अध्ययनकर्ताओं ने पाया कि जिन 32 देशों में बड़े पैमाने पर जमीनें इस तरह से उद्योगों और कंपनियों को दी गयी हैं वे काफी पिछड़े हुए या खराब स्थितियों में हैं। इन देशों में अधिकांश आबादी खेती पर निर्भर है फिर भी लोगों के पास मुश्किल से ही अपनी जमीनों पर मालिकाना हक है। सात देशों-कम्बोडिया, इथोपिया, इंडोनेशिया, लाओ पीडीआर, लाइबेरिया, फिलीपींस, और सिएरा लिओन में कुल खेती के रकबे का 10 प्रतिशत हिस्सा अंतरराष्ट्रीय सौदों में फंसा हुआ है। इन सभी देशों में भुखमरी उच्च स्तर पर है। जिन देशों में लोगों के पास पर्याप्त भू-अधिकारों, पानी एवं ऊर्जा की उपलब्धता नहीं है, वे ग्लोबल हंगर इंडेक्स में फिसड्डी देशों में से हैं। इस वर्ष के ग्लोबल हंगर इंडेक्स अध्ययन की सह-लेखक क्लाडिया रिंगलर ने बताया कि इन संसाधनों और खाद्य असुरक्षा के बीच एक स्पष्ट सह-संबंध है। यह अध्ययन इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट और एनजियोज कंसर्न वर्ल्डवाइड ने संयुक्त रूप से किया था। ग्लोबल हंगर इंडेक्स अध्ययन में अलग अलग देशों के लोगों की, खेती योग्य ज़मीन, साफ पानी और सस्ते ऊर्जा संसाधनों तक पहुंच संबंधी आंकड़ों की तुलना की गई है। इसके लिए तीन सूचकांक लिये गये- पोषण, बाल मृत्यु और बच्चों का वज़न। अध्ययन के अनुसार बीस देशों में भुखमरी का स्तर बहुत ही खतरनाक है। इनमें ज्यादातर देश उप सहारा अफ्रीका या साउथ एशिया के देश हैं। इनमें तीन देश- बुरुंडी, इरीट्रिया और हैती के ग्लोबल हंगर इंडेक्स आंकड़े बहुत ही बदतर हैं।
खाद्य सुरक्षा का, पानी, ऊर्जा और ज़मीन संबंधी विकास से गहरा नाता है। कई विशेषज्ञों ने अपने अध्ययनों से यह बताना शुरू कर दिया है। रिंगलर ने बताया “हम ऐसी कोई बात नहीं बता रहे हैं जो कि लोग पहले से नहीं जानते, बल्कि हम तो इस अध्ययन के माध्यम से लोगों का ध्यान फिर से इस तरफ खींच रहे हैं।”
ज्यादातर देखा गया है कि अंतरराष्ट्रीय कंपनियों को जमीनें दे दी जाती हैं ताकि उन पर बायो ईंधन उत्पादन के मकसद से आयात की जाने वाली फसलें बोई जा सकें। अध्ययन में खाद्य सुरक्षा के मामले में इस तरह जमीनें हथियाए जाने की भूमिका को रेखांकित करता है।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट बताती है कि ऊर्जा साधनों की बढ़ती कीमतों से किसानों की ईंधन और उर्वरक लागतें बढ़ रही हैं, खाद्य फ़सलों की बजाए बायो ईंधन फ़सलों की मांग बढ़ रही है और पानी भी मंहगा होता जा रहा है।
अध्ययनकर्ताओं ने पाया कि जिन 32 देशों में बड़े पैमाने पर जमीनें इस तरह से उद्योगों और कंपनियों को दी गयी हैं वे काफी पिछड़े हुए या खराब स्थितियों में हैं। इन देशों में अधिकांश आबादी खेती पर निर्भर है फिर भी लोगों के पास मुश्किल से ही अपनी जमीनों पर मालिकाना हक है। सात देशों-कम्बोडिया, इथोपिया, इंडोनेशिया, लाओ पीडीआर, लाइबेरिया, फिलीपींस, और सिएरा लिओन में कुल खेती के रकबे का 10 प्रतिशत हिस्सा अंतरराष्ट्रीय सौदों में फंसा हुआ है। इन सभी देशों में भुखमरी उच्च स्तर पर है।
