होता है), वायु प्रदूषण कम से कम होता है, और खारे पानी का न्यूनतम उत्पादन होने से मृदा-प्रदूषण भी कम से कम होता है। तकनीक लगाने में भी काफी सरल है और क्षमता/कौशल विकास के बाद स्थानीय श्रमिक भी इसे चला सकते हैं। यह एक मार्गदर्शी परियोजना है और कुछ समय बाद इसके परिणामों का पूर्ण आकलन किया जा सकता है।

(लेखक गुजरात सरकार के जलापूर्ति विभाग के सचिव हैं)

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