किसी नदी के बारे में कहने जैसा कुछ न मिले तो भी क्या? उसमें स्नान करने का आनंद कम थोड़ ही होने वाला है! नदी का महत्त्व स्वतः सिद्ध है। उसके नाम के साथ कोई इतिहास जुड़ा हुआ हो तो धन्य है वह इतिहास। नदी को उससे क्या? इतिहास की दिलचस्पी विग्रह के साथ अधिक होती है-जब कि नदी का काम संधि का, मेल-जोल का होता है। किसानों और पथिकों को, पशुओं को और पक्षियों को अपने जल से संतुष्ट करती हुई नदी जब बहती है, तब वह ‘आत्मरति, आत्मकीड़ और आत्मन्येव च संतुष्ट’ जैसी मालूम होती है। आप नदी से पूछिये, ‘तेरा इतिहास क्या है?’ वह जवाब देगी, ‘मैं पहाड़ की लड़की हूं। असंख्य मानव तथा तिर्यक प्रजा की माता हूं। मैं सागर की सेवा करती हूं, और आकाश के बादल ही मेरे स्वर्ग स्थान हैं। बस इतना इतिहास मेरी दृष्टि से महत्त्व का है।’ ज्यादा पूछो तो तावी कहेगी कि आसपास के प्रदेश को पिलाने के बाद मेरा जो पानी बचता है वह मैं चिनाब को देती हूं। चिनाब अपना पानी झेलम में विसर्जन करती है। झेलम सिंधु से मिलती है। और सिंधु से हम सबका पानी सागर में छोड़कर अपने को और हम सबको कृतार्थ करती है। वहीं है हमारी सायुज्य मुक्ति। बाकी पागलों का इतिहास तुम जानों। दुश्मनी और पागलपन का इतिहास भला कभी लिखा जाता है? वह तो भूल जाने की बात है, भूल जाने की। क्या तुम दुश्मनी और जहर को कायम रखने के लिए इतिहास लिखते हो? ऐसे इतिहास को दफना दो या धो डालो। सेवा का इतिहास ही सच्चा इतिहास है। द्विगर्तवासी डोगरा, गद्दी और गुज्जर जैसी प्रजा मेरी संतान है। उनका जीवन ही मेरा जीवन है।’
कश्मीर की यात्रा पूरी करके हम जम्मू आये और रघुनाथ जी के मंदिर में ठहरे। पास में ही तवी बह रही थी। जम्मू की ओर का तवी का किनारा खासा ऊंचा है। तवी भी वैसी ही है जैसी बहुत सी नदियां होती हैं। उसमें असाधारण कुछ नहीं है। एक महाराष्ट्रीय इंजीनियर से हम मिलने गये थे। उन्होंने बताया कि ‘तवी के ऊपर बिजली के यंत्र लगाये गये हैं। इस बिजली से बहुत सा काम किया जा सकता है।’ किन्तु तवी को उससे क्या? वह तो निरंतर बहती ही रहती है।
1926-27
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