इथोपिया सरकार बड़े पैमाने पर जमीनें देने की अपनी नीतियों की आलोचना को ही खारिज करती आयी है। ये उसके पंचवर्षीय विकास एवं परिवर्तन योजना का हिस्सा हैं। उसका इस बात पर जोर है कि लाखों डालर का विदेशी निवेश होने से रोज़गार पैदा होंगे, घरेलू कृषि विशेषज्ञता बढ़ेगी और इससे देश की गरीबी व गंभीर खाद्य असुरक्षा दोनों में ही कमी आयेगी।
इथोपिया सरकार के कृषि मंत्री के सलाहकार टेकालिन मैमो का कहना है जमीनें देना दोतरफा नज़रिये का हिस्सा थी। उन खेतिहरों के लिये खाली पड़ी कृषि योग्य जमीनें पेश करना जो बसना चाहते थे और चूंकि देश में काफी ज़मीन उपलब्ध है तो हम उन्हें भी जमीनें देते हैं जो इसमें निवेश करना चाहते हैं । इस तरह जमीनों से जो राशि प्राप्त होती है वो सीधे संबंधित क्षेत्रीय सरकारों को उनके खाद्य सुरक्षा कार्यक्रमों में खर्च करने के लिए भेज दी जाती है। टेकालिन ने यह भी कहा कि जिन कंपनियों ने जमीनें लेने के बाद उनमें पर्याप्त निवेश नहीं किया उनके खिलाफ कदम उठाये जा रहे हैं। अब इन मामलों को सख़्ती से देखा जा रहा है।
सिएरा लिओन और तंज़ानिया में किए गये खास अध्ययनों की रिपोर्ट बताती हैं कि किस तरह ज़मीन के ये सौदे खाद्य सुरक्षा को नुकसान पहुँचाते हैं। खासतौर पर छोटे किसानों की तो हालत ही खराब हुई है।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट बताती है कि सिएरा लिओन में उपलब्ध कृषि योग्य ज़मीन का कोई 20 प्रतिशत हिस्सा विदेशी उद्यमियों ने हथिया रखा है। निवेशकर्ता वहां ताड़, गन्ना एवं चावल जैसी खाद्य फसलें उगाते हैं और ज्यादातर को निर्यात करते हैं। अध्ययन में एक ऐसा मामला प्रकाश में आया जिसमें सिएरा लिओन के दक्षिणी प्रान्त में 24 गांवों में फैली ज़मीन, सॉकफिन एग्रीकल्चरल कम्पनी लिमिटेड को निर्यात के लिए तेल और रबर उगाने दे दी गई।
स्थानीय किसानों के विरोध के बावजूद, यह सौदा 50 सालों तक कायम रहा। किसानों को प्रति एक एकड़ नुकसान के लिए एकबार 220 डालर का भुगतान किया गया। उन्हें शिक्षा और रोज़गार का भी भरोसा दिलाया गया था।
लेकिन असलियत यह रही कि बहुत ही थोड़े से लोगों को काम पर लिया गया और उन्हें स्थानीय लोगों की जरुरत भी नहीं। जिन्हें काम पर लिया भी गया उन्हें दिहाड़ी हिसाब से मजदूरी दी गयी। तिस पर खाद्य कीमतें भी मई 2011 से मई 2012 के बीच 27 प्रतिशत तक बढ़ गईं, जो कि स्थानीय आबादी के एक बड़े हिस्से की हैसियत से बाहर थीं।
अध्ययनकर्ता संस्था ने तंज़ानिया के दक्षिणी इलाके के इरिंगा जिले का एक अनुभव रेखांकित किया है। तंज़ानिया में सिर्फ 10 प्रतिशत लोगों के पास उनकी जमीनों का आधिकारिक तौर पर मालिकाना हक है। यहां 12 गाँवों में काम करते हुए कंसर्न संस्था ने कोई 6000 लोगों को उनकी जमीनों का हक दिलानें में मदद की। इससे उन्हें ऋण लेने की सुविधा मिली और अकाल संभावित क्षेत्र में संसाधनों संबंधी विवाद भी कम हुए।
अध्ययन बताता है कि इन दोनों ही देशों में छोटे भूधारकों को मजबूत बनाने संबंधी कानून मौजूद थे लेकिन इन नीतियों के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और स्थानीय नेतृत्व जरुरी है। रिंगलर ने कहा कि इन देशों में खाद्य सुरक्षा में निवेश करने एवं प्राकृतिक संसाधनों का जिम्मेदारीपूर्वक दोहन करने के लिए भी राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरुरत है।
रिंगलर अपनी बातों में यह भी जोड़ती हैं कि जल विशेषज्ञ, ऊर्जा विशेषज्ञ से, शोधकर्ताओं से लेकर ज़मीनी कार्यकर्ताओं तक, किसान से लेकर नीति निर्माताओं तक विकास के सभी साझेदारों को आपस में एक दूसरे से संवाद करना चाहिए।
खाद्य सुरक्षा का, पानी, ऊर्जा और ज़मीन संबंधी विकास से गहरा नाता है। कई विशेषज्ञों ने अपने अध्ययनों से यह बताना शुरू कर दिया है। रिंगलर ने बताया “हम ऐसी कोई बात नहीं बता रहे हैं जो कि लोग पहले से नहीं जानते, बल्कि हम तो इस अध्ययन के माध्यम से लोगों का ध्यान फिर से इस तरफ खींच रहे हैं।”
ज्यादातर देखा गया है कि अंतरराष्ट्रीय कंपनियों को जमीनें दे दी जाती हैं ताकि उन पर बायो ईंधन उत्पादन के मकसद से आयात की जाने वाली फसलें बोई जा सकें। अध्ययन में खाद्य सुरक्षा के मामले में इस तरह जमीनें हथियाए जाने की भूमिका को रेखांकित करता है।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट बताती है कि ऊर्जा साधनों की बढ़ती कीमतों से किसानों की ईंधन और उर्वरक लागतें बढ़ रही हैं, खाद्य फ़सलों की बजाए बायो ईंधन फ़सलों की मांग बढ़ रही है और पानी भी मंहगा होता जा रहा है।
अध्ययनकर्ताओं ने पाया कि जिन 32 देशों में बड़े पैमाने पर जमीनें इस तरह से उद्योगों और कंपनियों को दी गयी हैं वे काफी पिछड़े हुए या खराब स्थितियों में हैं। इन देशों में अधिकांश आबादी खेती पर निर्भर है फिर भी लोगों के पास मुश्किल से ही अपनी जमीनों पर मालिकाना हक है। सात देशों-कम्बोडिया, इथोपिया, इंडोनेशिया, लाओ पीडीआर, लाइबेरिया, फिलीपींस, और सिएरा लिओन में कुल खेती के रकबे का 10 प्रतिशत हिस्सा अंतरराष्ट्रीय सौदों में फंसा हुआ है। इन सभी देशों में भुखमरी उच्च स्तर पर है।
इथोपिया सरकार बड़े पैमाने पर जमीनें देने की अपनी नीतियों की आलोचना को ही खारिज करती आयी है। ये उसके पंचवर्षीय विकास एवं परिवर्तन योजना का हिस्सा हैं। उसका इस बात पर जोर है कि लाखों डालर का विदेशी निवेश होने से रोज़गार पैदा होंगे, घरेलू कृषि विशेषज्ञता बढ़ेगी और इससे देश की गरीबी व गंभीर खाद्य असुरक्षा दोनों में ही कमी आयेगी।
इथोपिया सरकार के कृषि मंत्री के सलाहकार टेकालिन मैमो का कहना है जमीनें देना दोतरफा नज़रिये का हिस्सा थी। उन खेतिहरों के लिये खाली पड़ी कृषि योग्य जमीनें पेश करना जो बसना चाहते थे और चूंकि देश में काफी ज़मीन उपलब्ध है तो हम उन्हें भी जमीनें देते हैं जो इसमें निवेश करना चाहते हैं । इस तरह जमीनों से जो राशि प्राप्त होती है वो सीधे संबंधित क्षेत्रीय सरकारों को उनके खाद्य सुरक्षा कार्यक्रमों में खर्च करने के लिए भेज दी जाती है। टेकालिन ने यह भी कहा कि जिन कंपनियों ने जमीनें लेने के बाद उनमें पर्याप्त निवेश नहीं किया उनके खिलाफ कदम उठाये जा रहे हैं। अब इन मामलों को सख़्ती से देखा जा रहा है।
सिएरा लिओन और तंज़ानिया में किए गये खास अध्ययनों की रिपोर्ट बताती हैं कि किस तरह ज़मीन के ये सौदे खाद्य सुरक्षा को नुकसान पहुँचाते हैं। खासतौर पर छोटे किसानों की तो हालत ही खराब हुई है।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट बताती है कि सिएरा लिओन में उपलब्ध कृषि योग्य ज़मीन का कोई 20 प्रतिशत हिस्सा विदेशी उद्यमियों ने हथिया रखा है। निवेशकर्ता वहां ताड़, गन्ना एवं चावल जैसी खाद्य फसलें उगाते हैं और ज्यादातर को निर्यात करते हैं। अध्ययन में एक ऐसा मामला प्रकाश में आया जिसमें सिएरा लिओन के दक्षिणी प्रान्त में 24 गांवों में फैली ज़मीन, सॉकफिन एग्रीकल्चरल कम्पनी लिमिटेड को निर्यात के लिए तेल और रबर उगाने दे दी गई।
स्थानीय किसानों के विरोध के बावजूद, यह सौदा 50 सालों तक कायम रहा। किसानों को प्रति एक एकड़ नुकसान के लिए एकबार 220 डालर का भुगतान किया गया। उन्हें शिक्षा और रोज़गार का भी भरोसा दिलाया गया था।
लेकिन असलियत यह रही कि बहुत ही थोड़े से लोगों को काम पर लिया गया और उन्हें स्थानीय लोगों की जरुरत भी नहीं। जिन्हें काम पर लिया भी गया उन्हें दिहाड़ी हिसाब से मजदूरी दी गयी। तिस पर खाद्य कीमतें भी मई 2011 से मई 2012 के बीच 27 प्रतिशत तक बढ़ गईं, जो कि स्थानीय आबादी के एक बड़े हिस्से की हैसियत से बाहर थीं।
अध्ययनकर्ता संस्था ने तंज़ानिया के दक्षिणी इलाके के इरिंगा जिले का एक अनुभव रेखांकित किया है। तंज़ानिया में सिर्फ 10 प्रतिशत लोगों के पास उनकी जमीनों का आधिकारिक तौर पर मालिकाना हक है। यहां 12 गाँवों में काम करते हुए कंसर्न संस्था ने कोई 6000 लोगों को उनकी जमीनों का हक दिलानें में मदद की। इससे उन्हें ऋण लेने की सुविधा मिली और अकाल संभावित क्षेत्र में संसाधनों संबंधी विवाद भी कम हुए।
अध्ययन बताता है कि इन दोनों ही देशों में छोटे भूधारकों को मजबूत बनाने संबंधी कानून मौजूद थे लेकिन इन नीतियों के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और स्थानीय नेतृत्व जरुरी है। रिंगलर ने कहा कि इन देशों में खाद्य सुरक्षा में निवेश करने एवं प्राकृतिक संसाधनों का जिम्मेदारीपूर्वक दोहन करने के लिए भी राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरुरत है।
रिंगलर अपनी बातों में यह भी जोड़ती हैं कि जल विशेषज्ञ, ऊर्जा विशेषज्ञ से, शोधकर्ताओं से लेकर ज़मीनी कार्यकर्ताओं तक, किसान से लेकर नीति निर्माताओं तक विकास के सभी साझेदारों को आपस में एक दूसरे से संवाद करना चाहिए।
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